Translate

Saturday, April 27, 2019

चुनावी कोलाहल में साहित्य का अर्धसत्य


लोकसभा चुनाव के तीन चरण संपन्न हो चुके हैं और चार चरण के चुनाव होना शेष है। चुनावी कोलाहल के बीच साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़े सैकड़ों लोग खुलकर नरेन्द्र मोदी के पक्ष और विपक्ष में सामने आ रहे हैं। अबतक कई तरह की अपील जारी की चुकी हैं। किसी अपील में मोदी का नाम है तो किसी में बगैर मोदी के नाम के अपील जारी की गई है। जब भी कोई अपील जारी की जाती है तो उसके पक्ष और विपक्ष में सोशल मीडिया पर शोर-शराबा शुरू हो जाता है। इसी शोर शराबे के बीच हिंदी की वरिष्ठ और सम्मानित लेखिका मृदुला गर्ग ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी जिसपर विवाद हो रहा है। मृदुला गर्ग ने अपनी टिप्पणी में लिखा- कभी सोचा नहीं था कि एक वक़्त ऐसा भी आएगा जब हिन्दी के लेखक जिनमें साहित्य अकादमी से पुरस्कृत लेखक भी हैं, ताल ठोंक कर सत्तासीन राजनीतिक पार्टी को दुबारा सत्ता में लाने के लिए प्रचारक की भूमिका निभाएंगे। अपनी ही अभिव्यक्ति पर रोक का उत्सव मनाएंगे! किसलिए? क्या प्राप्त करना चाहते हैं? अपनी शर्म और साहित्यिक गरिमा का मटियामेट कर लिया तो कम अज़ कम दूसरों को तो न बरगलायें।दरअसल इस टिप्पणी में मृदुला गर्ग ने नाम नहीं लिया पर स्पष्ट रूप से उनका इशारा हिंदी की ही एक वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुदगल की ओर था। 23 अप्रैल को पोस्ट की गई मृदुला गर्ग की इस टिप्पणी की पृष्ठभूमि यह है कि 20 अप्रैल 2019 को भारतीय साहित्यकार संगठन ने दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस करके मोदी के समर्थन में देश भर के 410 लेखकों की एक अपील जारी की थी। इस अपील में चित्रा मुद्गल का भी नाम था। उसके बाद ही मृदुला गर्ग की टिप्पणी आई।
अब जरा मृदुला गर्ग की टिप्पणी का विश्लेषण करते हैं। मृदुला जी ने कभी सोचा भी नहीं था कि हिंदी के लेखक सत्तासीन राजनीतिक पार्टी को दुबारा सत्ता में लाने के लिए प्रचारक की भूमिका निभाएंगीं। उनकी इस टिप्पणी से ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी के लेखकों ने पहली बार सत्तासीन राजनीतिक दल के पक्ष में कोई बयान जारी किया है। उन्हें शायद स्मरण नहीं रहा हो कि अटल बिहारी वाजपेयी के पक्ष में भी लेखकों ने एक अपील जारी की थी। वो भी तब सत्तासीन ही थे। प्रगतिशील लेखकों ने इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के पक्ष में अपील जारी की थी, तब इंदिरा गांधी भी सत्तासीन ही थीं। राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान भी कई ऐसे मसले मिल जा सकते हैं जहां हिंदी के लेखकों ने सत्तासीन पार्टी के दुबारा सत्ता में लाने के लिए अपील की हो। इस वाक्य में मृदुला जी ने जिस तरह से प्रचारक शब्द का उपयोग किया है वो ये संकेत देने के लिए है कि ये लोग राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े हैं। अपनी उसी टिप्पणी में मृदुला गर्ग ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा कि मोदी के समर्थन में सामने आए लेखक अपनी ही अभिव्यक्ति की रोक का उत्सव मनाएंगे। लेकिन इस टिप्पणी में वो अपनी अभिव्यक्ति की रोक वाली टिप्पणी के समर्थन में कोई तर्क नहीं दे पाईं। 2014 में मोदी के सत्ता संभालने के बाद लेखकों के एक खास वर्ग ने इस बात को जमकर प्रचारित किया कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है। अघोषित आपातकाल जैसे जुमले भी उछाले गए। लेकिन इन बयानों को पुष्ट करनेवाले तथ्य कभी सामने नहीं आए। जब अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा गया था तब तो प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखक इंदिरा गांधी के समर्थन में नारे लगा रहे थे। जब वामपंथी शासन काल के दौरान बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकाला जा रहा था तब भी लेखक बिरादरी खामोश थी। मृदुला गर्ग अपनी टिप्पणी में यह भी जानना चाहती हैं कि मोदी के समर्थन में अपील जारी करनेवाले लेखक क्या प्राप्त करना चाहते हैं?  उनको यह समझना होगा कि हर कदम कुछ प्राप्त करने के उद्देश्य से नहीं उठाए जाते। अगर वो चित्रा मुदगल पर तंज कर रही थीं, या उऩके दिमाग में चित्रा जी को अटल बिहारी वाजपेयी के शासन के दौरान प्रसार भारती का सदस्य बनाए जाने का प्रसंग था तो उनको याद रखना चाहिए कि इंद्र कुमार गुजराल जब देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अपनी पसंद के लेखक राजेन्द्र यादव को प्रसार भारती का सदस्य बनाया था। जैसे जैसे मृदुला जी की टिप्पणी आगे बढ़ती गई वो और तल्ख होती चली गई। उन्होंने इन लेखकों पर साहित्यिक गरिमा को मटियामेट करने का आरोप भी जड़ा और दूसरो को न बरगलाने की नसीहत भी दी। किसी दल के पक्ष में मतदान की अपील जारी करने से साहित्यिक गरिमा कैसे मटियामेट हो गई ये भी बतातीं तो बेहतर रहता। जहां तक बरगलाने की बात है तो यह कहा जा सकता है कि अपनी टिप्पणी में अर्धसत्य पेश करके मृदुला गर्ग ही हिंदी समाज को भ्रमित कर रही हैं। महाभारत के युद्ध में तो अर्धसत्य को अश्वत्थामा को मारने और द्रोणाचार्य को कमजोर करने के लिए अर्धसत्य का सहारा लिया गया था। तब अर्धसत्य को हथियार बनाया था धर्मराज युधिष्ठिर ने। यहां भी मृदुला जी बेहद सम्मानिक हैं, उनसे अर्धसत्य की अपेक्षा नहीं की जाती है बल्कु उऩसे समग्रता की अपेक्षा की जाती है। उनकी टिप्पणी के आखिरी वाक्य में जो गुस्सा और शब्दों का चयन है वो भी अनपेक्षित है। यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि चित्रा मुदगल अचानक से पाला बदलकर किसी पक्ष में खड़ी नहीं हो गई हैं। उनका स्टैंड पूरे हिंदी जगत को पहले से ज्ञात रहा है। इसलिए जो लोग चित्रा जी की अब लानत-मलामत कर रहे हैं उनको अपने स्टैंड पर फिर से विचार करना चाहिए।
मृदुला गर्ग को यह जानना जरूरी है कि इस वक्त जारी चुनाव में देशभर के कई वामपंथी लेखक जिनमें नरेश सक्सेना जैसे वरिष्ठ कवि भी हैं, बेगूसराय में पार्टी विशेष के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। वो ये तर्क दे सकती हैं कि ये लोग सत्ता के खिलाफ संघर्ष में शामिल हैं। अगर वो सत्ता के खिलाफ संघर्ष है तो यहां भी पलटकर उनसे ये सवाल पूछा जा सकता है कि वो क्या प्राप्त करना चाहते हैं। यहां प्राप्ति की अपेक्षा का प्रश्न ज्यादा समीचीन होगा क्योंकि वामपंथी लेखकों का इतिहास रहा है कि वो सत्ता के साथ रहकर सत्ता सुख भोगते रहे हैं। कांग्रेस ने अभी हाल ही में जिस तरह से राजस्थान और मध्यप्रदेश में लेखकों को सरकारी पद देकर उपकृत किया है उससे उनका ये इतिहास और मजबूत होता है। मृदुला गर्ग की टिप्पणी पर जब इतिहास की याद दिलाई गई तो प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े एक लेखक ने इसको मोदी फॉर्मूला करार दिया कि अब को दबाने के लिए तब की बात की जाती है। वो यह भूल गए कि अतीत से पिंड छुड़ाना आसान नहीं होता।
लेखक को हमेशा सत्ता के खिलाफ होना चाहिए ये बात बहुधा सुनाई देती है। लेकिन उनको सत्ता के खिलाफ क्यों होना चाहिए, इस बारे में कहीं कुछ ठोस सुनने को नहीं मिलता है। दरअसल वामपंथियों ने यह बहुत सुंदर तर्क गढ़ा कि लेखक को प्रतिपक्ष की आवाज होना चाहिए। इस तर्क को जनता के बीच ले जाकर पुष्ट भी किया जाता रहा। पार्टी प्रतिबद्धता वाले लेखक जो अपने को वैचरिक प्रतिबद्धता वाले लेखक भी कहते और प्रचारित करते रहे, उनमें से कइयों ने अपने लेखन से भी इस अवधारणा को पुष्ट करने की कोशिश की। लेकिन अगर हम इस सिद्धांत की कसौटी पर वामपंथ से जुड़े लेखकों को कसते हैं तो बिल्कुल ही अलग तस्वीर नजर आती है। वो तस्वीर है प्रतिपक्ष की इस सैद्धांतिकी के मुखौटे की जिसके पीछे होता है स्वार्थसिद्धि का पूरा ताना बाना। इस बात पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए कि लेखक की भूमिका क्या हो, क्या वो संविधान में मिले अपने अधिकारों के हिसाब से काम करे या बरसों से फैलाए जा रहे भ्रम का शिकार होते रहें। जितना अधिकार मृदुला जी को अपनी बात रखने का, मोदी का विरोध करने का, सत्ता का विरोध करने का है उतना ही हक चित्रा जी को अपनी बात रखने का, मोदी का समर्थन करने का है। मोदी के विरोध से मृदुला जी के साहित्य अकादमी पुरस्कार की चमक ना तो बढ़ जाएगी और ना ही मोदी के समर्थन से चित्रा जी के साहित्य अकादमी पुरस्कार में की चमक कम हो जाएगी। दोनों हिंदी की सम्मानित लेखिका बनी रहेंगी क्योंकि अंतत: एक लेखक का मूल्यांकन उसकी कृतियों से होता है। अगर कृतियों से इतर लेखक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाएगी तो बड़ी-बड़ी छवियां इस तरह से धराशायी होंगी जिसका दृष्य सोवियत रूस में लेनिन की गिरती मूर्ति से भी भयावह हो सकता है।     



4 comments:

Mahima Shree said...

इस आलेख का इंतजार था सर। बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में कद्दावर मार्कसवादी विद्वानों और लेखकों ने फेसबुक पर जमकर राजद (तेजस्वी यादव ) पक्ष में फेसबुकिया कंपेन चलाया था । यह सब जानते हैं। और देख भी रहे हैं। तब कुछ भी गलत नहीं था। और आज भी सपा, बसपा , ममता के पक्ष में लिखते हैं तो गलत नहीं है।
बाकि जनता को सब देख ही रही है।

जितेन्द्र 'जीतू' said...

सुंदर।

भूपेन्द भारतीय said...

सटीक व एकदम सही कहा आपने। क्या लेखक के राजनीतिक अधिकार नहीं होते हैं? आखिर जो सही है उसे सही कहना ही पड़ेगा फिर भले ही वो सत्ता पक्ष के लिए या विपक्ष के लिए हो। लेखक समाज के लिए राजनीतिक बाते करे न कि स्वयं के लाभ के लिए।

Ashok Banthia said...

आईना होना ही चाहिए सबके घर मे , न हो तो लगवा दीजियेगा । टैब आवाज की खनक धीमे हो लेगी ।