आज हिंदी में साहित्यक पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर बहुत उत्साहजनक माहौल नहीं
है खासकर फिक्शन और कविता के प्रकाशन को लेकर । प्रकाशन कारोबार से जुड़े लोग कविता
कहानी और आलोचना से दूर साहित्येत्तर विधाओं की किताबों को छापने की जुगत में लगे हुए
हैं । व्यक्तित्व विकास से लेकर सफलता की घुट्टी पिलाने वाली किताबों की हिंदी मां
बाढ़ आई हुई है । आज की युवा पीढ़ी के पाठक इन किताबों को बेहद सहजता से खरीद रहे हैं
। अगर हम इसकी वजहों पर गौर करें और प्रकाशकों से बात करें तो उनका दावा है कि साहित्य
बिकता नहीं है, नई पीढ़ी कविता और कहानी को लेकर उत्सुक नहीं है । उनका दावा है कि
साहित्यक कृतियों के तीन से लेकर पांच सौ तक के संस्करण को बिकने में सालों लग जाते
हैं । उधर लेखकों का आदिकाल से आरोप है कि हिंदी के ज्यादातर प्रकाशक घपला करते हैं
और वो बिक्री के सही आंकड़े नहीं देते हैं । कई लेखकों का तो दावा है कि सालों से उनको
किताबों की बिक्री का लेखा-जोखा भी नहीं भेजा गया है ताकि पता लग सके कि कितनी किताबें
बिकी हैं । लेकिन वैश्वीकरण और उदारीकरण की राह पर चलने के बाद से हिंदी का बाजार इतना
ज्यादा व्यापक हुआ है कि उसने विदेशी प्रकाशकों को हिंदी के बाजार में उतरने को मजबूर
कर दिया। आज पेंग्विन बुक्स से लेकर हार्पर कॉलिंस तक हिंदी में साहित्यक किताबें छाप
रहे हैं । यह अलहदा मुद्दा है कि जो विदेशी प्रकाशक हिंदी की साहित्यक किताबें छाप
रहे हैं वो कितने स्तरीय हैं । उनके चयन पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं । लेकिन इतना
तो तय है कि इन विदेशी प्रकाशकों को हिंदी के बाजार में मुनाफे की अपार संभावनाएं दिखाई
दी, उसके बाद ही वो इस बाजार में उतरे । उधर हिंदी में एक और प्रकाशकों का वर्ग है जो सस्ती किताबें छापता और बेचता है । उत्तर
प्रदेश के शहर मेरठ से निकलनेवाले तमाम उपन्यास मरे गिरे हालत में भी जमकर मुनाफा कमा
रहे हैं । लेकिन हिंदी साहित्य के कर्ता-धर्ता उसको लुगदी साहित्य कहकर खारिज करते
रहे हैं, अब भी कर रहे हैं । अब इसी लुगदी साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद शुरू हो चुका
है । बहुत संभव है कि हिंदीवालों ने जिसे लुगदी साहित्य कहकर खारिज कर दिया है वो अंग्रेजी
में हिट हो जाए । पाठकों के बीच उसकी स्वकार्यता की प्रतीक्षा है ।
मैं पहले भी कई बार इस बात की ओर इशारा कर चुका हूं कि हिंदी के प्रकाशकों, एक
दो लोगों को छोड़कर, विदेशी साहित्य छापने की इच्छाशक्ति का आभाव दिखता है । उन्हें
लगता है कि वो इस पचड़े में क्यों पड़ें । क्यों कर कॉपीराइट और रॉयल्टी के मामले में
उलझें । उनका तर्क है कि विदेशी लेखकों के लिटरेरी एजेंट हिंदी पाठकों की संख्या के
आधार पर एकमुश्त रॉयल्टी मांगते हैं जो उनकी पहुंच से कहीं ज्यादा है । उनका तर्क यह
भी होता है कि ज्यादा पैसे देकर विदेशी किताबों के अधिकार खरीदना कारोबारी तौर पर घाटे
का सौदा होता है । लेकिन बहुत संभव है कि हिंदी
के प्रकाशकों को अब अपनी रणनीति और प्रकाशन नीति में बदलाव करना पड़े । अंग्रेजी के
एक बड़े प्रकाशन गृह ने यूरोप और अमेरिका के अलावा भारत समेत कई एशियाई देशों में मिल्स
एंड बून सीरीज की किताबें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में छापकर बेचने का फैसला किया
है । मिल्स और बून सीरीज के प्रकाशक ने हिंदी में इस सीरीज की दो किताबें- ‘रास्ते
प्यार के’ और ‘पुनर्मिलन’ छाप कर पाठकों के सामने पेश करने का
फैसला लिया है । मिल्स और बून के प्रकाशक का मानना है कि भारत की क्षेत्रीय
भाषाओं में किताबों की मांग बढ़ रही है । उनके तर्क का आधार भारत की साक्षरता दर में
बढ़ोतरी और गैर शहरी इलाकों के पाठकों की क्रयशक्ति में बढ़ोतरी है । उनका यह भी मानना
है कि साक्षरता दर में बढ़ोतरी के बाद लोग अपनी भाषा का साहित्य तो पढ़ना चाहते ही
हैं, उनकी रुचि अन्य भाषा के साहित्य में भी बढ़ी है। इसी रुचि को ध्यान में रखकर दो
किताबें छापने का फैसला हुआ है । मिल्स और बून सीरीज संभवत विश्व का सबसे लंबा चलने वाला रोमांटिक सीरीज है जिसको पूरे विश्व के लगभग पंद्रह सौ लेखक लिखते रहे हैं और विश्व की इक्तीस भाषाओं में इसका प्रकाशन होता है । एक अनुमान के मुताबिक मिल्स और बून सीरीज की करीब तेरह करोड़ किताबें वैश्विक बाजार में हर साल बिकती हैं । मिल्स और बून सीरीज का तकरीबन सौ सालों का इतिहास रहा है । ब्रिटेन में 1908 में गेराल्ड मिल्स और चार्ल्स बून ने एक प्रकाशन गृह की शुरुआत की थी । कई सालों बाद दोनों ने हल्के फुल्के रोमांटिक उपन्यासों की शुरुआत की । इन उपन्यासों की सफलता का श्रेय बहुत हद तक इसकी कहानी, लिखने की शैली और कम मूल्य पर उपलब्धता थी । प्रकाशन गृह ने इसकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कम मूल्य के सिद्धांत और ग्राहकों तक पहुंचने की एक योजना बनाई । इसके तहत अगर किसी महीने में इस सीरीज की आठ किताबें छपती थी तो छह को खुदरा बाजार में बिक्री के लिए जारी किया जाता था और आठ वो अपने उन ग्राहकों को बेचते थे जो सीधे कंपनी से किताबें खरीदते थे । नतीजा यह हुआ कि ज्यादा पाठक सीधे प्रकाशन संस्थान से उपन्यासों का पूरा सेट खरीदने लगे । इसके अलावा प्रकाशन गृह ने ने पाठकों के बीच उत्सुकता पैदा करने के लिए एक और तकनीक का सहारा लिया । कोई भी नई सीरीज एक तय वक्त के लिए बाजार में उपलब्ध हुआ करती थी । मसलन जैसे कोई भी नई सीरीज आती थी तो वो नब्बे दिनों तक ही बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होती थी । उसके बाद कंपनी खुद से अनबिकी प्रतियां बाजार से वापस मंगा लेती थी और उसे रद्दी बना देती थी । इस मार्केंटिंग तकनीक के सहारे कंपनी ने बाजार में इसको लेकर एक जबरदस्त मांग पैदाकर सफलता पाई । साठ और सत्तर के दशक में तो आलम यह था कि इस सीरीज की किताबों की जबरदस्त अग्रिम बुकिंग हुआ करती थी । एक जमाने में तो मिल्स और बून सीरीज के चालीस लाख नियमित वार्षिक ग्राहक तो सिर्फ ग्रेट ब्रिटेन में हुआ करते थे ।
अब मिल्स और बून की ये रोमांटिक उपन्यास हिंदी में मिला करेंगे, प्रकाशन जगत के जानकारों का मानना है कि प्रकाशक ने इन उपन्यासों की कीमत पचहत्तर रुपए रखी है । हिंदी के पाठकों को रोमांस की ये दुनिया लुभा सकती है । पहले भी लुभाती रही है । धर्मवीर भारती का उपन्यास- गुनाहों का देवता और मनोहर श्याम जोशी के –कसप की नजीर हमारे सामने है । गुनाहों का देवता तो अब भी किशोर और युवा होते पाठकों को अपनी ओर खींचता है । मिल्स और बून पर हल्का-फुल्का पोर्न छापने का भी आरोप लगता रहा है । रोमांस और सॉफ्ट पोर्न का कॉकटेल भारतीय युवा और किशोर पाठकों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता है । अगर अमेरिका और यूरोप के पाठकों की तरह भारत के पाठकों ने भी मिल्स और बून के उपन्यासों को हाथों हाथ लिया तो ये प्रकाशन जगत में एक क्रांति की तरह होगी । इसके अलावा अमेरिका और यूरोप में धूम मचाने वाला ई एल जेम्स का उपन्यास फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे और उस उपन्यास त्रयी के दो अन्य उपन्यासों का भी हिंदी में प्रकाशन हुआ है । इस उपन्यास की कीमत भी सिर्फ एक सौ पचहत्तर रुपए रखी गई है । यूरोप और अमेरिका में फिफ्टी शेड्स ने अपनी सफलता का परचम लहराया हुआ है और अबतक उस उपन्यास की अस्सी लाख प्रतियां बिक चुकी हैं । तकरीबन इकतालीस हफ्तों तक यह उपन्यास बेस्ट सेलर की सूची में शीर्ष पर रहा है । इस उपन्यास पर भी ममी पॉर्न होने का आरोप लगा । विवाद भी हुआ । लेकिन विवादों ने इसकी बिक्री को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया । अब यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि हिंदी में मिल्स और बून कितना सफल हो पाता है । इसके अलावा ई एल जेम्स और फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे की बिक्री पर भी प्रकाशन जगत की नजर होगी । अगर यह दोनों प्रयोग हिंदी में सफल हो जाते हैं तो हिंदी के प्रकाशकों के लिए खतरे की घंटी होगी क्योंकि सरकारी खरीद के भरोसे लंबा नहीं चला जा सकता है । इन दोनों किताबों का रेस्पांस दो तीन महीने में सबके सामने होगा । इन दोनों उपन्यासों की सफलता हिंदी साहित्य के लेखकों के लिए भी एक चुनौती हो सकती है।उन्हें भी लिखने की अपनी शैली और विषय के चुनाव में आमूल चूल बदलाव करना पड़ सकता है । यथार्थ के नाम पर विचारधारा परोसने के लेखन से दूर जाकर कुछ ऐसा लिखना होगा जो भारत के युवा पाठकों को अपनी ओर खींच सके । अगर ऐसा नहीं होगा तो प्रकाशकों की जो बेरुखी हिंदी साहित्य को लेकर बढ़ रही है उसे और बल मिलेगा जो साहित्य और साहित्यकार दोनों के लिए शुभ नहीं होगा ।
3 comments:
एस सी बेदी सीरीज़ की राजन-इकबाल वाले उपन्यास युवा/किशोर वर्ग को काफी भाता था..वैसा लेखन भी अब नहीं दिखता है
हिंदी पुस्तकों की अनदेखी अभिव्यक्ति क्षमता के लिए बहुत घातक होगा ।इसका मुख्य कारण रचनाकारों का दंभ ओर जटिल अभिव्यक्ति हैं जो आम व्यक्ति की अभिव्यक्ति से काफी ऊँचे धरातल पर हैं जहां सामान्य केवल बेअर्थ ताकता है ।
Aaj kal parkashan thik tarha se baat nahi karta
Post a Comment