खुशवंत सिंह ने अपने स्तंभ में किसी
को उद्धृत किया था – दिल्ली के कनॉट प्लेस के बाहरी सर्किल
का नाम इंदिरा गांधी और भीतरी सर्किल का नाम राजीव गांधी कर दिया गया था । इसपर तंज
करते हुए उस शख्स ने लिखा था कि बेहतर होता कि कनॉट प्लेस का नाम मां-बेटा चौक कर दिया
जाता । पहली नजर में यह वाक्य व्यंग्य में कही गई लग सकती है लेकिन अगर में गहराई में
विचार करें तो भारत में गांधी नेहरू परिवार के नेताओं को जितनी तवज्जो मिली उतनी अन्य
स्वतंत्रता सेनानियों को नहीं मिल पाने को क्षोभ भी झलकता है । वजह साफ है कि नेहरू
जी के बाद इंदिरा गांधी लंबे समयतक प्रधानमंत्री रहीं उसके बाद भी राजीव गांधी और परोक्ष
रूप से सोनिया गांधी का सत्ता पर कब्जा रहा । जनता पार्टी के दौरान तीन साल में मोरारजी
देसाई सरकार और पार्टी के अंतर्कलह से जूझते रहे । कालांतर में विश्वनाथ प्रताप सिंह
और चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व काल में सरकार किसी तरह बस चल
सकी थी । अटल बिहारी वाजपेयी के तीसरे कार्यकाल में इतिहास के पुर्नलेखन की बात हुई
। गांधी नेहरू परिवार से आगे निकलकर राजनीतिक नेतृत्व ने अन्य राष्ट्रवादी नेताओं की
ओर देखना शुरू किया । उनके कामों और संघर्षों को जनता के सामने लाने का काम शुरू हुआ
लेकिन पचास साल की धमक को पांच साल में संतुलित नहीं किया जा सका । दूसरे अटल जी की
सरकार सहयोगियों के सहारे चल रही थी । उसका भी अपना एक अलग दबाव था । अब तीस वर्षों
के बाद पूर्ण बहुमत की सरकार आई है तो यह उम्मीद जगी है कि देश के अन्य नायकों को भी
उनका उचित सम्मान मिलेगा । इसका यह मतलब कतई नहीं है कि नेहरू-गांधी परिवार के योगदान
और देश के त्याग को भुला दिया जाए लेकिन इसका यह मतलब भी कतई नहीं लगाया जाना चाहिए
कि सिर्फ उनके ही योगदान को रेखांकित किया जाता रहे । मोदी सरकार ने इस दिशा में पहल
शुरू की है ।
सरदार पटेल के कामों, विचारों और संघर्षों
के बारे में जनता को बताने का काम शुरू किया गया है । नर्मदा नदी पर सरदार पटेल की
182 मीटर ऊंची प्रतिमा के लिए गुजरात सरकार ने बजट प्रावधान कर दिया है । उनके जन्मदिन
पर रन फॉर यूनिटि करके देश को एकता का संदेश दिया गया । दरअसल हुआ यह कि कांग्रेस के
लंबे शासन काल के दौरान नेहरू गांधी परिवार से बाहर के नेता हाशिए पर रहे । सरदार वल्लभ
भाई पटेल को लंबे समय के बाद भारत रत्न दिया गया । इंदिरा गांधी के शासन के दौरान
1974 में उनके खतों को कई खंडों में छापा गया था लेकिन कालांतर में उसकी सुध लेनेवाला
कोई नहीं रहा । इसी तरह से अगर हम देखें तो कांग्रेस की विचारधारा से इतर राष्ट्रवाद
की अवधारणा पर मजबूती से काम करनेवाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर दीन दयाल उपाध्याय
और नानाजी देशमुख के कामों पर सरकार का ध्यान नहीं गया । ध्यान तो कांग्रेस की सरकार
का भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद पर भी नहीं गया । भारत के इतिहास
में संविधानसभा के अध्यक्ष और भारतीय गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति को उचित स्थान और
सम्मान नहीं मिला। संविधान सभा के अध्यक्ष की प्रतिमा संसद भवन में आजतक नहीं लगी जबकि
संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष की प्रतिमा परिसर के अंदर है । राजेन्द्र
बाबू को हाशिए पर इस वजह से रखा गया कि उन्होंने कभी भी नेहरू का आधिपत्य स्वीकार नहीं
किया ।
केंद्र में आई मोदी की सरकार ने इतिहास
की इन गलतियों से सबक लेते हुए उसे ठीक करने के संकेत देने शुरू किए हैं । श्यामा प्रसाद
मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय के नाम से कई राष्ट्रीय योजनाओं की शुरुआत हुई है । मोदी
सरकार ने भारतीय इतिहास और अनुसंधान परिषद के माध्यम से भी कई अहम कामों की शुरुआत
की है । दक्षिणी राज्यों और पूर्वोत्तर में अपनी उपस्थिति मजबूत करने के इरादे से सरकार
ने वहां के स्थानीय नायकों को महत्व देने का फैसला लिया है । राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ
के सरसंघचालक ने अपने दशहरा भाषण में दक्षिण के महान शासक राजेन्द्र चोल को याद किया
था और अब संघ ने राजेन्द्र चोल और सम्राट हेमू विक्रमादित्य को इतिहास में अहमियत दिलाने
का फैसला किया है । राजेन्द्र चोल और हेमू दोनों ने कई युद्ध लड़े थे और आक्रमणकारियों
को परास्त किया था । इसके अलावा सरकार ने फैसला किया है कि नगा स्वतंत्रता सेनानी रानी
मां, शहीद अशपाकउल्लाह खान, महर्षि अरविदों से लेकर अन्य भारतीय चिंतकों और स्वतंत्रता
सेनानियों के कामों को जनता के बीच पहुंचाया जाएगा । अब बिडंवना यह है कि वामपंथ की ओर झुकाव रखनेवाले
बुद्धिजीवी इनको हिंदुत्व का नायक मानते हुए सरकार पर आरोप लगाना शुरू कर चुके हैं
। दरअसल सबसे पहले यही गलती कांग्रेस ने की । कांग्रेस की अगुवाई में हम आजाद हुए लेकिन
उसने वोटबैंक की राजनीति के चक्कर में राष्ट्रवाद को थाली में परोसकर भाजपा को दे दिया
। देश में आयातित विचारधारा का प्रचार प्रसार करने और विदेशी नेतृत्व में आस्था रखनेवालों
ने देश की बौद्धिक संपदा को फलने फूलने नहीं दिया। गांधी जी ने 6 अक्तूबर 1946 को हरिजन
में एक लेख लिखकर चेताया भी था- ‘हममें विदेशों के दान की बजाय हमारी
धरती जोकुछ पैदा कर सकती हो उसपर ही अपना निर्वाह कर सकने की योग्यता और साहस होना
चाहिए । अन्यथा हम एक स्वतंत्र देश की तरह रहने के हकदार नहीं होंगे । यही बात विदेशी
विचारधाराओं के लिए भी लागू होती है । मैं उन्हें उसी हद तक स्वीकार करूंगा जिस हद
तक मैं उन्हें हजमन कर सकता हूं और उनमें परिस्थितियों के अनुरूप फर्क कर सकता हूं
। लेकिन मैं उनमें बह जाने से इंकार करूंगा ।‘ लेकिन हमने गांधी की चेतावनी को नजरअंदाज
कर दिया और उसी में बहते चले गए । अब वक्त आ गया है पूर्व की गलतियों को सुधारते हुए
देश के महानुभावों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का ।
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