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Saturday, November 8, 2014

संदिग्ध विश्वसनीयता के पुरस्कार

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने साहित्य और संस्कृति के लिए थोक के भाव से पुरस्कारों का एलान किया है । उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा घोषित लगभग सौ नामों की इस सूची को देखकर तो यही लग रहा है कि अब हिंदी में कोई लेखक बच नहीं पाएगा जो पुरस्कृत ना हो । पांच लाख से लेकर चालीस पचास हजार के पुरस्कार से लेखकों को हलांकि कुछ लेखक ऐसे हैं जिनका नाम हर सरकारी पुरस्कारों की फेहरिस्त में शामिल होते हैं । पुरस्कार लेने का यह कौशल कुछ लेखिकाओं में भी देखा जा सकता है । हिंदी की कुछ कनिष्ठ और कुछ वरिष्ठ लेखिका हर तरह के पुरस्कारों की सूची में होती हैं । पांच लाख से लेकर पांच हजार तक के पुरस्कार नियमित रूप से उनकी झोली में टपकते रहते हैं । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हिंदी में सरकारी पुरस्कारों के अलावा छोटे बड़े मिलाकर कुल तीन से चार सौ पुरस्कार तो दिए ही जा रहे होंगे । हर राज्य सरकारों का पुरस्कार फिर वहां की अलग अलग अकादमियों का पुरस्कार और उसके बाद साहित्यक संगठनों का पुरस्कार और फिर सबसे अंत में व्यक्तिगत पुरस्कार । इन सबको मिलाकर अगर देखें तो हिंदी के लेखकों पर पुरस्कारों की बरसात हो रही है । इन पुरस्कारों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वो कृतियों पर ही दिए जाएं । कृति है तो ठीक नहीं है तो भी ठीक । आपके साहित्यक अवदान पर आपको पुरस्कृत कर दिया जाएगा । महीने भर बाद तो साहित्य अकादमी पुरस्कारों का भी एलान हो जाएगा जिसकी भी प्रक्रिया चल रही है और पुस्तकों की आधार सूची से लेकर जूरी के सदस्यों के नाम तय हो चुके हैं । साहित्य अकादमी के मुख्य पुरस्कार के अलावा युवा पुरस्कार के लिए विज्ञापन जारी हो चुका है । केंद्रीय हिंदी संस्थान के पुरस्कारों के आवेदन की तिथि बस अभी अभी गुजरी है । इसके अलावा कई पुरस्कार जो पहले घोषित किए जा चुके हैं उनका अर्पण समारोह चल रहा है और कुछ की तिथियां घोषित हो चुकी हैं । पुरस्कारों के इस मौसम में धवलकेशी साहित्यकारों से लेकर बिल्कुल टटके लेखकों तक को पुरस्कृत किया जा रहा है । इस पुरस्कारी सीजन में देश के अलावा विदेशों से भी पुरस्कारों की बरसात हो रही है । प्रवासी लेखकों की हिंदी में बढ़ती रुचि और महात्वाकांक्षा को देखते हुए यह लग रहा है कि आनेवाले दिनों में यूरोप और कनाडा से कई पुरस्कार हिंदी के लिए शुरू किए जाएंगे । हिंदी में कई अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों की स्थापना के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं । दरअसल विदेशों से हिंदी लेखकों को सम्मानित करने के पीछे अपने को हिंदी साहित्य में स्थापित और मशहूर करने की एक सुचिंतित योजना होती है । यहां भी आप मुझे दो मैं आपको दूंगा की रणनीति पर काम होता है ।बहुतायत में दिए जानेवाले हिंदी साहित्य ये पुरस्कार दरअसल गंभीर चिंतन की मांग करते हैं । विचार तो इसपर भी होना चाहिए कि हिंदी में पुरस्कार एक हाथ दे दूसरे हाथ ले की परंपरा इतनी सशक्त कैसे हो गई है । एक सरकारी संस्थान से जुड़े एक कवि ने गीतकार को पुरस्कृत किया तो गीतकार महोदय ने लगे हाथ कवि महोदय को पुरस्कृत कर दिया । एक जगह कवि महोदय निर्णायक तो एक जगह गीतकार । दोनों हुए पुरस्कृत । पहले तो इस तरह के मामलों में आंखों में थोड़ी शर्म होती थी लेकिन अब तो वह भी खत्म हो गई हैं । दो महीने पहले आपने हमें पुरस्कृत किया और हमने पहली फुरसत में आपको पुरस्कृत कर दिया । दरअसल हिंदी में तो त्योहारों के खत्म होते ही पुरस्कारों का सिलसिला चल निकलता है । पुरस्कारो के अलावा स्थापित लेखकों को उनकी किताबें छपवाने के लिए अनुदान दिए जा रहे हैं । दरअसल हिंदी में इस वक्त पुरस्कारों की साख पर बड़ा सवालिया निशान है । ऐसे ऐसे लेखक पुरस्कृत हो रहे हैं जिनके लेखन से वृहद हिंदी समुदाय अबतक परिचित भी नहीं है । उनको निराला से लेकर प्रेमचंद तक के नाम पर स्थापित पुरस्कार दिए जा रहे हैं और समारोहों में उन्हें उन महाने लेखकों की परंपरा का ही बताया जा रहा है । जिस लेखक को उसके मुहल्ले के लोग नहीं जानते उनको मशहूर लेखक कहा जा रहा है । पुरस्कृत लेखकों की प्रशस्ति में शब्दों का भयानक अवमूल्यन दिखने को मिल रहा है । कोई विचारक हुआ जा रहा है तो कोई चिंतक । इन भारी भरकम विशेषणों के बोझ तले दबे ये हिंदी के पुरस्कार लेखकों के लिए हितकर नहीं हैं । पिछले वर्ष लमही सम्मान के लेकर उठा अनावश्यक विवाद अब भी साहित्य प्रेमियों के जेहन में हैं । अभी अभी हमारा भारत पत्रिका के संपादकीय में युवा लेखक अभिषेक कश्यप ने हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति पर कुछ जरूरी सवाल उठाए हैं । संपादकीय में पुरस्कारों की साख पर लिखते हुए वो कहते हैं- हिंदी में साहित्यक पुरस्कार अपनी विश्वसनीयता इसलिए भी खो चुके हैं कि उनकी चयन प्रक्रिया में रत्ती भर भी पारदर्शिता नहीं है । ज्यादातर पुरस्कार पहले से ही तय होते हैं कि उन्हें कब और किस लेखक या कवि को दिया जाना है । पारदर्शिता के इसी अभाव ने पुरस्कारों के साथ साथ लेनेवाले लेखकों को भी संदिग्ध बना दिया है ।  
दरअसल हिंदी में पुरस्कारों की इस दयनीय स्थिति के लिए खुद हिंदी के लेखक और उनकी पुरस्कार पिपासा जिम्मेदार हैं । कुछ खुदरा पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन करते हैं । हिंदी के हमारे लेखक यह सोच ही नहीं पाते हैं कि पुरस्कार एक सम्मान है नौकरी नहीं कि बैंक ड्राफ्ट के साथ उसके लिए आवेदन किया जाए । यह एक ऐसी स्थिति है जो पुरस्कार का कारोबार करनेवालों के लिए एक सुनहरा अवसर मुहैया करवाती है, लाभ कमाने का । हिंदी में ज्यादातर पुरस्कारों की राशि इक्कीस सौ से लेकर इक्यावन सौ रुपए तक है । कइयों में तो सिर्फ शॉल श्रीफल से भी काम चलाया जा रहा है । हिंदी में कई पुरस्कारों की आड़ में खेल भी होते हैं जो साहित्य जगत के लिए शर्मनाक है । दरअसल हिंदी के नए लेखकों में प्रसिद्ध होने की हड़बड़ाहट और पुराने लेखकों में पुरस्कार लेने की होड़, इस कारोबार को को बढ़ावा देती है । नई पीढ़ी के लेखकों में एक और प्रवृत्ति रेखांकित की जा सकती है वह है - जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी कीमत पर । सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास मुझे चांद चाहिए की नायिका सिलबिल की तरह । इस प्रवृत्ति को भांपते हुए पुरस्कारों के कारोबारी अपनी बिसात बिछाते हैं औपर नए लेखकों को उसमें फांसते हैं । जल्द मशहूर होने की होड़ में युवा लेखक इस जाल में फंस जाते हैं । हिंदी के लेखकों में मशहूर होने की जितनी ललक है उतनी ही साहस की भी कमी है । आज अगर हम देखें तो हिंदी जगत में किसी भी मसले पर अपनी राय रखनेवाला लेखक नजर नहीं आता । स्टैंड लेने और उसपर अंत तक कायम रहने की बात तो दूर । छोटे लाभ लोभ के चक्कर में अपने घोषित स्टैंड से पलटने के कई उदाहरण हैं । ताजा उदाहरण तो महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलति के विवादास्पद इंटरव्यू पर उठा हंगामा था । विभूति नारायण राय और नया ज्ञानोदय के खिलाफ प्रदर्शनकारी एक एक करके छिटकते चले गए । नारे लगाने वाले विरुदावली गाते नजर आए । इससे उनकी साख भी कम होती है । स्टैंड लेने की इस प्रवृत्ति को रेखांकित करना इसलिए जरूरी है कि इससे पता चलता है कि हमारे लेखकों में अस्वीकार का साहस नहीं है । बड़े से बड़ा लेखक छोटे से छोटे पुरस्कार के लिए स्वीकृति दे देते हैं । साहित्यप्रेमा पाठक जब इस स्थिति को देखता है तो उसके मन में लेखक की प्रतिष्ठा को लेकर सवाल खड़े हो जाते हैं । उनको लगता है कि अपनी लेखनी में तमाम तरह के आदर्शों की बात करनेवाला लेखक दरअसल व्यवहार में कितना छोटा है । मुझे लगता है कि पाठकों के मन में लेखकों के प्रति जो एक विश्वास हुआ करता था वो कहीं ना कहीं इस तरह के पुरस्कारों से दरकता है । यह हिंदी के लिए अप्रिय स्थिति है और जितनी जल्दी इससे उबर सकें उतना अच्छा होगा लेखक के लिए भी और साहित्य के लिए भी ।
हिंदी समाज की नजरों से यह सब छप नहीं पाता है । हिंदी में पुरस्कारों के इस कारोबार पर बड़े लेखकों की चुप्पी साहित्य के लिए अच्छा नहीं है । हिंदी के हित में यह अच्छा होगा कि लेखकगण पुरस्कृत होने की जद्दोजहद में वक्त जाया नहीं करके अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का काम करें ।


4 comments:

prathak said...

उन्होंने मारुती विवाद में मुंह बंद और सरकार पंगु रखी थी

prathak said...

उन्होंने मारुती विवाद में मुंह बंद और सरकार पंगु रखी थी

prathak said...

उन्होंने मारुती विवाद में मुंह बंद और सरकार पंगु रखी थी

Sujoy Dutta said...

ऐसा लगता है अब लेखको का भी वोट बैंक बनाया जा रहा है !