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Tuesday, November 25, 2014

सांस्कृतिक आंदोलन का मेला

किसी भी एक दिन में अगर किसी पुस्तक मेले में एक लाख लोग पहुंचते हों तो इससे किताबों के प्रति प्रेम को लेकर एक आश्वस्ति होती है । यह हुआ हाल ही में खत्म पटना पुस्तक मेला में । पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में आयोजित पुस्तक मेला के बीच आए एक रविवार को मेला में पहुंचनेवालों की संख्या एक लाख के पार चली गई । इसके अलावा पुस्तक मेला से जुड़े लोगों का अमुमान है कि दस दिनों में पुस्तक मेला में किताबों की बिक्री का आंकड़ा भी करीब छह करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया । पटना पुस्तक मेला में ज्यादातर किताबें हिंदी की थी लिहाजा इसको एक शुभ संकेत माना जा सकता है । एक तरफ हिंदी में साहित्यक कृतियों की बिक्री कम होने की बात हो रही है और उसपर चिंता जताई जा रही है वहीं साहित्येतर किताबों में पाठकों की बढ़ती रुचि को रेखांकित किया जा रहा है । पटना पुस्तक मेला इस लिहाज से अन्य पुस्तक मेलों से थोड़ा अलग है कि यहां किताबों की दुकान के अलावा सिनेमा, पेंटिंग, नाटक आदि पर भी विमर्श होता है । इस साल तो पटना पुस्तक मेला में संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से देशज नाम का एक सांस्कृतिक आयोजन भी हुआ जिसमें मशहूर पंडवानी लोक नाट्य गायिका तीजन बाई से लेकर मणिपुर और कश्मीर की मंडली ने नाट्य मंडलियों ने अपनी प्रस्तुति दी । कश्मीर की गोसाईं पाथेर जो है वो वहां की भांड पाथेर परंपरा का नाटक है जिसे कश्मीर घाटी के भांड कलाकार लंबे समय से मंचित करते आ रहे हैं । बिहार के दर्शकों के लिए यह एकदम नया अनुभव था। इन नाटकों की प्रस्तुति इतनी भव्य थी कि भाषा भी आड़े नहीं आ रही थी ।

दरअसल अगर हम देखें तो पटना पुस्तक मेला ने बिहार में पाठकों को संस्कारित करने का काम भी किया । बिहार में एक सांस्कृतिक माहौल होने के पीछे पटना पुस्तक मेला का बड़ा हाथ है । पिछले दो साल से पटना पुस्तक मेला को नजदीक से देखने का अवसर मिला है । वहां जाकर लगा कि एक ओर जहां तमाम लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य के मीना बाजार में तब्दील होते जा रहे हैं । जहां साहित्य और साहित्यकारों को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का खेल खेला जा रहा है । जहां प्रायोजकों के हिसाब से सत्र और वक्ता तय किए जाते हैं. वहीं पटना पुस्तक मेला देश की साहित्य और सांस्कृतिक विरासत को बचाने और उसे नए पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम कर रहे हैं । संवाद कार्यक्रमों के जरिए पाठकों को साहित्य की विभिन्न विधाओं की चिंताओं और उसकी नई प्रवृत्तियों से अवगत करवाने का काम किया जा रहा है । भगवानदास मोरवाल के नए उपन्यास नरक मसीहा के विमोचन के मौके पर एक वरिष्ठ आलोचक ने आलोचना में उठाने गिराने की प्रवृत्ति को रेखांकित किया तो इक्कसीवीं सदी की पाठकीयता पर भी जमकर चर्चा हुई । पाठकीयता के संकट के बीच उसको बढ़ाने के उपायों और सोशल मीडिया में हिंदी के साहित्यकारों की कम उपस्थिति पर भी चिंता व्यक्त की गई । प्रकाशन कारोबार मे आ रहे बदलावों पर हार्पर कालिंस की मुख्य संपादक कार्तिका वी के ने विस्तार से पाठकों को बताया । इसके अलावा पुस्तक मेला में पेंटिग को लेकर भी गंभीर चर्चा होती है । पटना के अलावा कोलकाता पुस्तक मेले में भी कउत इसी तरह का सांस्कृतिक विरासत को बचाने का उपक्रम होता है । साहित्य को उपभोग की वस्तु में तब्दील करतेइन लिटरेचर फेस्टिवल्स के बीच पुस्तक मेला अपनी अलग पहचान पर कायम है । 

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