दिल्ली स्थित हिंदी भवन का सभागार । तिथि अट्ठाइस अक्तूबर 2014। वक्त शाम के करीब
साढे सात बजे । मौका हिंदी के मशहूर साहित्यकार राजेन्द्र यादव की पहली पुण्य तिथि
पर स्मरण आयोजन । कार्यक्रम के खत्म होने के बाद तमाम साहित्यप्रेमी बाहर लॉबी में
एक दूसरे से बातें कर रहे थे । वहीं नामवर जी भी खड़े थे और लोगों का अभिवादन स्वीकार
करते हुए आशीर्वाद दे रहे थे । कुछ साहित्यप्रेमी नामवर जी के साथ सेल्फी ले रहे थे
तो कुछ लोग उनको किसी कार्यक्रम आदि में आने का निमंत्रण दे रहे थे । किसी बात पर अचानक
से नामवर जी ने कहा कि इस वक्त उनसे ज्यादा अकेला कौन है । नामवर जी ने पता नहीं किस
रौ में ये बात कही । उनके इस कथन से मेरे जेहन में पूरे हिंदी साहित्य के अस्सी पार
लेखकों का अकेलापन और उसका दंश एक झटके से कौंध गया । नामवर जी ने जब अकेलेपन की बात
की तो साहित्यक पत्रिका पाखी के युवा संपादक की नई किताब हाशिए पर हर्फ का एक लेख स्मरण
हो आया। अपनी इस नई किताब में प्रेम भारद्वाज ने आलोचक के अकेलेपन के बहाने से नामवर
जी के व्यक्तित्व की गांठें खोलने की कोशिश की है । अपने उस लेख में प्रेम भारद्वाज
ने नीत्से को उद्धृत कर कहा है कि आदमी अंतत: अकेला होता है ।
उसी लेख में प्रेम भारद्वाज ने नामवर सिंह के एक भाषण को उद्धृत किया है । आलोचना का
भविष्य विषय पर बोलते हुए उक्त भाषण की शुरुआत नामवर सिंह ने अज्ञेय की कविता से की
थी- एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूं /मैं केवल उस खंभे से इस खंभे तक दौड़ता हूं / कि इस या उस खंभे से रस्सी खोल दूं/ कि तनाव चूके ढीले,
मुझे छुट्टी हो जाए / पर तनाव ढीलता नहीं / और इस खंभे से उस खंभे तक दौड़ता / पर तनाव वैसे ही
बना रहता है / सबकुछ वैसा हीबना रहता है / और मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं / मुझे नहीं । रस्सी
को नहीं / खंभे को नहीं / रोशनी को नहीं
। तनाव को नहीं / देखते हैं नाच । अज्ञेय की इस कविता
के बहाने नामवर जी ने अपने दर्द को तो सामने रखा ही अपनी पूरी पीढ़ी के दंश को संकेतों
में उजागर कर दिया । नामवर सिंह हिंदी के वो हिरामन हैं जिनके आसपास भी इस वक्त कोई
दूसरा दिखाई नहीं देता है । उम्र के इस पड़ाव पर काल से होड़ लेता हिंदी आलोचना का
ये शिखर शख्सियत बिल्कुल अकेला है । अकेलेपन के दंश को झेलते हुए भी अपने आप को साहित्य
की सेवा में होम कर रहा है । नामवर जी दिल्ली में अकेले रहते हैं और उनका सबसे बड़ा
साथी किताबें और पत्र पत्रिकाएं है । नामवर जी ने कभी कहा था कि मामला ‘मरजाद’ का है इसलिए मुंह नहीं खोल सकता । हमें नामवर जी के उस
‘मरजाद’ का सम्मान करना चाहिए । लेकिन हम वृहद हिंदी समाज की
कृतघ्नता पर तो सवाल खड़े कर ही सकते हैं । नामवर जी के नहीं लिखने पर सवाल खड़े वालों
को नामवर जी के योगदान का ना तो अंदाज है और ना ही उनके कामों का ज्ञान । जिस तरह से
लगभग दो दशक से वो अपने भाषणों से नई पीढ़ी को हिंदी में संस्कारित कर रहे हैं वह अद्धितीय
है । नामवर जी आज हिंदी के धरोहर हैं उनको संभाल कर रखने की जिम्मेदारी पूरे हिंदी
जगत की है। दिल्ली में रहते हुए भी अगर आज हिंदी का सबसे बड़ा आदमी अपने अकेलेपन की
बात करता है तो यह गंभीर चिंता का विषय है ।
दरअसल अगर हम हिंदी के साहित्य समाज को देखें तो उसमें वरिष्ठ लेखकों के प्रति
एक उपेक्षा का भाव दिखाई देता है, खासकर महानगर में रहनेवाले साहित्यकार महानगरीय व्यस्तता
के बहाने से वरिष्ठ लेखकों की उपेक्षा कर जाते हैं । यह हमारे समाज के पश्चिमीकरण होने
का एक संकेत है जहां संबंधों की गरमाहट या उष्मा स्वार्थ या डॉलर की गरमाहट से तय होती
है । हिंदी समाज हमेशा से संयुक्त परिवार की तरह रहा है जहां हम अपने बुजुर्गों का
ना केवल सम्मान करते हैं बल्कि उनकी हर जरूरतों का ध्यान भी, मौके बेमौके उनसे सलाह
मशविरा भी लेते रहते हैं । हिंदी साहित्य का जो हमारा महानगरीय समाज है वो अपने वरिष्ठ
और बुजुर्ग लेखकों को अकेलेपन के बियावान में छोड़ देता है । एक बार राजेन्द्र यादव
से मैंने पूछा था कि उन्हें कभी अकेलापन नहीं लगता है । जोरदार ठहाके के बाद उन्होंने
कहा था कि मैं तो हर रोज अकेलेपन से होड़ लेता रहता हूं । उनके ठहाके के पीछे के अकेलेपन
को उस वक्त मैंने महसूस किया था । अकेलेपन से उसी होड़ का नतीजा था कि यादव जी ने अपने
आप को युवाओं से जोड़ लिया था । अकेलेपन की इसी होड़ की वजह से वो काल से होड़ लेने
लगे । उन्होंने युवाओं में अपने आपको इतना रमाना शुरू कर दिया कि वो गाहे बगाहे विवाद
की वजह बनने लगे । अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वो विवादित बने रहकर अकेलेपन को परास्त
करते रहे थे। अकेलेपन से होड़ लेने की जिद में वो काल से होड़ नहीं ले पाए । दरअसल
अगर हम मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो अकेलापन एक बहुत ही जटिल मानसिक स्थिति है
। मनोविज्ञान के मुताबिक अकेलेपन का दंश भीड़ में रहने के बावजूद महसूस किया जा सकता
है । ऐसा भी नहीं है कि जो शख्स सफलता की बुलंदियां हासिल कर लेता है वो अकेलेपन का
शिकार नहीं होता है । शिखर पर पहुंचनेवाला और दुनियाके तमाम सुख सुविधाओं का उपभोग
करनेवाला भी अकेला हो सकता है । इस अकेलेपन में अगर अपने समाज की उपेक्षा भी शामिल
हो जाए तो फिर वह घातक हो सकती है । मनोविज्ञान के अलग अलग शोध में यह नतीजा निकला
है कि एक खास प्रकार के समूह में रहते भी अगर कोई व्यक्ति अकेलापन महसूस करता है तो
इस बात की संभावना रहती है कि उस समूह के अन्य सदस्य भी उसका शिकार हो जाएं । इस तरह
से इसके फैलने की आशंका ज्यादा रहती है ।
यह सिर्फ नामवर सिंह या राजेन्द्र यादव का मसला नहीं है, यह अस्सी पार लेखकों के
पूरे समनूह का मामला है, चाहो वो दिल्ली में रह रहे हैं या देश के अलग अलग शहरों में
। आज अगर हम हिंदी साहित्य जगत को देखें तो सिर्फ दिल्ली में अस्सी पार के बारह चौदह
लोग इस वक्त हैं । यह दिल्ली के हिंदी समाज के लिए गौरव की बात है कि एक साथ इतने वरिष्ठ
लोगों का सानिध्य यहां के साहित्य समाज को हासिल है । केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र,
गोपाल राय, द्रोणवीर कोहली जैसे तमाम लेखक दिल्ली और आसपास रहते हैं लेकिन नई पीढ़ी
में उनको लेकर उत्साह नहीं बल्कि उपेक्षा का भाव दिखाई देता है । इन वरिष्ठ साहित्यकारों
से सीखने की बजाए कुछ नए लेखक इनपर कीचड़ उछालकर अपनी प्रसिद्धि का रास्ता तलाश रहे
हैं। बड़े साहित्यकारों की आलोचना या उनपर साहित्यक हमले कर मशहूर होने की ललक हाल
में थोड़ी कम हुई है । राजेन्द्र यादव की पहली पुण्य तिथि पर हुए आयोजन में तीस पैंतीस
लोगों का जुटना वरिष्ठ लेखकों के प्रति साहित्य समाज की उपेक्षा का सूचक है । उस समारोह
में नामवर सिंह ने इस ओर इशारा भी किया । उन्होंने उपस्थित लोगों को राजेन्द्र यादव
से सच्चा प्यार करनेवाला करार दिया तो कम उपस्थिति पर हैरानी जताई । हमें अपने बुजुर्ग
साहित्यकारों को कदम कदम पर एहसास करवाना होगा कि वो हमारे लिए अहम हैं । हम हिंदी
के नए पाठक तैयार करने में इन बुजुर्ग लेखकों का इस्तेमाल कर सकते हैं जिसकी कोई पहल
दिखाई नहीं देती है । कोई ऐसा आयोजन नहीं होता जहां इन लेखकों के अनुभवों से नई पीढ़ी
को लाभ मिल सके । साहित्य समाज इनका उपयोग नहीं कर पा रहा है । वो अपने घर में रहने
और वहीं से साहित्य को ओढते बिछाते अकेलेपन से संघर्ष करते रहते हैं । अस्सी पार लेखकों
के अलावा दिल्ली में इस वक्त सत्तर और अस्सी के बीच भी दर्जन भर लेखक हैं । उनसे भी
नई पीढ़ी को साहित्य में दीक्षित करवाने का काम किया जा सकता है । इस वय के धवलकेशी
साहित्यकारों में अशोक वाजपेयी और गंगाप्रसाद विमल ने कार्यक्रमों आदि में अपनी भागीदारी
से खुद को प्रासंगिक बनाया हुआ है । लेकिन ये इन दोनों का व्यक्तिगत प्रयास है। आज
अब जरूरत इस बात की है कि हम अपने बुजुर्ग साहित्यकारों को सम्मान देने के अलावा उनका
साथ भी दें । उन्हें हम अपने कार्यों में सहभागी बनाएं और उन्हें अकेलेपन के जबड़े
से बाहर निकालने का श्रम करें । सरकारी संस्था और मृतप्राय लेखक संगठनों से यह अपेक्षा
करना व्यर्थ है । साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएं इस दिशा में निजी संस्थाओं को जोड़कर
सार्थक पहल कर सकती हैं । अगर ऐसा हो पाता है तो हम हिंदी का एक नया समाज गढ़ सकेंगे
।
1 comment:
अगर ऐसा हो पाता है तो हम हिंदी का एक नया समाज गढ़ सकेंगे .....निश्चय ही,बड़ी गम्भीर और सामयिक बात उठाई है आपने ……
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