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Sunday, November 23, 2014

साहित्य से बेरुखी क्यों ?

हिंदी साहित्य और पाठकीयता पर हिंदी में लंबे समय से चर्चा होती रही है । लेखकों और प्रकाशकों के बीच पाठकों की संख्या को लेकर लंबे समय से विवाद होता रहा है । साहित्य सृजन कर रहे लेखकों को लगता है कि उनकी कृतियां हजारों में बिकती हैं और प्रकाशक घपला करते हैं । वो बिक्री के सही आंकड़े नहीं बताते । इसी तरह से प्रकाशकों का मानना है कि साहित्य के पाठक लगातार कम होते जा रहे हैं और साहित्यक कृतियां बिकती नहीं हैं । दोनों के तर्क कुछ विरोधाभास के बावजूद अपनी अपनी जगह सही हो सकते हैं ।  दरअसल साहित्य और पाठकीयता,यह विषय बहुत गंभीर है और उतनी ही गंभीर मंथन की मांग करता है । अगर हम देखें तो आजादी के पहले हिंदी में दस प्रकाशक भी नहीं थे और इस वक्त एक अनुमान के मुताबिक जो तीन सौ से ज्यादा प्रकाशक साहित्यक कृतियों को छाप रहे हैं । प्रकाशन जगत के जानकारों के मुताबिक हर साल हिंदी की करीब दो से ढाई हजार किताबें छपती हैं । अगर पाठक नहीं हैं तो किताबें छपती क्यों है । यह एक बड़ा सवाल है जिससे टकराने के लिए ना तो लेखक तैयार हैं और ना ही प्रकाशक । क्या लेखक और प्रकाशक ने अपना पाठक वर्ग तैयार करने के लिए कोई उपाय किया । क्या लेखकों ने एक खास ढर्रे की रचनाएं लिखने के अलावा किसी अन्य विषय को अपने लेखन में उठाया । अगर इस बिंदु पर विचार करते हैं तो कम से कम हिंदी साहित्य में एक खास किस्म का सन्नाटा नजर आता है । हिंदी के लेखक बदलते जमाने के साथ अपने लेखन को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं । इक्कीसवीं सदी में पाठकीयता पर जब हम बात करते हैं तो हम कह सकते हैं कि हमने इस सदी में पाठक बनाने के लिए प्रयत्न नहीं किया । अगर हम साठ से लेकर अस्सी के दशक को देखें तो उस वक्त पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने हमारे देश में एक पाठक वर्ग तैयार करने में अहम भूमिका निभाई । पीपीएच ने उन दिनों एक खास विचारधारा की किताबों को छाप कर सस्ते में बेचना शुरू किया । हर छोटे से लेकर बड़े शहर तक रूस के लेखकों की किताबें सहज, सस्ता और हिंदी में उपलब्ध होती थी । उसके इस प्रयास से हिंदी में एक विशाल पाठक वर्ग तैयार हुआ । सोवियत रूस के विघटन के बाद जब पीपीएच की शाखाएं बंद होने लगीं तो ना तो हिंदी के लेखकों ने और ना ही हिंदी के प्रकाशकों ने उस खाली जगह को भरने की कोशिश की । प्रतिबद्ध साहित्य पढ़वाने की जिद और तिकड़म ने पाठकों को दूर किया। फॉर्मूला बद्ध रचनाओं ने पाठकों को निराश किया । नई सोच और नए विचार सामने नहीं आ पाए । विचारधारा ने ऐसी गिरोहबंदी कर दी कि नए विचार और नई सोच को सामने आने ही नहीं दिया । जिसने भी आने की कोशिश की वो चाहे कितना भी बड़ा क्यों ना हो उसे सुनियोजित तरीके से हाशिए पर रख दिया गया । किसी को कलावादी कहकर तो किसी को कुछ अन्य विशेषण से नवाज कर । इस प्रवृ्ति शिकार हुए सबसे बड़े लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और रामधारी सिंह दिनकर थे । इन दोनों लेखकों का अब तक उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है । दूसरा नुकसान यह हुआ कि विचारधारा और प्रतिबद्धता के आतंक में ना तो नई भाषा गढ़ी जा सकी और ना ही उस तरह के विषयों को छुआ गया जो समय के साथ बदलती पाठकों की रुचि का ध्यान रख सकती । यहां कुछ लेखकों को विचारधारा के आतंक शब्द पर आपत्ति हो सकती है लेकिन यह तथ्य है कि साहित्य से लेकर विश्वविद्यालयों से लेकर साहित्य की अकादमियों तक में एक खास विचारधारा के पोषकों का आतंक था । जन और लोक की बात करनेवाले इन विचारषोषकों की आस्था ना तो उससे बनी जनतंत्र में है और ना ही लोकतंत्र में । लेखक संघों का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जब भी किसी ने विचारधारा पर सवाल खड़ा करने की कोशिश की उसे संगठन बदर कर दिया गया । ये बातें विषय से इतर लग सकती हैं । मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इससे पाठकीयता का क्या लेना देना है । संभव है कि इस प्रसंग का पाठकीयता से प्रत्यक्ष संबंध नहीं हो लेकिन इसने परोक्ष रूप से पाठकीयता के विस्तार को बाधित किया है । वो इस तरह से कि अगर किसी ने विचारधारा के दायरे से बाहर जाकर विषय उठाए और पाठकों के सामने पेश करने की कोशिश की तो उसे हतोत्साहित किया गया । नतीजा यह हुआ कि साहित्य से नवीन विषय छूटते चले गए और पाठक एक ही विषय को बार बार पढ़कर उबते से चले गए । साहित्यकारों ने पाठकों की बदलती रुचि का ख्याल नहीं रखा । वो उसी सोच को दिल से लगाए बैठे रहे कि हम जो लिखेंगे वही तो पाठक पढ़ेंगे । मैंने अभी हाल में लेखकों की इस सोच को तानाशाह कह दिया तो बखेड़ा खड़े हो गया । पाठकों की रुति और बदलते मिजाज का ध्यान नहूीं रखना तो एक तरह की तानाशाही है ही ।
दरअसल नए जमाने के पाठक बेहद मुखर और अपनी रुचि को हासिव करने के बेताब हैं । नए पाठक इस बात का भी ख्याल रख रहे हैं कि वो किस प्लेटफॉर्म पर कोई रचना पढ़ेंगे । अगर अब गंभीरता से पाठकों की बदलती आदत पर विचार करें तो पाते हैं कि उनमें काफी बदलाव आया है । पहले पाठक सुबह उठकर अखबार का इतजार करता था और आते ही उसको पढ़ता था लेकिन अब वो अखबार के आने का इंताजर नहीं करता है । खबरें पहले जान लेना चाहता है । खबरों के विस्तार की रुचिवाले पाठक अखबार अवश्य देखते हैं । खबरों को जानने की चाहत उससे इंटरनेट सर्फ करवाता है । इसी तरह से पहले पाठक किताबों का इंतजार करता था । किताबों की दुकानें खत्म होते चले जाने और इंटरनेट पर कृतियों की उपलब्धता बढ़ने से पाठकों ने इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करना शुरू किया । हो सकता है कि अभी किंडल और आई फोन या आई पैड पर पाठकों की संख्या कम दिखाई दे लेकिन जैसे जैसे देश में इंटरनेटका घनत्व बढ़ेगा वैसे वैसे पाठकों की इस प्लेटफॉर्म पर संख्या बढ़ती जाएगी । इसके अलावा न्यूजहंट जैसे ऐप हैं जहां कि बेहद सस्ती कीमत पर हिंदी साहित्यकी कई महत्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं । यह बात कई तरह के शोध के नतीजों के रूप में सामने आई है । दरअसल अगर हम देखें तो पाठकीयता के बढ़ने घटने के लिए कई कड़ियां जिम्मेदार हैं । अगर हम पाठकीयता को एक व्यापक संदर्भ में देखें तो इसके लिए कोई एक चीज जिम्मेदार नहीं है यह एक पूरा ईकोसिस्टम है । जिसमें सरकार, टेलीकॉम, सर्च इंजन, लेखक, डिवाइस मेकर, प्रकाशक, मीडिया और मीडिया मालिक शामिल हैं । इन सबको मिलाकर पाठकीयता का निर्माण होता है । सरकार, प्रकाशक और लेखक की भूमिका सबको ज्ञात है । टेलीकॉम यानि कि फोन और उसमें लोड सॉफ्टवेयर, सर्चे इंजन जहां जाकर कोई भी अपनी मनपसंद रचना को ढूंढ सकता है । पाठकीयता के निर्माण का एक पहलू डिवाइस मेकर भी हैं । डिवाइस यथा किंडल और आई प्लेटफॉर्म जहां रचनाओं को डाउनलोड करके पढ़ा जा सकता है । प्रकाशक पाठकीयता बढ़ाने और नए पाठकों के लिए अलग अलग प्लेटफॉर्म पर रचनाओं को उपलब्ध करवाने में महती भूमिका निभाता है । पाठकीयता को बढ़ाने में मीडिया का भी बहुत योगदान रहता है । साहित्य को लेकर हाल के दिनों में मीडिया में एक खास किस्म की उदासीनता देखने को मिली है । इस उदासीनता तो दूर कर उत्साही मीडिया की दरकार है ।
हिंदी साहित्य को पाठकीयता बढ़ाने के लिए सबसे आवश्यक है कि वो इस ईको सिस्टम के संतुलन को बरकरार रखे । इसके अलावा लेखकों और प्रकाशकों को नए पाठकों को साहित्य की ओर आकर्षित करने के लिए नित नए उपक्रम करने होंगे । पाठकों के साथ लेखकों का जो संवाद नहीं हो रहा है वो पाठकीयता की प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधा है । लेखकों को चाहिए कि वो इंटरनेट के माध्यम से पाठकों के साथ जुड़ें और उनसे अपनी रचनाओं पर फीडबैक लें । फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे की लेखिका ई एल जेम्स ने ट्राइलॉजी लिखने के पहले इंटरनेट पर एक सिरीज लिखी थी और बाद में पाठकों की राय पर उसे उपन्यास का रूप दिया । उसकी सफलता अब इतिहास में दर्ज हो चुकी है और उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है । इन सबसे ऊपर हिंदी के लेखकों को नए नए विषय भी ढूंढने होंगे । जिस तरह से हिंदी साहित्य से प्रेम गायब हो गया है उसको भी वापस लेकर आना होगा । आज भी पूरी दुनिया में प्रेम कहानियों के पाठक सबसे ज्यादा हैं । हिंदी में बेहतरीन प्रेम कथा की बात करने पर धर्मवीर भारती की गुनाहों की देवता और मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास कसप ही याद आता है । हाल में खत्म हुए पटना पुस्तक मेले से यह संकेत मिला कि पढ़ने की भूख है । पुस्तक मेले में एक दिन में एक लाख लोगों के पहुंचने से उम्मीद तो बंधती ही है जरूरत इस बात की है कि इस उम्मीद को कायम रखते हुए इसको नई ऊंचाई दी जाए ।
 

2 comments:

वंदना शुक्ला said...

अच्छा लेख |इसमें कुछ बातें महत्वपूर्ण और विचारणीय हैं |पहली ''लेखक व् पाठक के बीच संवादहीनता और दूसरी हिन्दी साहित्य में नए विषयों का न आना |सूक्ष्मता से देखे तो ये दौनों ही सत्य एक दुसरे के पूरक हैं |,पाठकीयता या लेखक –पाठक के बीच सम्प्रेषण जब तक नहीं होगा लेखक ''पाठकों '' की मौजूदा रूचि का पता नहीं लगा सकते |स्थिति ये हैं कि लेखकों को इसकी ज़रुरत ही महसूस नहीं होरही |लेखक –पाठक संवाद की जगह लेखक –प्रकाशक संवाद (सम्बन्ध) अब दौनों के बीच ज्यादा लोकप्रिय भी है और फायदेमंद भी | कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि उत्तरआधुनिकता बनाम बाज़ारवादी इस युग में साहित्य /कलाएं भी संबंधों व् व्यावहारिकता के इस नफ़ा नुक्सान की चपेट में न आये ये अस्वाभाविक ही है |फिर भी जिन दो चीज़ों के बारे में आपने इंगित किया वो अति आवशयक हैं |जहाँ तक पाठकों की कमी का रुदन होता है पाठक कम नहीं हुए हैं बल्कि संवादहीनता के चलते हम ही उनसे दूर जा रहे हैं |लेखक को तानाशाह कहना शायद उचित नहीं लेकिन लेखक की पाठक से विमुखता उसे संदेह के कटघरे में खड़ा तो करती ही है |

Manoj Kumar said...

अच्छा लेख !

मेरे ब्लॉग डायनामिक पर आपका स्वागत है