स्थान था दिल्ली का तीन मूर्ति भवन का ऑडिटोरियम । मौका था वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई
की किताब- 2014 द इलेक्शन दैट चेनज्ड इंडिया, के विमोचन का । इस कार्यक्रम के पहले
ऑडिटोरियम के बाहर किताबें बिक रही थी। वहां आनेवाले लगभग सभी लोगों ने किताबें खरीदी
और लेखक से उसपर हस्ताक्षर करवाए । एक अनुमान के मुताबिक विमोचन समारोह के पहले करीब
ढाई तीन सौ प्रतियां बिक गई । मैं वहां खड़ा इस बात का आकलन कर रहा था कि अंग्रेजी
और हिंदी के विमोचन समारोह और किताबों की बिक्री का व्याकरण कितना अलग है । अमूमन अंग्रजी
के किताब विमोचन समारोह में आते लोग किताब खरीदने का फैसला करे आते हैं । लेकिन हिंदी
में स्थिति ठीक इसके विपरीत है । दिल्ली के विमचनों में ज्यादा जाने का अवसर तो नहीं
मिल पाता है लेकिन जितनों में मैं गया हूं वहां बिक्री के लिए तो किताबें होती हैं
पर खरीदार नहीं होते । हर कोई इस जुगाड़ में होता है कि या तो लेखक या फिर प्रकाशक
उसे मुफ्त में किताब दे दे । समारोह के पहले और बाद में हिंदी के प्रकाशकों के आसपास
इस तरह के किताबखोरों को साफ तौर पर देखा और पहचाना जा सकता है । यह बात अंग्रेजी में
नहीं है । इसकी परिणति और नुकसान सबसे ज्यादा हिंदी के लेखकों को ही होता है । अब एक
तरफ तो एरक किताब विमोचन सनारोह में दो घंटे में ढाई सौ से तीन सौ किताबें बिक जाती
हैं वहीं दूसरी तरफ विशाल पाठक वर्ग के होते हुए भी हिंदी में किसी भी साहित्यक कृति
का संस्करण तीन सौ तक समिट कर रह गया है । राजेन्द्र यादव जब जीवित थे तो मैंने उनसे
इस तरह की बातें किया करता था । एक बार तो उन्होंने संपादकीय लिखकर मेरे इन बातों का
उत्तर दिया था और कहा था कि हिंदी में ये नहीं और वो नहीं का छाती कूटने और विलाप करनेवाले
काफी हैं । राजदीप सरदेसाई की किताब विमोचन के मौके पर उतनी किताबें बिकती देखकर एक
बार फिर से यादव जी का स्मरण हो गया । फिर हमारी पुरानी बहस की याद जेहन में ताजा हो
गई । आज अगर वो जीवित होते तो फिर मेरे इस विचार को छाती कूटना कहकर टाल देते । लेकिन
दब भी मैंने उनसे ये पूछा था कि क्यों हिंदी के लेखकों को इतनी कमन रॉयल्टी मिलती है
तो फिर इसका कोई ठोस जवाब उनके पास नहीं होता था ।
दरअसल यह एक ऐसा सवाल है जो सालों से हिंदी में उठता रहा है । गाहे बगाहे हिंदी
के वरिष्ठ लेखक भी इसपर सवाल खड़े करते रहे हैं । इस समस्या का अबतक कोईहल नहीं निकल
पाया है । हिंदी साहित्य को लेकर प्रकाशकों में एक खास किस्म की उदासीनता भीइन दिनों
देखने को मिल रही है । इसकी क्या वजह हो सकती है, इस बारे में भी पता लगाना होगा ।
हिंदी का हमारा इतना विशाल पाठक वर्ग है और हाल के दशक में हिंदी के पाठकों की क्रय
शक्ति में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। बावजूद इसके हिंदी साहित्य की किताबों के संस्करण
सिकुड़ते चले जा रहे हैं । लेखक संगठनों का कोई अस्तित्व रहा नहीं, अकादमियां अपने
संविधान के दायरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं तो फिर ऐसे में अब युवा लेखकों
से यह उम्मीद की जा सकती है कि वो एकजुट होकर प्रकाशकों से इस बारे में बात करें और
लेखकों और प्रकाशकों का कोईऐसा साझा मंच बने जो इस तरह की समस्याओं पर नियमित रूप से
विमर्श करें और हिंदी में पुस्तकों की संस्कृति को विकसित करने की किसी ठोस कार्ययोजना
पर काम कर सकें । इसे अबऔर नहीं टाला जाना चाहिए अन्यथा तीन सौ का संस्करण सौ तक में
तब्दील हो सकता है ।
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