हिंदी में पुरस्कारो की हालत बेहद विवादित
रही है । खासकर सरकारी साहित्यक पुरस्कारों की हालत तो और भी बदतर है । पिछले दिनों
बिहार सरकार के राजभाषा पुरस्कारों के एलान पर भारी विवाद हुआ है । निर्णायक मंडल की
एक सदस्य ने आरोप लगाया है कि एक अफसर ने सूची बनाई और उस पर दस्तखत करने का दवाब डाला
गया । निर्णायक मंडल के अध्यक्ष प्रोफेसर नामवर सिंह का एक बयान अखबारों में छपा है
जिसमें उन्होंने कहा है कि उन्होंने तो पुरस्कारों की सूची भी नहीं देखी है । इन विवादों
के बीच राजभाषा विभाग के निदेशक का भी एक बयान आया है जो काफी आपत्तिजनक और हिंदी साहित्य
को अपमानित करनेवाला है । बिहार राजभाषा विभाग के निदेशक रामविलास पासवान ने कहा है
कि हम सभी चयनित लोगों को पत्र भेजेंगे, जिनको लेना होगा वो लेंगे और जो नहीं लेंगे
तो हम क्या करें । पुरस्कार नहीं लेंगे तो पैसा बचेगा ही और वो पैसा जनहित के काम आएगा
। अब इस तरह के गैरजिम्मेदाराना बयान से राजभाषा के निदेशक की साहित्य को लेकर समझ
को तो समझा ही जा सकता है सरकार की संवेदहीनता भी उजागर होती है । अगर जनहित के काम
में ही पैसा लगाना था तो पुरस्कारों का एलान क्यों किया गया । सबसे बड़ी बात है कि
राम निरंजन परिमलेंदु को बिहार सरकार के राजभाषा विभाग का सबसे बड़ा पुरस्कार यानि
डॉ राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान का एलान हुआ और समाजवादी चिंतक डॉ सच्चिदानंद सिन्हा
को सबसे छोटा सम्मान यानि फादर कामिल बुल्के पुरस्कार देने की घोषणा की गई । रामनिरंजन
परिमलेंदु के साहित्य के योगनाम के बारे में वृहत्तर हिंदी समाज को जानना अभी शेष है
जबकि सच्चिदानंद सिन्हा को देश ही नहीं विदेश में भी लोग उनके विचारों की वजह से जानते
हैं । पुरस्कार के लिए चयनित प्रो सच्चिदानंद
सिन्हा ने अपने नाम का एलान होने पर आश्चर्य जताते हुए इसको लेने से मना कर दिया ।
उनका कहना है कि वो साहित्यकार हैं ही नहीं लिहाजा वो ये पुरस्कार नहीं लेंगे । उधर
आलोचक कर्मेन्दु शिशिर ने भी पुरस्कार लेने से मना कर बिहार सरकार की सूची को संदिग्ध
कर दिया है । पिछले कुछ सालों से बिहार सरकार ने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में
कई बेहतर काम किए थे । कविता समारोह से लकर कई अन्य महत्वपूर्ण पहल । हलांकि ये संस्कृति
विभाग की पहल थी । अब जिस तरह से राजभाषा विभाग ने पुरस्कारों का चयन किया, उसका एलान
किया और उसके बाद सवाल उठने पर निदेशक ने जिस तरह का बयान दिया है उससे साफ है कि सरकार
की प्राथमिकता में साहित्य नहीं है वो तो बस इसको रूटीन सरकारी काम की तरफ निबटाना
चाहती है । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के इन पुरस्कारों और उस पर उठे विवाद को देखेंगे
तो मामला छोटा लग सकता है लेकिन अगर वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में इसका विश्लेषण करें तो
यह बड़े सवाल खड़ी करती है । बिहार का राजभाषा विभाग वहां के मुख्यमंत्री के अधीन आता
है । साहित्य और संस्कृति को लेकर नीतीश कुमार की छवि एक संजीदा राजनेता की रही है
। उनके कार्यकाल में या उनके मातहत विभाग में इस तरह का वाकया होना हैरान करनेवाला
है । कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह से उन्होंने सरकार चलाने की मजबूरियों के लिए लालू
यादव से हाथ मिला लिया उसी तरह से वो साहित्य और संस्कृति को भी चलाना चाह रहे हैं
। अगर ऐसा होता है तो यह नीतीश कुमार की छवि पर बुरा असर डालेगा ही सूबे की समृद्ध
साहित्यक विरासत को चोट भी पहुंचाएगा । दरअसल सत्तर के दशक के बाद से ही सरकारी पुरस्कारों
की हालत बद से बदतर होती जा रही है । थोक के भाव से बांटे जानेवाले इन पुरस्कारों का
चयन अफसरों की मर्जी से होता है उन अफसरों की मर्जी से जिनका साहित्य से कोई लेना देना
नहीं है । कम से कम बिहार राजभाषा के निदेशक रामविलास पासवान के बयान से तो यही झलकता
है ।
कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश सरकार
ने साहित्य और संस्कृति के लिए थोक के भाव से पुरस्कार बांटे । इतने लोगों को पुरस्कृत
कर दिया गया कि लगा कि जो भी रचेगा वो पुरस्कृत होने से नहीं बचेगा । बिहार में पचास
हजार से लेकर तीन लाख तक की रवड़ी बंटने का एलान हुआ है तो यू पी में पांच लाख से लेकर
चालीस पचास हजार के पुरस्कार बंटे । सरकारी पुरस्कारों की जुगाड़ सूची में कुछ लेखकों
का नाम बार बार आता है । पुरस्कार लेने का ये कौशल हिंदी की कुछ लेखिकाओं ने भी विकसित
किया है । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हिंदी में सरकारी पुरस्कारों के अलावा छोटे
बड़े मिलाकर कुल तीन से चार सौ पुरस्कार तो दिए ही जा रहे होंगे । हर राज्य सरकारों
का पुरस्कार फिर वहां की अलग अलग अकादमियों का पुरस्कार और उसके बाद साहित्यक संगठनों
का पुरस्कार और फिर सबसे अंत में व्यक्तिगत पुरस्कार । इन सबको मिलाकर अगर देखें तो
हिंदी के लेखकों पर पुरस्कारों की बरसात हो रही है । इन पुरस्कारों के लिए यह जरूरी
नहीं है कि वो कृतियों पर ही दिए जाएं । कृति है तो ठीक नहीं है तो भी ठीक । आपके साहित्यक
अवदान पर आपको पुरस्कृत कर दिया जाएगा । हिंदी के वरिष्ठ लेखक ह्रषिकेश सुलभ ने एक
बार बाकचीत में साहित्यक पुरस्कारों के संदर्भ में कुछ बातें कहीं थीं । उनका कहना
था कि पुरस्कार देने वाले की मंशा लेखन को सम्मानित
करने का है तो बहुत अच्छा है लेकिन अगर मंशा पुरस्कार के बहाने खुद यानि आयोजकों का
स्वीकृत होना है तो ये सम्मान के साथ छल है । उन्होंने ये बात कहकर ये इशारा किया
था कि हिंदी में ये प्रवृत्ति भी इन दिनों जोरों पर है । बड़े लेखकों को सम्मानित कर
कुछ संगठन अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की फिराक में लगे होते हैं । यह स्थिति साहित्य
के लिए बेहद चिंताजनक है । उससे भी अधिक चिंताजनक है वरिष्ठ साहित्यकारों का इसपर खामोश
रहना । वरिष्ठ लेखकों की खामोशी से इस तरह के आयोजकों का हौसला बढ़ता है ।
हिंदी में पुरस्कारों को लेकर बहुधा
विवाद होते रहे हैं । हिंदी में पुरस्कार पिपासु लेखकों की एक पूरी पौध है । तभी तो
हिंदी साहित्य में पुरस्कार देने का खेल लगातार फल फूल रहा है । पुरस्कारों के इस खेल
से निजी संस्थान भी अछूता नहीं रहा है । अभी हाल ही में राजकमल प्रकाशन ने दो पुरस्कार
दिए । अगर उनके ही पहले के पुरस्कारों पर नजर डालेंगे तो इस बार का चयन संदिग्ध हो
जाता है । चूंकि ये निजी संस्थान का पुरस्कार है लिहाजा वो इसके कर्ताधर्ताओं पर निर्भर
करता है वो किसे पुरस्कृत करें । लेकिन इन वजहों से ही हिंदी में पुरस्कारो की साख
नहीं बन पाती है, जबकि पुरस्कार की धनराशि अच्छी खासी होती है । हिंदी में पांच से दस हजार रुपए तक के कई पुरस्कार हैं जो लेखक लेखिकाओं
को अपनी ओर लुभाते हैं । पुरस्कारों के पीछे कई तरह के खेल खेले जाते हैं जिनसे हिंदी
साहित्य परिचित है लेकिन वो खेल खुलकर सामने नहीं आ पाते हैं । कभी कभार तो ये देखकर
बहुत कोफ्त होती है कि हिंदी के लेखक हजार दो हजार के पुरस्कार के लिए तमाम तरह के
दंद फंद करते हैं । हिंदी में पुरस्कारों के कारोबारी इस दंद फंद का अपने तरीके से
फायदा उठाते हैं । कहना ना होगा कि इन्हीं वजहों से पुरस्कारों की महत्ता और प्रतिष्ठा
लगातार कम होती जा रही है । हिंदी के कुछ नए लेखकों में पुरस्कृत होने की होड़ भी दिखाई
देती है जो साहित्य के अच्छे भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है ।
हिंदी में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार साहित्य अकादमी सम्मान
को माना जाता था लेकिन पिछले एक दशक से जिस तरह से साहित्य अकादमी पुरस्कारों की बंदरबांट
हुई है उससे अकादमी पुरस्कारों की साख पर बट्टा लगा था । पिछले एक दो सालों से इस पुरस्कार
की साख को वापस लाने की कोशिश हो रही है । वर्ना जबतक साहित्य अकादमी पर विचारधारा
के लोगों का कब्जा था तबतक वहां जमकर रेवड़ियां बांटी गईें । उसके बाद जब गोपीचंद नारंग
अकादमी के अध्यक्ष बने तब भी हिंदी के पुरस्कारों की सौदेबाजी की बातें सामने आई थी
। वहां तब भी आधार सूची वगैरह बनाने का ड्रामा होता रहा लेकिन पूरे साहित्य जगत को
मालूम होता था कि अमुक वर्ष में किसको पुरस्कार मिलना चाहिए । तकरीन दो साल पहले लमही
सम्मान को लेकर भी शर्मनाक विवाद उठा था । विवाद इतना बढ़ा था कि पुरस्कृत लेखिका ने
सम्मान लेने से मना कर दिया था । हिंदी में पुरस्कारों की बहुतायत पर मशहूर कवयित्री
कात्यायनी की कविता की एक कविता का स्मरण हो रहा है - दो कवि थे/बचे हुए अंत तक/वे भी पुरस्कृत हो गए/इस वर्ष/इस तरह जितने कवि थे/सभी पुरस्कृत हुए/और कविता ने खो दिया /सबका विश्वास । चुनौती इसी विश्वास
को बचाने की है ।
1 comment:
पुरूस्कार वितरण जैसे चीज़ भी अब राजनीति की चपेट में है !
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा
मैं आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हु
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है अगर पसंद आये तो कृपया फोल्लोवेर बन अपने सुझाव दे .
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