हिंदी साहित्य जगत के वीरेन दा का जाना हिंदी कविता को सूना कर देने जैसा है ।
उनके निधन से हिंदी कविता को तो भारी क्षति हुई ही है, हिंदी समाज को जोड़कर आगे बढ़नेवाला
एक अद्भुत व्यक्तित्व की कमी भी हिंदी जगत में लंबे समय तक महसूस होगी । साहित्यकारों,
साहित्यप्रेमियों और पत्रकारों के बीच वीरेन दा के नाम से लोकप्रिय वीरेन्द्र डंगवाल
एक ऐसी शख्सियत थे जिनसे जो एक बार मिला तो फिर उनका ही होकर रह गया । बरेली में अध्यापन
के अलावा उन्होंने एक अखबार में भी अपना योगदान दिया और उस दौर के लोग उनकी पत्रकारीय
संवेदना और सूझबूझ की अब भी तारीफ करते हैं । उस दौरे के उनके साथ के पत्रकार सालों
बाद भी उनको इतनी इज्जत देते हैं जिसकी अपेक्षा उन्होंने कभी नहीं की थी । मेरा वीरेन्द्र
डंगवाल से कभी कोई परिचय नहीं था । मैं साहित्य अकादमी के पुरस्कारों और उसमें होनेवाली
गड़बड़ियों पर लंबे समय से लिखता रहा हूं । दो हजार चार में जब वीरेन डंगवाल को उनके कविता संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा पर पुरस्कार मिला
था तो चयन समिति की हड़बड़ी पर सवाल उठाते हुए मैंने एक लेख लिखा था । उस वक्त हिंदी
भाषा के संयोजक थे उपन्यासकार गिरिराज किशोर और आधार सूची तैयार की थी कहानीकार प्रियंवद
ने । मैंने उस वक्त साहित्य अकादमी के दस्तावेजों के हवाले से लिखा था कि निर्णायक
मंडल के तीन सदस्यों में से दो कमलेश्वर और श्रीलाल शुक्ल बैठक में उपस्थित ही नहीं
हो सके थे । अपनी टिप्पणी में निर्णायक मंडल के तीसरे सदस्य से रा यात्री ने लिखा-
दुश्चक्र में स्रष्टा- काव्य कृति को हम सभी निर्णायक मंडल के सदस्य एक समान प्रथम
वरीयता देते हैं और साहित्य अकादमी के दो हजार चार के पुरस्कार के लिए सहर्ष प्रस्तुत
करते हैं । उसी जगह हिंदी भाषा के तत्कालीन संयोजक गिरिराज किशोर ने लिखा- श्री श्रीलाल
शुक्ल एवं कमलेश्वर जी उपस्थित नहीं हो सके । उन्होंने अपनी लिखित संस्तुति बंद लिफाफे
में भेजी है । श्रीलाल जी ने ज्यूरी के उपस्थित सदस्य से रा यात्री से फोन पर लंबी
बातकर दुश्चक्र में स्रष्टा को 2004 के पुरस्कार के लिए समर्थन दिया । हलांकि साहित्य
अकादमी के दस्तावेजों में श्रीलाल जी की संस्तुति मौजूद नहीं थी । कमलेश्वर का बीस
दिसंबर खत था जो इक्कीस दिसंबर की बैठक के पहले प्राप्त हो गया था । इन तमाम तथ्यों
के आधार पर मैंने साबित किया था कि साहित्य अकादमी ने डंगवाल को पुरस्कृत करने में
हड़बड़ी दिखाई । बात आई गई हो गई थी । अभी तीन साल पहले वीरेन जी दिल्ली में एक कार्यक्रम
में मिले थे । मैंने उनको अपना परिचय देकर अभिवादन किया तो उन्होंने मुझे गले से लगा
लिया और कहा कि साहित्य अकादमी पुरस्कार पर तुमने अकादमी की खूब खबर ली थी । आठ साल
बाद भीउनको मेरा लेख याद था । उन्होंने कहा कि उस लेख में उन्हें सबसे अच्छी बात ये
लगी थी तमाम बड़े लोगों के होने के बावजूद उनको कठघरे में खड़ा करने में कोताही नहीं
बरती गई थी । तो ऐसे थे वीरेन दा ।
वीरेन्द डंगवाल ने कम लिखा, लेकिन जो लिखा उससे समकालीन साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप
किया । वीरेन दा के बारे में कहा जा सकता है कि उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता की
दो पीढ़ी को संस्कारित किया । अपनी लेखनी से,अपनी रहनुमाई से, अपने विजन से । उनके
फेसबुक वॉल पर और उनकी याद में लिखे जा रहे तमाम लेखों में इस बात को रेखांकित किया
जा सकता है कि किस तरह से उन्होंने अपने संपर्क में आनेवाले हर इंसान की जिंदगी को
प्रभावित किया । जनपक्षधरता के स्वर उनकी कविताओं में अंत तक मुखर रहे । और यही अपनापन
और जनपक्षधरता उनकी पहचान है जिसको मृत्यु कभी मिटा नहीं पाएगी ।
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