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Sunday, December 6, 2015

लिटरेचर फेस्टिवल या विवादों का अखाड़ा

हर साल दिसंबर और जनवरी का महीना साहित्यक आयोजनों के लिए सबसे ज्यादा व्यस्त महीना रहता है । इन दो महीनों में पूरे देश में साहित्य उत्सवों का सबसे ज्यादा आयोजन होता है । इसकी कोई खास वजह तो ज्ञात नहीं है लेकिन अंदाजा ये लगाया जा सकता है कि वर्षांत के मौहाल के मद्देनजर ये इन्हीं महीनों में आयोजित किए जाते हैं । हाल में मुंबई से लेकर बेंगलुरू से लेकर दिल्ली और पटना तक इस तरह के आयोजनों की धूम रही है और साहित्यक कैलेंडर के मुताबिक अगले साल फरवरी के शुरुआत तक नियमित अंतराल पर ये आयोजन होते रहेंगे । साहित्यक आयोजनों के बारे में जयपुर लिटरेटर फेस्टविल की निदेशक नमिता गोखले ने कहा था कि ये ऐसा मंच होना चाहिए जहां साहित्य और उसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर गंभीरता से विमर्श हो । दुनियाभर के लेखक और विचारकों के बीच साहित्य पर चिंतन हो जिसका फायदा पाठकों को मिल सके । जयपुर लिटरचेर फेस्टिवल के निदेशक की बात इस वजह से कह रहा हूं कि हमारे देश में लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत और सफलता का श्रेय नमिता, विलियम डेलरिंपल और संजोय को ही जाता है । खैऱ इस लेख का विषय जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफल यात्रा नहीं है । हम बात कर रहे हैं देशभर में लिटरेचर फेस्टिवल की बहुलता और उससे उठने वाले विवादों की । हाल के दिनों में ये देखने को मिला है कि हर तरह के साहित्यक आयोजनों में साहित्यक विमर्श की बजाए विवाद पर ज्यादा जोर रहता है । ऐसा प्रतीत होता है कि आयोजक ये मानने लगे हैं कि इस तरह के आयोजनों की सफलता का मंत्र विवाद है । दिल्ली में हाल ही में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल में कई विवाद उठे । मसलन कांग्रेस के नेता पी चिदंबरम का सलमान रुश्दी की किताब पर भारत में लगे बैन पर दिया गया बयान । चिदंबरम ने कहा कि सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेस पर लगाई गई पाबंदी उचित नहीं थी । गौरतलब है कि पी चिदंबरम उस वक्त देश के आंतरिक सुरक्षा राज्य मंत्री थे । उस वक्त की राजीव गांधी सरकार ने सैटेनिक वर्सेस पर पाबंदी लगाने का जो फैसला किया था उसके बारे में तथ्य सबको मालूम है कि किस लेखक की संस्तुति पर ऐसा किया गया था । कई किताबों में इसका उल्लेख मिलता है । असहिष्णुता पर देशभर में जारी बहस के बीच चिदंबरम के इस बयान ने एक बार फिर से विवाद को हवा दे दी । उनकी मंशा पर भी सवाल उठे । बहस के दौरान इस बात की तलाश होने लगी कि कांग्रेस के नेता ने ये बयान कहां दिया है । इस तरह से आयोजन को प्रचार मिला । विवाद से प्रचार हासिल करने का लिटरेचर फेस्टविल में चलन हो गया है । इसी तरह से दलित चिंतक और विचारक कांचा इलैया का बयान भी काफी विवादित हो गया । कांचा इलैया ने कह दिया कि अगर सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो भारत भी पाकिस्तान की राह चलता और देश में लोकतंत्र अबतक खत्म हो गया रहता । भारत की स्थिति भी पाकिस्तान जैसी हो गई होती । कांचा इलैया इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने जोर देकर कहा कि सरदार पटेल ये नहीं चाहते थे कि बाबा साहब भीम राव अंबेडकर भारतीय संविधान लिखें । इलैया के मुताबिक पटेल चाहते थे कि कोई व्यक्ति जो मनुस्मृति को मानता हो वही संविधान लिखे । कांचा इलैया के ऐसा कहने का आधार सिर्फ इतना था कि पटेल हिंदू महासभा के करीब थे । इतिहास के बारे में बातें तथ्यों के आधार पर की जानी चाहिए लेकिन कांचा इलैया तथ्यों के बजाए उसके विश्लेषण और अपनी धारणा के आधार पर बात करने लगे । इलैया के उक्त बयान की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के दौरान कही गई बात थी कि अगर सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होती तो देश की तस्वीर ही कुछ और होती । सरदार पटेल को लेकर इस वक्त की सरकार और भारतीय जनता पार्टी के नेता बेहद संवेदनशील हैं लिहाजा कांचा इलैया के इस बयान पर जमकर बहस हुई । इन विवादों के अलावा इस लिटरेचर फेस्टिवल की चर्चा नहीं हो पाई । दरअसल कल एक मित्र ने कहा कि लिटरेचर फेस्टिवल अब साहित्य के विमर्श का स्थान नहीं बल्कि विवादों का अखाड़ा बन गया है । बेंगलुरू लिटरेचर फेस्टिवल में भी यही हुआ । वह आयोजन भी साहित्येतर कारणों ही चर्चा में रहा । पटना में जारी पुस्तक मेले में हर शाम को जिस तरह से साहित्यक और समसामयिक विषय पर चर्चा होती है वह अपनी तरह का अनूठा है लेकिन वहां भी विवाद खड़े होते रहे हैं । पिछले साल एक लेखक ने कह दिया था कि हिंदी के लेखक तानाशाह होते हैं और उनको पाठकों की फिक्र नहीं होती है । इस वक्तव्य की गूंज साहित्य में साल भर तक सुनाई देती रही थी ।

अब अगर हम इस बात की पड़ताल करें कि इन साहित्यक आयोजनों में ऐसा क्यों होता है । इससे एक बात जो समझ में आती है वह यह कि इनके आयोजकों को लगता है कि विवाद के बगैर लोकप्रियता मुमकिन नहीं है । उनके सामने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का ही उदाहरण होता है । नमिता गोखले के लाख नहीं चाहने के बावजूद जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल लगातार कई सालों तक विवाद में रहा । चाहे वो सलमान रुश्दी के जयपुर आने को लेकर विरोध से उठा विवाद हो या फिर आशुतोष और आशीष नंदी के बीच एक सत्र में दलितों पर की गई टिप्पणी को लेकर हुआ विवाद हो । हर बार मामला कोर्ट कचहरी से लेकर थाने और धरना प्रदर्शन तक पहुंचा है । आशुतोष और आशीष नंदी का विवाद तो सुप्रीम कोर्ट से निबटा ।  इन विवादों की वजह से ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पूरी दुनिया में चर्चित हुआ है । जयपुर लिटरेचर फेस्टविल की आयोजक नमिता इस बात पर अफसोस करती हैं कि गंभीर विमर्श हमेशा से एक दो विवादों के बीच दब जाता है लेकिन शायद उनको इस बात का एहसास नहीं है कि देश में आयोजित और लिटरेचर फेस्टिवल विवादों को अपनी सफलता का मंत्र मानते हैं । हमारा मानना है कि विवादों से कोई आयोजन चर्चित तो हो सकता है लेकिन उसकी प्रतिष्ठा के लिए यह आवश्यक है कि वहां गंभीर चिंतन और विमर्श हो । 

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