इन दिनों पूरे देश में साहित्य उत्सवों की धूम है, दिल्ली
से लेकर पटना तक, बंगलुरू से लेकर मुंबई तक । दरअसल हर साल दिसंबर से लेकर फरवरी तक ज्यादातर साहित्यक मेलों का आयोजन
होता हैं । इन साहित्यक आयोजनों में विवादों को सायास उठाया जाने लगा है बावजूद इसके
कुछ आयोजनों में सार्थक विमर्श भी होते हैं । साहित्यक प्रवृतियों के बारे में वरिष्ठ
लेखकों की राय सामने आती है । साहित्य पर मौजूदा या आसन्न खतरों पर बात की जाती है
। पटना में जारी पटना पुस्तक मेला के जनसंवाद कार्यक्रम में एक सत्र था- नई सदी की
कविताई । इस सत्र में युवा कवियों – राकेश रंजन, नताशा, संजय कुंदन, और स्मिता पारिख ने अपनी
कविताओं का पाठ किया । लेकिन असली बात हुई कविता पाठ के बाद जब इन युवा कवियों को सुनने
के बाद हिंदी के वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से इस विषय पर बोलने का आग्रह किया गया । आलोक
जी ने कविता को लेकर कई गंभीर सवाल उठाए । उन्होंने इशारों में यह सवाल उठाया कि किस
वजह से कविता आज पाठकों से दूर होती जा रही है और पाठकों को कविता की ओर लाने के लिए
क्या प्रयास किए जाने चाहिए । इस संदर्भ में
आलोक धन्वा ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिन की कविताओं और उनके मंच पर उसके पाठ करने
से पैदा होनेवाले प्रभाव का उल्लेख किया । आलोक धन्वा ने रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर
कविताओं का पाठ भी किया । उन्होंने दिनकर की मशहूर काव्य कृति रश्मिरथी के उस प्रसंग
को बताया जहां कर्ण का निकट अंत आ गया था और वो शल्य से कहता है कि घोडों को तेज चलाकर
उस जगह पर ले चले जहां कृष्ण और अर्जुन मौजूद हैं । कर्ण के रथ का पहिया रक्त से पंकिल
जमीन में इस कदर फंसा गया कि वो कर्ण के निकाले भी नहीं निकल रहा था । अपनी काव्य कृति
रश्मि रथी में दिनकर इस स्थिति को यूं कहते हैं – महि डोली/ससिल-आगार डोला/भुजा के जोर से संसार डोला/न डोला, किंतु , जो चक्का फंसा था /चला वह जा रहा नीचे धंसा था ।‘ इस स्थिति को देखते हुए युद्ध के मैदान में कृष्ण अर्जुन
से कहते हैं कि यही मौका है और कर्ण का वध कर दो । अर्जुन यहां भी तर्क करने लग जाते
हैं कि ये उचित नहीं होगा क्योंकि कर्ण विरथ है । कृष्ण एक बार फिर से अर्जुन को समझाते
हैं जिसको दिनकर अपनी कविता में यूं वयक्त करते हैं – खड़ा है देखता क्या मौन भोले?/शरासन तान, बस, अवसर यही है/घड़ी फिर और मिलने को नहीं है/विशिख कोई गले के पार कर दे /अभी ही शत्रु का संहार कर दे ।‘ आलोक धन्वा ने कहा कि दिनकर जब इन कविताओं का पाठ करते थे
तो ऐसा प्रतीत होता था कि युद्ध का वो पूरा प्रसंग पाठकों की आंखों के सामने जीवंत
हो उठा है । आलोक जी भी जब दिनकर की कविताओं का पाठ कर रहे थे तो पूरे सभागार में सन्नाटा
छाया था और कविता रसिक श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे । आलोत धन्वा का मानना था
कि जब कविताएं कवियों से सुनी जाती हैं तो उलका एक अलग प्रभाव पाठकों के मन पर पड़ता
है । कविता पाठकों को अपने साथ बहाने लग जाती है । उनके मुताबिक कवि और कविता को पाठकों
के साथ सीधे संवाद करना चाहिए और यह कविता पाठ से ही संभव है । अपनी बात को मजबूती
देने के लिए आलोक धन्वा ने हरिवंश राय बच्चन, जयशंकर प्रसाद आदि की कविताओं को उद्धृत
किया । बच्चन की कविताओं की लोकप्रियता की वजह भी उनका पाठ था । आलोक धन्वा के पहले
मुंबई की कवयित्री स्मिता पारिख के संग्रह – नज्मे इंतजार की – का विमोचन करते हुए हिंदी के वरिष्ठतम कवियों में से एक
केदारनाथ सिंह ने भी कुछ इसी तरह की बात की थी । केदार जी ने कहा कि कविता लिखे से
ज्यादा पढ़े जाने की चीज है । पहले तो वहां मौजूद दर्शकों को लगा कि केदार जी पता नहीं
क्या कहना चाह रहे हैं लेकिन बाद में उन्होंने साफ किया कि कवि के लिए कविता लिखना
जितना महत्वपूर्ण है पाठकों के लिए उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कवि उन कविताओं का
पाठ करे । उन्होंने कहा कि स्मिता की कविताएं मंचों पर पढ़ी जानी चाहिए ।
कविता को लेकर कई वरिष्ठ कवियों और लेखकों ने चिंताएं व्यक्त
की हैं । कवि नरेश सक्सेना ने भी कुछ दिनों पहले अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि
एक छोटी लाइन और एक बड़ी लाइन लिखकर लोग समझते हैं कि वो कवि हो गए हैं । उनके मुताबिक
इस तरह की कविताओं ने छंदशास्त्र को भी निगेट किया । इसी तरह की बात कई वरिष्ठ कवि
लेखक अलग अलग मंचों पर अलग अलग तरीके से कह चुके हैं । इन कवियों की चिंताओं के केंद्र
में कविता का पाठकों से दूर होते जाना है । केदार नाथ सिंह जब यह कहते हैं कि कविता
लिखे से ज्यादा पढे जाने की चीज है तो वो मंच से कविता पाठ की वकालत करते हुए नजर आते
हैं । मंच से कविता पाठ की संस्कृति का लगभग खत्म हो जाने का हिंदी कविता को बहुत नुकसान
हुआ । साठ के अंतिम वर्षों या सत्तर के दशक की शुरुआत के बाद मंच पर कविता पाठ करनेवालों
कवियों को मंचीय कवि कहकर हेय दृष्टि से देखे जाने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा । इसका
नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर आयोजित किए जानेवाले कवि सम्मेलनों में बड़े कवियों
ने जाना पहले कम किया और फिर बंद कर दिया । क्योंकि माहौल ही ऐसा बना दिया गया कि जो
मंच पर कविता पाठ करेगा उसको प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती है । इस प्रचार से कुछ तुकबंदी
करनेवाले कवियों की पौ बारह हो गई । संजीदगी से कविताई करनेवाले नेपथ्य में चले गए
और कविता के नाम पर चुटकुले सुनानेवाले बढ़ते गए । इससे उस दुष्प्रचार को बल मिला कि
मंच पर गंभीर कवि कविता पाठ नहीं करते हैं । बहुत दिन नहीं बीते हैं जब हिदी की साहित्यक पत्रिका पाखी में मंचीय कवि कुमार
विश्वास का एक साक्षात्कार छपा था तो कविता के मठधीशों और उनके चेलों ने बवाल खड़ा
कर दिया था । कुमार को और पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज को इस बावत सफाई देनी पड़ी
थी । कुमार ने तो बेहद तल्ख अंदाज में अपनी बात रखी और साहित्यक लॉबियों पर सवाल खड़ा
कर दिया । यह ठीक है कि कुमार कई बार तुकबंदियां करते हैं लेकिन उनकी कविताओं ने हिंदी
कविता को एक नया पाठक वर्ग तो दिया ही है । हिंदी में मंचीय कवि, लुगदी साहित्य, पॉपुलर
कल्चर, पॉपुलर सिनेमा आदि शब्द नकारात्मकता के साथ प्रचारित कर दिए गए । ये शब्द उस
दौर में नकारात्मक हुए जिस दौर में हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता, जनवादिता का जोर
चल रहा था । इस बात की गंभीरता से पड़ताल होनी चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ कि मंच पर कविता
पाठ करनेवाले कवियों को मुख्यधारा का कवि नहीं माना गया, बल्कि उनके मूल्यांकन में
भी भेदभाव बरता गया । दिनकर जी जैसे बड़े कवि को प्रगतिशील आलोचकों ने वो स्थान नहीं
दिया जिसके वो हकदार थे । निराला के उन लेखों को सायास छुपा दिया गया जो कि उन्होंने
कल्याण पत्रिका में लिखे थे । निराला के कल्याण में छपे लेखों को दबा देने के पीछे
की मंशा सिर्फ इतनी नजर आती है कि उनका वामपंथ की तरफ के झुकाव को उभार कर स्थापित
किया जा सके । वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र
की किताब -पत्रों में समय संस्कृति- से यह बात साफ है कि निराला जी ने कल्याण पत्रिका
में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के अनुरोध पर कई लेख लिखे थे । उनको सामने आना चाहिए
। इस तरह की हरकतों या तिकड़मों का नतीजा यह हुआ कि
पाठकों के बीच कविता को लेकर एक संस्कार या पढ़ने की संस्कृति का विकास बाधित हो गया
। लंबे समय तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया जिसकी वजह से कविता के नए पाठक बनने बंद हो
गए । आज हिंदी में कविता की इतनी बुरी गत हो चुकी है कि कोई भी प्रकाशक कविता संग्रह
छापने में रुचि नहीं दिखाता है । वरिष्ठ कवियों को भी इस दिक्तत का सामना करना पड़ता
है युवाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए । कवियों को पैसे देकर अपनी किताबें छपवानी पड़
रही हैं । अब जब कविता को लेकर साहित्य में इमरजेंसी जैसे हालात हो गए हैं तो वरिष्ठ
जनों का ध्यान इस ओर गया है जो कि साहित्य में कविता की वापसी के लिए किए जा रहे प्रयत्नों
के संकेत के तौर पर देखा जाना चाहिए । लेकिन वरिष्ठ कवियों का इतना कहना भर ही काफी
नहीं है उनको मंचों पर जाकर अपनी कविताओं का पाठ कर पाठकों को कविता की ओर वापस लाने
का भागीरथ प्रयास करना होगा । अगर वो इस तरह की पहल करते हैं तो युवा कवियों को भी
बल मिलेगा और संभव है कि साहित्य में कविता की वापसी हो जाए ।
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