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Monday, December 28, 2015

पुस्तक संस्कृति के लिए जरूरी मेले

साल भले ही सर्दियों में खत्म होता है लेकिन पुस्तक प्रेमियों के लिए पुस्तक मेले उष्मा प्रदान करते रहते हैं । पुस्तक मेलों की शुरुआत नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से होती है । दिल्ली विश्व पुस्तक मेले से इस साल जो रचनात्मक ऊर्जा और उष्मा साहित्य जगत में पैदा होनी चाहिए थी उसपर भी मौसम का असर दिखा था । साहित्यकारों और लेखकों के बीच पुस्तक मेले में हुए विमर्श की गर्माहट गायब सी दिखी थी । दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले के दौरान नौ दिनों तक अलग अलग विषयों और पुस्तकों के विमोचवन के बहाने से तकरीबन सौ गोष्ठियां और संवाद हुए थे । पुस्तक मेला के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट ने मेला का चरित्र बदलकर साहित्य उत्सव करने की भरसक कोशिश भी की थी। हाल ही में खत्म हुए पटना पुस्तक मेले को देश का दूसरा बड़ा पुस्तक मेला कहा जा सकता है । यह एक तथ्य है कि बिहार में सबसे ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं बिकती हैं । लोग सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यक रूप से बहुत ज्यादा जागरूक हैं । यहां के लोग किताबें पढ़ने के बाद उसपर प्रतिक्रिया भी देने में नहीं हिचकते हैं । बिहार में इस जागरूकता को और फैलाने और नई पीढ़ी की पढ़ने की रुचि को संस्कारित करने में पटना पुस्तक मेला की सकारात्मक भूमिका रही है । पटना पुस्तक मेले के आयोजकों ने पुस्तक मेले को सांस्कृतिक उत्सव में तब्दील कर दिया है । पटना पुस्तक मेला में देशभर के बुद्धिजीवियों की भागीदारी उसको एक व्यापक फलक भी प्रदान करती है । इस साल तो कॉफी हाउस के नाम से एक खास कार्यक्रम भी शुरू किया गया जिसमें पाठकों को संपादकों, फिल्मकारों और साहित्यकारों से रू ब रू होने का मौका मिला । कविता पर गंभीर विमर्श के दौरान वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह और आलोक धन्वा ने मंचों पर कविता की वापसी की जरूरत को रेखांकित किया था 

इस साल पटना पुस्तक मेले को अपने पूर्व सहयोगी नेशनल बुक ट्रस्ट से ही टक्कर मिली । पटना पुस्तक मेले के ऐन पहले ही नेशनल बुक ट्रस्ट ने उसी स्थान पर अपना अलग से पुस्तक मेला लगाया । इसका असर भी दिखा । नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना देशभर में पाठक संस्कृति के विकास के लिए किया गया था लेकिन पटना में आयोजित उनके पुस्तक मेले ने एक स्थापित मेले के अस्तित्व को संकट में डाला । नेशनल बुक ट्रस्ट को करना यह चाहिए कि वो देश के उन हिस्सों में पुस्तक मेले लगाए जहां कि पुस्तकों की पहुंच नहीं है ।  महानगरों और हवाई मार्ग से जुड़े शहरों में तो फिर भी पुस्तकें मिल जाती है लेकिन देश के कोने अंतरे में अब भी पुस्तकें  पहुंच नहीं पाती हैं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक कार्यक्रम में कहा था कि घर में पुस्तकों के लिए अलग जगह नहीं होती । हर घर में पुस्तकों के लिए अलग जगह हो इसकी लिए जरूरी है पुस्तकों की उपलब्धता को अनबीटी सुनिश्चित करे। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा किताबों का बाजार है । उस रिपोर्ट के मुताबिक इस वक्त भारत में किताबों का बाजार इक्कसी हजार छह सौ करोड़ रुपए का है । अनुमान के मुताबिक किताबों का ये बाजार सालाना करीब साढे उन्नीस फीसदी की दर से बढ़ेगा और 2020 तक इस बाजार का आकार तेहत्तर हजार नौ सौ करोड़ तक पहुंच जाएगा । किताबों के बाजार में हिंदी किताबों का शेयर पैंतीस फीसदी है और अन्य भारतीय भाषाओं की किताबों की हिस्सेदारी मात्र दस फीसदी है । पुस्तक मेलों से पुस्तक बाजार में भारतीय भाषाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जा सकती है । यह बात अभी जारी इलाहाबाद पुस्तक मेले में भी देखी जा सकती है जहां किताबों की जमकर बिक्री हो रही है । उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, कानपुर और लखनऊ के पुस्तक मेले पाठकों के बीच खासे लोकप्रिय रहे हैं और पाठक उनका इंतजार भी करते हैं । जमशेदपुर और रायपुर के पुस्तक मेले भी अपने छोटे कलेवर के बावजूद पाठकों को आकर्षित कर रहे हैं । 

2 comments:

अजय कुमार झा said...

बहुत ही सारगर्भित सटीक विश्लेषित आलेख अनंत विजय जी | मैं आपकी लेखनी का मुरीद रहा हूँ , विषय को इतने बेहतरीन स्वरूप में समझाना वो भी शब्दों के माध्यम से , शुक्रिया | पुस्तक प्रेमियों के लिए पुस्तक मेलों का उत्साह गणपति उत्सव या दुर्गा पूजा सरीखे वार्षिक उत्सवों से कम नहीं होता ..बाकी किताबों को फैलते देख हमारा कलेजा भी फ़ैल गया ..हमें भी किताबों से बेपनाह मुहब्बत है

डॉ. मोनिका शर्मा said...

ज़रूरी लेख , किताबें वाकई छूट रही हैं हमसे ।