साहित्य में भाषा का सवाल गाहे बगाहे उठता रहा है । जब भी
कोई ऐसी कृति आती है जिसमें भाषा की स्थापित मर्यादा टूटती है तो साहित्य जगत में उसपर
व्यपक विचार विमर्श होता है । कृतियों के अलावा भी अगर कोई लेखक या साहित्यकार अपने
साक्षात्कार में कथित तौर पर आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करता है तो उसपर भी साहित्यक
जगत में प्रतिक्रिया होती है । बहुधा लेख आदि लिखकर तो कभी कभार धरना और विरोध प्रदर्शन
भी होते रहे हैं । साहित्यक पत्रिका नया ज्ञानोदय में उस वक्त के महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय
हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने अपने साक्षात्कार में छिनाल शब्द
का प्रयोग किया था तो मामला सरकार और मंत्री तक पहुंचा था । धरना और विरोध प्रदर्शन
तो हुआ ही था और उनको खेद प्रकट करना पड़ा था । अभी कुछ दिनों पहले मराठी के मशहूर
लेखक भालचंद नेमाड़े की किताब हिन्दू, जीने का समृद्ध कबाड़ अनुदित होकर प्रकाशित हुआ
है । नेमाड़े मराठी के बेहद सम्मानित लेखक हैं और उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित
किया जा चुका है । नेमाडे अंग्रेजी के शिक्षक रहे हैं
और लंदन के मशहूर स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में अध्यापन कर चुके हैं । कुछ दिनों पहले उनका सलमान रश्दी से विवाद भी हुआ था । रश्दी
ने अपने एक ट्वीट में उनके बारे में लिखा था- ग्रम्पी ओल्ड
बास्टर्ड, जस्ट टेक योर प्राइज एंड से थैंक यू नाइसली । आई डाउट यू हैव इवन रेड द वर्क
यू अटैक । दरअसल नेमाडे ने एक कार्यक्रम में सलमान रश्दी की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन
को औसत साहित्यक कृति करार दिया था । नेमाडे ने कहा था कि सलमान रश्दी और वी एस नायपॉल
पश्चिम के हाथों खेल रहे हैं । सलमान रश्दी को नेमाडे की बातें नागवार गुजरीं थी और
उन्होंने भाषिक मर्यादा को ताक पर रखते हुए गाली गलौच की भाषा में ट्वीट किया था ।
उसके बाद समकालीन साहित्यक परिदृश्य में उबाल आया था और सलमान रश्दी की जमकर लानत मलामत
की गई थी । इस प्रसंग को बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि भालचंद्र नेमाड़े के कहने
का वैश्विक साहित्य जगत में असर होता है ।
उनकी ताजा किताब- हिन्दू, जीने का समृद्ध कबाड़, जो मूल कृति का हिंदी अनुवाद है,
की खासी चर्चा रही लेकिन उनके इस किताब में कई प्रसंगों में इस्तेमाल किए गए शब्द अलक्षित
रह गए । इस किताब के ब्लर्ब पर लिखा है – ‘देसी अस्मिता का महाकाव्य यह उपन्यास भारत के जातीय ‘स्व’ का बहुस्तरीय, बहुमुखी, बहुवर्णी उत्खनन है । यह ना
गौरव के किसी जड़ और आत्मुग्ध आख्यान का परिपोषण करता है, न ‘अपने’ के नाम पर संस्कृति के रगों में रेंगती उन दीमकों का
तुष्टीकरण, जिन्होंने ‘भारतवर्ष’ को भीतर से खोखला कर दिया है । यह उस विराट इकाई को समग्रता में देखते हुए चलते
हुए देखता है जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं ।‘ ब्लर्ब लेखक का
नाम नहीं होने से यह माना जाता है कि लेखक और प्रकाशक दोनों इससे सहमत होंगे और ये
पाठकों को कृति की ओर खींचने के लिए लिखा गया है । इस कृति को देसी अस्मिता का महाकाव्य
बताया गया है । नेमाड़े जी से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इस कृति में करीब आधा दर्जन
जगहों पर आपने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है वो किस देसी अस्मिता को प्रतिबिंबित
करता है । अगर एक बार को यह मान भी लिया जाय कि इस तरह की भाषा कभी कभार निजी बातचीत
में बोली जाती है तो क्या उसको हम अपने देश की संस्कृति के तौर पर पेश कर सकते हैं
जिसका दावा भालचंद नेमाड़े करते हैं । एक जगह पुलिस वाले गश्ती के दौरान युवकों को
मां की गाली देते हैं जिसको अक्षरश: प्रकाशित कर दिया
है । उसी बातचीत के क्रम में लेखक ने लिखा है कि- उसे पारधी लड़कों ने बताया था कि
पुलिसवाले थाने ले जाकर गXX में डंडा घुसेड़ते हैं
। इसी तरह से एक दूसरा प्रसंग कहार बस्ती की एक औरत का संवाद है । यहां तो हद कर दी
गई है । अपने और लड़के की जननांगों के बारे में कहते कहते लेखक का पात्र महात्मा गांधी
के जननांगों का हवाला देते हुए उसकी बहन के साथ संबंध बनाने की गाली देने लग जाता है
। यह अंश बेहद आपत्तिजनक है और पात्रों की आपसी बातचीत में सहजता से आनेवाली बातचीत
से ज्यादा प्रचार पाने के लिए ठूंसा गया प्रसंग अधिक लगता है । गाली में महात्मा गांधी
का प्रयोग अबतक साहित्य में नहीं देखा गया था और इस मामले में भालचंद्र नेमाड़े को
इसका प्रणेता कहा जा सकता है ।
नेमाड़े को और इस किताब के प्रकाशक, राजकमल प्रकाशन, को लगता है कि हाल के सुप्रीम
कोर्ट के फैसले की जानकारी नहीं है । इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने एक संपादक के
खिलाफ आरोप हटाने से इंकार कर दिया था । एक पत्रिका ने उन्नीस सौ चौरानवे में महात्मा
गांधी के बारे में एक अश्लील और भद्दी कविता प्रकाशित की थी । सुप्रीम कोर्ट के दो
जजों की बेंच ने साफ तौर पर कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के ऐतिहासिक
आदरणीय महापुरुषों के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता है । सुप्रीम
कोर्ट ने बांबे हाईकोर्ट के फैसले को बरकार रखा था जिसमें संपादक की याचिका खारिज करने
की मांग को रद्द कर दिया गया था । इसके अलावा भी सुप्रीम कोर्ट कई मौकों पर इस तरह
की टिप्पणी कर चुका है । गांधी हमारे पूरे देश में समादृत हैं और उनको लेकर इस तरह
की घोर आपत्तिजनक टिप्पणी भालचंद्र नेमाड़े और उनके प्रकाशक को मुश्किल में डाल सकती
है । लगभग साढे पांच सौ पन्नों के इस उपन्यास में नेमाड़े ने भाषा की मर्यादा को तार-तार
किया है ।
हिंदी में साहित्यक कृतियों में अश्लीलता के सवाल पर कई बार लंबी लंबी बहसें भी
हुई हैं । द्वारका प्रसाद मिश्र की कृति -घेरे के बाहर- की भाषा और उसके विषय को लेकर
उसको प्रतिबंधित भी किया गया था जो काफी बाद में प्रकाशित हुआ । अज्ञेय की कृति -शेखर
एक जीवनी - भी जब प्रकाशित हुई थी तब भी उसमें भाई-बहन के संबंधों के चित्रण को लेकर
खासा हंगामा मचा था । उसी तरह से कृष्णा सोबती को अपने उपन्यास में एक शब्द के इस्तेमाल
पर बोल्ड लेखिका करार दे दिया गया था । मृदुला गर्ग के उपन्यास चितकोबरा के प्रकाशन
के बाद सेक्स संबंधों और उसके उपन्यासों में चित्रण को लेकर हिंदी साहित्य में खासा
विवाद हुआ था । मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास इदन्नमम और अलमा कबूतरी में वर्णित सेक्स
प्रसंगों को लेकर अब भी उनकी लानत मलामत की जाती है । शरद सिंह ने अपने एक उपन्यास
पिछले पन्ने की औरतों में भी एक प्रसंग में स्त्री के निजी अंगों के बारे में लिखा
था जिसको लेकर भी बहस हुई थी । कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा में संबंधों को लेकर
विवाद उठा था । हिंदी साहित्य में इस पर लंबे समय से वाद-विवाद होता रहा है कि भाषा
कैसी हो । कई लेखक तो अपनी कृतियों में उसी तरह से जबरदस्ती सेक्स प्रसंगों को ठूंसते
हैं जिस तरह से कहानी की बगैर मांग के हिंदी फिल्मों में नायक नायिका के बारिश में
भीगते हुए गाने फिल्माए जाते हैं । हाल के दिनों में सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के
लिए कहानी और उपन्यासों में जबरदस्ती सेक्स प्रसंग ठूसने की प्रवृ्ति ने जोड़ पकड़ा
है । जिस तरह से फिल्म में काम करनेवाली नायिकाओं को लगता है कि कम कपड़े पहनने से
वो जल्द से जल्द स्टारडम हासिल कर लेगी उसी तरह से हिंदी के चंद युवा लेखकों को भी
लगता है कि कथित तौर पर बोल्ड प्रसंगों को लिखकर स्थापित हो जाएंगे । अभी हाल ही में
हिंदी की एक वयोवृद्ध लेखिका रमणिका गुप्ता की आत्मकथा आपहुदरी प्रकाशित हुई है जिसमें
सेक्स प्रसंगों की भरमार है जो जुगुप्साजनक है । पोर्न साहित्य का भी एक सौंदर्यशास्त्र
होता है लेकिन रमणिका गुप्ता ने तो पता नहीं क्या लिखा है । उसको परिभाषित करने के
लिए वक्त देना वक्त जाया करने जैसा है ।
बावजूद इसके उक्त कृतियों में किसी महापुरुष को लेकर भद्दी टिप्पणी नहीं की गई
है । नेमाड़े ने महात्मा गांधी पर तो टिप्पणी की ही है गालियों में भी उन शब्दों को
लिख डाला है जो अबतक वर्जित रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भी हैं । काशी
का अस्सी में काशी नाथ सिंह ने भी गालियों का इस्तेमाल किया है, राही मासूम रजा ने
आधा गांव में गालियों का उपयोग किया है लेकिन इस तरह से नहीं जिस तरह से नेमाड़े ने
अपने उपन्यास में किया है । नेमाड़े ने तो फुटपाथ पर पीली पन्नी में बिकनेवाली किताबों
की भाषा का इस्तेमाल कम से कम आधे दर्जन जगहों पर किया है । नेमाड़े के इस उपन्यास में उन शब्दों के उपयोग के
बाद एक बार फिर से ये सवाल खड़ा हो गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लेखकों
को कितनी और कहां तक जाने की छूट मिली चाहिए ।
1 comment:
वास्तव में ये तथाकथित ज्ञानी लोग अपनी किसी हीं भवन से ग्रस्त हैं।ये मान बैठे है की इतिहास में ये अमर हो जायेंगे,जबकि सच यह है की ये इतिहास के कूड़े हो जायेंगे जिन पर किसी की निगाह नहीं पड़नी। वास्तव में ऐसे कृत्यों के लिए इन्हे बैन करने की आवश्यकता है।ये लोग घटिया प्रवृत प्रदर्शित कर रहे हैं।
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