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Monday, December 14, 2015

रॉयल्टी का रगड़ा

असम की एक लेखिका शर्मिष्ठा प्रीतम, जो व्हीलचेयर के सहारे अपनी जिंदगी गुजार रही हैं, ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को खत लिखकर नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी अपनी किताब की रॉयल्टी दिलवाने की मांग की है । शर्मिष्ठा ने प्रधानमंत्री को लिखे अपने खत में बताया है कि साल दो हजार चौदह में उनकी किताब प्रकाशित हुई थी, लेकिन करीब डेढ साल बीत जाने के बाद भी उनको ना तो एग्रीमेंट की कॉपी मिली और ना ही रॉयल्टी ।उनका आरोप है कि किताब छपने के पहले ये वादा किया गया था कि एडवांस रॉयल्टी दी जाएगी जिसका उनको अबतक इंतजार है । शर्मिष्ठा का कहना है कि उन्होंने जब भी नेशनल बुक ट्र्स्ट के अफसरों से संपर्क किया तो उनको रटा रटाया जवाब मिला कि कार्यवाही चल रही है । उनका कहना है कि वो आठ साल की उम्र से चल फिर नहीं सकती हैं जिसकी वजह से वो बार बार दिल्ली जाकर इस काम को करवाने की स्थिति में नहीं हैं । यह एक ऐसी स्थिति है जिसका सामना हर भाषा के लेखक को करना पड़ता है । यह स्थिति है नेशनल बुक ट्रस्ट की. जो भारत सरकार यानि कि करदाताओं के पैसे से चलती है । रॉयल्टी के मुद्दे पर विवाद की गूंज गाहे बगाहे हिंदी में भी सुनाई देती रहती है । लेखकों की हमेशा से शिकायत रहती है कि प्रकाशक उनकी किताबों की बिक्री का आंकड़ा सही तरीके से उनके सामने पेश नहीं करते हैं । नतीजा यह होता है कि उनको अपेक्षित रॉयल्टी नहीं मिल पाती है ।  रॉयल्टी का ये झगड़ा बहुत पुराना है लेकिन इसकी तरफ गंभीरता से कभी भी लेखकों और प्रकाशकों ने साथ मिलकर नहीं सोचा ।
दरअसल अगर हम गंभीरता से विचार करें तो ये लगता है कि हिंदी में लेखकों और प्रकाशकों के संबंध बहुत प्रोफेशनल कभी नहीं रहे । ज्यादातर किताबें मौखिक सहमति और लेखक-प्रकाशक संबंधों के आधार पर छपती रही हैं । कई बार एग्रीमेंट हो जाता है पर बहुधा छपने के पहले एग्रीमेंट नहीं होता है । किताब छपने के पहले लेखकों को लगता है कि किसी तरह से बड़े प्रकाशक के यहां से किताब छप जाए । ज्यादातर प्रकाशकों की तरफ से भी एग्रीमेंट को लेकर ढिलाई बरती जाती रही है । हिंदी के एक दो अग्रणी प्रकाशकों ने अब इस दिशा में गंभीरता से काम शुरू कर दिया है और अपने कारोबार को बेहद प्रोफेशनल तरीके से चलाने की राह पर बढ़े है। लेकिन सवाल यही है कि यह एक इतना सरल मुद्दा नहीं है कि एक दो प्रकाशकों के आगे बढ़ने से ये हल हो जाए । हिंदी में लंबे समय से ये समस्या रही है । लोक और जन की बात करनेवाले लेखकों के दबदबे वाले काल में भी इस दिशा में कुछ नहीं सोचा गया । आजादी पूर्व बने प्रगतिशील लेखक संघ से लेकर जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की । अपने अपने संगठनों से संबद्ध लेखकों को आगे बढ़ाने का इन लेखक संघों ने किया लेकिन उनके बुनियादी अधिकारों के लिए कोई लड़ाई उन्होंने नहीं लड़ी । ना तो लेखकों और प्रकाशकों के बीच के एग्रमेंट को बेहतर बनाने की कोशिश की गई और ना ही लेखकों के हितों के लिए प्रकाशकों के साथ बैठक कर हल निकालने की कोशिश की गई । असहिष्णुता के नाम पर मुंह पर पट्टी बांधकर साहित्य अकादमी की परिक्रमा करनेवाले लेखकों को भी कभी अपने अधिकारों की याद नहीं आई । साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों ने कभी भी अकादमी पर इस बाबत दबाव बनाया हो यह बात सामने नहीं आई । लेखकों के मुद्दे पर लेखक संगठनों की निष्क्रियता और लेखकों के बीच एक दूसरे को लेकर उपेक्षा का भाव इस समस्या के जड़ में है । हिंदी के ज्यादातर लेखकों की सोच बहुत सीमित हो गई है । आवश्यकता है अपने सोच का दायरा बढ़ाने की ।


1 comment:

Nilay Upadhyay said...

bahut sundar | ek jaruri kam ki tarah hai yah saval uthana. pata nahi lekhak in muddo par ek jut kyo nahi hote