निदा फाजली ने अपनी किताब ‘तमाशा मेरे आगे’ की भूमिका में मैडम बॉवेरी को याद करते हुए कहा है कि– ‘काश मेरे पास इतना पैसा होता कि सारी किताबें खरीद
लेता और उसको फिर से एक बार लिखता ।‘ उसके बाद निदा साहब कहते
हैं...समय का आभाव नहीं होता तो मैं भी ऐसा ही करता । मैडम बॉबेरी के कथन को जेहन में
रखते हुए वो अपना एक शेर कहते हैं – ‘कोशिश
के बावजूद एक उल्लास रह गया/ हर काम में हमेशा कोई काम रह गया
‘। निदा फाजली के निधन की जब खबर मिली तो मेरी स्मृति में निदा
साहब का ये शेर कौंध गया । वो इसलिए कि उनसे जनवरी 2013 में हुई दो बार हुई बातचीत
याद आ गई । उसके पहले निदा साहब से मेरा कोई संपर्क नहीं था । हां उनके लिखे फिल्मी
गीत – ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल
है’ और ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं
मिलता’ मुझे बेहद पसंद हैं । उनकी आत्मकथात्मक उपन्यासों को पढ़कर
उनके संघर्षों और विचारों से अवगत था । लेकिन जब दो हजार तेरह में साहित्यक पत्रिका
‘पाखी’ में उनका एक खत पढ़ा तो हैरान रह
गया था । उन्हें तुरंत फोन किया था और उनसे काफी लंबी बात हुई थी । दरअसल उन्होंने
‘पाखी’ के संपादक के नाम एक पत्र में सदी
के महानायक अमिताभ बच्चन की तुलना मुंबई हमले के गुनहगार आतंकवादी आमिर अजमल कसाब से
कर दी थी । दरअसल निदा फाजली पूर्व के अंक में संपादकीय में कहानीकार ज्ञानरंजन की
तुलना अमिताभ बच्चन से किए जाने से खफा थे । निदा ने संपादक के नाम खत में लिखा था-
‘दूसरी बात जो आपके संपादकीय मे खटकी वो यह है कि ज्ञानरंजन जैसे
साहित्यकार की तुलना सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से की गई है । एंग्री
यंगमैन को सत्तर के दशक तक कैसे सीमित किया जा सकता है । क्या 74 वर्षीय अन्ना हजारे
को भुलाया जा सकता है । मुझे तो लगता है कि सत्तर के दशक से अधिक गुस्सा तो आज की जरूरत
है और फिर अमिताभ को एंग्री यंगमैन की उपाधि से क्यों नवाजा गया । वो तो केवल अजमल
आमिर कसाब की तरह गढ़ा हुआ खिलौना है । एक को हाफिज सईद ने बनाया था तो दूसरे को सलीम-जावेद
की कलम ने गढ़ा था । आपने भी खिलौने की प्रशंसा की लेकिन खिलौना बनाने वालों को सिरे
से भुला दिया । किसी का काम, किसी का नाम कहावत शायद इसलिए गढ़ी गई है ।‘ जब मैंने उनको फोन किया तो वो अपने तर्क और राय पर कायम थे । जब मैंने उनसे
सवाल किया कि आप अमिताभ कि तुलना कसाब से कैसे कर सकते हैं तो उन्होंने दो टूक कहा
था कि मैंने अपनी राय लिख दी, आप अपनी लिखें । जनवरी में ही मैंने उनकी इस राय के खिलाफ
लेख लिखा । लेख छपने के तीन दिन बाद निदा साहब का फोन आया और उन्होंने कहा कि कर ली
ना तुमने अपने मन की । फिर काफी बातें हुई लेकिन मुझे उसमें कहीं से तल्खी नहीं महसूस
हुई । मुझे लगा कि उनमें अपनी आलोचना को स्पेस देने का माद्दा था ।
उसके बाद मैंने निदा को और पढ़ना शुरू किया तो मुझे यह लगा कि निदा फाजली हिंदी-उर्दू
की तरक्कीपसंद अदबी रवायत के प्रतिनिधि शायर थे । मजरूह सुल्तानपुरी के बाद निदा ऐसे
शायर थे जिन्होंने शायरी को उर्दू और फारसी की गिरफ्त से आजाद कर आम लोगों तक पहुंचाया
। उन्होंने हिंदी-उर्दू की जुबां में शायरी की । कह सकते हैं कि हिन्दुस्तानी उनकी
शायरी में बेहतरीन रूप से सामने आई । ताउम्र निदा हिंदी और उर्दू के बीच की खाई को
पाटने में लगे भी रहे । वो इस बात के विरोधी थे कि मुशायरों में सिर्फ शायरों को और
कवि सम्मेलनों में सिर्फ कवियों को बुलाया जाए । उन्होंने कई मंचों पर गोपाल दास नीरज
के साथ साझेदारी में कविताएं पढ़ी थी । उनकी शायरी को देखते हुए ये लगता था कि उन्होंने
हिंदू मायथोलॉजी का गहरा अध्ययन किया था । सूरदास और कबीर के पदों से उन्होंने प्रेरणा
ली औक शायरी की । निदा बेखौफ होकर अपनी बात कहते थे । जिस तरह से कबीर ने मस्जिदों
और मंदिरों को लेकर काफी बेबाकी से लिखा था उसी तरह से निदा ने भी लिखा- ‘बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान, एक खुदा के पास इतना बड़ा मकान’ या फिर ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें ,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए ।‘ उनकी शायरी के ये स्वर
लंबे वक्त तक साहित्य में याद किए जाएंगे ।
निदा फाजली का जन्म 12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में हुआ था और वो अपने माता-पिता
की तीसरी संतान थे और उनका असली नाम मुक्तदा हसन था । बंटवारे के वक्त उन्होंने पाकिस्तान
जाने की बजाए भारत में ही रहना ताय किया था क्योंकि वो दोस्तों से बिछुड़ना नहीं चाहते
थे । उनका बचपन ग्वालियर में बीता था जहां उन्होंने उस वक्त के विक्टोरिया कॉलेज से
पढ़ाई पूरी की थी । ग्वालियर में रहते हुए उन्होंने उर्दू अदब में अपनी पहचान बना ली
थी । उस वक्त ही उन्होंने अपना नाम बदल कर निदा फाजली रख लिया । उनकी कविताओं का पहला संग्रह ‘लफ्जों का पुल’ जब छपा तो उन्हें काफी शोहरत
मिली, भारत में भी और पाकिस्तान में भी । बाद में वो मुंबई चले गए और फिर वहीं के होकर रह गए । उनकी शायरी परवान चढ़ी और
जगजीत सिंह की आवाज ने उनको लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया । कालांतर में उन्होंने
फिल्मों के लिए गीत लिखने शुरू किए जो काफी हिट रहे । ‘आप तो ऐसे ना थे’, ‘रजिया सुल्तान’, ‘सरफरोश’, ‘अहिस्ता-अहिस्ता’, ‘इस रात की सुबह नहीं’ और ‘चोर पुलिस’ में लिखे उनके
गीतों ने धूम मचा दी थी । 2013 में निदा फाजली तो भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा
था । इसके अलावा भी उनको दर्जनों पुरस्कार मिले थे । निदा फाजली को 1998 में उनकी कृति
‘खोया हुआ सा कुछ’ के लिए साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित
किया गया था । ‘खोया हुआ सा कुछ’ के अलावा ‘सफर में धूप’, ‘आंखों भर आकाश’, ‘मौसम आते जाते हैं’ ‘लफ्जों के फूल’ ‘मोर नाच’ आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं । ‘दीवारों के बीच’ उनकी गद्य रचना थी जो आत्मकथात्मक
उपन्यास है । इस उपन्यास में उन्होंने विभाजन से लेकर 1965 तक की घटनाओं को सिलसिलेवार
ढंग से पेश किया था । इसके बाद उन्होंने ‘दीवारों के बाहर’ नाम से बाद की घटनाओं को समेटा । फिर ‘तमाशा मेरे आगे’ का पकाशन हुआ जिसमें निदा के छिटपुट लेख संग्रहीत हैं । अंत में निदा की स्मृति
को नमन करते हुए उनकी ही एक कविता – ‘हर कविता मुकम्मल होती है, लेकिन वो कलम से कागज पर, जब आती है, थोड़ी सी कमी रह
जाती है ।‘ अलविदा निदा साहब ।
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