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Monday, February 22, 2016

साहित्य के खर-पतवार

अभी हाल में मैंने कुछ टटके कवियों और कहानीकारों की रचनाएं पढ़ीं तो मन इस वजह से खिन्न हो गया कि उनमें से कई वाक्य विन्यास तक ठीक से नहीं लिख पाते हैं । बावजूद इसके उनकी जिद है कि उन्हें हिंदी साहित्य जगत में रचनाकार के तौर पर मान्यता मिले । इस तरह के छद्म कहानीकारों से फेसबुक और अन्य इंटरनेट के माध्यम पर सहजता से रू ब रू हुआ जा सकता है । इस तरह के रचनाकारों का एक गिरोह फेसबुक पर सक्रिय है जो अपने गैंग के सदस्यों पर अंगुली उठानेवालों पर हमलावर हो जाते हैं और व्यक्तिगत आक्षेप आदि तक पहुंच जाते हैं । खुद को और अपने गिरोह के अन्य सदस्यों को कवि-कहानीकार मनवाने की चाहत में ये माफिया की तरह व्यवहार करते हैं । सवाल उठानेवालों की मंशा को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं । फेसबुक की अराजकता इनके मंसूबों को कामयाब करने की जमीन भी तैयार करते हैं । हलांकि ये भूल जाते हैं कि साहित्य लेखन में क्षणिक वाहवाही का कोई स्थान नहीं होता है, अगर आप की रचनाओं में दम होगा तो आलोचकों और समीक्षकों के लाख दबाने के बावजूद वो पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय होगा । दरअसल जिस तरह से खेत में खड़ी फसलों को कई बार वहां मौजूद खर-पतवार उसके फलने फूलने में बाधा उत्पन्न करता है उसी तरह से साहित्य के इन खर-पतवारों से भी साहित्य का खासा नुकसान हो रहा है । जिस तरह से किसान अपनी अच्छी फसल के लिए अपने खेत से खर-पतवार नियमित अंतराल पर साफ करता रहता है उसी तरह से साहित्य से भी इन खर-पतवारों की नियमित अंतराल पर सफाई आवश्यक है । साहित्य से इनकी सफाई के लिए आवश्यक है कि उनकी गलतियों को उजागर किया जाए । बगैर इस चिंता के कि वो सोशल साइट्स पर क्या लिखते हैं ।

साहित्य के इन खर-पतवारों को ना तो हिंदी भाषा की उदारता का ज्ञान है और ना ही हिंदी की वैज्ञानिक परंपरा का । हिंदी भाषा अपने आप में भारतीय संस्कृति की तरह विशाल है जो नए शब्दों को गढ़ते हुए भी दूसरी भाषा के शब्दों को अपने में समाहित करते हुए चलती है । कहना ना होगा कि हिंदी आज अपनी इसी उदारता की वजह से अपनी स्वीकार्यता को लगातार बढ़ा रही है ।इससे ही पता चलता है कि हिंदी का विकास कितना वैज्ञानिक है । साहित्य के इन नौसिखिए कवि-कहानीकारों की कहानियां या कविताएं छापते वक्त संपादकों की भी जिम्मेदारी है कि वो इनकी कहानियों या कविताओं का संपादन करें । कविता में तो फिर भी छूट ली जा सकती है लेकिन जब कहानी में गलत शब्दों का प्रयोग होता है तो वो बेहद खलता है । साहित्य ये खर-पतवार अगर सचमुच साहित्य लेखन में गंभीरता से आना चाहते हैं तो इनको पहले हिंदी सीखनी चाहिए, उसके व्याकरण को और उसके शब्दों से अपनी पहचान करनी चाहिए । उन्हें इस बात का भी ज्ञान होना चाहिए कि किन शब्दों के बहुवचन होते हैं या नहीं होते हैं या किन शब्दों का प्रयोग स्त्रीलिंग या पुलिंग में समान रूप से होता है । जैसे इनकी कहानियों में मौतें या ताजी शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग होता है । दोनों ही गलत हैं । मौत का बहुवचन नहीं होता और ताजा का स्त्रीलिंग नहीं होता ।  इनको पता होना चाहिए कि हिंदी में शब्दानुशासन की एक लंबी परंपरा रही है । उन्नीस सौ अट्ठावन में पंडित किशोरीदास वाजपेयी की एक किताब आई थी – हिंदी शब्दानुशासन । ये किताब नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी से प्रकाशित हुई थी । उसकी भूमिका में पंडित जी ने बताया है कि किस तरह वो महीने भर लिखते थे और उसको सभा को भेज देते थे । सभा उसकी दस प्रतियां करवाकर दस विद्वानों को परामर्श के लिए भेजी जाती थी । आज आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य के अनुरागियों तक किशोरीदास वाजपेयी की लगभग अप्राप्य किताब पहुंचे । इस किताब की उलब्धता से हिंदी ने नौसिखिए लेखकों की अज्ञानता का अंधकार दूर हो सकता है । हो सकता है इस वजह से कह रहा हूं कि नए कहानीकारों को शब्दों और उसके उपयोग की जानकारी मिल जाएगी बशर्ते कि नए लेखक इसके लिए तैयार हों ।  

1 comment:

rajendra sharma said...

सही है वर्तमान में भिन्न भिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित होने वाली कृतियो के कुछ लेखको की भाषा को देख कर लगता है कि न तो उनके पास हिंदी के अच्छे शब्दो का अभाव है । इस कारण वे उपयुक्त भाव के लिए उपयुक्त शब्दावली का उपयोग नही कर पाते है ।कुछ लोगो ने इस दोष को छिपाने के लिए नई हिंदी के नाम से नए प्रयोग करने का अभियान चला रखा है