समकालीन साहित्यक परिदृश्य में इस बात को लेकर सभी पीढ़ी के लेखकों में मतैक्य
है कि कविता भारी मात्रा में लिखी जा रही है । यह हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि कुंवर
नारायण और केदारनाथ सिंह जैसे बुजुर्ग कवि अब भी रचनारत हैं वहीं बाबुषा कोहली जैसी
एकदम युवा कवयित्री भी कविता कर्म में लगी है । किसी भी साहित्य के लिए ये बेहतर बात
हो सकती है कि एक साथ करीब पांच पीढ़ियां कविकर्म में सक्रिय हैं । लेकिन जब हम कवियों
की संख्या पर नजर डालते हैं तो एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त करीब पंद्रह बीस हजार
कवि एक साथ कविताएं लिख रहे हैं । इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार ने हिंदी में
कवियों की एक नई पौध के साथ साथ एक नई फौज भी खड़ी कर दी है । जब देश में नब्बे के
दशक में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था तो दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में
मैनेजमेंट पढ़ानेवाले संस्थानों की भरमार हो गई थी । उस वक्त ये जुमला चलता था कि दिल्ली
के भीड़भाड़ वाले बाजार, करोलबाग, में अगर पत्थरबाजी हो जाए तो हर दूसरा जख्मी शख्स
एमबीए होगा । कहने का मतलब ये था कि उस वक्त एमबीए छात्रों का उत्पादन भारी संख्या
में हो रहा था क्योंकि हर छोटी बड़ी कंपनी में मैनजमेंट के छात्रों की मांग बढ़ रही
थी । मांग और आपूर्ति के बाजार के नियम को देखते हुए मैनजमेंटके कॉलेज खुलने लगे थे
और उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं गया था । नतीजा हम सबके सामने है । नब्बे के दशक
के आखिरी वर्षों में पांच से छह हजार के मासिक वेतन पर एमबीए छात्र उपलब्ध थे । बाद
में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए मैनजमेंट के ये संस्थान धीरे-धीरे बंद होने लगे । सोशल
मीडिया और इंटरनेट के फैलाव ने कविता का भी इलस वक्त वही हाल कर दिया है । एमबीए छात्रों
पर कहा जानेवाले जुमला कवियों पर लागू होने लगा है । साहित्यक गोष्ठियों मं कहा जाने
लगा है कि वहां उपस्थित हर दूसरा शख्स कवि है । दरअसल सोशल मीडिया ने इसको अराजक विस्तार
दिया। साठ के दशक में जब लघु पत्रिकाओं का दौर शुरू हुआ तो कवियों को और जगह मिली लेकिन
उनको पत्रिकाओं के संपादकों की नजरों से पास होने के बाद स्तरीयता के आधार पर ही प्रकाशित
होने का सुख मिला था । कालांतर में लघु पत्रिकाओं का विस्तार हुआ और हर छोटा-बड़ा लेखक
पत्रिका निकालने लगा । यह इंटरनेट का दौर नहीं था । साहित्यक रुझान वाले व्यक्ति की
ख्वाहिश साहित्यक पत्रिका का संपादक बनने की हुई । ज्यादातर तो बने भी । चूंकि इस तरह
की पत्रिकाओं के सामने आवर्तिता को कायम रखने की चुनौती नहीं होती थी और वो अनियतकालीन
होती थी लिहाजा एक अंक निकालकर भी संपादक बनने का अवसर प्राप्त हो जाता था । संपादक
को अपनी कविताएं अन्यत्र छपवाने में सहूलियत होने लगी । सत्तर से लेकर अस्सी के अंत
तक सहूलियतों का दौर रहा । इक्कीसवीं सदी में जब इंटरनेट का फैलाव शुरु हुआ और फेसबुक
और ब्लॉग ने जोर पकड़ा तो कवियों की आकांक्षा को पंख लग गए । संपादक की परीक्षा से
गुजरकर छपने का अवरोध खत्म हो गया । हर कोई स्वयं की मर्जी का मालिक हो गया । जो लिखा
वही पेश कर दिया । इस सुविधा ने कवियों की संख्या में बेतरह इजाफा कर दिया । एक बड़ी
लाइन और फिर एक छोटी लाइन की कविता लिखने के फॉर्मूले पर कविता धड़ाधड़ सामने आने लगी
। वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी था कि - हिंदी कविता को लेकर एक तरीके का भ्रम व्याप्त है और इस भ्रम को वामपंथी
आलोचकों
ने
बढ़ावा
दिया
। वामपंथी आलोचकों ने इस बात पर जोर दिया कि कथ्य महत्वपूर्ण
है
और
शिल्प
पर
बात
करना
रूपवाद
है
। नरेश सक्सेना ने कहा था कि कथ्य
तो
कच्चा
माल
होता
है
और
शिल्प
के
बिना
कविता
हो
नहीं
सकती
। इन दिनों कविता का शिल्प छोटी बड़ी पंक्तियां
हो
गई
हैं
। नरेश सक्सेना के मुताबिक इन दिनों खराब कविताओं की भरमार है । वो साफ तौर पर कहते हैं कि बगैर शिल्प के कोई कला हो ही नहीं सकती है । वो कहते हैं कि सौंदर्य का भी एक शिल्प होता है । नरेश सक्सेना के मुताबिक इंटरनेट
और
सोशल
मीडिया
में
कोई
संपादक
नहीं
होता,
वहां
तो
उपयोग
करनेवाले स्वयं प्रकाशक होते हैं । प्रकाशन की इस सहूलियत और लोगों के लाइक की वजह से लिखने वाला भ्रम का शिकार हो जाता है । कवियों की संख्या
में इजाफे की एक और वजह हिंदी साहित्य में दिए जानेवाले पुरस्कार हैं । कविता पर जिस
तरह से थोक के भाव से छोटे बड़े, हजारी से लेकर लखटकिया पुरस्कार दिए जा रहे हैं उसने
भी कविकर्म को बढ़ावा दिया । खैर ये तो रही कविता की बात लेकिन अब साहित्य में एक नई
प्रवृत्ति सामने आ रही है ।
हिंदी के ज्यादातर कवियों में अब कहानी लिखने की आकांक्षा और महात्वाकांक्षा जाग्रत
हो गई है । कविता के बाद अब कहानी पर कवियों की भीड़ बढ़ने लगी है । दरअसल इसके पीछे
प्रसिद्धि की चाहत तो है ही इसके अलावा उनके सामने खुद को साबित करने की चुनौती भी
है । कविता की दुनिया से कहानी में आकर उदय प्रकाश, संजय कुंदन, नीलेश रघुवंशी, सुंदर
ठाकुर आदि ने अपनी जगह बनाई और प्रतिष्ठा अर्जित की । उदय प्रकाश ने तो एक के बाद एक
बेहतरीन कहानियां लिखकर साहित्य जगत में विशिष्ठ स्थान बनाया । उनकी लंबी कहानियां
उपन्यास के रूप में प्रकाशित होकर पुरस्कृत भी हुई । इसी तरह से संजय कुंदन ने भी पहले
कविता की दुनिया में अपना मुकाम हासिल किया और फिर कहानी और उपन्यास लेखन तक पहुंचे
। लेकिन पद्य के साथ साथ गद्य को साधना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है । हाल के
दिनों में जिस तरह से फेसबुक आदि पर सक्रिय कविगण कहानी की ओर मुड़े हैं उससे कहानी
का हाल भी कविता जैसा होने की आशंका पैदा हो गई है । लघु पत्रिकाओं के धड़ाधड़ छपने
और बंद होने के दौर में नामवर सिंह ने एक बार कहा था – हिंदी में अच्छी कहानियां नहीं लिखी जा रही हैं, यह चिंता का विषय नहीं है, बल्कि
चिंता का विषय यह है कि उसमें अच्छी और बुरी कहानियों की पहचान लुप्त होती जा रही है
। नामवर जी की वो चिंता वाजिब थी । बल्कि अब तो ये खतरा पैदा होने लगा है कि अच्छी
कहानियां बुरी कहानियों दबा ना दें । आज लिखी जा रही कहानियों को देखें तो दो तीन तरह
की फॉर्मूलाबद्ध कहानियां आपको साफ तौर पर दिखाई देती हैं । एक तो उस तरह की कहानी
बहुतायत में लिखी जा रही है जो बिल्कुल सपाट होती है । इन कहानियों में रिपोर्ताज और
किस्सागोई के बीच का फर्क धूमिल हो गया है । भोगे हुए या देखे हुए यथार्थ को नाम पर
घटना प्रधान कहानी पाठकों के सामने परोसी जा रही है जिसके अंत में जाकर पाठकों को चौंकाने
की तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है । इसके अलावा कुछ कहानियों में भाषा से चमत्कार
पैदा करने की कोशिश की जाती हैं। ग्राम्य जीवन पर लिखनेवाले कहानीकार अब भी रेणु की
भाषा के अनुकरण से आगे नहीं बढ़ पाए हैं । ग्राम्य जीवन चाहे कितना भी बदल गया हो हिंदी
कहानी में गांव की बात आते ही भाषा रेणु के जमाने की हो जाती है । इस दोष के शिकार
बहुधा वरिष्ठ कथाकार भी हो जा रहे हैं । सुरेन्द्र चौधरी ने एक जगह लिखा भी था कि – रचनाधर्मी कथाकार जीवन के गतिमान सत्य से अपने को जोड़ता हुआ नए सत्यों का निर्माण
भी करता है । नए सत्यों के निर्माण पर कुछ लोग मुस्कुरा सकते हैं । उनके अनुसार सत्य
का निर्माण तो वैज्ञानिकों का क्षेत्र है साहित्यकार का नहीं । सत्य के निर्माण से हमारा तात्पर्य भाव-संबंधों
के निर्माण से है, वस्तु निर्माण से नहीं । रचनाधर्मी कथाकार समाज द्वारा गढ़े गए नए
सत्यों से भावात्मक संबंध स्थापित करता हुआ उन्हें नए परिप्रेक्ष्य के योग्य बना देता
है । सामयिकता का शाब्दिक रूप से पीछा करनेवाले लोग रचनाधर्मी नहीं होते ।‘ सुरेन्द्र चौधरी ने ये बातें काफी पहले कही थीं लेकिन आज भी वो मौजूं है । ग्राम्य
जीवन से इतर भी देखें तो आज की कहानी में आधुनिकता के नाम पर वर्तमान का पीछा करते
हुए कहानीकार लोकप्रिय बनने की चाहत में दिशाहीन होता चला जा रहा है । मानविीय संबंधों
को नए सिरे से परिभाषित करने के चक्कर में ऊलजूलल लिखकर पाठकों और आलोचकों का ध्यान
खींचने की जुगत शुरू हो गई है । जिसकी वजह
से आज हिंदी कहानी के सामने पठनीयता का संकट खड़ा होने की आशंका
बलवती हो गई है । दरअसल साहित्य में इस तरह के दौर आते जाते रहते हैं लेकिन इस बार
ये दौर सोशल मीडिया के अराजक प्लेटफॉर्म की वजह से गंभीर खरते के तौर पर सामने है ।
यह देखना दिलचचस्प होगा कि अच्छी कहानी खुद को किस तरह से बचा पाती है ।
6 comments:
पूरा लेख पढ़ा, विचारणीय आकलन है....
आपका लेख तथ्य-सत्य पूर्ण तथा संतुलित-संयमित ढंग से हिंदी के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य की निगरानी की तरह है ।
हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य पर बेबाक टिप्पणी ।आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ ।
बढ़िया आलेख लेकिन नाम भी देते तो ...
एक सटीक आलेख ..........घटनाओं को कहानी के रूप में प्रस्तुत कर देना मुझे हमेशा अखरता रहा और मैं हमेशा कहती हूँ ......कहानी हो तो उसका अंत जरूर हो ..........वर्ना वो पड़ाव भर है एक मुकम्मल कहानी नहीं .........आज वो दृष्टिकोण ख़त्म किया जा रहा है नयी कहानी के नाम पर जो कहानी के परिदृश्य को बोझिल और ऊबाऊ बना रहा है . कई बार तो शुरू से आखिर तक इतना सुन्दर दृश्यांकन होता है पाठक उसमे रमा रहेगा लेकिन यदि कहानी पूछी जाए तो वो नदारद होती है और आज इसी को कहानी कहा जाने लगा जो एक खतरनाक स्थिति है तभी मैंने एक आलेख लिखा था ' कहानी में कहानी कहाँ '.
यूँ तो और भी बहुत कुछ कहने को लेकिन वो फिर कभी
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 5 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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