हिंदी के वरिष्ठ कथाकार और साहित्यक पत्रिका हंस
के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव हमेशा आपसी बातचीत में और अपने साक्षात्कारों में
कहते थे कि देश के विश्वविद्लायों के हिंदी विभाग रचनात्मकता की कब्रगाह हैं । उनका
कहना था कि विश्वविद्लायों के हिंदी विभागों के शिक्षक नया कुछ भी नहीं कर पाते
हैं और सूर, कबीर,तुलसी और मीरा से आगे नहीं बढ़ पाते हैं । राजेन्द्र यादव ने
उपन्यास समीक्षा के औजारों और प्रणाली पर लिखा था- यह समीक्षा विश्वविद्यालयों के
आसपास मंडराती है और एक डॉक्टर दूसरे डॉक्टर के उपन्यासों पर अभ्यास करता है । इस
प्रकार की समीक्षाओं को बाद में एक जिल्द में समेटकर कोई भारी-भरकम डरावना सा नाम
दे दिया जाता है । संपादक होते हैं कोईउपन्यासकार-समीक्षक डॉक्टर । राजेन्द्र यादव
के इस तंज को समझा जा सकता है । यहां वो पीएचडी वाले प्रोफेसरों को डॉक्टर कह कर
संबोधित करते हैं क्योंकि अब भी विश्वविद्यालयों में एक दूसरे को डॉक साब कहने की
परंपरा है । कालांतर में राजेन्द्र यादव ने अपना दायरा बढ़ा लिया था और उनको लगने
लगा था कि भारत के विश्वविद्यालय रचनात्मकता के कब्रगाह हैं । वो उन शिक्षकों को को
गाहे बगाहे आड़े हाथों लेते रहते थे जो कि शिक्षण कार्य की बजाए साहित्य की
राजनीति में मशरूफ रहते थे, गोष्ठियों सेमिनारों से लेकर नेताओं की गणेश परिक्रमा
में लगे रहते थे । दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जारी विवाद के बीच
राजेन्द्र यादव का कथन सही ही लगता है । इसी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के
हिंदी के एक शिक्षक के खिलाफ छात्रों ने पर्चे आदि छपवाकर बांटे थे । उनपर आरोप था
कि वो शिक्षण कार्य से इतर सभी कामों में गंभीरता से लगे रहते हैं । इन दिनों उनको
भी जेएनयू की चिंता सता रही है । यही हाल देशभर के कमोबेश सभी विश्वविद्यालयों का
है । देश के चंद विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो हर जगह हालात इतने बुरे हैं
जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती । दिल्ली के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की
स्थापना जिन उद्देश्यों के लिए की गई थी वो कहां हासिल किया जा रहा है । हाल के
दिनों में इस तरह का कोई शोध सामने नहीं आया है जिसकी अंतराष्ट्रीय स्तर पर तो
छोड़िए राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा हुई हो । क्या जेएनयू की स्थापना का उद्देश्य
सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे छात्रों को सुविधा मुहैया करवाना था । अगर ये था
तो इलाहाबाद और पटना विश्वविद्यालय क्या बुरे थे ।
दरअसल जेएनयू के माहौल और कामकाज पर विचार करें
तो यहां शोधादि से ज्यादा चर्चा उसके कार्यक्रमों और प्रदर्शनों की होती है । अभिव्यक्ति
की आजादी के नाम पर विश्वविद्यालय कैंपस में अभिव्यक्ति की अराजकता है । विश्वविद्यालय
की स्थापना काल से ही हां वामपंथी विचारों का दबदबा रहा है, लिहाजा इन सेमिनारों
के विषय और वक्ता भी उसी विचारधारा के अनुरूप तय किए जाते हैं । तर्क ये दिया जाता
है कि छात्रों के बीच तर्कशक्ति के विकास और उनकी सोच को पैना करने के लिए इस तरह
का माहौल सबसे मुफीद है । तर्क की आड़ में विचारधारा का प्रचार होता है । संभव है
यह दलील ठीक हो लेकिन इसी जेएनयू में दूसरी विचारधारा के साथ अस्पृश्यता भी देखने
को मिलती है । यह अस्पृश्यता सिर्फ सेमिनार और भाषणों में नहीं दिखाई देती है
बल्कि छुआछूत की ये प्रवृत्ति शोध प्रबंध आदि में देखने को मिलती है । इस बात के
कई ऐसे प्रमाण मौजूद हैं जब वामपंथी विचारधारा के खिलाफ शोध करनेवालों को कोर्ट से
जाकर इंसाफ की गुहार लगानी पड़ी । कोर्ट के आदेश के बाद उनके रिसर्च को मान्यता दी
गई और फिर डिग्री भी । केंद्र में सत्ता बदलने के बाद देश में फासीवाद आने का एलान
करनेवाली वामपंथी जमात को यह समझना होगा कि नरेन्द्र मोदी लोकतांत्रिक तरीके से
चुनी गई सरकार के मुखिया है और जनता ने उनको पांच सालों के लिए चुना है । उनका
राजनीतक विरोध करना विपक्ष का अधिकार है । लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह आवश्यक भी
है लेकिन अपनी पाजनीति के लिए विश्वविद्यालयों और छात्रों का इस्तेमाल करना
बिल्कुल ही उचित नहीं है । वामपंथियों के लिए फासीवाद का मतलब है बीजेपी, आरएसएस
और नरेन्द्र मोदी । उनके लिए स्कूलों में योग शिक्षा भी फासीवाद है, उनके लिए स्कूलों
में वंदे मातरम गाना भी फासीवाद है, उनके लिए सरस्वती वंदना भी फासीवाद है, उनके
लिए अकादमियों या सरकारी पदों से उनको हटाया जाना भी फासीवाद है, उनके लिए इतिहास
अनुसंधान परिषद में बदलाव की कोशिश भी फासीवाद है । दरअसल उनके लिए वामपंथ
कीचौहद्दी से बाहर किससी भी तरह का कार्य फासीवाद है । इस तरह का शोरगुल इन्होंने
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के वक्त भी मचाया था । बावजूद इसके देशभर की अकादमियों
से लेकर तमाम सरकारी गैर सरकारी पदों पर अब भी वामपंथी विचारधारा के ध्वजवाहक ही
राज कर रहे हैं बस उनके सामने हटाए जाने का खतरा है । दरअसल जब तक कांग्रेस की
सरकार रही तो इन अकादमियों और विश्वविद्यालयों पर कमोबेश वामपंथियों का ही कब्जा
रहा और वो अपनी मनमानी चलाते रहे । अब इन मनमानियों पर से परदा उठने लगा तो उनको
फासीवाद नजर आने लगा है । अगर मार्क्सवादियों के अतीत पर नजर डाले तो ये साफ तौर
पर सामने आता है तमाम वामपंथी अपने कार्यप्रणाली से लेकर मन-मिजाज तक में तानाशाह
होते हैं या यों कहे कि फासीवादी होते हैं । देश के तमाम विश्वविद्यालय इस बात के
गवाह हैं कि वैकल्पिक विचारधारा के लोगों को नौकरी आदि से किस तरह से वामपंथियों
ने वंचित किया था और अब भी कर रहे हैं । लेनिन ने कभी कहा भी था कि कम्युनिस्टों
की राजनीति को कोई नैतिकता या फिर कानून रोक नहीं सकती है । चीन और रूस इस बात के
जीते जागते सबूत हैं । कम्युनिज्म के नाम पर वहां तानाशाही नहीं तो क्या है ।
इस बात पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए कि करदाताओं
के पैसे से चलनेवाली इस तरह के विश्वविद्यालयों में एक खास विचारधारा के पोषकों को
ही सिर्फ बार-बार जगह क्यों दी जाती रही है । आज असहिष्णुता और देशप्रेम पर सवाल
खड़े करनेवालों ने कभी भी इस सवाल से टकराने की जहमत क्यों नहीं उठाई । एक खास
विचारधारा को छात्रों के बीच बढ़ाने और उसको प्रचारित करने वालों के खिलाफ कभी
किसी भी कोने अंतरे से आवाज नहीं आई । इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि क्या
इस तरह से एक विचारधारा को प्रचारित करने और मजबूत करने की वजह से ही वहां कश्मीर
की आजादी और भारत विरोधी नारा लगानेवालों को खाद पानी मिला । पड़ताल तो इस बात की
भी होनी चाहिए कि इस खाद पानी का इंतजाम करनेवाले कौन लोग थे । जेएनयू में वो कौन
सी परिस्थियां थी कि डेमोक्रैटिक स्टूडेंट्स यूनियन जैसा संगठन वहां पनपा जिसको कि
पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने बैन कर दिया । वौ कौन लोग थे जो नक्सलियों के समर्थन
में काम करनेवाली इस संस्था के मेंटॉर थे । इस बात को भी उजागर करना चाहिए कि उक्त
छात्र यूनियन ने क्या किया था कि केंद्र सरकार को उसको बैन बैन करना पड़ा था । वो
कौन लोग थे जो दंतेवाड़ा में जवानों की शहादत पर जश्न मनाते थे । जेएनयू छात्र संघ
के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के खिलाफ नोम चोमस्की, ओरहम पॉमुक समेत दुनिया
भर के करीब एक सौ तीस बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया । उनके बयान के शब्दों से
साफ है कि उन्हें किस बात से दिक्कत है । अमेरिका, कनाडा, यू के समेत कई देशों के
प्रोफेसरों ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि भारत की मौजूदा सरकार असहिष्णुता और
बहुलतावादी संस्कृति पर हमला कर रही है । उन्होंने जेएनयू में कन्हैया कुमार की
गिरफ्तारी को शर्मनाक घटना करार दिया है । अब नोम चोमस्की की प्रतिबद्धता तो सबको
मालूम ही है । इन शिक्षाविदों ने जिस तरह की भाषा लिखी है वो उनके पूर्वग्रह को
साफ तौर पर सामने लाता है । इस बयान में लिखा है कि जेएनयू परिसर में कुछ लोगों ने
, जिनकी पहचान विश्वविद्यालय के छात्र के तौर पर नहीं हो सकी है, कश्मीर में
भारतीय सेना की ज्यादतियों के खिलाफ नारेबाजी की । नोम चोमस्की को शायद ये ब्रीफ
नहीं दिया गया कि वहां भारत की बर्बादी के भी नारे लगाए गए थे । इनमें से सभी
प्रोफेसरों से ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि अपने बयान में उन्होंने ये बात किस आधार
पर कही कि भारत की बर्बादी और कश्मीर की आजादी का नारा लगानेवाले जेएनयू के छात्र
नहीं थे । क्या उमर खालिद के बारे में उनको जानकारी नहीं है । लेकिन उनको तो अपनी
विचारधारा की रक्षा में खड़ा होना है । इस स्तंभ में पहले भी इस बात की ओर इशारा
किया गया था कि एक ही वक्त पर कश्मीर से लेकर जेएनयू और दिल्ली के प्रेस क्लब में
अफजल को हीरो बनाने की कोशिश के पीछे की मंशा को उजागर किया जाना चाहिए ।
2 comments:
बहुत ही सटीक लिखा है विजय जी ।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन देश की पहली मिसाइल 'पृथ्वी' और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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