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Wednesday, February 24, 2016

हिंदी की स्वीकार्यता से उपजी कुंठा ·

अदूर गोपालकृष्णन का नाम फिल्म जगत में बेहद आदर के साथ लिया जाता है । उन्होंने अपनी कला प्रतिभा के बल पर मलयालम सिनेमा में क्रांतिकारी परिवर्तन किया जिसकी पूरी दुनिया में सराहना हुई । अदूर ने उन्नीस सौ बहत्तर में अपनी फिल्म स्वयंवरम के माध्यम से मलयाली फिल्मों में नए युग की शुरुआत की थी । लेकिन हाल ही में अदूर ने हिंदी भाषा को लेकर एक ऐसा बयान दिया जो उनकी सोच पर सवाल खड़े कर देती है । अदूर ने कहा कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है और वो हो भी नहीं सकती है । अदूर के मुताबिक कोई भी भाषा, राष्ट्रभाषा तब हो सकती है जब वो देश के सभी लोगों द्वारा बोली जाए ।  उन्होंने इस बात को जोर देकर कहा कि हिंदी एक क्षेत्रीय भाषा है और उसको उसके साथ उसी तरह का बर्ताव किया जाना चाहिए । अदूर एक बेहतरीन फिल्मकार हैं लेकिन भाषा को लेकर उनकी समझ इतनी हल्की है इस बात का अंदाज देश को नहीं था । सवाल हिंदी को थोपने का भी नहीं है उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने का है । गांधी जी ने राष्ट्रभाषा की जो अपेक्षा बताई थी उसके मुताबिक उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों, वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो, उस भाषा से भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम-काज हो सकना चाहिए और उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहनेवाली स्थिति पर जोर न दिया जाए । गांधी जी के बताए इन लक्षणों पर हिंदी भाषा पूरे तौर पर खरी उतरती है । गांधी ने खुद माना था कि हिंदी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं और इससे होड़ लेनेवाली दूसरी भाषा भारत में नहीं है । 20 अक्तूबर 1917 को भरुच में गुजरात शिक्षा परिषद के अध्यक्ष पद के अपने भाषण में गांधी ने कहा था कि यह कहना ठीक नहीं है कि मद्रास और दक्षिण के प्रांतों में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलता है । गांधी के मुताबिक ठेठ द्रविड़ प्रांत में भी हिंदी की आवाज सुनाई देती है । इसमें ये जोड़ा जा सकता है कि अब तो और मजबूती से सुनाई देती है ।

दरअसल अदूर गोपालकृष्णन जैसे विद्वान लोग जब हिंदी को क्षेत्रीय भाषा करार देकर उसको अन्य भारतीय भाषाओं के साथ कोष्ठक में रखना चाहते हैं तब उसकी पृष्ठभूमि में एक भय रहता है । भय हिंदी के उनकी भाषा पर आक्रमण के और उसकी अस्मिता और पहचान के खो जाने की । अदूर जैसे विद्वान को यह समझना होगा कि हिंदी की स्वीकार्यता से किसी अन्य भाषा को कोई खतरा नहीं है । दक्षिण भारत की भाषाएं जिस तरह से आधुनिक काल में संस्कृत के शब्दों को अपनाकर अपनी जरूरतों को पूरा कर रही हैं, साथ ही भाषा की अस्मिता और पहचान भी बचाकर चल रही हैं, उसी तरह से हिंदी भी उनकी सहोदर भाषा के रूप में कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार है । दूसरी बात यह है कि जब हम हिंदी का विरोध करते हैं तो बेवजह भारतीय भाषाओं के बीच एक कटुता पैदा कर देते हैं । इस कटुता का फायदा अंग्रेजी के लोग उठाते हैं । अंग्रेजी के खैरख्वाहों का यह पुराना फॉर्मूला है कि भारतीय भाषाओं के बीच कटुता पैदा करो और फिर अंग्रेजी को संपर्क भाषा के रूप में मजबूत करो । लेकिन नब्बे के दशक में जब से बाजार खुला है तो हिंदी का भी व्यापक रूप से प्रसार प्रचार हुआ है । अब चेन्नई और केरल में भी हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में मजबूती से अपने को स्थापित कर चुकी है । आज चेन्नई और बेंगलुरू और त्रिवेनद्रम में टैक्सी और होटल वाले हिंदी समझते और बोलते हैं । हिंदी फिल्मों और सीरियल के अलावा इंटरनेट के फैलाव ने भी इस प्रवृत्ति को मजबूत किया । इसलिए जब अदूर गोपालकृष्णन जैसे लोग हिंदी के खिलाफ सार्वजनिक मंचों पर बोलते हैं तो उसमें उनकी कुंठा परिलक्षित होती है जो हिंदी की बढती स्वीकार्यता से उपजती है । 

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