इन दिनों
फिल्मी कलाकारों और उनपर लिखी जा रही किताबें बड़ी संख्या में बाजार में आ रही हैं
। फिल्मी कलाकारों या उनपर लिखी किताबें ज्यादातर अंग्रेजी में आ रही हैं और फिर उसका
अनुवाद होकर वो हिंदी के पाठकों के बीच उपलब्ध हो रही हैं । पहले गाहे बगाहे किसी फिल्मी
लेखक की जीवनी प्रकाशित होती थी या फिर किसी और अन्य लेखक के साथ मिलकर कोई अभिनेता
अपनी जिंदगी के बारे में किताबें लिखता था लेकिन अब परिस्थिति बदल गई है । फिल्मी सितारे
खुद ही कलम उठाने लगे हैं । पिछले दिनों नसीरुद्दीन शाह ने अपनी आत्मकथा लिखी । उसके
पहले करिश्मा और करीना कपूर की किताबें आई । दो हजार बारह में करीना कपूर की किताब-
द स्टाइल डायरी ऑफ द बॉलीवुड दीवा आई जो उन्होंने रोशेल पिंटो के साथ मिलकर लिखी थी
। उसके एक साल बाद ही उनकी बड़ी बहन करिश्मा कपूर की किताब- माई यमी मम्मी गाइड प्रकाशित
हुई जो उन्होंने माधुरी बनर्जी के साथ मिलकर लिखी । इसके पीछे हम पाठकों के बड़ा बाजार
को देख सकते हैं । पाठकों के मन में इच्छा होती है कि रूपहले पर्दे पर उनका जो नायक
है उसकी निजी जिंदगी कैसी रही, उसका संघर्ष कैसा रहा, उसकी पारिवारिक जिंदगी कैसी रही
आदि आदि । हम कह सकते हैं कि भारतीय मानसिकता में हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसके
पड़ोसी के घर में क्या घट रहा है ये जाने । यही मानसिकता फिल्मी सितारों पर लिखी जा
रही किताबों के लिएएक बड़ा बाजार उपलब्ध करवाती है । दूसरे फिल्मी सितारों के अंदर
एक मनोविज्ञान काम करता है कि अगर वो किताबें लिखेगा तो बॉलीवुड से लेकर पूरे समाज
में उनकी छवि गंभीर शख्सियत की बनेगी । नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा को साहित्य जगत में
बेहद गंभीरता से लिया गया ।
अभी हाल
ही में शत्रुघ्न सिन्हा की जीवनी आई है जो भारती प्रधान ने लिखी है । इसी तरह से स्मिता
पाटिल पर मैथिली राव की किताब और सलमान खान पर जसिम खान की किताब प्रकाशित हुई है ।
जीवनी और आत्मकथा से अलग हिंदी फिल्मों को लेकर कई गंभीर किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित
हुई हैं । जैसे एम के राघवन की डायरेक्टर्स कट, अनुराधा भट्टाचार्य और बालाजी विट्ठल
की पचास हिंदी फिल्मों पर लिखी गई किताब गाता रहे मेरा दिल, प्रकाश आनंद बक्षी की डायरेक्टर्स
डायरीज आदि प्रमुख हैं । ये किताबें फिल्मी दुनिया की सुनी अनसुनी कहानियों को सामने
लाकर आती हैं । पचास फिल्मी गीतों को केंद्र में रखकर लिखी गई किताब में उन गानों के
लिखे जाने से लेकर उनकी रिकॉर्डिंग तक की पूरी प्रक्रिया को रोचक अंदाज में लिखा गया
है । इसी तरह से डॉयरेर्टर्स डायरी में गोविंद निहलानी, सुभाष घई, अनुराग बसु, प्रकाश
झा, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया समेत कई निर्देशकों के शुरुआती संघर्षों की दास्तां
है । इसके बरक्श अगर हम हिंदी में देखें तो फिल्म लेखन में लगभग सन्नाटा दिखाई देता
है । कुछ समीक्षकनुमा लेखक फिल्म समीक्षा पर लिखे अपने लेखों को किताब की शक्ल दे देते
हैं या फिर कई लेखकों के लेखों को संपादित कर किताबें बाजार में आ जाती है । दरअसल
ये दोनों काम गंभीर नहीं हैं और हिंदी के पाठकों की क्षुधा को शांत कर सकते हैं । पाठक
इन किताबों को उसके शीर्षक और लेखक के नाम को देखकर खरीद लेता है लेकिन पढ़ने के बाद
खुद को ठगा हुआ महसूस करता है । दरअसल हिंदी के लेखकों ने फिल्म को गंभीरता से नहीं
लिया और ज्यादातर फिल्म समीक्षा तक ही फंसे रहे । हिंदी साहित्य में पाठकों को विविधता
का लेखन उपलब्ध करवाना होगा ताकि भाषा की चौहद्दी का विस्तार हो सके ।
No comments:
Post a Comment