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Sunday, February 28, 2016

लचर अधार, कमजोर दलील

एक अंतराष्ट्रीय संस्था है जिसका नाम है, एमनेस्टी इंटरनेशनल । इस संस्था का दावा है कि वो लोगों के पैसे से चलती है और येएक वैश्विक आंदोलन है । दावा तो ये भी करते हैं कि वो किसी भी तरह की विचारधारा से स्वतंत्र हैं लेकिन उनकी आत्मा लेफ्ट की ओर झुकी नजर आती है । इस संस्था की सालाना रिपोर्ट आई है जिसमें भारत के बारे में कई बातें कही गई है जिसका आधार बहुत साफ नहीं है या फिर कुछ छिटपुट घटनाओं के आधार पर पूरे देश की तस्वीर पेश कर दी गई है । दरअसल जब हम पूरी रिपोर्ट को पढ़ते हैं तो उनके आधार को देखते हुए ये लगता है कि इस विशाल देश के बारे में इक्का दुक्का घटनाओं के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचकर एमनेस्टी इंटरनेशनल ने या तो अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है या फिर वो चाहे अनचाहे वो उस विचारधारा और उसके तर्कों के साथ खड़ी नजर आ रही है जो इन घटनाओं को लेकर बवाल मचाते रहे हैं । ये वही एमनेस्टी इंटरनेशनल है जो कहती है कि अंधकार को कोसने से बेहतर है कि एक मोमबत्ती जलाने की कोशिश हो । लेकिन भारत को लेकर इसकी पूरी रिपोर्ट में ये कोशिश की गई है कि जिस भी कोने-अंतरे में हल्का भी अंधेरा हो तो उस अंधेरे को आधार बनाकर निष्कर्ष पर पहुंचा जाए । एमनेस्टी की इसी रिपोर्ट के आधार पर अमेरिका के भारत में राजदूत रिचर्ड वर्मा भी उपदेशक की भूमिका में नजर आए । वो हमारे देश को सहिष्णुता और बंधुत्व की सीख देने में जुट गए । रिचर्ड वर्मा जो नसीहत भारत और भारतीयों को दे रहे हैं वही नसीहत उनको अपने देशवासियों और वहां के ओबामा प्रशासन को देनी चाहिए । अमेरिका में पिछले एक साल में कितने भारतीय नस्लभेद के शिकार हुए हैं ये रिचर्ड को पता होगा । किस तरह से एक गुजराती बुजुर्ग को सरेआम पुलिसवाले ने पीटा वो सारी दुनिया ने देखा । दरअसल यह वैसी श्वेत मानसिकता है जो यह समझती है कि उसको पूरी दुनिया को ज्ञान देने का हक है । कई बार ओबामा भी बारत को नसीहत देते नजर आते हैं लेकिन अपने यहां की घटनाओं को भूल जाते हैं । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जो विस्तार से चर्चा की मांग करता है । फिलहाल तो हम एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट पर चर्चा कर रहे हैं । इस रिपोर्ट में यह बात जोर देकर कही गई है कि भारत में मौजूदा प्रशासन ने सिविल सोसाइटी के उन लोगों को खिलाफ कार्रवाई की जिन्होंने सरकारी नीतियों की आलोचना की । इसके अलावा इस रिपोर्ट में विदेशी फंडिंग पर सरकारी शिकंजे को भी निशाना बनाया गया है और उसको भी देश के माहौल से जोड़ने की कोशिश की गई है । इस रिपोर्ट की ये दो बातें विचार करने योग्य है । सरकार ने किस सिविल सोसाइटी के लोगों को खिलाफ कार्रवाई की इस बात पर एमनेस्टी को विस्तारपूर्वक अपनी रिपोर्ट में सोदाहरण बताना चाहिए था । हां यह सत्य है कि सरकार ने गैरसरकारी संगठनों को विदेशों से मिलनेवाली राशि पर अंकुश अवश्य लगाया है । यह अंकुश कोई नया कानून बानकर या बदले की भावना से लगाया गया हो ऐसा प्रतीत होता नहीं है । अगर सरकार इसको गलत तरीके से अंजाम दे रही होती तो एनजीओ का जो मजबूत कॉकस है वो इसको अदालत में चुनौती दे चुका होता । एमनेस्टी इंटरनेशनल से ये पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार को उन एनजीओ से हिसाब मांगने का हक नहीं है कि विदेशों से मिल रहे पैसों का मनमाना या फिर संगठन के घोषित उद्देश्यों से इतर इस्तेमाल कर रही है । क्या भारत सरकार को ये बात जानने का हक नहीं है कि जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इन एनजीओ को विदेशों से पैसा मिलता है वो उसी पर खर्च होता है या कहीं और उसको डायवर्ट कर दिया जाता है । क्या एमनेस्टी इंटरनेशनल इस बात की वकालत करता है कि एनजीओ अनाप-शानप तरीके से खर्च करें और सरकार उस ओर से आंखें मूंदे रहे । दरअसल एमनेस्टी इंटरनेशनल की इस रिपोर्ट को अगर गंभीरता से पढ़कर विश्लेषित किया जाए तो उसके अंदर एक सूत्र नजर आता है । वो सूत्र है सिविल सोसाइटी के लोगों पर कार्रवाई, विदेशों से मिलनेवाले चंदे के नियमों पर सख्ती, धार्मिक उन्माद से तनाव का बढ़ना, अभिव्यक्ति की आजादी पर उग्र हिंदूवादी संगठनों का हमला, देश में असहिष्णुता का वातावरण, क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में खामी । चलिए अगर बाकी निष्कर्षों को छोड़ भी दिया जाए तो सिर्फ इनपर नजर डाल लेते हैं । उपरोक्त सभी धार में घूम फिरकर वही वगी लोग नजर आएंगे जो एनजी चलाते हैं और विदेशों से धन हासिल करते हैं । हमें तो लगता है कि देश में हो रही सारी गड़बड़ियों की बात को फैलाने के पीछे एनजीओ की फंडिंग पैटर्न को सख्त बनाने का सरकार का निर्णय है । पहले ये होता था कि विदेशी पैसों पर एनजीओ का बड़ा रैकेट चलता था । उसकी ऑडिटिंग आदि का काम ढीले ढाले तरीके से होता था । पैसा आता किस और नाम से था और खर्च किसी और काम पर होता था । नई सरकार ने इसपर रोक लगा दी लिहाजा एनजीओ सर्किट में हड़कंप मच गया और सरकार को बदनाम करने की कशिशें तेज हो गईं । अगर हम इस बात पर विचार करें तो पाते हैं कि भारत में एनजीओ को पैसे देनेवाले विदेशी संगठन इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को बढ़ावा देने का काम भी करते हैं । जैसे एक संगठन है अल खैर जो ग्रेट ब्रिटेन से चलता है जो खुद को अग्रणी मुस्लिम चैरिटी कहता है । इस संस्था ने इस्लामिक शिक्षा के आधार पर एक स्कूल की शुरुआत की थी और इसके घोषित उद्देश्यों में मानवाधिकार, शिक्षा और आपात स्थितियों में लोगों की मदद करना है । हैरानी तब होती है जब ये संस्था भारत में उन सेमिनारों को आर्थिक मदद करती है जो सरकार की नीतियों को कठघरे में खड़ा करती है । चलिए यहां तक भी माना जा सकता था लेकिन अल खैर उन सेमिनारों को भी आर्थिक मदद करता है जहां परोक्ष रूप से राजनीति और जनमानस को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है । अब अगर सरकार इस तरह की संस्थाओं से मिलनेवाली आर्थिक मदद का हिसाब मांग रही है तो उसमें गलत क्या है । सरकार के इस कदम से एनजीओ की आड़ में धंधा चलानेवालों को काफी तकलीफ हो गई । उन्हें सरकार असहिष्णु नजर आने लगी और इन सबके प्रभाव में आकर एमनेस्टी जैसी संस्थाएं भी वही सुर अलापने लगीं ।

एमनेस्टी ने अपनी रिपोर्ट में देश में अभिव्यक्ति की आजादी को भी खतरे में बताया है । ये रिपोर्ट कहती है कि भारत में अंतराष्ट्रीय स्तर की अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है । एमनेस्टी को साफ करना चाहिए था कि अभिव्यक्ति की आजादी का मानक क्या है । हमारे देश में तो ये आजादी संविधान के हिसाब से मिली हुई है । संविधान में बहुत साफ है कि इन आजादी पर किन हालात और स्थितियों में पाबंदी है । अंतराष्ट्रीय स्तर चाहे जो हो भारत तो अपने संविधान के हिसाब से चलता है और आगे भी चलता रहेगा । अभिव्यक्ति पर पाबंदी के सिलसिले में इस रिपोर्ट में दो उदाहरण दिया गया है । पहला उदाहरण है केरल में दो शख्स की माओवादी साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तारी और उसके बाद तमिलनाडू में वहां की सरकार और मुख्यमंत्री के खिलाफ गीत लिखनेवाले एक दलित गायक की गिरफ्तारी । इसके अलावा इस रिपोर्ट में वही पुरानी घिसी पिटी बातें है जिन तर्कों के आधार पर बिहार चुनाव से पहले पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया गया था । तमिलनाडू में दलित गायक के साथ गलत किया गया उसका पूरे देश ने विरोध किया । अब एमनेस्टी इंटरनेशनल को कौन समझाए कि भारत में माओवादी किस तरह से एक संगठित अपराधी संगठन में तब्दील हो चुका है । जो ना केवल मासूम लोगों की हत्या करता है बल्कि फिरौती से लेकर रेप आदि जैसे वारदात को अंजाम भी देता है । अब इस तरह के संगठनों के साहित्य से अगर किसी का संबंध है तो उसको क्या खुला छोड़ दिया जाना चाहिए । सवाल वही है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कई जगह इस बात के संकेत मिलते हैं कि वो वाम विचारधारा की ओर झुकी हुई है । दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जो लोग या संस्थाएं ये राय बनाती हैं उनको उन परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा जिनमें उसको बंदिशें लगाई जाती है । माओवादी साहित्य रखना और उसका प्रचार प्रसार करना अपराध है या नहीं इसका फैसला देश की सक्षम अदालतें करेंगी, एमनेस्टी इंटपनेशनल नहीं । इस तरह की रिपोर्ट से किसी भी संस्था की साख पर सवाल खड़ा होता है । सवाल तो उनपर भी खड़ा होता है जो उनकी रिपोर्टों पर हल्ला गुल्ला मचाने लगते हैं बगैर सोचे समझे । इस तरह की रिपोर्ट को पहले वस्चुनिष्ट होकर परीक्षण करना चाहिए फिर उसपर प्रतिक्रिया देनी चाहिए, उसके मंसूबों को समझते हुए । 

1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " "सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती...." " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !