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Saturday, September 3, 2016

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

ये हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि नब्बे साल के आसपास के और उसके पार के कई लेखक अभी भी अपनी रचनात्मक मौजूदगी और सक्रियता से पूरे परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं । नामवर सिंह तो अब भी गोष्ठियों की शान हैं । रामदरश मिश्र लगातार अपने लेखन से समकालीन साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं । इसी तरह से कृष्णा सोबती की हिंदी साहित्य में उपस्थिति आश्वस्तिकारक है । पिछले दिनों जब पूरे देश में असहिष्णुता के खिलाफ कुछ लेखकों ने आंदोलन और पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया था तो उसके बाद दिल्ली में देशभर के लेखकों का एक जमावड़ा भी हुआ था । कृष्णा सोबती जी उस जमावड़े में पहुंची थीं और अपनी बात उन्होंने रखी थी । उस वक्त देश में कथित तौर पर बढ़ रहे असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापसी अभियान को कृष्णा सोबती की भागीदारी से बल मिला होगा, ऐसा मेरा मानना है । उनकी भागीदारी का जनमानस पर कितना असर हुआ इस पर मतभिन्नता हो सकती है। लेखक के तौर पर उनको अपनी बात कहने का हक है और साहित्य से इतर राजनीति पर भी अपनी राय प्रकट करने का अधिकार । कृष्णा सोबती के इस अधिकार की उनके वैचारिक विरोधियों ने भी सम्मान किया । असहिष्णुता के खिलाफ अभियान का साथ देनेवाली कृष्णा सोबती से हिंदी जगत सहिष्णुता की अपेक्षा करता है । वाजिब भी है क्योंकि कहा जाता है कि जैसी आपकी अपेक्षा हो वैसा ही आपको आचरण करना चाहिए । लेकिन लगता है कि कृष्णा सोबती जी की अपेक्षाएं तो सहिष्णुता की है लेकिन वो अपने आचरण में वैसा दिखना नहीं चाहती हैं । अभी हाल के अपने एक आचरण से उन्होंने इस बात के संकेत दिए कि वो एक सीमा के बाद असहिष्णु हो जाती है । पूरा वाकया ये है कि युवा लेखिका, फोटग्राफर कायनात काजी के कृष्णा सोबती के लेखन पर किए गए शोध प्रबंध के प्रकाशन और विमोतन से जुड़ा । श्रमपूर्वक सालों तक शोध कार्य के बाद कायनात काजी की किताब – कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज प्रकाशित हुई । युवा लेखिका के लिए यह सपने के सच होने जैसा था । हिंदी की मौजूदा दौर की सबसे बड़ी लेखिकाओं में से एक कृष्णा सोबती पर प्रकाशित किताब को लेकर वो खासी उत्साहित थीं । पुस्तक प्रकाशित होने के बाद ज्यादातर लेखकों को उसको विमोचित करवाने और उस पर चर्चा आदि की इच्छा होती है । कायनात ने भी ऐसा ही एक सपना देख लिया लेकिन उसे नहीं पता था कि उसका ये सपना दिवास्वप्न साबित होगा । विमोचन के लिए उसने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव सच्चिदानंद जोशी और दूरदर्शन के संपादक और तिब्बत के मसलों पर काफी दिनों से सक्रिय विजय क्रांति को बुला लिया । कार्ड आदि भी छप और बंट भी गए । उत्साह में उसने कार्ड कृष्णा सोबती जी को भेज दिया । अब यहीं से हिंदी की इस युवा लेखिका कायनात काजी के सपनों के दरकने की शुरुआत हो गई । विमोचन कार्यक्रम के कार्ड पर जोशी जी और विजयक्रांति का नाम देखकर वो आगबबूला हो गईं और कायनात को फौरन इस कार्यक्रम को रद्द करने का फरमान जारी कर दिया । वजह बेहद दिलचस्प । कृष्णा जी का मानना था कि चूंकि कार्यक्रम में सभी संघियों को बुला लिया गया है लिहाजा वो वहां अपने नाम का इस्तेमाल होने की इजाजत नहीं दे सकती । एक तरफ कृष्णा सोबती जैसी हिंदी साहित्य की कद्दावर लेखिका तो दूसरी तरफ एक नवोदित लेखिका कायनात काजी । बताया जा रहा है कि कृष्णा सोबती जी ने तो कायनात को धमकी दी कि अगर विमोचन का कार्यक्रम हुआ और उसमें उनके नाम का इस्तेमाल किया गया तो वो केस कर देंगी । कृष्णा जी के साहित्यक कद और प्रतिष्ठा के आगे कायनात काजी ने अपने सपनों को कुर्बान कर दिया । विमोचन का कार्यक्रम नहीं हुआ ।
कुछ दिनों पहले कृष्णा सोबती जी का एक इंटरव्यू छपा था जिसमें उन्होंने युवा लेखकों को लेकर उत्साह दिखाया था समकालीन युवा लेखन को लेकर आश्वस्त भी दिखाई दे रही थीं । उन्होंने किसी लेखक का नाम तो नहीं लिया था लेकिन युवा लेखकों को चेताते हुए उनको अपने लिखे की तारीफ की अपेक्षा से बचने की सलाह दी थी। उन्होंने युवा रचनाकारों को देश विदेश के लेखकों को पढ़ने की नसीहत भी दी थी और कहा था कि इससे उनकी सोच का दायरा बढ़ेगा । जब उनकी नसीहतों के मुताबिक एक युवा लेखिका ने कृष्णा जी की रचनाओं को पढ़कर, समझकर अपने सोच का दायरा बढ़ाने की कोशिश की तो उसका क्या हश्र हुआ ये पूरे हिंदी साहित्य के सामने है । ऐसी परिस्थितां साहित्य जगत में हर काल में मौजूद रही होंगी तभी तो कहा गया है – पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।
अब जरा हम कृष्णा सोबती की उस मानसिकता का विश्लेषण करते हैं जिसके तहत उन्होंने पुस्तक विमोचन के कार्ड को देखने के बाद कहा कि सभी संघियों को बुला लिया । चलिए अगर हम कृष्णा जी की बात मान भी लें कि सच्चिदानंद जोशी और विजयक्रांति संघी हैं तो क्या संघी होने से कोई भी शख्स अस्पृश्य हो जाता है । क्या वामपंथी या अन्य किसी विचारधारा को माननेवालों के लिए अपने से अलग विचारधारा के साथ विचार विनिमिय नहीं करना चाहिए । अगर कृष्णा जी को संघियों से और उनकी विचारधारा से इतना ही परहेज या घृणा है तो उनको अपनी किताबों के कवर पर लिखवा देना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े या उनकी विचारधारा को मानने वाले इस किताब को नहीं खरीदें । क्या कृष्णा जी ये साहस दिखा पाएंगी । अगर पूर्व प्रकाशित किताबों पर नहीं लिखा तो क्या शीघ्र प्रकाश्य अपनी आत्मकथात्मक कृति गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक के कवर पर यह लिखने का साहस दिखा पाएंगी । अगर हां तो उनके साहस को सलाम किया जाना चाहिए और कायनात काजी के विमोचन को टलवा देने के उनके फैसले को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए । अगर वो ऐसा करने का साहस नहीं दिखा पाती हैं तो फिर उनके इस दोहरे रवैये पर साहित्य जगत में व्यापक बहस होनी चाहिए । क्या ये एक प्रकार की साहित्यक असहिष्णुता और अस्पृस्यता नहीं है । कृष्णा जी हिंदी साहित्य की गौरव हैं और उनका लेखन हिंदी समाज कि थाती । उसपर चर्चा करने का हक व्यापक हिंदी समाज को है । मेरा तो मानना है कि किसी भी लेखक की कृति जब छपकर पाठकों के बीच पहुंच जाती है तो वो लेखक से ज्यादा पाठकों की हो जाती है, चाहे वो किसी भी विचारधारा, जाति या धर्म का क्यों ना हो । क्या पाठक की भी कोई अलग पहचान हो सकती है । क्या साहित्य में वर्ग विभाजन का कृष्णा जी का ये कदम उचित है । एक नवोदित लेखिका के साथ इस तरह का व्यवहार अगर साहित्य के शिखर पर बैठी लेखिका करेंगी तो साहित्यकारों की कैसी छवि बनेगी इसका सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है ।
अब रही बात कायानात को केस करने की धमकी की तो कृष्णा जी ने तो अमृता प्रीतम पर उनकी कृति हरदत्त का जिंदगीनामा को लेकर केस कर ही दिया था । वो केस करीब पच्चीस साल तक चला था और फैसला अमृता प्रीतम के पक्ष में आया था । दरअसल अमृता प्रीतम की किताब हरदत्त का जिंदगीनामा, जब छपा तो कृष्णा जी को लगा कि ये शीर्षक उनके चर्चित उपन्यास जिंदगीनामा से उड़ाया गया है और वो कोर्ट चली गईं । साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कृष्णा सोबती और ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजी गई अमृता प्रीतम के बीच इस साहित्यक विवाद की उस वक्त पूरे देश में खूब चर्चा हुई थी । जब केस का फैसला आया तो अमृता प्रीतम की मौत हो गई थी । केस के फैसले के बाद कृष्णा सोबती ने बौद्धिक संपदा का तर्क देते हुए कहा था कि हार जीत से ज्यादा जरूरी उनके लिए अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए संघर्ष करना था । अब उस वक्त भी कई लेखकों ने कृष्णा सोबती को याद दिलाया था कि जिंदगीनामा का पहली बार प्रयोग उन्होंने नहीं किया था । कृष्णा सोबती के उपन्यास के पहले फारसी में लिखी दर्जनों किताबें इस शीर्षक के साथ मौजूद हैं । मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने तो उस वक्त भी कहा था कि श्रद्धेय गुरु गोविंद सिंह जी के एक शिष्य़ ने उनकी जीवनी भी जिंदगीनामा के नाम से लिखी थी और ये किताब कृष्णा सोबती के उपन्यास के काफी पहले प्रकाशित हो चुकी थी । जिंदगीनामा को लेकर कैसी बौद्धिक संपदा का गुमान और उसको लेकर कैसा विवाद और केस मुकदमा । बावजूद इसके कृष्णा जी ने वो सब किया। ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्णा जी के इस कदम की जानकारी कायनात काजी को थी लिहाजा इस नवोदित लेखिका ने केस मुकदमों के पचड़े में पड़ने की बजाए कृष्णा जी के फरमान को मानने में ही अपनी भलाई समझी और पुस्तक विमोचन और उसपर चर्चा के कार्यक्रम को रद्द कर दिया । पुस्तक विमोचन का रद्द होना संभव है मामूली घटना लगे लेकिन इसकी अनुगूंज लंबे समय तक सुनाई देगी ।      


4 comments:

प्रदीप सिंह said...

आपक ा लेख पढा। आपने बडे करीने से लेख को लिखा है। इसके लिए साधुवाद। युवा लेखिका कायनात काजी ने श्रमपूर्वक कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज नामक पुस्तक लिखी। काजी ने पुस्तक विमोचन के लिए व्यक्ति और स्थान तय कर दिया। इस विषय में कृष्णा सोबती से कोई बातचीत नहीं की। कार्यक्रम का कार्ड देने गयीं तब उन्हें मालूम हुआ कि कब,कहां और कौन विमोचन कर रहा है। क्या लेखिका कायनात काजी कृष्णा सोबती को यह हक देना चाहती हैं कि उनके जीवन और रचना पर आधारित पुस्तक विमोचन में उनकी भी राय ली जाए। या कायनात अकेले ही यह तय करना चाहती थी। बाकी कौन संघ का है, कौन असहिष्णु है। यह सब बाद की बात है।

प्रदीप सिंह said...

आपक ा लेख पढा। आपने बडे करीने से लेख को लिखा है। इसके लिए साधुवाद। युवा लेखिका कायनात काजी ने श्रमपूर्वक कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज नामक पुस्तक लिखी। काजी ने पुस्तक विमोचन के लिए व्यक्ति और स्थान तय कर दिया। इस विषय में कृष्णा सोबती से कोई बातचीत नहीं की। कार्यक्रम का कार्ड देने गयीं तब उन्हें मालूम हुआ कि कब,कहां और कौन विमोचन कर रहा है। क्या लेखिका कायनात काजी कृष्णा सोबती को यह हक देना चाहती हैं कि उनके जीवन और रचना पर आधारित पुस्तक विमोचन में उनकी भी राय ली जाए। या कायनात अकेले ही यह तय करना चाहती थी। बाकी कौन संघ का है, कौन असहिष्णु है। यह सब बाद की बात है।

Anonymous said...

आपक ा लेख पढा। आपने बडे करीने से लेख को लिखा है। इसके लिए साधुवाद। युवा लेखिका कायनात काजी ने श्रमपूर्वक कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज नामक पुस्तक लिखी। काजी ने पुस्तक विमोचन के लिए व्यक्ति और स्थान तय कर दिया। इस विषय में कृष्णा सोबती से कोई बातचीत नहीं की। कार्यक्रम का कार्ड देने गयीं तब उन्हें मालूम हुआ कि कब,कहां और कौन विमोचन कर रहा है। क्या लेखिका कायनात काजी कृष्णा सोबती को यह हक देना चाहती हैं कि उनके जीवन और रचना पर आधारित पुस्तक विमोचन में उनकी भी राय ली जाए। या कायनात अकेले ही यह तय करना चाहती थी। बाकी कौन संघ का है, कौन असहिष्णु है। यह सब बाद की बात है।

Anonymous said...

आपक ा लेख पढा। आपने बडे करीने से लेख को लिखा है। इसके लिए साधुवाद। युवा लेखिका कायनात काजी ने श्रमपूर्वक कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज नामक पुस्तक लिखी। काजी ने पुस्तक विमोचन के लिए व्यक्ति और स्थान तय कर दिया। इस विषय में कृष्णा सोबती से कोई बातचीत नहीं की। कार्यक्रम का कार्ड देने गयीं तब उन्हें मालूम हुआ कि कब,कहां और कौन विमोचन कर रहा है। क्या लेखिका कायनात काजी कृष्णा सोबती को यह हक देना चाहती हैं कि उनके जीवन और रचना पर आधारित पुस्तक विमोचन में उनकी भी राय ली जाए। या कायनात अकेले ही यह तय करना चाहती थी। बाकी कौन संघ का है, कौन असहिष्णु है। यह सब बाद की बात है।