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Saturday, April 27, 2019

चुनावी कोलाहल में साहित्य का अर्धसत्य


लोकसभा चुनाव के तीन चरण संपन्न हो चुके हैं और चार चरण के चुनाव होना शेष है। चुनावी कोलाहल के बीच साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़े सैकड़ों लोग खुलकर नरेन्द्र मोदी के पक्ष और विपक्ष में सामने आ रहे हैं। अबतक कई तरह की अपील जारी की चुकी हैं। किसी अपील में मोदी का नाम है तो किसी में बगैर मोदी के नाम के अपील जारी की गई है। जब भी कोई अपील जारी की जाती है तो उसके पक्ष और विपक्ष में सोशल मीडिया पर शोर-शराबा शुरू हो जाता है। इसी शोर शराबे के बीच हिंदी की वरिष्ठ और सम्मानित लेखिका मृदुला गर्ग ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी जिसपर विवाद हो रहा है। मृदुला गर्ग ने अपनी टिप्पणी में लिखा- कभी सोचा नहीं था कि एक वक़्त ऐसा भी आएगा जब हिन्दी के लेखक जिनमें साहित्य अकादमी से पुरस्कृत लेखक भी हैं, ताल ठोंक कर सत्तासीन राजनीतिक पार्टी को दुबारा सत्ता में लाने के लिए प्रचारक की भूमिका निभाएंगे। अपनी ही अभिव्यक्ति पर रोक का उत्सव मनाएंगे! किसलिए? क्या प्राप्त करना चाहते हैं? अपनी शर्म और साहित्यिक गरिमा का मटियामेट कर लिया तो कम अज़ कम दूसरों को तो न बरगलायें।दरअसल इस टिप्पणी में मृदुला गर्ग ने नाम नहीं लिया पर स्पष्ट रूप से उनका इशारा हिंदी की ही एक वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुदगल की ओर था। 23 अप्रैल को पोस्ट की गई मृदुला गर्ग की इस टिप्पणी की पृष्ठभूमि यह है कि 20 अप्रैल 2019 को भारतीय साहित्यकार संगठन ने दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस करके मोदी के समर्थन में देश भर के 410 लेखकों की एक अपील जारी की थी। इस अपील में चित्रा मुद्गल का भी नाम था। उसके बाद ही मृदुला गर्ग की टिप्पणी आई।
अब जरा मृदुला गर्ग की टिप्पणी का विश्लेषण करते हैं। मृदुला जी ने कभी सोचा भी नहीं था कि हिंदी के लेखक सत्तासीन राजनीतिक पार्टी को दुबारा सत्ता में लाने के लिए प्रचारक की भूमिका निभाएंगीं। उनकी इस टिप्पणी से ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी के लेखकों ने पहली बार सत्तासीन राजनीतिक दल के पक्ष में कोई बयान जारी किया है। उन्हें शायद स्मरण नहीं रहा हो कि अटल बिहारी वाजपेयी के पक्ष में भी लेखकों ने एक अपील जारी की थी। वो भी तब सत्तासीन ही थे। प्रगतिशील लेखकों ने इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के पक्ष में अपील जारी की थी, तब इंदिरा गांधी भी सत्तासीन ही थीं। राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान भी कई ऐसे मसले मिल जा सकते हैं जहां हिंदी के लेखकों ने सत्तासीन पार्टी के दुबारा सत्ता में लाने के लिए अपील की हो। इस वाक्य में मृदुला जी ने जिस तरह से प्रचारक शब्द का उपयोग किया है वो ये संकेत देने के लिए है कि ये लोग राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े हैं। अपनी उसी टिप्पणी में मृदुला गर्ग ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा कि मोदी के समर्थन में सामने आए लेखक अपनी ही अभिव्यक्ति की रोक का उत्सव मनाएंगे। लेकिन इस टिप्पणी में वो अपनी अभिव्यक्ति की रोक वाली टिप्पणी के समर्थन में कोई तर्क नहीं दे पाईं। 2014 में मोदी के सत्ता संभालने के बाद लेखकों के एक खास वर्ग ने इस बात को जमकर प्रचारित किया कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है। अघोषित आपातकाल जैसे जुमले भी उछाले गए। लेकिन इन बयानों को पुष्ट करनेवाले तथ्य कभी सामने नहीं आए। जब अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा गया था तब तो प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखक इंदिरा गांधी के समर्थन में नारे लगा रहे थे। जब वामपंथी शासन काल के दौरान बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकाला जा रहा था तब भी लेखक बिरादरी खामोश थी। मृदुला गर्ग अपनी टिप्पणी में यह भी जानना चाहती हैं कि मोदी के समर्थन में अपील जारी करनेवाले लेखक क्या प्राप्त करना चाहते हैं?  उनको यह समझना होगा कि हर कदम कुछ प्राप्त करने के उद्देश्य से नहीं उठाए जाते। अगर वो चित्रा मुदगल पर तंज कर रही थीं, या उऩके दिमाग में चित्रा जी को अटल बिहारी वाजपेयी के शासन के दौरान प्रसार भारती का सदस्य बनाए जाने का प्रसंग था तो उनको याद रखना चाहिए कि इंद्र कुमार गुजराल जब देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अपनी पसंद के लेखक राजेन्द्र यादव को प्रसार भारती का सदस्य बनाया था। जैसे जैसे मृदुला जी की टिप्पणी आगे बढ़ती गई वो और तल्ख होती चली गई। उन्होंने इन लेखकों पर साहित्यिक गरिमा को मटियामेट करने का आरोप भी जड़ा और दूसरो को न बरगलाने की नसीहत भी दी। किसी दल के पक्ष में मतदान की अपील जारी करने से साहित्यिक गरिमा कैसे मटियामेट हो गई ये भी बतातीं तो बेहतर रहता। जहां तक बरगलाने की बात है तो यह कहा जा सकता है कि अपनी टिप्पणी में अर्धसत्य पेश करके मृदुला गर्ग ही हिंदी समाज को भ्रमित कर रही हैं। महाभारत के युद्ध में तो अर्धसत्य को अश्वत्थामा को मारने और द्रोणाचार्य को कमजोर करने के लिए अर्धसत्य का सहारा लिया गया था। तब अर्धसत्य को हथियार बनाया था धर्मराज युधिष्ठिर ने। यहां भी मृदुला जी बेहद सम्मानिक हैं, उनसे अर्धसत्य की अपेक्षा नहीं की जाती है बल्कु उऩसे समग्रता की अपेक्षा की जाती है। उनकी टिप्पणी के आखिरी वाक्य में जो गुस्सा और शब्दों का चयन है वो भी अनपेक्षित है। यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि चित्रा मुदगल अचानक से पाला बदलकर किसी पक्ष में खड़ी नहीं हो गई हैं। उनका स्टैंड पूरे हिंदी जगत को पहले से ज्ञात रहा है। इसलिए जो लोग चित्रा जी की अब लानत-मलामत कर रहे हैं उनको अपने स्टैंड पर फिर से विचार करना चाहिए।
मृदुला गर्ग को यह जानना जरूरी है कि इस वक्त जारी चुनाव में देशभर के कई वामपंथी लेखक जिनमें नरेश सक्सेना जैसे वरिष्ठ कवि भी हैं, बेगूसराय में पार्टी विशेष के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। वो ये तर्क दे सकती हैं कि ये लोग सत्ता के खिलाफ संघर्ष में शामिल हैं। अगर वो सत्ता के खिलाफ संघर्ष है तो यहां भी पलटकर उनसे ये सवाल पूछा जा सकता है कि वो क्या प्राप्त करना चाहते हैं। यहां प्राप्ति की अपेक्षा का प्रश्न ज्यादा समीचीन होगा क्योंकि वामपंथी लेखकों का इतिहास रहा है कि वो सत्ता के साथ रहकर सत्ता सुख भोगते रहे हैं। कांग्रेस ने अभी हाल ही में जिस तरह से राजस्थान और मध्यप्रदेश में लेखकों को सरकारी पद देकर उपकृत किया है उससे उनका ये इतिहास और मजबूत होता है। मृदुला गर्ग की टिप्पणी पर जब इतिहास की याद दिलाई गई तो प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े एक लेखक ने इसको मोदी फॉर्मूला करार दिया कि अब को दबाने के लिए तब की बात की जाती है। वो यह भूल गए कि अतीत से पिंड छुड़ाना आसान नहीं होता।
लेखक को हमेशा सत्ता के खिलाफ होना चाहिए ये बात बहुधा सुनाई देती है। लेकिन उनको सत्ता के खिलाफ क्यों होना चाहिए, इस बारे में कहीं कुछ ठोस सुनने को नहीं मिलता है। दरअसल वामपंथियों ने यह बहुत सुंदर तर्क गढ़ा कि लेखक को प्रतिपक्ष की आवाज होना चाहिए। इस तर्क को जनता के बीच ले जाकर पुष्ट भी किया जाता रहा। पार्टी प्रतिबद्धता वाले लेखक जो अपने को वैचरिक प्रतिबद्धता वाले लेखक भी कहते और प्रचारित करते रहे, उनमें से कइयों ने अपने लेखन से भी इस अवधारणा को पुष्ट करने की कोशिश की। लेकिन अगर हम इस सिद्धांत की कसौटी पर वामपंथ से जुड़े लेखकों को कसते हैं तो बिल्कुल ही अलग तस्वीर नजर आती है। वो तस्वीर है प्रतिपक्ष की इस सैद्धांतिकी के मुखौटे की जिसके पीछे होता है स्वार्थसिद्धि का पूरा ताना बाना। इस बात पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए कि लेखक की भूमिका क्या हो, क्या वो संविधान में मिले अपने अधिकारों के हिसाब से काम करे या बरसों से फैलाए जा रहे भ्रम का शिकार होते रहें। जितना अधिकार मृदुला जी को अपनी बात रखने का, मोदी का विरोध करने का, सत्ता का विरोध करने का है उतना ही हक चित्रा जी को अपनी बात रखने का, मोदी का समर्थन करने का है। मोदी के विरोध से मृदुला जी के साहित्य अकादमी पुरस्कार की चमक ना तो बढ़ जाएगी और ना ही मोदी के समर्थन से चित्रा जी के साहित्य अकादमी पुरस्कार में की चमक कम हो जाएगी। दोनों हिंदी की सम्मानित लेखिका बनी रहेंगी क्योंकि अंतत: एक लेखक का मूल्यांकन उसकी कृतियों से होता है। अगर कृतियों से इतर लेखक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाएगी तो बड़ी-बड़ी छवियां इस तरह से धराशायी होंगी जिसका दृष्य सोवियत रूस में लेनिन की गिरती मूर्ति से भी भयावह हो सकता है।     



Thursday, April 25, 2019

प्रेम के प्रतीक चिन्ह के 70 साल


राज कपूर की फिल्मों के प्रशंसकों को दो चीजें याद हैं। पहली ये कि राज कपूर की हर फिल्म की शुरूआत पृथ्वीराज कपूर के भगवान शंकर के पूजन से होती थी। इसकी वजह ये कि पूरा कपूर खानदान भगवान शिव का अनन्य भक्त रहा। दूसरी महत्वपूर्ण और आवश्यक उपस्थिति आर के फिल्म्स का लोगो। ये लोगो इस मायने में ऐतिहासिक है कि इसमें राजपूर और नर्गिस हैं। आज से सत्तर साल पहले एक फिल्म रिलीज हुई थी बरसात। फिल्म बरसात राजकपूर की वो फिल्म थी जिससे पहली बार राजकपूर ने सफलता का स्वाद चखा था। इस फिल्म में एक सीन जहां राजकूपर वायलिन बजा रहे होते हैं। फिल्म की नायिका नर्गिस तेजी से उनकी ओर आती है और उनकी बांहों में झुक जाती है। राज कूपर के एक हाथ में वॉयलिन और दूसरे में गरिमापूर्ण तरीके से पीछे की ओर झुकी हुई नर्गिस। राज कपूर ने शूटिंग खत्म होने के बाद जब इस सीन को कई बार फ्रीज करके देखा । फिर इस सीन की फोटो निकलवाई गई। उनको ये सीन इतना पसंद आया कि फिल्म बरसात के इस दृष्य को अपनी फिल्म कंपनी का लोगो बना लिया। राज कपूर ने एक साक्षात्कार में कहा भी था कि उनको इस तस्वीर को देखने के बाद लगा था कि ये समग्र सृजन की प्रतिनिधि तस्वीर है लिहाजा उन्होंने इसको अपनी फिल्म स्टूडियो का लोगो बनाने का फैसला लिया। जब 1949 में फिल्म बरसात रिलीज हुई थी तो उसके पोस्टर पर भी इसी सीन को लगाकर प्रचारित किया गया था।
राज कपूर को इस सीन में समग्र सृजनात्मकता दिखाई देती है लेकिन कई फिल्म इतिहासकार इसको संगीत और प्यार का ऐसा तराना मानते हैं जिसने इसके बाद की राज कपूर की सभी फिल्मों को बहुत गहरे तक प्रभावित किया। 1949 की फिल्म बरसात के पहले राजकपूर और नर्गिस फिल्म आग में काम कर चुके थे लेकिन ये फिल्म बरसात ही थी जिसने राज कपूर और नर्गिस के संबंधों को गाढ़ा किया था। जब फिल्म बरसात के निर्माण के समय राज कपूर के पास पैसे नहीं बचे और लगा कि अब फिल्म आगे नहीं बढ़ पाएगी तो नर्गिस ने अपने सोने के कंगन बेचकर राज कपूर को फिल्म बनाने के लिए पैसे दिए थे। फिल्म बरसात इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि बतौर संगीतकार शंकर-जयकिशन की ये पहली फिल्म थी। शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी पहली बार गीतकार के तौर पर दर्शकों के सामने थे। राज कपूरे कि फिल्मों में लता मंगेशकर के गाने की शुरूआत भी फिल्म बरसात से ही होती है। एक और बेहद रोचक तथ्य इस फिल्म से जुड़ा है । नर्गिस की मां जद्दनबाई राज कपूर और नर्गिस की बढ़ती नजदीकी से इतनी चिंतित थी कि उन्होंने फिल्म बरसात की शूटिंग के लिए नर्गिस के कश्मीर जाने से मना कर दिया था। मजबूरी में राज कपूर को कई दृष्य महाबलेश्वर में फिल्माने पड़े थे। सत्तर साल की लंबी अवधि के बाद भी फिल्म बरसात में रोमांस और प्रेम की तीव्रता के चित्रण को कम ही फिल्मों ने टक्कर दी है।

Saturday, April 20, 2019

ट्रेलर और पोस्टर से उठते सवाल


फिल्मों का समाज के प्रति दायित्व और उसके सामाजिक प्रभाव की लंबे समय से चर्चा होती रही है। फिल्म समीक्षक लगातार फिल्मों में संदेश ढूंढने की कोशिश भी करते रहते हैं। कई फिल्मों के निर्माता-निर्देशक भी अपनी फिल्म को सामाजिक संदेश देनेवाली फिल्म के तौर पर प्रचारित करते हैं, बहुधा प्रत्यक्ष रूप से तो कई बार परोक्ष रूप से भी। भारत में दर्शकों की कम साक्षरता और फिल्मों की व्यापक पहुंच के आधार पर ये कहा जाता था कि फिल्में समाज को गहरे तक प्रभावित करती हैं। स्वतंत्रता के पूर्व भारत में साक्षरता दर बहुत कम थी और गरीबी भी बहुत थी। कम पढ़े-लिखे लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का सिनेमा एक बेहद सशक्त माध्यम हुआ करता था। अब भी है । पर अब देश में साक्षरता दर बढ़ी है और तकनीक के प्रसार ने अन्य माध्यमों को भी ताकत दी है। अगर हम स्वतंत्रता पूर्व की फिल्मों पर नजर डालें तो उस दौर के निर्माता-निर्देशक भी अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज की कुरीतियों पर चोट करते थे। 1930 से लेकर 1960 तक की फिल्मों पर नजर डालते हैं तो कई फिल्में ऐसी हैं जो उस समय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ जनता के बीच जागरूकता फैलाने की मंशा से बनाई गई थी। उस वक्त अस्पृश्यता एक बड़ी सामाजिक समस्या थी। उसको ध्यान में रखकर हिमांशु राय ने एक फिल्म बनाई थी अछूत कन्या। अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत इस फिल्म में स्वतंत्रता पूर्व भारतीय समाज में एक दलित लड़की और ब्राह्मण लड़के के प्यार को केंद्र में रखकर सामाजिक संदेश देने की कोशिश की गई थी। ये हिंदी फिल्मों के इतिहास में ऐतिहासिक फिल्म का दर्जा प्राप्त कर चुकी है। इसके ठीक एक साल बाद एक फिल्म आई थी दुनिया ना माने। व्ही शांताराम के निर्देशन में बनी इस फिल्म में बाल विवाह से लेकर उस वक्त समाज में महिलाओं की स्थिति का बेहद शानदार चित्रण हुआ है । इतने सालों बीत जाने के बाद महिला सशक्तीकरण को लेकर इतनी सशक्त फिल्म नहीं बन पाई है। उस वक्त के समाज में किसी महिला का सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ उठ खड़ा होना असंभव था, ऐसे वक्त में व्ही शांताराम ने इस विषय को अपनी फिल्म में उठाकर साहस का कार्य किया था। इस फिल्म का संवाद इतना सशक्त है कि वो दर्शकों को अंदर तक झकझोर देता है। शांताराम ने एक और फिल्म बनाई थी दहेज। पृथ्वीराज कपूर अभिनीत इस फिल्म में दहेज के दानव का तांडव दिखाया गया है। कालांतर मेंऔरत, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया आदि कई ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें कोई ना कोई मजबूत सामाजिक संदेश होता था। 1930 के आसपास ही मशहूर लेखक जार्ज बर्नाड शॉ ने कहा था कि सिनेमा लोगों के दिलोदिमाग को गढ़ेगा और उनके आचरण को प्रभावित करेगा। उन्होंने तब कहा था कि हर कला में दोनों तरह की ताकत होती है अच्छी भी और बुरी भी। जब आप किसी को लिखना सिखाते हैं तो वो फर्जी चेक भी बना सकता है और अच्छी कविता भी लिख सकता है। ये बहुत महत्वपूर्ण बात है।  
एक ऐसा भी वर्ग है जो हमेशा से इस बात की पैरोकारी करता रहा है कि सिनेमा मनोरंजन का साधन है और उसका समाज पर बहुत कम या नहीं के बराबर प्रभाव पड़ता है। इस तरह के लोग अपने समर्थन में तरह-तरह के तर्क भी लेकर आते हैं। उनके तर्क तब कमजोर पड़ने लगते हैं जब हम देखते हैं कि फिल्मों में नायक-नायिकाओं के पहनावे से फैशन का ट्रेंड विकसित होता है। साधना कट हेयर स्टाइल तो अभी तक प्रचनल में है। अमिताभ बच्चन के पहनावे तक की लोग नकल करते दिखे। जीतेन्द्र के सफेद पतलून की जमकर नकल हुई। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। फिल्मों की भव्यता का प्रभाव समाज के उच्च वर्ग पर भी पड़ता है और उनके रहन-सहन से लेकर उनके पारिवारिक समाराहों में भी फिल्मों की छाया देखी जा सकती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि फिल्मों में माता वैष्णो देवी की महिमा को दिखाए जाने के बाद वैष्णो देवी मंदिर जानेवाले भक्तों की संख्या बढ़ी। करवा चौथ पर्व को अखिल भारतीय बनाने में फिल्मों की अहम भूमिका है। कहना ना होगा कि सिनेमा समाज के व्यवहार और उसके क्रियाकलाप को प्रभावित करता है। कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिसने लोगों को बीमारियों के प्रति जागरूक भी किया। ह्रषिकेश मुखर्जी ने जब आनंद और मिली में कैंसर जैसी बीमारी को विषय बनाया तो दर्शक सिनेमा हॉल में रोते नजर आए थे। आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर से लेकर थ्री ईडियट्स तक में अपने बच्चों के प्रति उनके अभिभावकों की जिम्मेदारी को दर्शाया गया। लोगों ने इसको पसंद भी किया। दो हजार पांच में एक फिल्म आई थी माई ब्रदर निखिल’, जिसमें एड्स जैसी भयावह बीमारी से उपजे दर्द और सामाजिक प्रताड़ना को फिल्मकार ने पर्दे पर उतारा था। पिछले दिनों हिचकी फिल्म आई थी। इस फिल्म के माध्यम से फिल्मकारों ने ट्ररेट सिंड्रोम के बारे में लोगों को जागरूक किया था। अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म पा से प्रोजेरिया या शाहरुख खान अभिनीत फिल्म माई नेम इज खान से एस्पर्जर सिंड्रोम के बारे में व्यापक दर्शक वर्ग को पता चला था। इन फिल्मकारों ने बेहद संवेदनशीलता के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए संवेदनशील तरीके से इन बीमारियों के पीड़ित पात्रों का फिल्मांकन किया था।
अब एक फिल्म आ रही है मेंटल है क्या। अभी हाल ही में इसका ट्रेलर और पोस्टर रिलीज किया गया है। पोस्टर और ट्रेलर देख कर कहा जा रहा है कि इसमें दिमागी तौर पर बीमार लोगों का मजाक उड़ाया गया है। आज हमारे देश के करीब दस फीसदी लोग मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं। सरकार और गैर सरकारी संगठन इनकी लगातार चिंता कर रहे हैं। पूरा समाज इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के प्रति संवेदनशील है। ऐसे में इस तरह के शीर्षक को लेकर फिल्म बनाना हैरान करनेवाला है। फिल्म के पोस्टर पर कंगना रणौत और राजकुमार राव तेज धार ब्लेड को अपनी जीभों पर संतुलित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा एक अन्य पोस्टर जारी हुआ है जिसमें कंगना की आंखें इस तरह से दिखाई गई हैं जो उनके मानसिक रूप से असंतुलित होने की ओर इशारा करता है। इस फिल्म के नाम और पोस्टर पर इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी ने अपना विरोध जताया है। सोसाइटी ने सूचना और प्रसारण मंत्री समेत सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी को पत्र लिखकर फिल्म का नाम बदलने की मांग की है। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष को लिखे अपने पत्र में इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी ने बोर्ड को दिव्यांग अधिकार कानून की धाराओं की भी याद दिलाई है। सोसाइटी के मुताबिक फिल्म का ट्रेलर और पोस्टर इस कानून का उल्लंघन करता है। यह मानसिक रूप से कमजोर लोगों को कुछ खतरनाक करने के लिए उकसानेवाला है। उनका यह भी कहना है कि मेंटल शब्द मजाक उड़ाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी के महासचिव डॉ विनय कुमार ने कहा है कि अगर सरकार और सेंसर बोर्ड इस फिल्म का टाइटल नहीं बदलते हैं तो वो इस मसले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे। इस मसले पर जो होगा वो तो समय पर हम सबके सामने होगा। कानून की किसी धारा का उल्लंघन हुआ या नहीं ये अदालत तय कर देगी और अगर कोई गलती हुई होगी तो उसमें भी सुधार कर लिया जाएगा। पर इसे पूरे प्रकरण से एक सवाल उठता है कि निर्माताओं ने ऐसा नाम क्यों रखा? ऐसे पोस्टर क्यों जारी किए। इल फिल्म की निर्माता एकता कपूर हैं। ये वही एकता कपूर हैं जिन्होंने अपने सास बहू सीरियल में किरदारों को भारतीय परंपरा और परिधान से लाद दिया था। ऐसा याद नहीं पड़ता कि कभी एकता कपूर ने अपनी फिल्मों में भी असंवदेनशील प्रसंगों और विषयों को उठाया हो बीमार पात्रों क उपहाल उड़ाया हो। अब ऐसी क्या मजबूरी ई गई कि इस तरह से मानसिक दिव्यागों का मजाक उड़ाते हुए चित्रण किया गया। हिंदी फिल्मों की जो एक समृद्ध परंपरा रही है उसको बाधित करने की कोशिश क्यों की जा रही है। अगर इस फिल्म में मानसिक रूप से दिव्यांगों का मजाक उड़ाया गया है तो समाज पर इसका व्यापक असर होगा। फिल्मकार होने के नाते एकता कपूर की कारोबारी जिम्मेदारियां हैं और वो अपनी इन जिम्मेदारि. को सफलतापूर्वक विर्वहन करना भी जानती हैं लेकिन उनकी कुछ सामाजिक जिम्मेदारी भी है। उनको इस बारे में भी गंभीरता से विचार करना चाहिए। एक फिल्मकार होने के नाते उनको कलात्मक आजादी है लेकिन ये आजादी उनको किसी वर्ग का अपमान करने की अनुमति नहीं देता है। कला की स्वतंत्रता की सीमा वहां जाकर खत्म हो जाती है जहां से कोई आहत या अपमानित होता हो।

Thursday, April 18, 2019

अपील की राजनीति में डूबे सितारे

इस वक्त पूरा देश चुनावी रंग में सराबोर है। कयासों का दौर जारी है। पक्ष विपक्ष में राजनीतिक बयानबाजी हो रही है। सभी दल अपनी अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। अपने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में किए गए वादों के आधार पर जनता को लुभाने में लगे हैं। चुनाव प्रचार के तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। फेक न्यूज गढ़े जा रहे हैं। तकनीक का उपयोग कर समाज के हर तबके तक पहुंचने और उनको अपने पक्ष में करने की राजनीति की जा रही है। लोकतंत्र में चुनाव सबसे बड़ा पर्व होता है लेकिन जब पर्व जगं में तब्दील हो जाता है तो वहां सबकुछ जायज मान लेने की प्रवृत्ति मजबूत होने लगती है। जंग और मुहब्बत में सबकुछ जायज है के कहावत को चरितार्थ करने की कोशिश में पर्व की पवित्रता दांव पर लगा दी जाती है। गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार 2014 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और सही मायने में एक मजबूत गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। इस सरकार के गठन होने के बाद कला और संस्कृति जगत से जुड़े और वहां सालों से अपनी मनमानी कर रहे लोगों को तकलीफ होनी शुरू हो गई। आसन्न खतरे को भांपकर विचारधारा विशेष के लोगों ने सरकार को येन-केन प्रकारेण घेरने की कोशिशें शुरू कर दीं। वाम विचारधारा के इन लोगों को ये लगने लगा कि मोदी सरकार अपने कार्यकाल के दौरान उनसबको अपदस्थ कर देगी। इसी सोच के अंतर्गत वामपंथियों ने मोदी सरकार पर असहिष्णुता का प्रहार किया। कला साहित्य, फिल्म आदि क्षेत्र से जुड़े लोगों ने सरकार पर आरोप लगाना शुरू कर दिया। थोड़े समय तक असहिष्णुता का कोलाहल मचा लेकिन झूठ का वातावरण दीर्घजीवी नहीं हो सकता है इस वजह से ये आरोप भी समय के साथ हाशिए पर चला गया। जब-जब कोई चुनाव आता रहा तब-तब कुछ लोग सामने आकर इस तरह की बातें कहते, सरकार पर आरोप लगाते, जनता से अपील करते और फिर चुनाव खत्म होते ही खामोश हो जाते। धीरे-धीरे जनता को समझ आने लगा कि ये सब फेक नैरेटिव खड़ा कर उनको भरमाने का उपक्रम है इसका ही परिणाम हुआ कि जनता के बीच लेखकों, कलाकारों, फिल्मकारों आदि का अपील बेअसर होने लगा। आपको याद होगा कि शाहरुख खान और आमिर खान ने भी उस दौर में देश के माहौल पर टिप्पणी की थी लेकिन जब बात नहीं बनी तो वे अचूक अवसरवादी की तरह मोदी सरकार के साथ खड़े नजर आने लगे। प्रधानमंत्री के साथ अपनी मुलाकात की तस्वीरें साझा करने लगे।

अब जब एक बार फिर से लोकसभा का चुनाव सर पर है तो कुछ फिल्म कलाकार और लेखक सामने आकर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मोदी सरकार के खिलाफ वोट देने की अपील करने लगे हैं। कुछ दिन पहले अभिनेता नसीरुद्दीन शाह, निर्देशक अनुराग कश्यप, कोंकणा सेनशर्मा आदि को देश और संविधान की याद सताने लगी। उन्होंने अपने बयान में भारतीय जनता पार्टी और उनके सहगोयी दलों के खिलाफ वोट करने की अपील की। अपील में ये भी कहा गया है कि धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समावेशी भारत के पक्ष में वोट देने की अपील भी की गई है। नसीरुद्दीन शाह साहब को कुछ दिन पहले भी अपने बेटों की चिंता हुई थी। नसीरुद्दीन शाह ने पिछले वर्ष एक साहित्य समारोह के दौरान कहा था कि मेरे फिल्मों में आने की वजह सिर्फ लोकप्रियता हासिल करना था, कला की सेवा करना नहीं। जो ऐसा कहते हैं कि वो फिल्मों में कला की सेवा करने की वजह से आए हैं वो झूठ बोलते हैं। दरअसल फिल्मों में लोग धन कमाने और प्रसिद्ध होने के लिए आते हैं।इस बयान के आलोक में नसीर की मानसिकता को समझा जा सकता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर जब उनको फिल्में नहीं मिल रही हैं तो लोकप्रियता को कायम रखने के लिए वो अब बयानों का सहारा ले रहे हैं।  उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुई हिंसा के बाद भी नसीरुद्दीन शाह ने कहा था कि हमने बुलंदशहर हिंसा में देखा कि मौजूदा समय में देश में एक गाय की मौत की अहमियत पुलिस अफसर की जान से ज्यादा होती है। उनके मुताबिक मौजूदा समय में वातावरण में जहर खोलने की कोशिश की जा रही है। मुझको इस बात की चिंता सताती है कि कहीं उन्मादी भीड़ ने उनके बच्चों को घेर लिया उनसे पूछा कि तुम हिंदू हो या मुसलमान तो उनके पास इस बात का क्या जवाब होगा। जो धर्मनिरपेक्षता की बात करता है वो एक अपराध को हिन्दू मुसलमान के चश्मे से देखता है। नसीर के इस बयान की टाइमिंग को ध्यान में रखना चाहिए तभी मंशा को पता चलेगा। उनका ये बयान राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के पहले आया था। ठीक उसी तरह जैसे देश में असहिणुता का वातावरण बनाने की कोशिश बिहार विधानसभा चुनाव के ऐन पहले की गई थी। सोशल मीडिया पर नसीरुद्दीन शाह को लेकर तीखी बातें कही जा रही हैं। एक व्यक्ति ने लिखा कि जब 1989 में बिहार के भागलपुर में भीषण दंगा हुआ था उस वक्त नसीरुद्दीन शाह तिरछी टोपी वाले गा रहे थे। तब उनको देश के संविधान की चिंता नहीं हुई थी, देश के सामाजिक ताने-बाने के बिखरने को लेकर अफसोस नहीं हुआ था।
एक दूसरे बयानवीर है अनुराग कश्यप। ओवर-रेटेड निर्देशक हैं, बाजार के सभी औजारों का अपने हक में उपयोग करना जानते हैं। वो अपनी फिल्मों और बेवसीरीज के माध्यम से वाम विचारधारा को पल्लवित पुष्पित करने का काम करते रहते हैं। वाम विचार की भक्ति ऐसी कि जब वो सेक्रेड गेम्स बनाते हैं तो उसमें अपनी विचारधारा के साथ उपस्थित नजर आते हैं। इस वेब सीरीज के एक एपिसोड में यह दिखाया गया है कि कैसे एक निर्दोष मुस्लिम लड़को का पुलिस एनकाउंटर कर देती है। और परोक्ष रूप से राजनीतिक स्टेटमेंट देते हैं कि उस मुस्लिम लड़के का परिवार धरने पर बैठा है जिसकी सुध लेनवाला कोई नहीं है।  एक एपिसोड में तो बाबारी विध्वंस के फुटेज को लंबे समय तक दिखाया जाता है और फिर बैकग्राउंड से उसपर राजनीतिक टिप्पणियां चलती हैं । इसी तरह से मुंबई बम धमाकों के फुटेज को दिखाकर बैंकग्राउंड से टिप्पणियां आती हैं जो सीरियल निर्माता की सोच को उजागर करती है। इससके अलावा भी अनुराग कश्यप को जहां मौका मिलता है वो राजनीतिक टिप्पणी करने और मौजूदा सरकार और उसकी विचारधारा को कठघरे में खड़ा करने में नहीं चूकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वैचारिक आग्रहों का प्रतिपादन उचित है लेकिन फिक्शन के नाम पर जब ये किया जाए तो उसको रेखांकित करना जरूरी है। अनुराग कश्यप की एक फिल्म है मुक्काबाज। इस फिल्म में एक डयलॉग है- वो आएंगे, भारत माता की जय बोलेंगे और तुम्हारी हत्या कर चले जाएंगे। इस संवाद का कोई संदर्भ नहीं है लेकिन फिल्मकार परोक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी पर वार करना चाहते हैं लिहाजा बगैर किसी संदर्भ के इस तरह की बातें करते हुए निकल जाते हैं। अनुराग कश्यप जैसे लोग फिल्मों और कला की आड़ में दरअसल राजनीति करते हैं।
अगर हम हिंदी फिल्मों का इतिहास उठाकर देखें तो वहां कम्युनिस्टों की उपस्थिति का लंबा इतिहास रहा है। पहले के कई लेखक, कलाकार, फिल्मकार तो बकायदा कम्यून में रहते थे और वहां की ज्यादतियों को झेलते भी थे। मशहूर अदाकारा शबाना आजमी की मां और कैफी आजमी की पत्नी शौकत ने अपने संस्मरणों में की किताब यादों की रहगुजर’ में किया है। प्रसंग कुछ ऐसा है कि जब कैफी और शौकत की शादी हुई थी तो वे दोनों मुंबई की एक कम्यून में रहते थे। उनका जीवन सामान्य चल रहा था। उनके घर एक बेटे का जन्म हुआ था । अचानक सालभर में बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गया । बेटे की मौत से आई विपदा से शौकत पूरी तरह से टूट गई थी । अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जैसे ही शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । अपनी इस खुशी को शौकत ने कम्यून के अपने साथियों के साथ साझा की । उस वक्त तक शौकत कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी। जब शौकत की पार्टी को इसका पता चला तो तो पार्टी ने शौकत से गर्भ गिरा देने का फरमान जारी कर दिया। उस वक्त शौकत पार्टी के इस फैसले के खिलाफ अड़ गईं थी और तमाम बहस आदि के बाद उनको बच्चे की अमुमति मिली थी । दरअसल ये कम्युनिस्टों का बेहद अमानवीय चेहरा है । इस वजह से जब वो नारी स्वतंत्रता की बात करते हैं या फिर जीने से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की बात करते हैं तो खोखलापन नजर आता है । आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर अपनी अपील में जब फिल्मी कलाकार ये कहते हैं कि '2019 का लोकसभा चुनाव स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे कठिन चुनाव है। वर्तमान सरकार हिंसा और नफरत की सरकार है तो ऐसा लगता है कि इनको किसी प्रकार का कोई इतिहास बोध ही नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने शासनकाल में या अपने कम्यून में जो अमानवीय बर्ताव किया उसमें इनको न तो नफरत दिखाई दी थी और न ही हिंसा।
जैसा कि उपर कहा गया है कि हिंदी फिल्मों में कम्युनिस्टों का बोलबाला रहा है, कैफी, साहिर और शैलेन्द्र जैसे लोग जो प्रगतिशील लेखक संघ से लेकर भारतीय जन नाट्य संघ तक में सक्रिय रहे हैं। जांनिसार अख्तर और अली सरदार जाफरी जैसे लेखकों ने लंबे समय तक अपनी लेखनी के माध्यम से, अपनी विचारधारा के माध्यम से हिंदी फिल्मों को प्रभावित किया है। ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर एम एस सथ्यू, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी तक एक लंबी सूची है। फिल्म और फिल्म से जुड़े सरकारी कार्यक्रमों से लेकर कमेटियों तक में इनका ही बोलबाला रहता था। सभी सरकारी पुरस्कार भी इन्हीं लोगों के हाथों तय होते थे और इनके बीच ही बांट दिए जाते थे। बदले में इनको खामोश रहना होता था। पिछले पांच सालों में ये काम बंद हो गया ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है क्योंकि अब भी डॉक्यूमेंट्री के लिए लखटकिया पुरस्कार श्याम बेनेगल को ही मिलता है। हां ये कहा जा सकता है कि इनकी धमक कम हो गई है। अब सालों से जमी जमाई सत्ता पर कोई हमला करेगा तो ये खामोश तो रहेंगे नहीं। इनको पलटवार तो करना ही होगा। फिल्म अभिनेताओं की अपील को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।
दूसरी बात जो आम लोगों को समझनी होगी कि ये फिल्मकार अपने स्वार्थ की जमीन को मजबूत करने के लिए अपने राजनीतिक आकाओं को भी मजबूत करना चाहते हैं। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनको दिया जा सकता है जब देश में दंगे हुए, हजारों लोगों को जिंदा जला दिया गया, सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया लेकिन इनकी संवेदनाएं नहीं जागीं, इनको संविधान पर कोई खतरा नजर नहीं आया। ऐसे दसियों उदाहरण हैं जब अभिव्यक्ति की आजादी को खत्म करने की बहुत गंभीर सरकारी कोशिश हुई लेकिन तब भी ये लोग खामोश रहे बल्कि इनमें से कुछ तो सरकार के पक्ष में बयान जारी कर रहे थे। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने की कोशिश की गई लेकिन ये कमोबेश खामोश रहे। तब इनको आइडिया ऑफ इंडिया खतरे में नहीं दिखा। दरअसल ये चुनाव के वक्त एक ऐसा नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश है जो भारत के खिलाफ है। भारतीयता की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान को खतरे में बताकर ये फिल्मकार क्या हासिल करना चाहते हैं पता नहीं लेकिन इस तरह की बयानबाजी करके देश की छवि को खराब कर रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए, अपने राजनीतिक आकाओं को सत्ता के केंद्र में लाने के लिए देश और वहां के संविधान के खतरे में आने की बात कर ये कुछ हासिल कर पाएंगें इसमें संदेह है क्योंकि अब देश की जनता इनको पहचना चुकी है। चुनाव आते ही इनका अपनी खोल से बाहर निकल आना और फिर उसी खोल में वापस चले जाने की प्रवृत्ति अब जग जाहिर हो चुकी है। फिल्मी कलाकारों, नाट्यकर्मियों, लेखकों की ये अपील दर्जन भर भाषाओं में अनुदित होकर एक खास बेवसाइट पर डाली जा रही हैं। ये बहुत संगठित तरीके से किया जा रहा है जिसको समझने की आवश्यकता है। अगर स्वत:स्फूर्त अपील होती तो एक या दो भाषा में जारी की जाती, लेकिन यहां तो बारह भाषाओं में जारी हो रही है। यह भी देखना चाहिए कि इस तरह के अपील से किस राजनीतिक दल को फायदा हो सकता है ताकि इनकी मंशा साफ तौर पर जनता के सामने आ सके।

Sunday, April 14, 2019

साहित्य के तिलिस्म में जासूसी लेखन


साहित्य में वो दौर महफिलों का था, कॉफी हाउस से लेकर कई साहित्यिक ठीहों पर साहित्यकारों का जमावड़ा हुआ करता था। जहां साहित्य की विभिन्न विधाओं और प्रवृत्तियों पर बहसें हुआ करती थीं, एक दूसरे की रचनाओं पर बातें होती थीं,रचनाओं की स्वस्थ आलोचना होती थी। इन साहित्यिक जमावड़ों और महफिलों का साहित्य सृजन में बड़ी भूमिका रही है। कई साहित्यकारों ने अपने संस्मरणों में इन साहित्यिक ठीहों पर होनेवाले दिलचस्प किस्सों को लिखा है। ऐसा ही एक बेहद दिलचस्प वाकया है एक साहित्यिक महफिल का जिसमें राही मासूम रजा, इब्ने सफी, इब्ने सईद और प्रकाशक अब्बास हुसैनी के अलावा कई और साहित्यकार बैठे थे। चर्चा देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता की शुरू हो गई। अचानक राही मासूम रजा ने एक ऐसी बात कह दी कि वहां थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। राही मासूम रजा ने कहा कि बगैर सेक्स प्रसंगों के तड़का के जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है। इब्ने सफी, रजा की इस बात से सहमत नहीं हो पा रहे थे। दोनों के बीच बहस बढ़ती जा रही थी। सफी लगातार राही मासूम रजा का प्रतिवाद कर रहे थे। अचानक राही मासूम रजा ने अपने खास अंदाज में इब्ने सफी को चुनौती देते हुए कहा कि वो बगैर सेक्स प्रसंग के जासूसी उपन्यास लिखकर देख लें कि उसका क्या हश्र होता है। सफी ने रजा की इस चुनौती को स्वीकार किया और बगैर किसी सेक्स प्रसंग के एक जासूसी उपन्यास लिखा। जिसे प्रकाशक अब्बास हुसैनी ने अपने प्रकाशन निकहत पॉकेट बुक से प्रकाशित किया। वो उपन्यास जबरदस्त हिट हुआ और उसने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया। इस सफलता के बाद इब्ने सफी जासूसी उपन्यास की दुनिया के बेताज बादशाह बन गए थे। यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि इब्ने सफी बंटवारे के वक्त पाकिस्तान नहीं गए बल्कि पांच साल बाद 1952 में पाकिस्तान गए। वहां जाने के बाद भी उनके उपन्यास प्रकाशित होने के लिए अब्बास हुसैनी के पास आते थे जो उर्दू और देवनागरी लिपि में छपा करते थे। बाद में अनुदित होकर अन्य भाषा के पाठकों तक पहुंचते थे। इब्ने सफी इतने लोकप्रिय थे और उनकी कीर्ति इतनी थी कि अगाथा क्रिस्टी जैसी मशहूर लेखिका ने भी ये माना था कि वो बेहद मैलिक लेखन करते हैं। इब्ने सफी का इमरान सीरीज काफी लोकप्रिय हुआ था। माना जाता है कि इब्ने सफी ने ही जासूस जोड़ी की शैली में लिखना शुरू किया जिसे बाद के कई लेखकों ने अपनाया। इब्ने सफी के उपन्यास प्रकाशित करने के पहले अब्बास हुसैनी दो पत्रिकाएं निकालते थे जासूसी दुनिया और रूमानी दुनियाजासूसी दुनिया में सफी साहब और रूमानी दुनिया में राही मासूम रजा लिखा करते थे। कहा तो ये भी जाता है कि जब जरूरत होती थी तो राही मासूम रजा भी नाम बदलकर जासूसी कहानियां लिखा करते थे। इब्ने सफी की सफलता के दौर में ही इलाहाबाद से जासूसी पंजा नाम की पत्रिका में अकरम इलाहाबादी भी एक जासूसी कथा श्रृंखला लिखा करते थे। ये सीरीज बेहद लोकप्रिय थी। जासूसी पंजा में प्रकाशित होनेवाली जासूसी कथा की लोकप्रियता को देखकर ही हिंद पॉकेट बुक्स ने एक रुपए मूल्य के पुस्तकों की सीरीज छापनी शुरू की थी। प्रकाशन जगत में यह प्रयोग काफी सफल रहा था।  
इसके पहले हिंदी उस दौर को देख चुकी थी जब देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता के तिलिस्मी कथा के सम्मोहन में पाठक उलझे थे। उनकी लोकप्रियता इतनी जबरदस्त थी कि उसको पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीखते थे। चंद्रकांता की लोकप्रियता और पाठकों में तिलिस्मी-ऐयारी कथा की भूख को देखते हुए देवकीनंदन खत्री के दो पुत्रों ने विपुल मात्रा में जासूसी लेखन किया। उनके एक लड़के दुर्गाप्रसाद खत्री ने स्थानीय पात्रों और घटनाओं को केंद्र में रखते हुए जासूसी उपन्यास लिखे तो उनके दूसरे बेटे परमानंद खत्री ने कई विदेशी जासूसी उपन्यासों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया। उनके अलावा भी उस दौर में अन्य लेखकों ने विदेशी जासूसी उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद किया। उर्दू लेखक जफर उमर का एक जासूसी उपन्यास प्रकाशित हुआ जिसके बारे में कहा जाता है कि वो एक विदेशी उपन्यास का अनुवाद था। यह उपन्यास भी बेहद लोकप्रिय हुआ। उसी समय तीरथराम फिरोजपुरी ने भी कई जासूसी उपन्यासों का अनुवाद उर्दू में किया जो बाद में हिंदी में भी छपा। हिंदी में जासूसी उपन्यासों की चर्चा गोपाल राम गहमरी के बगैर अधूरी है। गोपाल राम गहमरी पत्रकार थे और कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े थे। उन्होंने 1900 में जासूस नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। जब इस पत्रिका का विज्ञापन उनके संपादन में निकलनेवाले समाचारपत्र भारत मित्र में प्रकाशित हुआ तो लोगों में नई पत्रिका के कंटेंट को लेकर उत्सकुकता का भाव पैदा हुआ। जासूस पत्रिका का विज्ञापन इतना रोचक और दिलचस्प तरीके से लिखा गया था कि उसके एडवांस बुकिंग से गहमरी साहब को करीब पौने दो सौ रुपए मिले थे। सैकड़ों की संख्या में वार्षिक ग्राहक बने थे। आज मार्केटिंग के नाम पर प्री-बुकिंग का चाहे जितना शोर मचे और उसको नई प्रवृत्ति बताई जाए लेकिन ये काम गहमरी ने आज से एक सौ उन्नीस साल पहले सफलतापूर्वक कर दिखाया था। अपनी पत्रिका जासूस को लेकर गहमरी बेहद संवेदनशील थे। हर अंक में एक नए जासूसी उपन्यास के प्रकाशन की चुनौती अपने उपर ले रखी थी, नतीजा यह होता था कि या तो वो किसी दूसरी भाषा के जासूसी उपन्यास का अनुवाद करते थे या फिर मौलिक उपन्यास लिखते थे। अनुमान और उपलब्ध तथ्यों और संस्मरणों के मुताबिक गोपाल राम गहमरी ने साठ से अधिक मौलिक जासूसी उपन्यास लिखे और करीब डेढ़ सौ अन्य भाषा के उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद किया था। गोपाल राम गहमरी ने ही हिंदी को देवकीनंदन खत्री की ऐयारी की जगह जासूसी शब्द दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने लेखन में गहमरी का उल्लेख किया है, उनके काम को रेखांकित भी किया है लेकिन जितनी महत्ता इस विधा को मिलनी चाहिए थी उतनी हिंदी के आलोचकों ने इसको दी नहीं। आलोचकों की उदासीनता की वजह से ही इस विधा का उतनी मजबूती से विकास नहीं हो सका जिसकी ये हकदार थी। उपेक्षा से किसी विधा के लगभग खत्म होने का यह नमूना है।  
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब देश में हिंदी साहित्य को मजबूती मिलने लगी तो जासूसी की इस विधा के योगदान को भी लगभग नकार दिया गया। इस बात को भी शिद्दत से रेखांकित नहीं किया गया कि हिंदी के प्रसार में जासूसी उपन्यासों और पत्रिकाओं की अहम भूमिका थी। हिंदी के आलोचक जब मार्क्सवाद के प्रभाव में आए और उस विचारधारा ने मजबूती से आकार ग्रहण करना शुरू किया तो हिंदी साहित्य में अजीब तरह की वर्णवादी व्यवस्था ने भी जन्म लिया। इस साहित्यिक वर्णवादी व्यवस्था में कविता को शीर्ष पर रखकर साहित्य का आकलन शुरू हुआ। कहना ना होगा कि इस वजह से कई विधाएं अस्पृश्य होती चली गईं। हिंदी में सिनेमा पर लंबे समय तक गंभीर लेखन नहीं हो पाया क्योंकि उसको लोकप्रिय विधा कहकर गंभीरता से लिया ही नहीं गया। लोक और जन की बात करनेवालों ने लोकप्रिय विधा के मूल्यांकन की जरूरत ही नहीं समझी। इसी तरह से जासूसी उपन्यासों को हाशिए पर डाल दिया गया और उनको दशकों तक लुगदी साहित्य कहकर मजाक उडाया जाता रहा। कर्नल रंजीत, ओम प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, अनिल मोहन, मनोज आदि के जासूसी उपन्यासों ने भी खूब धूम मचाई लेकिन वो तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य़ में प्रवेश नहीं पा सके। जेम्स हेडली चेज के हिंदी में अनुदित उपन्यासों की खूब मांग होती थी, इसके लोकप्रिय होने की वजह इसमें सेक्स प्रसंगों का होना भी माना जा सकता है। जब वेदप्रकाश शर्मा का उपन्यास वर्दी वाला गुंडा प्रकाशित होनेवाला था तो कई शहरों में उस उपन्यास के होर्डिंग लगे थे। ये उपन्यास खूब बिक रहे थे, पाठक इनको हाथों हाथ ले रहे थे लकिन हिंदी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक इसको अपनाने और मानने को तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि हिंदी में जासूसी उपन्यास लिखनेवाले कम होते चले गए। दो सौ उपन्यास लिखनेवाले सुरेन्द्र मोहन पाठक को पिछले पांच सात सालों में तथाकथिक मुख्यधारा के साहित्य में स्वीकृति मिलनी शुरू हुई है।
दूसरी एक और वजह ये रही कि शीतयुद्ध खत्म होने के बाद जासूसों से जुड़ी खबरें कम आने लगीं थीं। एक दौर था जब रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी और अमेरिका की एजेंसी सीआईए से जुड़ी खबरें लगातार आती थीं, जिससे जासूसों के क्रियाकलापों को लेकर एक उत्सकुकता का माहौल बनता था। इस माहौल की वजह से भी जासूसी उपन्यासों की मांग बढ़ती थी। इस माहौल का ही असर था कि पॉकेट बुक्स के अलावा बाल पाकेट बुक्स भी छपने लगे थे। बाल पॉकेट बुक छात्रों को ध्यान में रखकर छपते थे। 1980 के दशक में राजन-इकबाल के जासूसी सीरीज के उपन्यासों की धूम रहती थी। हमें याद है कि अपने स्कूली दिनों में जमालपुर रेलवे स्टेशन पर व्हीलर की दुकान पर जाकर राजन-इकबाल सीरीज के उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग करवाया करते थे। अगर अग्रिम बुकिंग नहीं करवा पाते थे तो इस बात की कोई गारंटी नहीं होती थी कि आपको उपन्यास मिल ही जाएगा। कहा ये भी जाता है कि टीवी और इंटरनेट के फैलाव ने भी जासूसी उपन्यासों की लोकप्रियता को कम किया, लेकिन ये वजह उपयुक्त नहीं प्रतीत होती है। अगर ऐसा होता तो अंग्रेजी में जासूसी उपन्यासों की इतनी जबरदस्त मांग कैसे रहती। वहां तो हमसे पहले से टीवी भी है और इंटरनेट भी। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए शोध की आवश्यकता है।

Saturday, April 13, 2019

बदलने लगा वेब सीरीज का रास्ता


इंटरनेट पर मनोरजंन के बढ़ते बाजार को ध्यान में रखते हुए नई-नई वेब सीरीज दर्शकों के सामने पेश की जा रही हैं। चूंकि इसमें किसी तरह की कोई सेंसरशिप नहीं है, इस वजह से निर्माता-निर्देशक अपने सीरीज को हिट कराने के लिए जुगुप्सा की हद तक हिंसा दिखाने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।यथार्थवादी कलात्मकता के नाम पर हिंसा और सेक्स सीन को भी प्रमुखता मिल रही है। गाली-गलौच वाले संवाद के बारे में तो कहना ही क्या। लस्ट स्टोरीज, सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर जैसी वेब-सीरीज में उपरोक्त मसाले भरपूर मात्रा में परोसे गए। गाली-गलौच के बचाव में ये तर्क दिया जाता है कि जिस भौगोलिक इलाके की इनमें कहानियां होती हैं वहां की बोलचाल की भाषा में गालियों का प्रयोग होता है लिहाजा उनकी मजबूरी है। इस तर्क की आड़ में निर्माता-निर्देशक उस परिवेश को नैचुरल दिखाने के लिए पात्रों से भरपूर गाली दिलवाते हैं। ज्यादातर सीरीज अपराध कथाओं पर आधारित होती हैं लिहाजा अपराध, सेक्स प्रसंग, गाली गलौच, जबरदस्त हिंसा आदि दिखाने की छूट मिल जाती है। प्रत्यक्ष रूप से इन मसालों को दिखाने के तर्क जो भी हों पर लक्ष्य तो दर्शकों को अपनी ओर खींचना ही होता है। ये लोग ये नहीं समझते हैं कि कला और साहित्य में जीवन तो होता है पर जीवन को जस का तस धर देना कला नहीं है। उनको जीवन जैसा बनाने की कोशिश ही कला है। साहित्य में भी यथार्थवाद का दौर लंबे समय तक चला पर यथार्थ के नाम पर इतनी छूट नहीं ली गई जितनी वेब सीरीज में ली जा रही है। जिन भी फिल्मों में जीवन का फोटग्राफिक यथार्थ पेश किया जाता है वो श्रेष्ठ फिल्में नहीं मानी जाती हैं। निर्देशक अनुराग कश्यप अपनी फिल्मों से लेकर वेबसीरीज तक में इस दोष के शिकार नजर आते हैं। यह अलग बात है कि वो इसको यथार्थ के नाम पर बेचने में कई बार कामयाब हो जाते हैं।  
अभी हाल ही में एक वेब सीरीज आई है जिसका नाम है क्रिमिनल जस्टिस। ये इसी नाम से बनी ब्रिटिश वेब-सीरीज का भारतीय संस्करण है। करीब पैंतालीस मिनट के दस एपिसोड में जबरदस्त कहानी है। यहां भी समाज का यथार्थ अपने वीभत्स रूप में उपस्थित है, पर वो फोटोग्राफिक यथार्थ नहीं है। इसलिए यह अन्य वेब सीरीजों से अलग दिखता है। इस पूरे वेब सीरीज में समाज के विषमताओं पर भी चोट की गई है, बगैर अनुराग कश्यप की तरह लाउड हुए और बगैर किसी राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए। इस वेब सीरीज में एक ऐसे लड़के की कहानी है, जो फुटबॉल खेलता है, दोस्तों के साथ पार्टी करता है लेकिन उसको अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का भी एहसास है। मैच जीतने की खुशी में दोस्तों के साथ पार्टी में जाने के पहले जब बहन उससे अनुरोध करती है कि वो अपने पिता की टैक्सी चलाकर कुछ पैसे कमा लाए तो वो मान लेता है। कहानी के आगे बढ़ते ही वो एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसता है जिससे वो अंत में ही निकल पाता है। टैक्सी चलाकर जब आदित्य वनाम का लड़का अपने दोस्तों की पार्टी की ओर जा रहा होता है तो उसको पता चलता है कि उसकी गाड़ी में जो लड़की सवारी बैठी थी वो अपना मोबाइल कार में ही छोड़ गई है। वो मोबाइल लौटाने उस लड़की के घर जाता है और वहीं से उसकी दुश्वारियां शुरू हो जाती हैं। उस लड़की का कत्ल हो जाता है और वो जेल पहुंच जाता है। तमाम परिस्थितिजन्य सूबत उसके कातिल होने की चीख-चीख कर गवाही दे रहे होते हैं। पर असल में जो संदेश इस वेब सीरीज के माध्यम से निकलता है वो दर्शकों को बताता है कि न्याय की डगर कितनी कठिन है। 22 महीने के अंतराल में फैली इस कहानी में एक अच्छा भला परिवार तबाह हो जाता है। मुजरिम की बहन जब बच्चे को जन्म देती है तो उसका पति उसको तलाक देने पर उतारू होता है। पिता की दुकान बिक जाती है। पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते तार-तार हो जाते हैं। इस वेब-सीरीज में एक अपराधी के परिवार को लेकर समाज की मानसिकता, परिवार का बिखरना,वकीलों के दांव पेंच, न्यूज चैनलों का असंवेदनशील चेहरा, पुलिस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार, ड्रग का धंधा, सामाजिक कार्य की आड़ में फलने फूलनेवाले अपराध, जेल में गैंगवॉर, जेलर का भ्रष्टाचार यानि सबकुछ है। कहानी बहुत सधी हुई चलती है, हां इतना अवश्य है कि मुजरिम आदित्य को अदालत से सजा होने के बाद कहानी को अनावश्यक विस्तार दिया गया है। उसको और कसा जा सकता था।
इसमें दो तीन ऐसे प्रसंग हैं जिनको रेखांकित करना आवश्यक है। एक प्रसंग तो वह है जिसमें मुजरिम आदित्य की बहन को तलाक देने का मन बना चुका उसका जीजा एक दिन अपने ससुराल पहुंचता है।अपनी पत्नी से साथ रहने की गुहार लगाता है। जिंदगी की तमाम कठिनाइयों को अपने नवजात बच्चे के साथ झेल रही वो महिला अपने पति के प्रस्ताव को ठुकरा देती है। बगैर आक्रामक हुए वो कहती है कि नहीं अब और नहीं। बगैर शोर मचाए यह प्रसंग हमारे देश में स्त्रियों के मजबूत होने का बड़ा संदेश देता है। यह महिलाओं की प्रताड़ना के प्रतिकार का प्रसंग भी है। वो बेहद सामान्य तरीके से ये तय करती है कि अपने बच्चे की परवरिश खुद करेगी । इसी तरह न्यूज चैनलों के गैर जिम्मेदाराना हरकतों को भी ये सीरीज शिद्दत के साथ बिना कुछ कहे दर्शकों के सामने रख देती है। जब आदित्य का केस चल रहा होता है तो एक दिन एक न्यूज चैनल का एंकर उसकी बहन के दफ्तर पहुंचता है। उससे संवेदना प्रकाट करता है और कहता है कि जब वो चाहें तो देश को आदित्य और अपने परिवार का पक्ष बता सकती हैं। एक दिन जब वो तय करके चैनल के स्टूडियो में पहुंचती है तो वही एंकर उसको अपना पक्ष रखने का मौका तो नहीं ही देता है, लाइव शो में उसको जलील भी करता है। इस सीन में मुजरिम की बहन के चेहरे पर ठगे जाने का भाव पूरे सिस्टम पर एक टिप्पणी की तरह प्रकट होता है। इसी तरह एक और प्रसंग है जिसमें दो लड़कियां आदित्य की मां के पास आती हैं। कहती हैं वो आदित्य के साथ कॉलेज में थीं, उनसे संवेदना प्रकट करती हैं, आदित्य के अपराधी नहीं होने की बात करती हैं। दूसरी मुलाकात में उसकी मां ढेर सारी बातें कहती हैं जिसको वो दोनों लड़कियां चुपके से रिकॉर्ड कर लेती हैं। उस बातचीत में जेल में बंद मुजरिम आदित्य की मां किसी प्रंसग में कहती हैं कि लड़की की हत्या और उसका रेप करनावाला जानवर ही होगा। बाकी सारे बातें एडिट करके टीवी पर सिर्फ यही चलाया जाता है कि मुजरिम की मां ने कहा कि हत्यारा जानवर था। जेल में बंद आदित्य जब टीवी पर अपनी मां की बात सुनता है तो वो अंदर से टूट जाता है। न्यूज चैनलों को करीब से देखने जानने वालों को इस तरह की कई घटनाएं याद होंगी।
इस वेब सरीजी में पंकज त्रिपाठी का अभिनय शानदार है। पंकज त्रिपाठी ने पिछले कुछ वर्षों में खुद को बेहतरीन अभिनेता के तौर पर खुद को स्थापित किया। फिल्मों में भी और वेब सीरीज में भी। पंकज के अभिनय में जो सहजता है वो उनको बलराज साहनी और इरफान की परंपरा से जोड़ता है। कई बार तो पंकज अपने अभिनय में इरफान से आगे निकलते दिखाई देते हैं, खास तौर पर वहां जब वो संवाद अदायगी में परिस्थिजन्य सहजता को बरकरार रखते हैं। यहां वो मनोज वाजपेयी से बिल्कुल अलग और आगे नजर आते हैं। मनोज वाजपेयी अपने अभिनय में इतने प्रयोग करते नजर आते हैं कि उसमें उनकी सहजता कहीं गायब हो जाती है और कई बार उनकी संवाद अदायगी कृत्रिम लगने लगती है। पंकज की आंखें और उनकी बॉडी लैंग्वेज उनके संप्रेषण को बेहद प्रभावशाली बना देती है। कभी कभार तो उनका हूं या अच्छा कहना ही कई वाक्यों पर भारी पड़ता है और इस वेब सीरीज में उनका ये कौशल कई बार दर्शकों के सामने आता है। पंकज के अलावा जैकी श्रॉफ और अन्य अभिनेताओं ने भी अच्छा काम किया है। अंत में यह कहना आवश्यक है कि इस तरह के वेब सीरीज समाज की जरूरत हैं जिसमें मनोरंजन के साथ साथ समाज के बदलते मन मिजाज से भी दर्शकों का परिचय करवाया जाता है। क्रिमिनल जस्टिस जैसे सीरियल उस सोच को भी बदलते हैं या निगेट करते हैं जिसके तहत निर्माताओं और निर्देशकों को ये लगता है कि सेक्स प्रसंगों को दिखाकर दर्शकों को खींचा जा सकता है। निगेट तो क्रिमिनल जस्टिस ने इस बात को भी किया कि दर्शकों को जुगुप्साजनक हिंसा पसंद आती है। इसमें हिंसा है लेकिन कभी उसको देखकर उबकाई नहीं आती है जैसा कि वेब सीरीज को घूल को देखकर दर्शकों को आई थी। 

Saturday, April 6, 2019

वादे नहीं ठोस नीति की दरकार


चुनाव के पहले लगभग सभी दल अपना-अपना घोषणा पत्र जारी करते हैं। घोषणा-पत्र में जनता से वादा किया जाता है कि अगर वो सत्ता में आए तो अमुक-अमुक काम करेंगे। देश में इस वक्त लोकसभा चुनाव का माहौल है और अलग अलग दलों ने अपना-अपना घोषणा-पत्र जारी करना शुरू कर दिया है। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिग्गज पार्टी नेताओं की मौजूदगी में चुनावी घोषणा-पत्र जारी किया। कांग्रेस के घोषणा-पत्र में कला-संस्कृति और साहित्य के बारे में भी पार्टी ने अपनी राय और भविष्य की योजनाओं को रखा है। पार्टी के घोषणा-पत्र का बीसवां वादा इसी विषय पर है। इसमें लिखा गया है कि कला-संस्कृति और विरासत लोगों को पहचान दिलाती है। भारत जैसा बहु-सांस्कृतिक देश, जिसके पास गर्व करने लायक कला-संस्कृति-साहित्य और वृहद विरासत है, जिसे संरक्षित और सुरक्षित किए जाने की जरूरत है। अब अगर हम इन पंक्तियों पर गौर करें तो ये लगता है कि कांग्रेस को कला-संस्कृति और साहित्य के अलावा विरासत को संजोने का ख्याल इतने लंबे अरसे बाद क्यों आया? अगर पहले भी इनको संरक्षित करने का ख्याल कांग्रेस पार्टी को आया था तो अब इसको दोहराने का मकसद क्या है? कांग्रेस ये सही कह रही है कि भारत के पास कला-संस्कृति-साहित्य की समृद्ध परंपरा है लेकिन आजादी के सत्तर साल बाद इसको संरक्षित और सुरक्षित करने की बात करने से ऐसा प्रतीत होता है कि अबतक इस काम को गंभीरता से नहीं लिया गया था। आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी के पास लंबे समय तक सत्ता रही लेकिन जिस गंभीरता के साथ सांस्कृतिक विरासत को संजोने और उसको सहेजने का काम होना चाहिए था वो हो नहीं पाया। देश के अलग अलग हिस्सों में पुस्तकालयों में प्राचीन ग्रंथों की पांडुलिपियां उचित रखरखाव के अभाव में नष्ट होती रहीं लेकिन उसकी ओर समुचित ध्यान नहीं गया। अभी पिछले दिनों वाराणसी के गोयनका पुस्तकालय जाने का अवसर मिला, वहां इतने महत्वपूर्ण ग्रंथों की पांडुलिपियां रखी हैं, लेकिन उसको उचित तरीके से सहेजा नहीं जा सका है। धूल धूसरित कपड़ों में लपेटकर रखी गई ये पांडुलिपियां कभी भी नष्ट हो सकती हैं। राजस्थान के पूर्व राजघरानों के पुस्तकालयों में रखे हजारों ग्रंथ लगभग नष्ट हो गए। हुआ यह कि राजघरानों में उनके वारिसों के बीच संपत्ति के बंटवारे को लेकर विवाद हुए, मुकदमेबाजी हुई और कई जगह अदालत के आदेश के पर संपत्ति को सील कर दिया गया। जब सालों बाद मुकदमे का फैसला आया तो सीलबंद पुस्तकालयों की हालत बदतर हो चुकी थी, ग्रंथ लगभग नष्ट हो चुके थे। जरूरत इस बात की थी इन बहुमूल्य ग्रंथों को बचाने को लेकर सरकार कोई नीति बनाती । जो बन नहीं सकी। जो संस्थाएं बनाई गईं वो ठीक तरीके से अपना काम नहीं कर सकीं।
कांग्रेस पार्टी के घोषणा-पत्र में आगे कहा गया है कि कांग्रेस भारत की कला और समृद्ध विविधतापूर्ण संस्कृति की रक्षा करने और इसे स्वतंत्र और रचनात्मक माहौल में फलने-फूलने का मौका मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्ध है। हम पूरी तरह से सेंसरशिप का विरोध करने के साथ ही किसी भी समूह की कला और संस्कृति को बदनाम करने या नष्ट करने का विरोध करेंगे। अब जरा इस वादे के आलोक में कुछ तथ्यों को देख लेते हैं। कांग्रेस पार्टी स्वतंत्र और रचनात्मक माहौल में फलने-फूलने का मौका मुहैया कराने के साथ साथ सेंसरशिप के विरोध की बात  करती है तो ये वादा खोखला लगता है। खोखला इसलिए कि कांग्रेस पार्टी हमेशा से सेंसरशिप के साथ रही है। साहित्य जगत अभी तक ये भूला नहीं है कि सलमान रश्दी की पुस्तक द सैटेनिक वर्सेस पर जब भारत में बैन लगाया गया था तो उस वक्त कांग्रेस पार्टी के राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। तस्लीमा नसरीन के साथ जो हुआ उसको भी साहित्य जगत के लोग भुला नहीं पा रहे हैं। इसके अलावा जब स्पेऩिश लेखक जेवियर मोरो लिखित सोनिया गांधी की फिक्शनलाइज्ड जीवनी द रेड साड़ी जब भारत में प्रकाशित होनेवाली थी तो कांग्रेस ने उसको रुकवा दिया था। उस वक्त कांग्रेस के नेताओं ने खूब हो हल्ला मचाया था, जेवियर मोरो को कानूनी कार्रवाई की धमकियां दी गई थीं। कांग्रेस उस वक्त सत्ता में थी लिहाजा इस पुस्तक का प्रकाशन नहीं हो सका। ये कैसा रचनात्मक माहौल था इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
अब अगले बिंदु पर नजर डालते हैं जिसमें ये वादा किया गया है कि हम पारंपरिक कला और शिल्प के क्षेत्र में कार्यरत कलाकारों और शिल्पकारों को आर्थिक सहायता(फैलोशिप) प्रदान करेंगे।कांग्रेस पार्टी ये कर सकती है और इसने पूर्व में ऐसा किया भी है। तमाम तरह के फैलोशिप दिए गए, अलग अलग संस्थानों में फैलोशिप के नाम पर अपने लोगों को उपकृत किया गया। कांग्रेस ने एक बहुचर्चित फेलौशिप आरंभ किया था जिसका नाम है टैगोर नेशनल फेलोशिप। संस्कृति मंत्रालय के अधीन चलनेवाले इस फैलोशिप में शोधकर्ता को अस्सी हजार रुपए प्रतिमाह और अन्य खर्चे के लिए ढाई लाख सालाना दिए जाने का प्रावधान है। अगर इस फैलोशिप के लिए चयनित उम्मीदवार विश्वविद्यालय या अन्य सरकारी संस्थाओं में कार्यरत है तो उनके वेतन के बराबर राशि उनको दी जाएगी। संस्कृति मंत्रालय इस फेलोशिप को अपने अधीन और अपने से संबद्ध स्वायत्त संस्थाओं के माध्यम से प्रदान करती है। यह जानना दिलचस्प होगा कि अबतक ये किन किन लोगों को दिया गया है और उनमें से कितने लोगों ने तय समय में काम पूरा करके संस्थाओं को सौंपा। एक अनुमान के मुताबिक शुरुआती सालों में जिनको ये फेलोशिप दी गई उनमें से सत्तर फीसदी से अधिक लोगों ने अपना प्रोजेक्ट जमा ही नहीं किया। इसी तरह से भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में इतहास के एक विद्वान चालीस सालों तक एक फेलोशिप के तहत प्रोजेक्ट पर काम करते रहे लेकिन वो पूरा नहीं हो पाया। उनको परिषद के दफ्तर में एक कमरा भी दिया गया था जिसे बहुत मुश्किल से 2014 में केंद्र में सरकार बदलने के बाद खाली करवाया जा सका। अब घोषणा-पत्र में फिर से फेलोशिप की बात की गई है लेकिन उसमें इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि इसमें जवाबदेही कैसे तय होगी। सरकार जब कोई फेलोशिप देती है तो उसमें करदाताओं का पैसा लगा होता है, लिहाजा उनको ये जानने का हक है कि खर्च हुए पैसे के एवज में देश को मिलेगा क्या? आवश्यकता तो इस बात की है कि आजादी के बाद फेलोशिप के नाम पर जितना पैसा बांटा गया उसका ऑडिट हो और जनता के सामने एक श्वेत पत्र प्रस्तुत किया जाए।
एक और वादा किया गया है कि कांग्रेस कलात्मक स्वतंत्रता की गारंटी देगी, कलाकार और शिल्पकार सेंसरशिप या विरोध के डर के बिना अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होंगे। स्वयंभू सतर्कता समूहों द्वारा किसी प्रकार का सेंसर करने तथा कलाकारों को धमकाने को पूरी गंभीरता के साथ लेते हुए कानूनी कार्यवाही की जाएगी।इस वादे को पढ़ने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि क्या अबतक ऐसा नहीं हो रहा है। अगर कुछ लोग फिल्म पद्मावत को लेकर विरोध जताते हैं तो कुछ लोग फिल्म इंदु सरकार की रिलीज के खिलाफ भी बवाल मचाते हैं। रही बात कानूनी कार्यवाही की तो ये गारंटी तो हमारा संविधान ही हमें देता है। कलात्मक स्वतंत्रता की भी एक सीमा है जिसको हमारे देश की अदालतों ने समय समय पर व्याख्यायित किया हुआ है। चाहे वो एम एफ हुसैन का मामला हो या तमिल लेखक मुरुगन का। उससे अलग हटकर क्या किया जा सकता है इसको थोड़ा विस्तार से समझाने और समझने की जरूरत है। एक और दिलचस्प वादा है कांग्रेस सांस्कृतिक संस्थाओं को स्वायत्ता, जिसमें वित्तीय स्वायत्ता भी निहित है, प्रदान करने का वचन देती है। सांस्कृतिक संस्थाओं में स्वायत्ता के नाम पर किस तरह की अराजकता हुई है उसको हमारे देश ने देखा है, चाहे वो साहित्य अकादमी हो, संगीत नाटक अकादमी हो या फिर ललित कला अकादमी। ललित कला अकादमी से करोडों के पेंटिग्स बेच दिए गए। भ्रष्टाचार में ये संस्था आकंठ डूबी रही। इन सबका आरोप जिन लोगों पर लगा उनका बाल भी बांका नहीं हो सका, क्योंकि उनके तार कहीं ना कहीं कांग्रेस पार्टी से जुड़े थे। यूपीए टू के दौरान इन संस्थाओं में स्वायत्ता की आड़ में होनेवाले खेल पर सीताराम येचुरी की अगुवाई वाली संसद की एक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी, बावजूद इसके कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। ना ही उसके सुझावों पर अमल हो सका। कला साहित्य और संस्कृति को लेकर जितने भी वादे किए गए हैं वो रस्मी हैं और उससे कोई नई उम्मीद नहीं जगती है। जरूरत इस बात की है कि सभी दल एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक नीति की बात करें ताकि संस्कृति,साहित्य और कला को मजबूती प्रदान करने के लिए कुछ ठोस किया जा सके।


Friday, April 5, 2019

सामाजिक ताकतों के बीच की लड़ाई


लोकसभा चुनाव के पहले चरण की वोटिंग में चंद दिन शेष रह गए हैं। चुनावी कोलाहल में हर गली मोहल्ले में चुनावी मुद्दों की चर्चा हो रही है। भारतीय जनता पार्टी के समर्थक राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक मंच पर भारत की धमक को लेकर मजबूती के साथ चुनाव मैदान में हैं। वहीं इस पार्टी के विरोधी बेरोजगारी और किसानों को मुद्दा बना रहे हैं। बयानवीर नेता भी कमोबेश इन्हीं मुद्दों को अपने भाषणों में उछाल रहे हैं। इन सबसे इतर चुनावी बिसात पर अलग अलग तरह के नैरेटिव भी खड़े किए जा रहे हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों के मुद्दों को लेकर कुछ सामाजिक ताकतें अपना अलग नैरेटिव खड़ा कर रही हैं। इसी तरह के राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के क्रियाकलापों को लेकर भी पक्ष और विपक्ष में नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी की नीतियों और रीतियों से इत्तेफाक नहीं रखनेवाले बुद्धिजीवी भी भारत की विविधता के बहाने एक नैरेटिव खड़ा करके इस पार्टी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। नैरेटिव बनाने में इन बुद्धिजीवियों को महारथ हासिल है इसका एक उदाहरण उस अपील में देखा जा सकता है जिसे पिछले दिनों फिल्म से जुड़े कुछ छोटे और मंझोले किस्म के फिल्मकारों ने जारी किया। या फिर उस अपील को भी रेखांकित किया जा सकता है जिसको साहित्य कला और संस्कृति से जुड़े दो सौ कलाकारों ने जारी किया। इस अपील में बगैर भारतीय जनता पार्टी का नाम लिए नफरत की राजनीति के खिलाफ और समानता और विविधता वाले भारत के पक्ष में वोट देने की अपील की गई है। यह परोक्ष रूप से एक ऐसे नैरेटिव का निर्माण करता है जिससे भारतीय जनता पार्टी को नुकसान हो।
आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर दो तरह से नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। एक तो सैद्धांतिक रूप से और दूसरा जमीन पर। सैद्धांतिक रूप से जो नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है वो ज्यादातर अंग्रेजी में किया जा रहा है। चुनावी सीजन में कई ऐसी पुस्तकें आई हैं जिसमें भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दीर्घकालिक योजनाओं का पर्दाफाश करने की बात की गई है। पत्रकार आशुतोष की किताब आई जिसमें ये साबित करने की कोशिश की गई है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की मूल भावना को कमजोर करने की राजनीति कर रहा है। वो यह भी कहते हैं कि 2019 का चुनाव हिंदू भारत और हिंदुत्व भारत के बीच है। साथ ही वो ये नैरेटिव भी बनाने की कोशिश करते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दरअसल गांधी के सिद्धातों को कमजोर कर उसको नीचा दिखाने में लगा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लगता है कि गांधी के सिद्धांत और उनकी छवि इतनी मजबूत है कि उसको सीधे पर चुनौती नहीं दी जा सकती है लिहाजा षडयंत्रपूर्वक पहले नेहरू को नीचा दिखाने का उपक्रम किया जा रहा है। एक और किताब आई है नीलांजन मुखोपाध्याय की, द आरएसएस, ऑइकॉन्स ऑफ द इंडिन राइट। इस पुस्तक में हेडगेवार, सावरकर, गोलवलकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, बालासाहब देवरस, विजय राजे सिंधिया, वाजपेयी, आडवाणी, अशोक सिंघल और बाल ठाकरे की जाति जिंदगी से लेकर उनकी राजनीति को परखते हुए नई दृष्टि का दावा किया गया है। चुनाव के समय इस तरह की कई किताबें आई हैं। आनी भी चाहिए, होली आएगी तभी तो रंग बिकेगें।
नैरेटिव बनाने का एक काम जमीनी स्तर पर भी चल रहा है जिसमें दलितों और आदिवासियों के गौरवशाली अतीत को बताते हुए कई बेवसाइट चलाए जा रहे हैं। जिनमें हर दिन प्रेरणादायक कहानियां प्रकाशित की जा रही है। इन कहानियों में जो संदेश होते हैं उसके निहितार्थ कहन से भिन्न होते हैं। इससे जो नैरेटिव बनता है वो राजनीतिक संदेश देता है और परोक्ष रूप से मतदाताओं को प्रभावित करता है। इसी तरह से जाति आधारित व्हाट्सएप ग्रुप बनाकर भी नैरेटिव बनाने का काम चल रहा है। एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में चार सौ के करीब व्हाट्सएप ग्रुप चल रहे हैं। इन जाति आधारित व्हाट्सएप ग्रुप पर हर दिन सुबह सुबह जाति विशेष को लेकर संदेश दिए जा रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि इस चुनाव में झंडे-बैनर लगभग नदारद हैं। तकनीक के सहारे खामोशी से जिस तरह से नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि ये लोकसभा चुनाव राजनीतिक दलों से अधिक सामाजिक ताकतों के बीच की लड़ाई है।