इंटरनेट
पर मनोरजंन के बढ़ते बाजार को ध्यान में रखते हुए नई-नई वेब सीरीज दर्शकों के
सामने पेश की जा रही हैं। चूंकि इसमें किसी तरह की कोई सेंसरशिप नहीं है, इस वजह
से निर्माता-निर्देशक अपने सीरीज को हिट कराने के लिए जुगुप्सा की हद तक हिंसा
दिखाने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।यथार्थवादी कलात्मकता के नाम पर हिंसा और
सेक्स सीन को भी प्रमुखता मिल रही है। गाली-गलौच वाले संवाद के बारे में तो कहना
ही क्या। लस्ट स्टोरीज, सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर जैसी वेब-सीरीज में उपरोक्त
मसाले भरपूर मात्रा में परोसे गए। गाली-गलौच के बचाव में ये तर्क दिया जाता है कि
जिस भौगोलिक इलाके की इनमें कहानियां होती हैं वहां की बोलचाल की भाषा में गालियों
का प्रयोग होता है लिहाजा उनकी मजबूरी है। इस तर्क की आड़ में निर्माता-निर्देशक उस
परिवेश को नैचुरल दिखाने के लिए पात्रों से भरपूर गाली दिलवाते हैं। ज्यादातर सीरीज
अपराध कथाओं पर आधारित होती हैं लिहाजा अपराध, सेक्स प्रसंग, गाली गलौच, जबरदस्त
हिंसा आदि दिखाने की छूट मिल जाती है। प्रत्यक्ष रूप से इन मसालों को दिखाने के
तर्क जो भी हों पर लक्ष्य तो दर्शकों को अपनी ओर खींचना ही होता है। ये लोग ये
नहीं समझते हैं कि कला और साहित्य में ‘जीवन’ तो होता है पर ‘जीवन’ को जस
का तस धर देना कला नहीं है। उनको ‘जीवन’ जैसा बनाने की कोशिश ही कला है। साहित्य में भी यथार्थवाद का दौर लंबे
समय तक चला पर यथार्थ के नाम पर इतनी छूट नहीं ली गई जितनी वेब सीरीज में ली जा
रही है। जिन भी फिल्मों में जीवन का फोटग्राफिक यथार्थ पेश किया जाता है वो
श्रेष्ठ फिल्में नहीं मानी जाती हैं। निर्देशक अनुराग कश्यप अपनी फिल्मों से लेकर
वेबसीरीज तक में इस दोष के शिकार नजर आते हैं। यह अलग बात है कि वो इसको यथार्थ के
नाम पर बेचने में कई बार कामयाब हो जाते हैं।
अभी
हाल ही में एक वेब सीरीज आई है जिसका नाम है ‘क्रिमिनल जस्टिस’। ये इसी नाम से बनी ब्रिटिश वेब-सीरीज का भारतीय
संस्करण है। करीब पैंतालीस मिनट के दस एपिसोड में जबरदस्त कहानी है। यहां भी समाज
का यथार्थ अपने वीभत्स रूप में उपस्थित है, पर वो फोटोग्राफिक यथार्थ नहीं है।
इसलिए यह अन्य वेब सीरीजों से अलग दिखता है। इस पूरे वेब सीरीज में समाज के
विषमताओं पर भी चोट की गई है, बगैर अनुराग कश्यप की तरह लाउड हुए और बगैर किसी
राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए। इस वेब सीरीज में एक ऐसे लड़के की कहानी है,
जो फुटबॉल खेलता है, दोस्तों के साथ पार्टी करता है लेकिन उसको अपनी पारिवारिक
जिम्मेदारियों का भी एहसास है। मैच जीतने की खुशी में दोस्तों के साथ पार्टी में
जाने के पहले जब बहन उससे अनुरोध करती है कि वो अपने पिता की टैक्सी चलाकर कुछ
पैसे कमा लाए तो वो मान लेता है। कहानी के आगे बढ़ते ही वो एक ऐसे चक्रव्यूह में
फंसता है जिससे वो अंत में ही निकल पाता है। टैक्सी चलाकर जब आदित्य वनाम का लड़का
अपने दोस्तों की पार्टी की ओर जा रहा होता है तो उसको पता चलता है कि उसकी गाड़ी
में जो लड़की सवारी बैठी थी वो अपना मोबाइल कार में ही छोड़ गई है। वो मोबाइल
लौटाने उस लड़की के घर जाता है और वहीं से उसकी दुश्वारियां शुरू हो जाती हैं। उस
लड़की का कत्ल हो जाता है और वो जेल पहुंच जाता है। तमाम परिस्थितिजन्य सूबत उसके
कातिल होने की चीख-चीख कर गवाही दे रहे होते हैं। पर असल में जो संदेश इस वेब
सीरीज के माध्यम से निकलता है वो दर्शकों को बताता है कि न्याय की डगर कितनी कठिन
है। 22 महीने के अंतराल में फैली इस कहानी में एक अच्छा भला परिवार तबाह हो जाता
है। मुजरिम की बहन जब बच्चे को जन्म देती है तो उसका पति उसको तलाक देने पर उतारू
होता है। पिता की दुकान बिक जाती है। पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते तार-तार हो जाते
हैं। इस वेब-सीरीज में एक अपराधी के परिवार को लेकर समाज की मानसिकता, परिवार का
बिखरना,वकीलों के दांव पेंच, न्यूज चैनलों का असंवेदनशील चेहरा, पुलिस विभाग में
व्याप्त भ्रष्टाचार, ड्रग का धंधा, सामाजिक कार्य की आड़ में फलने फूलनेवाले अपराध,
जेल में गैंगवॉर, जेलर का भ्रष्टाचार यानि सबकुछ है। कहानी बहुत सधी हुई चलती है,
हां इतना अवश्य है कि मुजरिम आदित्य को अदालत से सजा होने के बाद कहानी को
अनावश्यक विस्तार दिया गया है। उसको और कसा जा सकता था।
इसमें
दो तीन ऐसे प्रसंग हैं जिनको रेखांकित करना आवश्यक है। एक प्रसंग तो वह है जिसमें
मुजरिम आदित्य की बहन को तलाक देने का मन बना चुका उसका जीजा एक दिन अपने ससुराल
पहुंचता है।अपनी पत्नी से साथ रहने की गुहार लगाता है। जिंदगी की तमाम कठिनाइयों
को अपने नवजात बच्चे के साथ झेल रही वो महिला अपने पति के प्रस्ताव को ठुकरा देती
है। बगैर आक्रामक हुए वो कहती है कि नहीं अब और नहीं। बगैर शोर मचाए यह प्रसंग हमारे
देश में स्त्रियों के मजबूत होने का बड़ा संदेश देता है। यह महिलाओं की प्रताड़ना
के प्रतिकार का प्रसंग भी है। वो बेहद सामान्य तरीके से ये तय करती है कि अपने
बच्चे की परवरिश खुद करेगी । इसी तरह न्यूज चैनलों के गैर जिम्मेदाराना हरकतों को
भी ये सीरीज शिद्दत के साथ बिना कुछ कहे दर्शकों के सामने रख देती है। जब आदित्य
का केस चल रहा होता है तो एक दिन एक न्यूज चैनल का एंकर उसकी बहन के दफ्तर पहुंचता
है। उससे संवेदना प्रकाट करता है और कहता है कि जब वो चाहें तो देश को आदित्य और
अपने परिवार का पक्ष बता सकती हैं। एक दिन जब वो तय करके चैनल के स्टूडियो में पहुंचती
है तो वही एंकर उसको अपना पक्ष रखने का मौका तो नहीं ही देता है, लाइव शो में उसको
जलील भी करता है। इस सीन में मुजरिम की बहन के चेहरे पर ठगे जाने का भाव पूरे
सिस्टम पर एक टिप्पणी की तरह प्रकट होता है। इसी तरह एक और प्रसंग है जिसमें दो
लड़कियां आदित्य की मां के पास आती हैं। कहती हैं वो आदित्य के साथ कॉलेज में थीं,
उनसे संवेदना प्रकट करती हैं, आदित्य के अपराधी नहीं होने की बात करती हैं। दूसरी
मुलाकात में उसकी मां ढेर सारी बातें कहती हैं जिसको वो दोनों लड़कियां चुपके से
रिकॉर्ड कर लेती हैं। उस बातचीत में जेल में बंद मुजरिम आदित्य की मां किसी प्रंसग
में कहती हैं कि लड़की की हत्या और उसका रेप करनावाला जानवर ही होगा। बाकी सारे
बातें एडिट करके टीवी पर सिर्फ यही चलाया जाता है कि मुजरिम की मां ने कहा कि
हत्यारा जानवर था। जेल में बंद आदित्य जब टीवी पर अपनी मां की बात सुनता है तो वो
अंदर से टूट जाता है। न्यूज चैनलों को करीब से देखने जानने वालों को इस तरह की कई
घटनाएं याद होंगी।
इस
वेब सरीजी में पंकज त्रिपाठी का अभिनय शानदार है। पंकज त्रिपाठी ने पिछले कुछ
वर्षों में खुद को बेहतरीन अभिनेता के तौर पर खुद को स्थापित किया। फिल्मों में भी
और वेब सीरीज में भी। पंकज के अभिनय में जो सहजता है वो उनको बलराज साहनी और इरफान
की परंपरा से जोड़ता है। कई बार तो पंकज अपने अभिनय में इरफान से आगे निकलते दिखाई
देते हैं, खास तौर पर वहां जब वो संवाद अदायगी में परिस्थिजन्य सहजता को बरकरार
रखते हैं। यहां वो मनोज वाजपेयी से बिल्कुल अलग और आगे नजर आते हैं। मनोज वाजपेयी
अपने अभिनय में इतने प्रयोग करते नजर आते हैं कि उसमें उनकी सहजता कहीं गायब हो
जाती है और कई बार उनकी संवाद अदायगी कृत्रिम लगने लगती है। पंकज की आंखें और उनकी
बॉडी लैंग्वेज उनके संप्रेषण को बेहद प्रभावशाली बना देती है। कभी कभार तो उनका
हूं या अच्छा कहना ही कई वाक्यों पर भारी पड़ता है और इस वेब सीरीज में उनका ये
कौशल कई बार दर्शकों के सामने आता है। पंकज के अलावा जैकी श्रॉफ और अन्य अभिनेताओं
ने भी अच्छा काम किया है। अंत में यह कहना आवश्यक है कि इस तरह के वेब सीरीज समाज
की जरूरत हैं जिसमें मनोरंजन के साथ साथ समाज के बदलते मन मिजाज से भी दर्शकों का
परिचय करवाया जाता है। ‘क्रिमिनल जस्टिस’ जैसे सीरियल उस सोच को भी बदलते हैं या निगेट करते हैं जिसके तहत
निर्माताओं और निर्देशकों को ये लगता है कि सेक्स प्रसंगों को दिखाकर दर्शकों को
खींचा जा सकता है। निगेट तो ‘क्रिमिनल जस्टिस’ ने इस बात को भी किया कि दर्शकों को जुगुप्साजनक हिंसा पसंद आती है।
इसमें हिंसा है लेकिन कभी उसको देखकर उबकाई नहीं आती है जैसा कि वेब सीरीज को ‘घूल’ को देखकर दर्शकों को आई थी।
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