इस वक्त पूरा देश चुनावी रंग में सराबोर है।
कयासों का दौर जारी है। पक्ष विपक्ष में राजनीतिक बयानबाजी हो रही है। सभी दल अपनी
अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। अपने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में किए गए वादों के
आधार पर जनता को लुभाने में लगे हैं। चुनाव प्रचार के तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे
हैं। फेक न्यूज गढ़े जा रहे हैं। तकनीक का उपयोग कर समाज के हर तबके तक पहुंचने और
उनको अपने पक्ष में करने की राजनीति की जा रही है। लोकतंत्र में चुनाव सबसे बड़ा
पर्व होता है लेकिन जब पर्व जगं में तब्दील हो जाता है तो वहां सबकुछ जायज मान लेने
की प्रवृत्ति मजबूत होने लगती है। जंग और मुहब्बत में सबकुछ जायज है के कहावत को
चरितार्थ करने की कोशिश में पर्व की पवित्रता दांव पर लगा दी जाती है। गड़बड़ी
यहीं से शुरू होती है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार 2014 में नरेन्द्र मोदी
की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और सही मायने में एक मजबूत
गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। इस सरकार के गठन होने के बाद कला और संस्कृति जगत
से जुड़े और वहां सालों से अपनी मनमानी कर रहे लोगों को तकलीफ होनी शुरू हो गई। आसन्न
खतरे को भांपकर विचारधारा विशेष के लोगों ने सरकार को येन-केन प्रकारेण घेरने की
कोशिशें शुरू कर दीं। वाम विचारधारा के इन लोगों को ये लगने लगा कि मोदी सरकार
अपने कार्यकाल के दौरान उनसबको अपदस्थ कर देगी। इसी सोच के अंतर्गत वामपंथियों ने
मोदी सरकार पर असहिष्णुता का प्रहार किया। कला साहित्य, फिल्म आदि क्षेत्र से
जुड़े लोगों ने सरकार पर आरोप लगाना शुरू कर दिया। थोड़े समय तक असहिष्णुता का
कोलाहल मचा लेकिन झूठ का वातावरण दीर्घजीवी नहीं हो सकता है इस वजह से ये आरोप भी
समय के साथ हाशिए पर चला गया। जब-जब कोई चुनाव आता रहा तब-तब कुछ लोग सामने आकर इस
तरह की बातें कहते, सरकार पर आरोप लगाते, जनता से अपील करते और फिर चुनाव खत्म
होते ही खामोश हो जाते। धीरे-धीरे जनता को समझ आने लगा कि ये सब फेक नैरेटिव खड़ा
कर उनको भरमाने का उपक्रम है इसका ही परिणाम हुआ कि जनता के बीच लेखकों, कलाकारों,
फिल्मकारों आदि का अपील बेअसर होने लगा। आपको याद होगा कि शाहरुख खान और आमिर खान
ने भी उस दौर में देश के माहौल पर टिप्पणी की थी लेकिन जब बात नहीं बनी तो वे अचूक
अवसरवादी की तरह मोदी सरकार के साथ खड़े नजर आने लगे। प्रधानमंत्री के साथ अपनी
मुलाकात की तस्वीरें साझा करने लगे।
अब जब एक बार फिर से लोकसभा का चुनाव सर पर है तो
कुछ फिल्म कलाकार और लेखक सामने आकर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मोदी सरकार के
खिलाफ वोट देने की अपील करने लगे हैं। कुछ दिन पहले अभिनेता नसीरुद्दीन शाह,
निर्देशक अनुराग कश्यप, कोंकणा सेनशर्मा आदि को देश और संविधान की याद सताने लगी। उन्होंने
अपने बयान में भारतीय जनता पार्टी और उनके सहगोयी दलों के खिलाफ वोट करने की अपील
की। अपील में ये भी कहा गया है कि धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समावेशी भारत के
पक्ष में वोट देने की अपील भी की गई है। नसीरुद्दीन शाह साहब को कुछ दिन पहले भी
अपने बेटों की चिंता हुई थी। नसीरुद्दीन शाह ने पिछले वर्ष एक साहित्य समारोह के
दौरान कहा था कि मेरे फिल्मों में आने की वजह सिर्फ लोकप्रियता
हासिल करना था, कला की सेवा करना नहीं। जो ऐसा कहते हैं कि वो फिल्मों में कला की
सेवा करने की वजह से आए हैं वो झूठ बोलते हैं। दरअसल फिल्मों में लोग धन कमाने और
प्रसिद्ध होने के लिए आते हैं।‘ इस बयान के आलोक में नसीर की
मानसिकता को समझा जा सकता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर जब उनको फिल्में नहीं मिल
रही हैं तो लोकप्रियता को कायम रखने के लिए वो अब बयानों का सहारा ले रहे
हैं। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुई हिंसा के बाद भी नसीरुद्दीन
शाह ने कहा था कि ‘हमने बुलंदशहर हिंसा में देखा कि मौजूदा समय में देश में एक गाय की मौत की
अहमियत पुलिस अफसर की जान से ज्यादा होती है। उनके मुताबिक मौजूदा समय में वातावरण
में जहर खोलने की कोशिश की जा रही है। मुझको इस बात की चिंता सताती है कि कहीं
उन्मादी भीड़ ने उनके बच्चों को घेर लिया उनसे पूछा कि तुम हिंदू हो या मुसलमान तो
उनके पास इस बात का क्या जवाब होगा।‘ जो धर्मनिरपेक्षता की
बात करता है वो एक अपराध को हिन्दू मुसलमान के चश्मे से देखता है। नसीर के इस बयान
की टाइमिंग को ध्यान में रखना चाहिए तभी मंशा को पता चलेगा। उनका ये बयान
राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के पहले आया था। ठीक उसी तरह
जैसे देश में असहिणुता का वातावरण बनाने की कोशिश बिहार विधानसभा चुनाव के ऐन पहले
की गई थी। सोशल मीडिया पर नसीरुद्दीन शाह को लेकर तीखी बातें कही जा रही हैं। एक
व्यक्ति ने लिखा कि जब 1989 में बिहार के भागलपुर में भीषण दंगा हुआ था उस वक्त
नसीरुद्दीन शाह तिरछी टोपी वाले गा रहे थे। तब उनको देश के संविधान की चिंता नहीं
हुई थी, देश के सामाजिक ताने-बाने के बिखरने को लेकर अफसोस नहीं हुआ था।
एक दूसरे बयानवीर है अनुराग कश्यप। ओवर-रेटेड
निर्देशक हैं, बाजार के सभी औजारों का अपने हक में उपयोग करना जानते हैं। वो अपनी
फिल्मों और बेवसीरीज के माध्यम से वाम विचारधारा को पल्लवित पुष्पित करने का काम
करते रहते हैं। वाम विचार की भक्ति ऐसी कि जब वो सेक्रेड गेम्स बनाते हैं तो उसमें
अपनी विचारधारा के साथ उपस्थित नजर आते हैं। इस
वेब सीरीज के एक एपिसोड में यह दिखाया गया है कि कैसे एक निर्दोष मुस्लिम लड़को का
पुलिस एनकाउंटर कर देती है। और परोक्ष रूप से राजनीतिक स्टेटमेंट देते हैं कि उस
मुस्लिम लड़के का परिवार धरने पर बैठा है जिसकी सुध लेनवाला कोई नहीं है। एक एपिसोड में तो बाबारी विध्वंस के फुटेज को
लंबे समय तक दिखाया जाता है और फिर बैकग्राउंड से उसपर राजनीतिक टिप्पणियां चलती
हैं । इसी तरह से मुंबई बम धमाकों के फुटेज को दिखाकर बैंकग्राउंड से टिप्पणियां
आती हैं जो सीरियल निर्माता की सोच को उजागर करती है। इससके अलावा भी अनुराग कश्यप
को जहां मौका मिलता है वो राजनीतिक टिप्पणी करने और मौजूदा सरकार और उसकी
विचारधारा को कठघरे में खड़ा करने में नहीं चूकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम
पर वैचारिक आग्रहों का प्रतिपादन उचित है लेकिन फिक्शन के नाम पर जब ये किया जाए
तो उसको रेखांकित करना जरूरी है। अनुराग कश्यप की एक फिल्म है मुक्काबाज। इस फिल्म
में एक डयलॉग है- वो आएंगे, भारत माता की जय बोलेंगे और तुम्हारी हत्या कर चले
जाएंगे। इस संवाद का कोई संदर्भ नहीं है लेकिन फिल्मकार परोक्ष रूप से भारतीय जनता
पार्टी पर वार करना चाहते हैं लिहाजा बगैर किसी संदर्भ के इस तरह की बातें करते
हुए निकल जाते हैं। अनुराग कश्यप जैसे लोग फिल्मों और कला की आड़ में दरअसल
राजनीति करते हैं।
अगर हम हिंदी फिल्मों का इतिहास उठाकर देखें तो
वहां कम्युनिस्टों की उपस्थिति का लंबा इतिहास रहा है। पहले के कई लेखक, कलाकार,
फिल्मकार तो बकायदा कम्यून में रहते थे और वहां की ज्यादतियों को झेलते भी थे। मशहूर
अदाकारा शबाना आजमी की मां और कैफी आजमी की पत्नी शौकत ने अपने संस्मरणों में की
किताब ‘यादों की रहगुजर’ में किया है। प्रसंग कुछ ऐसा है कि जब कैफी और शौकत की शादी हुई थी तो वे
दोनों मुंबई की एक कम्यून में रहते थे। उनका जीवन सामान्य चल रहा था। उनके घर एक
बेटे का जन्म हुआ था । अचानक सालभर में बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में
समा गया । बेटे की मौत से आई विपदा से शौकत पूरी तरह से टूट गई थी । अपने इस पहाड़
जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जैसे ही शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा
रही हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । अपनी इस खुशी को शौकत ने कम्यून के
अपने साथियों के साथ साझा की । उस वक्त तक शौकत कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले
चुकी थी। जब शौकत की पार्टी को इसका पता चला तो तो पार्टी ने शौकत से गर्भ गिरा
देने का फरमान जारी कर दिया। उस वक्त शौकत पार्टी के इस फैसले के खिलाफ अड़ गईं थी
और तमाम बहस आदि के बाद उनको बच्चे की अमुमति मिली थी । दरअसल ये कम्युनिस्टों का
बेहद अमानवीय चेहरा है । इस वजह से जब वो नारी स्वतंत्रता की बात करते हैं या फिर जीने
से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की बात करते हैं तो खोखलापन नजर आता है । आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर अपनी अपील में जब
फिल्मी कलाकार ये कहते हैं कि '2019 का लोकसभा चुनाव स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे कठिन चुनाव है।
वर्तमान सरकार हिंसा और नफरत की सरकार है तो ऐसा लगता है कि इनको किसी प्रकार का
कोई इतिहास बोध ही नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने शासनकाल में या अपने कम्यून
में जो अमानवीय बर्ताव किया उसमें इनको न तो नफरत दिखाई दी थी और न ही हिंसा।
जैसा कि उपर कहा गया है कि हिंदी फिल्मों में कम्युनिस्टों का बोलबाला
रहा है, कैफी, साहिर और शैलेन्द्र जैसे लोग जो प्रगतिशील लेखक संघ से लेकर भारतीय
जन नाट्य संघ तक में सक्रिय रहे हैं। जांनिसार अख्तर और अली सरदार जाफरी जैसे
लेखकों ने लंबे समय तक अपनी लेखनी के माध्यम से, अपनी विचारधारा के माध्यम से
हिंदी फिल्मों को प्रभावित किया है। ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर एम एस सथ्यू,
श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी तक एक लंबी सूची है। फिल्म और फिल्म से जुड़े सरकारी
कार्यक्रमों से लेकर कमेटियों तक में इनका ही बोलबाला रहता था। सभी सरकारी
पुरस्कार भी इन्हीं लोगों के हाथों तय होते थे और इनके बीच ही बांट दिए जाते थे। बदले
में इनको खामोश रहना होता था। पिछले पांच सालों में ये काम बंद हो गया ऐसा तो नहीं
कहा जा सकता है क्योंकि अब भी डॉक्यूमेंट्री के लिए लखटकिया पुरस्कार श्याम बेनेगल
को ही मिलता है। हां ये कहा जा सकता है कि इनकी धमक कम हो गई है। अब सालों से जमी
जमाई सत्ता पर कोई हमला करेगा तो ये खामोश तो रहेंगे नहीं। इनको पलटवार तो करना ही
होगा। फिल्म अभिनेताओं की अपील को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।
दूसरी बात जो आम लोगों को समझनी होगी कि ये फिल्मकार अपने स्वार्थ की जमीन को
मजबूत करने के लिए अपने राजनीतिक आकाओं को भी मजबूत करना चाहते हैं। ऐसे सैकड़ों
उदाहरण हैं जिनको दिया जा सकता है जब देश में दंगे हुए, हजारों लोगों को जिंदा जला
दिया गया, सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया लेकिन इनकी संवेदनाएं नहीं
जागीं, इनको संविधान पर कोई खतरा नजर नहीं आया। ऐसे दसियों उदाहरण हैं जब
अभिव्यक्ति की आजादी को खत्म करने की बहुत गंभीर सरकारी कोशिश हुई लेकिन तब भी ये
लोग खामोश रहे बल्कि इनमें से कुछ तो सरकार के पक्ष में बयान जारी कर रहे थे। जवाहरलाल
नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में
अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने की कोशिश की गई लेकिन ये कमोबेश खामोश रहे। तब
इनको आइडिया ऑफ इंडिया खतरे में नहीं दिखा। दरअसल ये चुनाव के वक्त एक ऐसा नैरेटिव
खड़ा करने की कोशिश है जो भारत के खिलाफ है। भारतीयता की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान
को खतरे में बताकर ये फिल्मकार क्या हासिल करना चाहते हैं पता नहीं लेकिन इस तरह
की बयानबाजी करके देश की छवि को खराब कर रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए, अपने
राजनीतिक आकाओं को सत्ता के केंद्र में लाने के लिए देश और वहां के संविधान के
खतरे में आने की बात कर ये कुछ हासिल कर पाएंगें इसमें संदेह है क्योंकि अब देश की
जनता इनको पहचना चुकी है। चुनाव आते ही इनका अपनी खोल से बाहर निकल आना और फिर उसी
खोल में वापस चले जाने की प्रवृत्ति अब जग जाहिर हो चुकी है। फिल्मी कलाकारों,
नाट्यकर्मियों, लेखकों की ये अपील दर्जन भर भाषाओं में अनुदित होकर एक खास बेवसाइट
पर डाली जा रही हैं। ये बहुत संगठित तरीके से किया जा रहा है जिसको समझने की
आवश्यकता है। अगर स्वत:स्फूर्त अपील होती तो एक या दो भाषा में जारी की जाती, लेकिन यहां तो बारह
भाषाओं में जारी हो रही है। यह भी देखना चाहिए कि इस तरह के अपील से किस राजनीतिक
दल को फायदा हो सकता है ताकि इनकी मंशा साफ तौर पर जनता के सामने आ सके।
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