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Friday, April 5, 2019

सामाजिक ताकतों के बीच की लड़ाई


लोकसभा चुनाव के पहले चरण की वोटिंग में चंद दिन शेष रह गए हैं। चुनावी कोलाहल में हर गली मोहल्ले में चुनावी मुद्दों की चर्चा हो रही है। भारतीय जनता पार्टी के समर्थक राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक मंच पर भारत की धमक को लेकर मजबूती के साथ चुनाव मैदान में हैं। वहीं इस पार्टी के विरोधी बेरोजगारी और किसानों को मुद्दा बना रहे हैं। बयानवीर नेता भी कमोबेश इन्हीं मुद्दों को अपने भाषणों में उछाल रहे हैं। इन सबसे इतर चुनावी बिसात पर अलग अलग तरह के नैरेटिव भी खड़े किए जा रहे हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों के मुद्दों को लेकर कुछ सामाजिक ताकतें अपना अलग नैरेटिव खड़ा कर रही हैं। इसी तरह के राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के क्रियाकलापों को लेकर भी पक्ष और विपक्ष में नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी की नीतियों और रीतियों से इत्तेफाक नहीं रखनेवाले बुद्धिजीवी भी भारत की विविधता के बहाने एक नैरेटिव खड़ा करके इस पार्टी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। नैरेटिव बनाने में इन बुद्धिजीवियों को महारथ हासिल है इसका एक उदाहरण उस अपील में देखा जा सकता है जिसे पिछले दिनों फिल्म से जुड़े कुछ छोटे और मंझोले किस्म के फिल्मकारों ने जारी किया। या फिर उस अपील को भी रेखांकित किया जा सकता है जिसको साहित्य कला और संस्कृति से जुड़े दो सौ कलाकारों ने जारी किया। इस अपील में बगैर भारतीय जनता पार्टी का नाम लिए नफरत की राजनीति के खिलाफ और समानता और विविधता वाले भारत के पक्ष में वोट देने की अपील की गई है। यह परोक्ष रूप से एक ऐसे नैरेटिव का निर्माण करता है जिससे भारतीय जनता पार्टी को नुकसान हो।
आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर दो तरह से नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। एक तो सैद्धांतिक रूप से और दूसरा जमीन पर। सैद्धांतिक रूप से जो नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है वो ज्यादातर अंग्रेजी में किया जा रहा है। चुनावी सीजन में कई ऐसी पुस्तकें आई हैं जिसमें भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दीर्घकालिक योजनाओं का पर्दाफाश करने की बात की गई है। पत्रकार आशुतोष की किताब आई जिसमें ये साबित करने की कोशिश की गई है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की मूल भावना को कमजोर करने की राजनीति कर रहा है। वो यह भी कहते हैं कि 2019 का चुनाव हिंदू भारत और हिंदुत्व भारत के बीच है। साथ ही वो ये नैरेटिव भी बनाने की कोशिश करते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दरअसल गांधी के सिद्धातों को कमजोर कर उसको नीचा दिखाने में लगा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लगता है कि गांधी के सिद्धांत और उनकी छवि इतनी मजबूत है कि उसको सीधे पर चुनौती नहीं दी जा सकती है लिहाजा षडयंत्रपूर्वक पहले नेहरू को नीचा दिखाने का उपक्रम किया जा रहा है। एक और किताब आई है नीलांजन मुखोपाध्याय की, द आरएसएस, ऑइकॉन्स ऑफ द इंडिन राइट। इस पुस्तक में हेडगेवार, सावरकर, गोलवलकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, बालासाहब देवरस, विजय राजे सिंधिया, वाजपेयी, आडवाणी, अशोक सिंघल और बाल ठाकरे की जाति जिंदगी से लेकर उनकी राजनीति को परखते हुए नई दृष्टि का दावा किया गया है। चुनाव के समय इस तरह की कई किताबें आई हैं। आनी भी चाहिए, होली आएगी तभी तो रंग बिकेगें।
नैरेटिव बनाने का एक काम जमीनी स्तर पर भी चल रहा है जिसमें दलितों और आदिवासियों के गौरवशाली अतीत को बताते हुए कई बेवसाइट चलाए जा रहे हैं। जिनमें हर दिन प्रेरणादायक कहानियां प्रकाशित की जा रही है। इन कहानियों में जो संदेश होते हैं उसके निहितार्थ कहन से भिन्न होते हैं। इससे जो नैरेटिव बनता है वो राजनीतिक संदेश देता है और परोक्ष रूप से मतदाताओं को प्रभावित करता है। इसी तरह से जाति आधारित व्हाट्सएप ग्रुप बनाकर भी नैरेटिव बनाने का काम चल रहा है। एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में चार सौ के करीब व्हाट्सएप ग्रुप चल रहे हैं। इन जाति आधारित व्हाट्सएप ग्रुप पर हर दिन सुबह सुबह जाति विशेष को लेकर संदेश दिए जा रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि इस चुनाव में झंडे-बैनर लगभग नदारद हैं। तकनीक के सहारे खामोशी से जिस तरह से नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि ये लोकसभा चुनाव राजनीतिक दलों से अधिक सामाजिक ताकतों के बीच की लड़ाई है।