Translate

Saturday, April 20, 2019

ट्रेलर और पोस्टर से उठते सवाल


फिल्मों का समाज के प्रति दायित्व और उसके सामाजिक प्रभाव की लंबे समय से चर्चा होती रही है। फिल्म समीक्षक लगातार फिल्मों में संदेश ढूंढने की कोशिश भी करते रहते हैं। कई फिल्मों के निर्माता-निर्देशक भी अपनी फिल्म को सामाजिक संदेश देनेवाली फिल्म के तौर पर प्रचारित करते हैं, बहुधा प्रत्यक्ष रूप से तो कई बार परोक्ष रूप से भी। भारत में दर्शकों की कम साक्षरता और फिल्मों की व्यापक पहुंच के आधार पर ये कहा जाता था कि फिल्में समाज को गहरे तक प्रभावित करती हैं। स्वतंत्रता के पूर्व भारत में साक्षरता दर बहुत कम थी और गरीबी भी बहुत थी। कम पढ़े-लिखे लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का सिनेमा एक बेहद सशक्त माध्यम हुआ करता था। अब भी है । पर अब देश में साक्षरता दर बढ़ी है और तकनीक के प्रसार ने अन्य माध्यमों को भी ताकत दी है। अगर हम स्वतंत्रता पूर्व की फिल्मों पर नजर डालें तो उस दौर के निर्माता-निर्देशक भी अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज की कुरीतियों पर चोट करते थे। 1930 से लेकर 1960 तक की फिल्मों पर नजर डालते हैं तो कई फिल्में ऐसी हैं जो उस समय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ जनता के बीच जागरूकता फैलाने की मंशा से बनाई गई थी। उस वक्त अस्पृश्यता एक बड़ी सामाजिक समस्या थी। उसको ध्यान में रखकर हिमांशु राय ने एक फिल्म बनाई थी अछूत कन्या। अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत इस फिल्म में स्वतंत्रता पूर्व भारतीय समाज में एक दलित लड़की और ब्राह्मण लड़के के प्यार को केंद्र में रखकर सामाजिक संदेश देने की कोशिश की गई थी। ये हिंदी फिल्मों के इतिहास में ऐतिहासिक फिल्म का दर्जा प्राप्त कर चुकी है। इसके ठीक एक साल बाद एक फिल्म आई थी दुनिया ना माने। व्ही शांताराम के निर्देशन में बनी इस फिल्म में बाल विवाह से लेकर उस वक्त समाज में महिलाओं की स्थिति का बेहद शानदार चित्रण हुआ है । इतने सालों बीत जाने के बाद महिला सशक्तीकरण को लेकर इतनी सशक्त फिल्म नहीं बन पाई है। उस वक्त के समाज में किसी महिला का सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ उठ खड़ा होना असंभव था, ऐसे वक्त में व्ही शांताराम ने इस विषय को अपनी फिल्म में उठाकर साहस का कार्य किया था। इस फिल्म का संवाद इतना सशक्त है कि वो दर्शकों को अंदर तक झकझोर देता है। शांताराम ने एक और फिल्म बनाई थी दहेज। पृथ्वीराज कपूर अभिनीत इस फिल्म में दहेज के दानव का तांडव दिखाया गया है। कालांतर मेंऔरत, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया आदि कई ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें कोई ना कोई मजबूत सामाजिक संदेश होता था। 1930 के आसपास ही मशहूर लेखक जार्ज बर्नाड शॉ ने कहा था कि सिनेमा लोगों के दिलोदिमाग को गढ़ेगा और उनके आचरण को प्रभावित करेगा। उन्होंने तब कहा था कि हर कला में दोनों तरह की ताकत होती है अच्छी भी और बुरी भी। जब आप किसी को लिखना सिखाते हैं तो वो फर्जी चेक भी बना सकता है और अच्छी कविता भी लिख सकता है। ये बहुत महत्वपूर्ण बात है।  
एक ऐसा भी वर्ग है जो हमेशा से इस बात की पैरोकारी करता रहा है कि सिनेमा मनोरंजन का साधन है और उसका समाज पर बहुत कम या नहीं के बराबर प्रभाव पड़ता है। इस तरह के लोग अपने समर्थन में तरह-तरह के तर्क भी लेकर आते हैं। उनके तर्क तब कमजोर पड़ने लगते हैं जब हम देखते हैं कि फिल्मों में नायक-नायिकाओं के पहनावे से फैशन का ट्रेंड विकसित होता है। साधना कट हेयर स्टाइल तो अभी तक प्रचनल में है। अमिताभ बच्चन के पहनावे तक की लोग नकल करते दिखे। जीतेन्द्र के सफेद पतलून की जमकर नकल हुई। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। फिल्मों की भव्यता का प्रभाव समाज के उच्च वर्ग पर भी पड़ता है और उनके रहन-सहन से लेकर उनके पारिवारिक समाराहों में भी फिल्मों की छाया देखी जा सकती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि फिल्मों में माता वैष्णो देवी की महिमा को दिखाए जाने के बाद वैष्णो देवी मंदिर जानेवाले भक्तों की संख्या बढ़ी। करवा चौथ पर्व को अखिल भारतीय बनाने में फिल्मों की अहम भूमिका है। कहना ना होगा कि सिनेमा समाज के व्यवहार और उसके क्रियाकलाप को प्रभावित करता है। कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिसने लोगों को बीमारियों के प्रति जागरूक भी किया। ह्रषिकेश मुखर्जी ने जब आनंद और मिली में कैंसर जैसी बीमारी को विषय बनाया तो दर्शक सिनेमा हॉल में रोते नजर आए थे। आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर से लेकर थ्री ईडियट्स तक में अपने बच्चों के प्रति उनके अभिभावकों की जिम्मेदारी को दर्शाया गया। लोगों ने इसको पसंद भी किया। दो हजार पांच में एक फिल्म आई थी माई ब्रदर निखिल’, जिसमें एड्स जैसी भयावह बीमारी से उपजे दर्द और सामाजिक प्रताड़ना को फिल्मकार ने पर्दे पर उतारा था। पिछले दिनों हिचकी फिल्म आई थी। इस फिल्म के माध्यम से फिल्मकारों ने ट्ररेट सिंड्रोम के बारे में लोगों को जागरूक किया था। अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म पा से प्रोजेरिया या शाहरुख खान अभिनीत फिल्म माई नेम इज खान से एस्पर्जर सिंड्रोम के बारे में व्यापक दर्शक वर्ग को पता चला था। इन फिल्मकारों ने बेहद संवेदनशीलता के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए संवेदनशील तरीके से इन बीमारियों के पीड़ित पात्रों का फिल्मांकन किया था।
अब एक फिल्म आ रही है मेंटल है क्या। अभी हाल ही में इसका ट्रेलर और पोस्टर रिलीज किया गया है। पोस्टर और ट्रेलर देख कर कहा जा रहा है कि इसमें दिमागी तौर पर बीमार लोगों का मजाक उड़ाया गया है। आज हमारे देश के करीब दस फीसदी लोग मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं। सरकार और गैर सरकारी संगठन इनकी लगातार चिंता कर रहे हैं। पूरा समाज इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के प्रति संवेदनशील है। ऐसे में इस तरह के शीर्षक को लेकर फिल्म बनाना हैरान करनेवाला है। फिल्म के पोस्टर पर कंगना रणौत और राजकुमार राव तेज धार ब्लेड को अपनी जीभों पर संतुलित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा एक अन्य पोस्टर जारी हुआ है जिसमें कंगना की आंखें इस तरह से दिखाई गई हैं जो उनके मानसिक रूप से असंतुलित होने की ओर इशारा करता है। इस फिल्म के नाम और पोस्टर पर इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी ने अपना विरोध जताया है। सोसाइटी ने सूचना और प्रसारण मंत्री समेत सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी को पत्र लिखकर फिल्म का नाम बदलने की मांग की है। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष को लिखे अपने पत्र में इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी ने बोर्ड को दिव्यांग अधिकार कानून की धाराओं की भी याद दिलाई है। सोसाइटी के मुताबिक फिल्म का ट्रेलर और पोस्टर इस कानून का उल्लंघन करता है। यह मानसिक रूप से कमजोर लोगों को कुछ खतरनाक करने के लिए उकसानेवाला है। उनका यह भी कहना है कि मेंटल शब्द मजाक उड़ाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी के महासचिव डॉ विनय कुमार ने कहा है कि अगर सरकार और सेंसर बोर्ड इस फिल्म का टाइटल नहीं बदलते हैं तो वो इस मसले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे। इस मसले पर जो होगा वो तो समय पर हम सबके सामने होगा। कानून की किसी धारा का उल्लंघन हुआ या नहीं ये अदालत तय कर देगी और अगर कोई गलती हुई होगी तो उसमें भी सुधार कर लिया जाएगा। पर इसे पूरे प्रकरण से एक सवाल उठता है कि निर्माताओं ने ऐसा नाम क्यों रखा? ऐसे पोस्टर क्यों जारी किए। इल फिल्म की निर्माता एकता कपूर हैं। ये वही एकता कपूर हैं जिन्होंने अपने सास बहू सीरियल में किरदारों को भारतीय परंपरा और परिधान से लाद दिया था। ऐसा याद नहीं पड़ता कि कभी एकता कपूर ने अपनी फिल्मों में भी असंवदेनशील प्रसंगों और विषयों को उठाया हो बीमार पात्रों क उपहाल उड़ाया हो। अब ऐसी क्या मजबूरी ई गई कि इस तरह से मानसिक दिव्यागों का मजाक उड़ाते हुए चित्रण किया गया। हिंदी फिल्मों की जो एक समृद्ध परंपरा रही है उसको बाधित करने की कोशिश क्यों की जा रही है। अगर इस फिल्म में मानसिक रूप से दिव्यांगों का मजाक उड़ाया गया है तो समाज पर इसका व्यापक असर होगा। फिल्मकार होने के नाते एकता कपूर की कारोबारी जिम्मेदारियां हैं और वो अपनी इन जिम्मेदारि. को सफलतापूर्वक विर्वहन करना भी जानती हैं लेकिन उनकी कुछ सामाजिक जिम्मेदारी भी है। उनको इस बारे में भी गंभीरता से विचार करना चाहिए। एक फिल्मकार होने के नाते उनको कलात्मक आजादी है लेकिन ये आजादी उनको किसी वर्ग का अपमान करने की अनुमति नहीं देता है। कला की स्वतंत्रता की सीमा वहां जाकर खत्म हो जाती है जहां से कोई आहत या अपमानित होता हो।

1 comment:

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.4.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3313 में दिया जाएगा

धन्यवाद