चुनाव के पहले लगभग सभी दल अपना-अपना घोषणा पत्र
जारी करते हैं। घोषणा-पत्र में जनता से वादा किया जाता है कि अगर वो सत्ता में आए
तो अमुक-अमुक काम करेंगे। देश में इस वक्त लोकसभा चुनाव का माहौल है और अलग अलग
दलों ने अपना-अपना घोषणा-पत्र जारी करना शुरू कर दिया है। कांग्रेस पार्टी के
अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिग्गज पार्टी नेताओं की मौजूदगी में चुनावी घोषणा-पत्र
जारी किया। कांग्रेस के घोषणा-पत्र में कला-संस्कृति और साहित्य के बारे में भी
पार्टी ने अपनी राय और भविष्य की योजनाओं को रखा है। पार्टी के घोषणा-पत्र का
बीसवां वादा इसी विषय पर है। इसमें लिखा गया है कि ‘कला-संस्कृति
और विरासत लोगों को पहचान दिलाती है। भारत जैसा बहु-सांस्कृतिक देश, जिसके पास
गर्व करने लायक कला-संस्कृति-साहित्य और वृहद विरासत है, जिसे संरक्षित और
सुरक्षित किए जाने की जरूरत है।‘ अब अगर हम इन
पंक्तियों पर गौर करें तो ये लगता है कि कांग्रेस को कला-संस्कृति और साहित्य के
अलावा विरासत को संजोने का ख्याल इतने लंबे अरसे बाद क्यों आया? अगर पहले भी इनको संरक्षित करने का ख्याल कांग्रेस
पार्टी को आया था तो अब इसको दोहराने का मकसद क्या है? कांग्रेस ये सही कह रही है कि भारत के पास
कला-संस्कृति-साहित्य की समृद्ध परंपरा है लेकिन आजादी के सत्तर साल बाद इसको
संरक्षित और सुरक्षित करने की बात करने से ऐसा प्रतीत होता है कि अबतक इस काम को
गंभीरता से नहीं लिया गया था। आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी के पास लंबे समय तक
सत्ता रही लेकिन जिस गंभीरता के साथ सांस्कृतिक विरासत को संजोने और उसको सहेजने
का काम होना चाहिए था वो हो नहीं पाया। देश के अलग अलग हिस्सों में पुस्तकालयों
में प्राचीन ग्रंथों की पांडुलिपियां उचित रखरखाव के अभाव में नष्ट होती रहीं
लेकिन उसकी ओर समुचित ध्यान नहीं गया। अभी पिछले दिनों वाराणसी के गोयनका
पुस्तकालय जाने का अवसर मिला, वहां इतने महत्वपूर्ण ग्रंथों की पांडुलिपियां रखी
हैं, लेकिन उसको उचित तरीके से सहेजा नहीं जा सका है। धूल धूसरित कपड़ों में
लपेटकर रखी गई ये पांडुलिपियां कभी भी नष्ट हो सकती हैं। राजस्थान के पूर्व
राजघरानों के पुस्तकालयों में रखे हजारों ग्रंथ लगभग नष्ट हो गए। हुआ यह कि राजघरानों
में उनके वारिसों के बीच संपत्ति के बंटवारे को लेकर विवाद हुए, मुकदमेबाजी हुई और
कई जगह अदालत के आदेश के पर संपत्ति को सील कर दिया गया। जब सालों बाद मुकदमे का
फैसला आया तो सीलबंद पुस्तकालयों की हालत बदतर हो चुकी थी, ग्रंथ लगभग नष्ट हो
चुके थे। जरूरत इस बात की थी इन बहुमूल्य ग्रंथों को बचाने को लेकर सरकार कोई नीति
बनाती । जो बन नहीं सकी। जो संस्थाएं बनाई गईं वो ठीक तरीके से अपना काम नहीं कर
सकीं।
कांग्रेस पार्टी के घोषणा-पत्र में आगे कहा गया
है कि ‘कांग्रेस भारत की कला और समृद्ध विविधतापूर्ण
संस्कृति की रक्षा करने और इसे स्वतंत्र और रचनात्मक माहौल में फलने-फूलने का मौका
मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्ध है। हम पूरी तरह से सेंसरशिप का विरोध करने के साथ ही
किसी भी समूह की कला और संस्कृति को बदनाम करने या नष्ट करने का विरोध करेंगे।‘ अब जरा
इस वादे के आलोक में कुछ तथ्यों को देख लेते हैं। कांग्रेस पार्टी स्वतंत्र और
रचनात्मक माहौल में फलने-फूलने का मौका मुहैया कराने के साथ साथ सेंसरशिप के विरोध
की बात करती है तो ये वादा खोखला लगता है।
खोखला इसलिए कि कांग्रेस पार्टी हमेशा से सेंसरशिप के साथ रही है। साहित्य जगत अभी
तक ये भूला नहीं है कि सलमान रश्दी की पुस्तक ‘द सैटेनिक वर्सेस’ पर जब भारत में बैन लगाया गया था तो उस वक्त
कांग्रेस पार्टी के राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। तस्लीमा नसरीन के साथ जो
हुआ उसको भी साहित्य जगत के लोग भुला नहीं पा रहे हैं। इसके अलावा जब स्पेऩिश लेखक
जेवियर मोरो लिखित सोनिया गांधी की फिक्शनलाइज्ड जीवनी ‘द रेड साड़ी’ जब भारत में
प्रकाशित होनेवाली थी तो कांग्रेस ने उसको रुकवा दिया था। उस वक्त कांग्रेस के
नेताओं ने खूब हो हल्ला मचाया था, जेवियर मोरो को कानूनी कार्रवाई की धमकियां दी
गई थीं। कांग्रेस उस वक्त
सत्ता में थी लिहाजा इस पुस्तक का प्रकाशन नहीं हो सका। ये कैसा रचनात्मक माहौल था
इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
अब अगले बिंदु पर नजर डालते हैं जिसमें ये वादा
किया गया है कि ‘हम
पारंपरिक कला और शिल्प के क्षेत्र में कार्यरत कलाकारों और शिल्पकारों को आर्थिक
सहायता(फैलोशिप) प्रदान करेंगे।‘ कांग्रेस पार्टी ये कर सकती
है और इसने पूर्व में ऐसा किया भी है। तमाम तरह के फैलोशिप दिए गए, अलग अलग
संस्थानों में फैलोशिप के नाम पर अपने लोगों को उपकृत किया गया। कांग्रेस ने एक
बहुचर्चित फेलौशिप आरंभ किया था जिसका नाम है ‘टैगोर नेशनल फेलोशिप’। संस्कृति मंत्रालय के अधीन चलनेवाले इस फैलोशिप में शोधकर्ता को अस्सी
हजार रुपए प्रतिमाह और अन्य खर्चे के लिए ढाई लाख सालाना दिए जाने का प्रावधान है।
अगर इस फैलोशिप के लिए चयनित उम्मीदवार विश्वविद्यालय या अन्य सरकारी संस्थाओं में
कार्यरत है तो उनके वेतन के बराबर राशि उनको दी जाएगी। संस्कृति मंत्रालय इस
फेलोशिप को अपने अधीन और अपने से संबद्ध स्वायत्त संस्थाओं के माध्यम से प्रदान
करती है। यह जानना दिलचस्प होगा कि अबतक ये किन किन लोगों को दिया गया है और उनमें
से कितने लोगों ने तय समय में काम पूरा करके संस्थाओं को सौंपा। एक अनुमान के
मुताबिक शुरुआती सालों में जिनको ये फेलोशिप दी गई उनमें से सत्तर फीसदी से अधिक
लोगों ने अपना प्रोजेक्ट जमा ही नहीं किया। इसी तरह से भारतीय इतिहास अनुसंधान
परिषद में इतहास के एक विद्वान चालीस सालों तक एक फेलोशिप के तहत प्रोजेक्ट पर काम
करते रहे लेकिन वो पूरा नहीं हो पाया। उनको परिषद के दफ्तर में एक कमरा भी दिया
गया था जिसे बहुत मुश्किल से 2014 में केंद्र में सरकार बदलने के बाद खाली करवाया
जा सका। अब घोषणा-पत्र में फिर से फेलोशिप की बात की गई है लेकिन उसमें इस बात का
कहीं जिक्र नहीं है कि इसमें जवाबदेही कैसे तय होगी। सरकार जब कोई फेलोशिप देती है
तो उसमें करदाताओं का पैसा लगा होता है, लिहाजा उनको ये जानने का हक है कि खर्च
हुए पैसे के एवज में देश को मिलेगा क्या? आवश्यकता तो इस बात
की है कि आजादी के बाद फेलोशिप के नाम पर जितना पैसा बांटा गया उसका ऑडिट हो और
जनता के सामने एक श्वेत पत्र प्रस्तुत किया जाए।
एक और वादा किया गया है कि ‘कांग्रेस कलात्मक स्वतंत्रता की
गारंटी देगी, कलाकार और शिल्पकार सेंसरशिप या विरोध के डर के
बिना अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होंगे। स्वयंभू सतर्कता समूहों
द्वारा किसी प्रकार का सेंसर करने तथा कलाकारों को धमकाने को पूरी गंभीरता के साथ
लेते हुए कानूनी कार्यवाही की जाएगी।‘ इस वादे को पढ़ने के बाद
मन में यह सवाल उठता है कि क्या अबतक ऐसा नहीं हो रहा है। अगर कुछ लोग फिल्म पद्मावत
को लेकर विरोध जताते हैं तो कुछ लोग फिल्म इंदु सरकार की रिलीज के खिलाफ भी बवाल
मचाते हैं। रही बात कानूनी कार्यवाही की तो ये गारंटी तो हमारा संविधान ही हमें
देता है। कलात्मक स्वतंत्रता की भी एक सीमा है जिसको हमारे देश की अदालतों ने समय
समय पर व्याख्यायित किया हुआ है। चाहे वो एम एफ हुसैन का मामला हो या तमिल लेखक
मुरुगन का। उससे अलग हटकर क्या किया जा सकता है इसको थोड़ा विस्तार से समझाने और
समझने की जरूरत है। एक और दिलचस्प वादा है ‘कांग्रेस
सांस्कृतिक संस्थाओं को स्वायत्ता, जिसमें वित्तीय स्वायत्ता भी निहित है, प्रदान
करने का वचन देती है।‘ सांस्कृतिक संस्थाओं में स्वायत्ता के
नाम पर किस तरह की अराजकता हुई है उसको हमारे देश ने देखा है, चाहे वो साहित्य
अकादमी हो, संगीत नाटक अकादमी हो या फिर ललित कला अकादमी। ललित कला अकादमी से
करोडों के पेंटिग्स बेच दिए गए। भ्रष्टाचार में ये संस्था आकंठ डूबी रही। इन सबका
आरोप जिन लोगों पर लगा उनका बाल भी बांका नहीं हो सका, क्योंकि उनके तार कहीं ना
कहीं कांग्रेस पार्टी से जुड़े थे। यूपीए टू के दौरान इन संस्थाओं में स्वायत्ता
की आड़ में होनेवाले खेल पर सीताराम येचुरी की अगुवाई वाली संसद की एक कमेटी ने
अपनी रिपोर्ट पेश की थी, बावजूद इसके कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। ना ही उसके
सुझावों पर अमल हो सका। कला साहित्य और संस्कृति को लेकर जितने भी वादे किए गए हैं
वो रस्मी हैं और उससे कोई नई उम्मीद नहीं जगती है। जरूरत इस बात की है कि सभी दल
एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक नीति की बात करें ताकि संस्कृति,साहित्य और कला को मजबूती
प्रदान करने के लिए कुछ ठोस किया जा सके।
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