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Sunday, December 31, 2023

साहित्य में रामकथा के स्वर


अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के कारण इस समय देश में राम और रामचरित के विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित रामकथा पर शोध हो रहे हैं। राम और रामकथा से जुड़ी अनेक पुस्तकें भी प्रकाशित हो रही हैं। उनमें से चयनित पुस्तकों पर एक नजर 

स्वामी मैथिलीशरण इस समय रामकथा के आधिकारिक विद्वान हैं। रामकथा के पात्रों को लेकर उनकी व्याख्या नितांत मौलिक होती है। रामकथा को केंद्र में रखकर उनकी पुस्तक आई है चरितार्थ। लेखक का मत है कि श्रीरामचरितमानस में जिस प्रकार की व्यापकता, निष्पक्षता और पूर्णता है वो अन्यत्र दुर्लभ है। वो कहते हैं कि भारतीय समाज और मानवीय संवेदनाओं का जिस प्रकार से तुलसीदास ने वर्णन किया है वो इस ग्रंथ को ऊंचाई प्रदान करता है। इस पुस्तक में श्रीरामचरितमानस के कई प्रसंग, संवाद और चरित्रों का स्वामी जी ने निरुपण किया है। पुस्तक चार खंडो में विभाजित है जिसमें अस्सी लेख हैं। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठकों को श्रीरामचरितमानस को समझने की एक नई दृष्टि मिल सकती है। 

पुस्तक- चरितार्थ, प्रकाशक- शिल्पायन बुक्स, नई दिल्ली, मूल्य रु 250 

रामायण के पात्रों की काफी चर्चा होती है और विद्वान अलग अलग तरह से इन चरित्रों का ना केवल वर्णन करते हैं बल्कि उसपर अपने अध्ययन के अनुसार टिप्पणियां भी करते हैं। मूल ग्रंथ में वर्णित उनके आचार व्यवहार को लेकर अपनी राय भी प्रकट करते हैं। लेखक और स्तंभकार रामजी भाई तिवारी ने ब्रह्मा जी से लेकर लव-कुश तक रामायण के 108 पात्रों के बारे में विस्तार से लिखा है। इस पुस्तक का केंद्रीय भाव है कि रामराज्य की स्थापना में सभी पात्रों की अपनी भूमिका है जो किसी न किसी तरह से महत्वपूर्ण है। पुस्तक में रामजी भाई ने रामायण की इन कथाओं को इस प्रकार से लिखा है जिससे सामाजिक आदर्श स्थापित हो और पाठक प्रेरित हों। 

पुस्तक- रामायण के पात्र, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 900

राम पहले तो कथा के माध्यम से आते हैं लेकिन कब कथा पीछे छूट जाती है और पाठक राम के चरित्र में रम जाते हैं पता ही नहीं चलता। रामकथा की व्यापकता और भारतीय समाज के मानस पर उसका इतना अधिक प्रभाव है कि वो सिर्फ कथा में नहीं बल्कि संगीत, नाटक, नृत्य, शिल्प और चित्रकला में भी अलग अलग रूपों में उपस्थित है। संस्कृति के जानकार और लेखक नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने बुंदेलखंड के विशेष संदर्भ में रामकथा रूपायन नाम की पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में बुंदेलखंड के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में शैलचित्रों और भित्तिचित्रों से सूत्र उठाकर रामचरित की चित्रांकन परंपरा को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक के अंत में एक चित्रावली भी प्रस्तुत की है और उसका उपलब्ध विवरण भी पाठकों की सुविधा के लिए दिया गया है।    

पुस्तक- रामकथा रूपायन, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, मूल्य रु 3000 

श्रीरामचरित मानस और रामयण को आधार बनाकर तो कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और कई पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। लेकिन कुछ लोग रामकथा से जुड़ी अन्य सामग्रियों का संकलन कर पुस्तकाकार प्रकाशित करवा रहे हैं। इंडोलाजिस्ट ललित मिश्र ने श्रमपूर्वक मेवाड़ की रामायण के चित्रों को संकलित कर चित्रमय रामायण का संपादन किया है। चित्रों के साथ टिप्पणियां भी प्रकाशित हैं। मेवाड़ की रामायण को मेवाड़ राजघराने की तीन पीढियों ने तैयार करवाया। इसमें 450 चित्र हैं। लेखक का कहना है कि मेवाड़ के शासकों ने गीतगोविंद, रामायण और अन्य ग्रंथों के चित्रांकन का उपक्रम उस समय भारत के अन्य राजाओं के लिए एक आदर्श बना। इस पुस्तक के चित्र और टिप्पणियां रुचिकर हैं। ये पुस्तक अयोध्या शोध संस्थान ने तैयार करवाई है।  

पुस्तक- चित्रमय रामायण, प्रकाशक- प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली- मूल्य- रु 2200

मनोज सिंह ने आर्यावर्त का इतिहास लिखने के लिए कथात्मक शैली अपनाई। जब उन्होंने मैं आर्यपुत्र हूं लिखी तो उसको सतयुग की प्रामाणिक कथा बताया था। इसी कड़ी में उन्होंने त्रेतायुग की कथा मैं रामवंशी हूं लिखा है। लेखक का मानना है कि हर काल में रामकथा लिखी गई और उन सभी रामकथाओं पर तत्कालीन समय और समाज का प्रभाव भी दिखता है। इस पुस्तक में रामकथा के अलावा भी अनेक कथाएं चलती हैं जो पुस्तक को पठनीय बना देती हैं। लेखक ने भी अपनी इस पुस्तक क सात कांडों, पूर्व कांड से उत्तर कांड तक में विभाजित किया है। पौराणिक कथा कहने की यह प्रविधि पाठकों को श्रीराम के जीवन संस्कार से रोचक अंदाज में परिचिच तकवाती है। 

पुस्तक- मैं रामवंशी हूं, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य – रु 500     


Saturday, December 30, 2023

शिवपूजन सहाय का हिंदू मन


हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने अपने पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत न्याय यात्रा की घोषणा की है। ये यात्रा मणिपुर से आरंभ होकर मुंबई तक जाएगी। इसके पहले भी राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा की थी। उस यात्रा का उद्देश्य भारत के विभिन्न समुदायों के बीच फैल रही वैमनस्यता को कम करना था। हिंदू मुसलमान एकता की बात की गई थी। उस यात्रा के समय कांग्रेस और वामपंथी इकोसिस्टम की तरफ से इस तरह का विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया गया था कि देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच मतभेद की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बढ़चढ़कर दावा किया था नरेन्द्र मोदी, उनकी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हिंदू मुसलमान के बीच विभाजन को गाढ़ा करवाकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं। ऐसा करके वो सायास मुसलमानों को मन में भय का वातावरण बनाने और हिंदुओं को बरगलाने का काम कर रहे थे। कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े लोग पहली बार इस तरह का कार्य कर रहे हों ऐसा नहीं है। स्वाधीनता के बाद से ही इस इकोसिस्टम के लोग साहित्य, कला,संस्कृति और इतिहास लेखन से इस तरह का वातावरण बनाते रहे हैं। साहित्य में तो इस तरह का कार्य धड़ल्ले से हुआ। रामचंद्र शुक्ल हों या प्रेमचंद या निराला, उनके हिंदू जीवन और हिंदू प्रेम पर लिखी रचनाओं को ओझल कर उन सबको जबरदस्ती वामपंथी दिखाने का प्रयास किया गया। जबतक कांग्रेस पार्टी की सरकारें रहीं तो इस इकोसिस्टम को सरकारी संरक्षण मिलता रहा। संस्थाओं पर इनके लोग ही रखे जाते रहे और बदले में वो इस तरह के विमर्श को गाढ़ा करते रहे। तथ्यों की अनदेखी करके लेखन करवाते रहे। जिन भी साहित्यकारों और लेखकों ने हिंदू-मुसलमान संबंधों पर खुलकर लिखा या जिन्होंने राम या अन्य हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख किया, उन लेखों या रचनाओं को ओझल करने का खेल खेला गया। 

बिहार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण रचनाकार हुए शिवपूजन सहाय। शिवपूजन बाबू ने विपुल लेखन किया, पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन उनके कृतित्व को हिंदी साहित्य में वो स्थान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी हैं। कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े आलोचक अगर शिवपूजन सहाय की रचनाओं पर समग्रता में विचार करते तो सच सामने आता। शिवपूजन सहाय का साहित्य समग्र भी उनके पुत्र मंगलमूर्ति के प्रयत्नों से उनके ही संपादन में प्रकाशित हो पाया। शिवपूजन सहाय परम रामभक्त थे। वो अपनी डायरी में सैकड़ों जगह राम, रामकृपा और भगवान की इच्छा जैसी बातें लिखते हैं लेकिन उनके इस लेखन के बारे में बहुत ही कम चर्चा की गई। देश के विभाजन से लेकर चीन युद्ध तक शिवपूजन सहाय ने बेहद कठोर टिप्पणियां कीं। उन्होंने नेहरू से लेकर उनके मंत्री कृष्ण मेनन तक की आलोचना की। लेकिन नेहरू की विराट छवि बनाने में लगे कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम ने इन टिप्पणियों को दबा दिया। हमारे देश में सांप्रदायिकता को लेकर भी सहाय की टिप्पणियों को देखने की आवश्यकता है। 22 फरवरी 1946 को शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा- आज संध्या समय द्विज जी आए। औरंगाबाद (गया) के मुसलमान भाइयों ने पहले से तैयारी कर रखी थी और जानबूझकर अचानक अकारण सरस्वतीपूजा के मूर्ति विसर्जन के जुलूस पर आक्रमण कर दिया तथा एक निरपराध युवक की तत्काल हत्या कर डाली। यह नृशंसता उनलोगों में प्राय: देखी जाती है। स्वाभाविक है। मांसाहारी विषय विलासी, भ्रष्टाचारी, प्राय: क्रोधी और क्रूर होते हैं। इस वाक्य के दो शब्दों, अचानक और अकारण पर विचार किया जाना चाहिए। शिवपूजन सहाय की इस टिप्पणी से 1946 में बिहार के सामाजिक जीवन में व्याप्त स्थिति का संकेत मिलता है। एक साहित्यकार का आक्रोश भी उसके शब्दों में अभिव्यक्ति पाता है। उनकी ये टिप्पणी शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र में संकलित है। 

हमारा देश अगस्त 1947 में स्वाधीन होता है। कई क्षेत्रों में हिंसा आरंभ हो जाती है। शिवपूजन सहाय साहित्य दर्पण में सितंबर 1947 में प्रश्न उठाते हैं, पंजाब के हिंदुओं और सिक्खों की की दुर्दशा ईश्वरेच्छानुसार है? मनुष्य क्यों कभी घोर संकट में पड़ता है? उनका मन इतना व्यथित है कि वो आगे कहते हैं कि जिन्ना कंस है या रावण? वह नादिरशाह का नाती है या चंगेज खां का चचा है? हिंदू-मुस्लिम एकता तबतक संभव नहीं है जबतक हिंदू संगठन दृढ़ नहीं होता। हिंदुओं में जातिपांति न रहे, स्वच्छता ही रहे। यहां ध्यान देने की आवश्यकता है कि उस समय शिवपूजन सहाय हिंदुओं के संगठित होने की बात कर रहे थे। इसी दिन आगे लिखते हैं कि जात-पांत और छुआछूत का भूत हिंदू को आज चबा रहा है। हिंदू धर्म उदार कहलाता है। मूर्खता से उदारता को चांप रखा है। राम की जैसी इच्छा। स्वाधीनता के तुरंत बाद भी संवेदनशील माने जानेवाले साहित्यकार भी ऐसा ही सोचते थे। यह अकारण नहीं है कि कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग शिवपूजन सहाय जैसे साहित्यकारों की वेदना पर चर्चा नहीं करते। आज एक बार फिर से हिंदुओं को जातियों के बीच बांटने का प्रयास राजनीति और समाज के एक वर्ग द्वारा की जा रही है। आज भी जब देश विभाजन की चर्चा होती है तो शिवपूजन बाबू के लिखे का स्मरण देखने को नहीं मिलता। शिवपूजन सहाय ने निरंतर लिखा। अक्तूबर 1953 में उन्होंने लिखा, मुसलमानों ने देश को बांटा और अब प्रांत-प्रांत, जिले-जिले, मुहल्ले-मुहल्ले को बांटकर असंख्य पाकिस्तान बना डालना चाहते हैं। उर्दू को वो क्षेत्रीय भाषा बनाने का घोर आंदोलन कर रहे हैं। अब भी इस तरह की प्रवृत्ति देखने को मिलती ही रहती है। 

इस तिथि को ही वो आगे लिखते हैं शकों और हूणों को हिंदू पचा गए, पर मुसलमान ही उनकी अंतड़ी के मक्खी बन गए। हिंदुओं में अघोर पंथ भी है पर हिंदू अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानते। मुसलमान अब पच नहीं सकते। मुसलमानों भाइयों को अब अपने में मिला लेने की शक्ति अब हममें नहीं रही। यहां पर शिवपूजन सहाय की विवशता साफ तौर पर दृष्टिगोटर होती है। वो हिंदुओं के अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानने को लेकर भी चिंतित थे। उस वक्त मुसलमानों के व्यवहार से वो बेहद खिन्न थे और निरंतर लिख रहे थे। शिवपूजन सहाय ने शेख अब्दुल्ला को देशद्रोही तक कहा था। जब शेख अब्दुल्ला के समर्थन में बिहार के मुसलमान चंदा जमा कर रहे थे तो सहाय ने चिंता जताई थी। शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र खंड 7 में अगस्त 1958 में उन्होंने हिंदुओं को अपने धर्म से प्रेम नहीं करने के लिए धिक्कारा भी था, हिंदुओं में धर्म या अपनी भाषा तथा संस्कृति के लिए वैसी ममता नहीं है जैसी मुसलमानों और ईसाइयों में । हिंदुओं में आपसी फूट बहुत है। हिंदू युवकों में भी वह स्पिरिट या भावना नहीं है जो ईसाई और मुसलमान युवकों में है। उन लोगों के पादरी और फकीर भी सचेत हैं। शिवपूजन सहाय की टिप्पणियों से ऐसा प्रतीत होता है कि वो चाहते थे कि हिंदू समाज संगठित हो। जात-पांत से ऊपर उठकर सभी हिंदू अपने देश की उन्नति और राष्ट्र को शक्ति देने के बारे में प्रयत्न करे। आज अगर कोई दल या व्यक्ति इस तरह की बात करें तो कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग उनको संघी, सांप्रदायिक और न जाने किस किस तरह के विशेषणों से जोड़ देते हैं। आज इस तरह की बातें तो छोड़िए अगर कोई अयोध्या के राम मंदिर के बारे में अधिक बातें करने लगे, काशी विश्वनाथ मंदिर पर शोध करने लगे या मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर विमर्श आरंभ करे तो उसको भी इकोसिस्टम वाले सांप्रदायिक और देश को तोड़नेवाले विचार-वाहक के तौर पर चिन्हित करने में जुट जाएंगे। आज आवश्यकता है भारत खोजो यात्रा की। उस भारत को जहां हमारी ज्ञान-परंपरा है और जिसे कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम ने ओझल कर रखा है। 

Sunday, December 24, 2023

2023 में प्रकाशित कथेतर पुस्तकें


हिंदी साहित्य जगत में अरसे से चर्चा थी कि यतीन्द्र मिश्र फिल्म निर्देशक और गीतकार गुलजार पर पुस्तक लिख रहे हैं। आखिरकार यतीन्द्र मिश्र की बहुप्रतीक्षित पुस्तक इस वर्ष आई। दैनिक जागरण संवादी में इस पुस्तक की पहली झलक पाठकों को देखने को मिली। ये पुस्तक गुलजार की आधिकारिक जीवनी और उनकी रचनात्मकता के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करती है। इसमें विभाजन के बाद विस्थापन का दर्द, संघर्ष और फिल्मों में उनके आरंभिक दिनों से लेकर शीर्ष पर पहुंचने की कहानी है। ये पुस्तक दो भागों में है जिसका नाम गुलजार के गीतों से लिया गया है। पहला भाग हजार राहें मुड़ के देखीं और दूसरा खंड है थोड़ा सा बादल, थोड़ा सा पानी। पहला खंड लगभग साढे तीन पृष्ठों का है, जिसमें लेखक ने गुलजार के जीवन और रचनाकर्म पर रोचक तरीके से लिखा है। दूसरे खंड में गुलजार का बहुत लंबा साक्षात्कार है जो पहले खंड की प्रामाणिकता को पुष्ट करता है। 

पुस्तक- गुलजार सा’ब, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 1995 

जितेन ठाकुर का नाम समकालीन हिंदी कथाकारों में सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी कहानियों में जो किस्सागोई होती है वो पाठकों को बांधती है। कहानीकार जब संस्मरण लिखता है तो उसका प्रयास होता है कि वो घटनाओं को एक ऐसे कथासूत्र में पिरोए कि पाठकों को रोचक लगे। जितेन ठाकुर ने अपने संस्मरणों की पुस्तक जुगनुओं के मेले में स्वयं को केंद्र में तो रखा तो है लेकिन घटनाओं के उल्लेख के साथ कहानी जब आगे बढ़ती हैं तो ऐसा लगता है कि पाठक वर्णित कालखंड में पहुंच गया हो। जम्मू तहसील के एक युवक की किसान बनने की जिद और उसके शिकारी बन जाने की कथा वो इस तरह से रचते हैं जिसको पढ़ते हुए पाठकों को ये एहसास ही नहीं होता है कि वो अपने पड़दादा की कहानी बता रहे हैं। इंटर कालेज में फीस माफी का प्रसंग हो या नौकरी का संघर्ष, जितेन ठाकुर के कहन का अंदाज निराला है। 

पुस्तक- जुगनुओं के मेले, प्रकाशक- मेधा बुक्स, दिल्ली, मूल्य- रु 200 

साहित्य अकादमी और अन्य पुरस्कारों से सम्मानित वरिष्ठतम लेखक रामदरश मिश्र अपने जीवन के शताब्दी वर्ष में चल रहे हैं। रामदरश मिश्र करीब अस्सी वर्षों से लेखन कर्म में लगे हैं। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन किया है और अपने रचनाकर्म से उसे समृद्ध भी किया है। उनके शताब्दी वर्ष में आलोचक ओम निश्चल ने उनके जीवन और साहित्य को परखते हुए एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में ओम निश्चल ने रामदरश मिश्र की कविताओं, गजलों, उपन्यासों और उपन्यासिकाओं पर विचार किया है। इस पुस्तक में ओम निश्चल जी ने रामदरश मिश्र से जुड़े संस्मरण भी लिखे हैं जो अपने मोहक गद्य की ववजह से पठनीय हैं। इस पुस्तक में रामदरश मिश्र जी के विभिन्न अवसरों पर लिए गए साक्षात्कार भी संकलित हैं। कहना न होगा कि ये पुस्तक रामदरश मिश्र के लंबे लेखकीय जीवन को जानने समझने की कुंजी है। 

पुस्तक- रामदरश मिश्र, जीवन और साहित्य, प्रकाशक- सर्वभाषा प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 449

जनरल रावत ने भारत के पहले चीफ आफ डिफेंस स्टाफ यानि तीनों सेनाओं के प्रमुख का दायित्व संभाला और प्रखरता और तेजस्विता के साथ नेतृत्व किया। जनरल रावत ऐसे देशभक्त सैनिक थे जिनको ना केवल अपने देश के सैनिकों पर भरोसा था बल्कि अपने विज्ञानियों के सामर्थ्य पर विश्वास भी था। उन्होंने भारतीय सेना में सुधारों के अलावा मेक इन इंडिया पर खासा जोर दिया। डीआरडीओ और सेना के बीच के अंतर्विरोधों को दूर करके उन्होंने देसी सैन्य साजो समान के उत्पादन की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। अपने सैन्य प्रमुख के कार्यकाल में उन्होंने सिरक्षा बलों के साथ साथ सुरक्षा तंत्र के आधुनिकीकरण की दिशा में बहुत योगदान किया। हेलीकाप्टर दुर्घटना में उनका निधन हो गया। ऐसे चीफ आफ डिफेंस स्टाफ के पराक्रमी और प्रेरक जीवन गाथा को मनजीत नेगी ने कलमबद्ध किया। इस पुस्तक में सैन्य जीवन के अलावा उनकी जिंदगी के महत्वपूर्ण पड़ावों को भी लेखक ने रोचक तरीके से रेखांकित किया है। 

पुस्तक- महायोद्धा की महागाथा, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, मूल्य- रु 500

भारतीय ज्ञान परंपरा में गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसपर कई मनीषियों ने विचार किया है, जिसमें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से लेकर विनोबा भावे तक शामिल हैं। उनके बाद भी कई विद्वानों ने गीता को अपने तरीके से व्याख्यित करने का प्रयास किया। हाल में लेखक और प्रशासनिक अधिकारी विजय अग्रवाल ने भी अपनी नई पुस्तक गीता का ज्ञान के माध्यम से इस ग्रंथ को अपनी तरह से व्याख्यित किया है। इसके विभिन्न अध्यायों में कर्म को केंद्र में रखकर उन्होंने अपनी स्थापना दी है। कर्म के अलावा उन्होंने मन और पहचान को भी अपनी पुस्तक में प्रमुखता दी है और गीता के श्लोकों के आधार पर उसका विवरण प्रस्तुत किया है। विजय अग्रवाल की पुस्तक की शैली और व्याख्या के तरीके को देखकर लगता है कि लेखक ने युवाओं को ध्यान में रखकर इसको लिखी है। 

पुस्तक- गीता का ज्ञान, प्रकाशक- बेंतेन बुक्स, भोपाल, मूल्य- रु 350


Saturday, December 23, 2023

लाल झंडा थामने को आतुर 'हाथ'


हाल ही में जब नई दिल्ली में विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए की बैठक हुई तो राहुल गांधी और सीताराम येचुरी की साथ बैठी तस्वीरें सामने आईं। इसी तरह जब विपक्षी दलों के नेता नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर सांसदों के निलंबन पर विरोध जताने के लिए जुटे तो उसमें भी राहुल गांधी और सीताराम येचुरी एक दूसरे का हाथ थामे नजर आए। इन दोनों जगहों पर कांग्रेस और कम्युनिस्टों की निकटता ही नहीं दिखी बल्कि उनके साथ में एक विशेष प्रकार का उत्साह भी दिखा। इस प्रसंग की चर्चा इस कारण से कर रहा हूं कि कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अजीत कुमार पुरी की पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम, समाजवाद और श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के लोकार्पण समारोह में उपस्थित रहने का अवसर मिला। कार्यक्रम में मुझे भी पुरी जी की पुस्तक और श्रीरामवृक्षबेनीपुरी जी पर बोलना था। इस वजह से समारोह में जाने के पहले बेनीपुरी की डायरी के पन्ने को पलट रहा था। अचानक नजर एक जगकह जाकर रुकी, तारीख थी, 11 दिसंबर 1957। उस दिन बेनीपुरी जी ने अपनी डायरी में लिखा, आज बेनीपुर से पटना लौट रहा हूं। इधर 15 नवंबर से ही भाई अशोक मेहता के चुनाव के चक्कर में रहा। वह मुजफ्फरपुर-सदर निर्वाचन क्षेत्र से पार्लियामेंट के उम्मीदवार थे। आज से मतगणना शुरू हुई है, तीन थानों में आधे निर्वाचन क्षेत्र में 2700 वोट से जीत गए हैं। आधे में भी विजयी होंगे, ऐसा विश्वास है। दरअसल बेनीपुरी जी प्रख्यात समाजवादी नेता अशोक मेहता के चुनाव की बात कर रहे थे। 1957 में अशोक मेहता ने बिहार के मुजफ्फरपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। उस समय समाजवादी नेता अशोक मेहता का कम्युनिस्टों ने विरोध किया था और कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं खड़ा करने की घोषणा के बाद भी अपना उम्मीदवार खड़ा कर अपनी पार्टी के असली चरित्र के दर्शन करवाए थे। तब मतपत्रों से चुनाव होता था और उसकी गिनती में कई दिन लग जाते थे।

उसी दिन डायरी में बेनीपुरी जी ने आगे लिखा, अजीब चुनाव रहा यह। भाई अशोक की विद्वता का ख्याल करके कांग्रेस ने यह सीट छोड़ दी। साथियों ने सोचा, अब क्या है, आसानी से विजय मिल जाएगी। किंतु बीच में कम्युनिस्ट आ टपके। हमारे किशोरी भाई उनके उम्मीदवार! फिर क्या था, सिद्धांत गया ताखे पर- जाति के नाम पर, जिले के नाम पर वह बावला मचाया गया, कि हम चकित रहे और प्रांत भर के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गांव-गांव में डेरे डालकर पड़ गए। कोई भी उपाय नहीं छोड़ा गया। हमें कदम कदम पर लड़ना पड़ा। आज की गणना से थोड़ा इत्मीनान हुआ। ...कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन देखकर हैरान रह जाना पड़ा। अशोक हमारी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के यशस्वी संपादक। विचारक अर्थशास्त्री। श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि उस चुनाव में कम्युनिस्टों ने सिद्धांत को ताखे पर रख दिया था। जातिवाद और प्रांतवाद का खेल जमकर खेल गया था। दरअसल अशोक मेहता बांबे (अब मुंबई) के थे और बिहार से आकर चुनाव लड़ रहे थे। वो दौर ऐसा था कि कई अन्य प्रांतों के नेता बिहार से आकर चुनाव लड़ते थे। मधु लिमय ने मुंगेर से और जार्ज फर्नांडिस ने मुजफ्फरपुर और बांका से चुनाव लड़ा था। जीते भी थे। बेनीपुरी की डायरी में दर्ज इस टिप्पणी पर गौर करना चाहिए कि कांग्रेस और कम्युनिस्टों के गठबंधन को देखकर उनको हैरानी हुई थी। हैरानी दरअसल कम्युनिस्टों की उस राजनीति को देखकर हुई थी जिसमें उन्होंने जाति और प्रांत का कार्ड खेला था। असामनता और विभेद की राजनीति का दंभ भरनेवाली विचारधारा का असली चेहरा खुला था। 

12 दिसंबर 157 को श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने अपनी डायरी में बहुत छोटी सी टिप्पणी दर्ज की। लिखा, और वही होकर रहा, अशोक जीत गए। चौदह हजार वोटों से। कम्युनिस्ट हारे, जातिवाद की हार हुई, प्रांतवाद की हार हुई। अशोक की जीत, जनतंत्र की जीत, समाजवाद की जीत, राष्ट्रीयता की जीत, विद्वता की जीत, देशभक्ति की जीत! हिप-हिप हुर्रे!! इस पूरी टिप्पणी से बेनीपुरी की प्रसन्नता दिख रही है। कम्युनिस्टों की हार को उन्होंने जातिवाद और प्रांतवाद की हार से जोड़ा और अशोक की जीत को उन्होंने राष्ट्रीयता और देश भक्ति के साथ समाजवाद और विद्वता से जोड़ा। भारत में जो समाजवाद पनपा वो साम्यवाद से अलग था। उसमें देशभक्ति और राष्ट्रीयता के गुण और भारतीयता कूट कूट कर भरी थी। बहुधा ये बेनीपुरी के लेखन में दिखती भी है। एक बार बेनीपुरी कलकत्ता (अब कोलकाता) गए। वहां बंगीय परिषद की सभा में उन्होंने सीता की मां नाम की रचना सुनाई। फिर पत्रकारों की एक सभा हुई उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ उल्टा पुल्टा बोल दिया तो बेनीपुरी भड़क गए। उन्होंने लिखा है, पत्रकारों की ओर से जो सभा हुई, उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ ऊटपटांग बातें कहीं। बस, मेरा देवता जाग गया और लोगों ने कहा कि मैंने बड़ा ही ओजपूर्ण भाषण दिया। कितनी खूबसूरती से उन्होंने बताया कि कम्युनिस्टों की क्या गत की। 

बेनीपुरी जी कम्युनिस्टों की मौकपरस्त राजनीति से खिन्न रहते थे। उनको लगता था कि कम्युनिस्ट कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। इस तरह के संकेत उनकी डायरी के पन्ने में यत्र-तत्र बिखरे हैं। समाजवादी लोग राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के साथ चलनेवाले थे जबकि साम्यवादियों की राष्ट्र में आस्था न थी, न है। बेनीपुरी शाश्वत भारत या सांस्कृतिक भारत की बात करनेवाले लेखक और राजनेता थे। वो इस सांस्कृतिक भारत के खान पान, रहन सहन, गीत-नृत्य, पर्व-उत्सव, आनंद-विनोद आदि में एकात्मता देखते थे । उनका मानना था कि राजनीतिक उलटफेरों के बावजूद संपूर्ण भारत में आदिकाल से एक अविच्छिन्न सांस्कृतिक धारा प्रवाहित होती रही है। समय समय पर उसका चित्रण किया जाना चाहिए। बेनीपुरी जब भी इस सांस्कृतिक धारा में किसी प्रकार की बाधा देखते या बाधा की आशंका को भांपते तो उसका सार्वजनिक रूप से लिखकर और बोलकर प्रतिकार करते। मुजफ्परपुर लोकसभा चुनाव के समय कम्युनिस्टों और कांग्रेस के साथ आने पर उन्होंने तब भी कहा था और बाद में भी कहते रहे।

हलांकि कांग्रेस ने कम्युनिस्टों का स्वाधीनता के बाद से ही साथ लेना आरंभ कर दिया था। नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था और उसके ऐतिहासिक कारण थे। इंदिरा गांधी ने भी कम्युनिस्टों का साथ लिया, समर्थन के एवज में उनको कला संस्कृति और शिक्षा से जुड़ी सरकारी संस्थाएं आउटसोर्स कर दीं। लेकिन इन दोनों ने कभी भी कम्युनिस्टों को हावी नहीं होने दिया। जब आवश्यकता पड़ी कम्युनिस्टों का अपनी और अपनी राजनीति के हक में उपयोग किया, उनको उसका ईनाम दिया और फिर आगे चल पड़े। हाल के दिनों में जिस प्रकार से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की कम्युनिस्टों से निकटता बढ़ी है, जिस प्रकार से कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोग कांग्रेस पार्टी को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं वैसे में ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस की राजनीतिक चालें भी वहीं लोग तय कर रहे हैं। दरअसल ऐसा तब होता है जब पार्टी में विचारवान नेताओं की कमी हो जाती है। उनको अपनी राजनीतिक राय बनाने के लिए किसी के सहारे की जरूरत होती है। कम्युनिस्टों की एक विशेषता है कि वो बातें बड़ी अच्छी करते हैं, गरीबों और मजदूरों की बातें करते हैं जो किसी को भी लुभाने का सामर्थ्य रखती हैं। सैद्धांतिक धरातल पर इन बातों का असर होता भी है लेकिन जब उनको यथार्थ की धरातल पर उतारने की बात आती है तो सारे सिद्धांत धरे रह जाते हैं। वो भी जात-पात और अन्य प्रकार की बातें करने लग जाते हैं। बेनीपुरी जी जैसे और उनके बाद की पीढ़ी के लेखकों का ना केवल साम्यवाद से मोहभंग होता है बल्कि साफ तौर पर बगैर हिचके सिद्धांतों को ताखे पर रखने की बात भी कह जाते हैं। 

Saturday, December 16, 2023

बढ़ती और ढ़लती उम्र का गणित


मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद भारतीय जनता पार्टी ने लंबे विमर्श और मंथन के बाद तीनों प्रदेशों में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व को कमान सौंपी। मध्यप्रदेश में अट्ठावन वर्षीय मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसी तरह से राजस्थान में छप्पन वर्ष के भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री और बावन वर्षीया दीया कुमारी और चौव्वन वर्षीय प्रेमचंद बैरवा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। छत्तीसगढ़ में भी उनसठ साल के विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री और पचपन वर्षीय अरुण साव और पचास वर्षीय विजय शर्मा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। जबकि इन राज्यों में शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे दिग्गज सक्रिय थे। राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा होने लगी कि भारतीय जनता पार्टी ने दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को तैयार करना आरंभ कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी पूर्व में भी इस तरह के प्रयोग करती रही है। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अड़तीस साल की स्मृति इरानी को कैबिनेट मंत्री बनाया और चालीस वर्षीय अनुराग ठाकुर को मंत्रिमंडल में शामिल किया। अन्य दलों में भी ये देखने को मिलता रहा है। कांग्रेस पार्टी ने भी हिमाचल प्रदेश के विधानसभा में जीत दर्ज की तो साठ वर्ष से कम आयु के सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री बनाया। अभी तेलांगना में भी चौव्वन वर्ष के रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह अलग बात है कि कांग्रेस पार्टी में जब कई वर्षों के बाद पार्टी अघद्यक्ष पद के लिए चुनाव हुए तो अस्सी वर्ष से अधिक आयु के मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी की पसंद बने । 

राजनीति में तो ऐसा देखने को मिलता है कि पार्टियां अपने युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक उम्र के नेताओं को अलग तरह की जिम्मेदारियां देती हैं। अधिक उम्र होने पर या राजनीति  मुख्यधारा से कट जाने के बाद नेताओं को राज्यपाल बनाने की परंपरा रही है। या नौकरशाह जब सेवानिवृत्त हो जाते हैं तो उनको भी राज्यपाल जैसे पद पर नियुक्त किया जाता रहा है। कई बार चुनाव हारने के बाद भी नेताओं को दरकिनार कर दिया जाता है या संगठन में भेजकर उनकी प्रतिभा का उपयोग किया जाता है। राजनीति के सामने अगर फिल्मी दुनिया को देखें तो वहां बढ़ती उम्र के बावजूद सिनेमा में काम करने की ललक जाती नहीं है। चेहरे पर स्पष्ट रूप से उम्र दिखने, चाल-ढाल, हाव-भाव में उम्र के हावी होने और दर्शकों के नकार के बावजूद रूपहले पर्दे पर बने रहने की कोशिशें जारी रहती हैं। अधिक पीछे नहीं जाते हुए अगर हाल के नायकों को देखें तो भी इस तरह की प्रवृत्ति नजर आती है। अभिनेता आमिर खान लगभग 59 वर्ष के हो रहे हैं। उनकी आखिरी हिट फिल्म 2016 में आई थी दंगल। उसके बाद उनकी दो महात्वाकांक्षी फिल्मों लाल सिंह चड्ढा और ठग्स आफ हिंदोस्तान को दर्शकों ने बुरी तरह से नकार दिया, लेकिन अब भी इस तरह की खबरें आती रहती हैं कि उनकी कोई नई फिल्म आनेवाली है। फिल्म लाल सिंह चड्ढ़ा में उन्होंने अपने से करीब पंद्रह वर्ष छोटी अभिनेत्री के साथ काम किया तो ठग्स आफ हिंदोस्तान में करीब बीस वर्ष छोटी अभिनेत्री के साथ। सात वर्षों से कोई फिल्म हिट नहीं हो रही, उम्र का असर दिख रहा है लेकिन फिल्मों में बने रहने की चाहत है। 

दूसरा उदाहरण शाहरुख खान का है। उनकी हालिया दो फिल्में अवश्य हिट रही हैं लेकिन उसके पहले उनकी भी फिल्में नहीं चल पा रही थीं। उनकी उम्र भी आमिर खान जितनी ही है। तीसरे खान सलमान खान हैं। ये शाहरुख खान से एक वर्ष छोटे हैं लेकिन सत्तावन वर्षीय अधेड़ अभिनेता की फिल्में भी उतनी नहीं चल पा रही हैं जितनी युवावस्था में चला करती थी। दर्शकों में सलमान खान को लेकर जो दीवानगी देखने को मिलती थी वो इन दिनों नहीं दिख रही है। भारत और ट्यूबलाइट जैसी फिल्में दर्शकों को नहीं भाईं। बावजूद इसके लगातार फिल्में कर रहे हैं। एक और इसी उम्र के अभिनेता हैं अक्षय कुमार। उनकी एक के बाद एक छह फिल्में लगातार पिटीं लेकिन अब भी उनके पास फिल्मों की कतार लगी हुई है। बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षाबंधन, रामसेतु, सेल्फी, मिशन रानीगंज को दर्शकों ने पसंद नहीं किया। बावजूद इसके अक्षय कुमार युवा अभिनेता बनने की होड़ में शामिल हैं। अपनी से आधी उम्र की अभिनेत्री मानुषी के साथ महात्वाकांक्षी फिल्म सम्राट पृथवीराज को दर्शकों ने नकारा। बच्चन पांडे से लेकर मिशन रानीगंज तक सिर्फ एक फिल्म ओमएमजी-2 चली लेकिन ये पंकज त्रिपाठी की फिल्म मानी जाएगी। अक्षय कुमार तो इसमें बहुत कम देर के लिए हैं। बावजूद इसके अगले वर्ष अक्षय की बतौर हीरे पांच नई फिल्मों की चर्चा है। अक्षय कुमार कहते भी हैं कि वो एक फिल्म के लिए 40 दिन का ही समय निकाल सकते हैं।  

राजनीति में जब नेतृत्व कमजोर होता है और वो पीढ़ीगत बदलाव करना चाहता है तो कई बार विद्रोह के स्वर सुनाई पड़ते हैं। लेकिन जब नेतृत्व सबल होता है तो पीढ़ीगत बदलाव सहज दिखता है। जैसा कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में देखने को मिला। फिल्मों में पीढ़ीगत बदलाव तभी दिखता है जब अभिनेता को निरंतर नकार का सामना करना पड़ता है। फिल्मों में भूमिका में बदलाव करके प्रासंगिक बना रहा जा सकता है। इसके सबसे बड़े उदाहरण अमिताभ बच्चन हैं जिन्होंने अपनी भूमिकाओं के चयन में अपनी उम्र का ख्याल रखा और तब जाकर दर्शकों ने उनको पसंद किया। बढ़ती उम्र के साथ वो लाल बादशाह और जादूगर जैसी फिल्में करने लगे थे तो एक समय ऐसा लगने लगा था कि बतैर हीरो उनकी पारी समाप्त हो गई है। राजेश खन्ना ने ढ़लती उम्र के साथ जीना नहीं सीखा। असफलता का सामना नहीं कर पाए। खुद को नशे के दलदल मे डुबो लिया। अगले वर्ष अगर अक्षय कुमार नहीं संभल पाए और उनकी फिल्में नहीं चलीं तो उनके सामने भी यही संकट खड़ा हो जाएगा। आमिर खान के सामने भी यही चुनौती है। शाहरुख की फिल्म डंकी अगर नहीं चल पाई तो पिछली दो फिल्मों की सफलता के धुलने का खतरा है। 

राजनीति और फिल्म दोनों में बढ़ती और ढ़लती उम्र का गणित और उसके परिणाम का आकलन जरा कठिन होता है। एक जगह कुर्सी से चिपके रहने की ख्वाहिश बनी रहती है,सत्ता सुख भोगने की चाहत होती है तो दूसरी जगह रूपहले पर्द पर मेकअप आदि के सहारे नायक बने रहने की जुगत। अब तो तकनीक के सहारे चेहरे की त्वचा आदि को भी ठीक किया जा सकता है। फिल्मी अभिनेता इस तकनीक का उपयोग करके और अपने से आधी उम्र की नायिकाओ के साथ काम करके जवान दिखना चाहते हैं। उम्र बढ़ना प्राकृतिक है। बढ़ती उम्र के साथ अपनी भूमिका में बदलाव करना और उसको यथार्थवादी बनाना व्यक्ति पर निर्भर करता है। चाहे नेता हो या अभिनेता जो इसको जितनी जल्दी समझ लेता है उसकी जिंदगी बहुत शांतिपूर्व चलती है। अभिनेत्रियों में इसका उदाहरण काजल हैं। जब वो अपने करियर के शीर्ष पर थीं तो उन्होंने विवाह करके घर बसा लिया। विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया और अब अपनी उम्र के हिसाब से भूमिकाओं का चयन करके फिर से मनोरंजन की दुनिया में वापस आई हैं। हमारे ग्रंथों में भी कहा गया है कि जो समय को पहचान लेता है और उसके हिसाब से अपने को ढाल लेता है वो निरंतर सफल होता है। समय और परिस्थिति के हिसाब से अपने को बदल लेना ही उचित होता है। अगर कोई समय और परिस्थिति के अनुसार नहीं बदला पाता है तो समय उसको बदल देता है। समाज, राजनीति या सिनेमा में समय से टकराकर कोई आगे बढ़ सका हो, ऐसा उदाहरण याद नहीं पड़ता।  


Saturday, December 9, 2023

मोदी विजय रथ को रोक पाएंगे राहुल?


राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर चर्चा आरंभ हो गई है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के हौसले बुलंद हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव में हैट्रिक का विमर्श शुरु कर दिया है। उधर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों में मायूसी का वातावरण है। तेलांगना के विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद कांग्रेस पार्टी अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार नहीं कर पा रही है। कुछ दिनों पूर्व बने विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए को लेकर कुछ ठोस सामने नहीं आ रहा है। विशेषज्ञ ऐसा होगा तो ऐसा होगा के तर्कों के सहारे भारतीय जनता पार्टी की कठिनाइयों को गिनाने में लगे हैं। चुनावी विश्लेषक विधानसभा चुनाव में विपक्षी दलों को मिले वोटों की संख्या के आधार पर लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के सामने चुनौती पेश करने का प्रयास कर रहे हैं। यही विश्लेषक ये कहते हुए नहीं थकते थे कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में मतदान का पैटर्न अलग होता है। स्मरणीय है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा का चुनाव हार गई थी लेकिन अगले ही वर्ष 2019 में जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो भारतीय जनता पार्टी को 2014 में मिली सीटों से अधिक सीटें प्राप्त हुईं। इसी तरह से दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को बंपर जीत मिली थी लेकिन लोकसभा चुनाव में सातों सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत का परचम लहराया। आंकड़ों से संकेत तो मिल सकते हैं लेकिन उसे परिणाम का सटीक आकलन नहीं लग सकता है। 

लोकसभा के चुनाव में जनता यह तय करती है कि कौन सा नेता ऐसा है जो राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदान कर सकता है। वैश्विक मंच पर राष्ट्रीयय हित को मजबूती से पेश कर सकता है। पूरे देश को साथ लेकर चल सकता है और जिसकी नीतियों से देश का विकास होगा। किस नेतृत्व में स्थायित्व और स्थिरता प्रदान करने की क्षमता है। वर्तमान राजनीति परिदृष्य में नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं और पार्टी 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी के नेतृत्व में लड़ेगी। विपक्ष में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है और उसकी उपस्थिति हर राज्य मैं है। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे हैं लेकिन अगर प्रधानमंत्री बनने की नौबत आई तो राहुल गांधी ही आगे आएंगे। आईएनडीआईए में भी सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण कांग्रेस का नामित नेता ही उसका नेतृत्व कर सकता है। यहां भी राहुल गांधी का ही नाम आ सकता है। इस बात की संभवाना कम है कि राहुल गांधी किसी अन्य के नेतृत्व में 2024 के लोकसभा चुनाव मैदान में जाएं। राहुल गांधी के कुछ स्वयंभू सलाहकार और गठबंधन के कुछ दल राहुल गांधी के नाम पर असहमति जता सकते हैं लेकिन जिस प्रकार अन्य दलों के नेताओं के नाम पर मतभिन्नता है उसमें राहुल के नाम पर ही मतैक्य हो सकता है। विपक्षी गठबंधन नेतृत्व के प्रश्न को लोकसभा चुनाव के बाद के लिए टालने की घोषणा कर सकते हैं लेकिन उसका कोई लाभ होगा, इसमें संदेह है। स्वाभाविक है कि विपक्षी गठबंधन मजबूरी में ही सही लेकिन राहुल गांधी को नेता चुन सकते हैं। अगर राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों का गठबंधन आईएनडीआए चुनाव मैदान में जाता है तो फिर मुकाबला नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच होगा। 

राहुल गांधी के बारे में देश में एक राय है। कांग्रेस पार्टी में भी। सोमवार को पूर्व राष्ट्रपति और लंबे समय तक कांग्रेस पार्टा के महत्वपूर्ण नेता रहे प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी की पुस्तक बाजार में आ रही है। पुस्तक का नाम है प्रणब, माई फादर। इस पुस्तक में सोलह स्थानों पर राहुल गांधी का उल्लेख है और कई स्थानों पर तो प्रणब मुखर्जी के डायरी के अंश भी उद्धृत किए गए हैं। प्रणब मुखर्जी की डायरी के अंश संभवत: पहली बार सार्वजनिक होने जा रहे हैं। प्रसंग 29 जनवरी 2009 के कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का है।  प्रणब मुखर्जी अपनी डायरी में लिखते हैं, राहुल गांधी ने गठबंधन के विरोध में अपनी बात जोशीले अंदाज में रखी। मैंने (प्रणब) उनसे कहा कि जोश तो ठीक है लेकिन अपने आयडिया को विस्तार से कारण समेत व्याख्यायित करें। प्रणब मुखर्जी के इतना कहने पर राहुल गांधी ने उनकी तरफ देखा और कहा कि वो उनसे अलग से बात कर लेंगे। उसके बाद प्रणब मुखर्जी ने राहुल के बारे में अपनी डायरी में लिखा कि वो बेहद शिष्ट हैं और उनके मन में काफी प्रश्न कुलबुलाते रहते हैं जो ये दर्शाते हैं कि वो सीखना चाहते हैं लेकिन अभी राहुल गांधी को राजनीतिक रूप से परिपक्व होना बाकी है। परिपक्वता के प्रश्न पर ही प्रणब मुखर्जी 27 सितंबर 2013 की एक घटना का उदाहरण देते हैं। उस दिन राहुल गांधी दिल्ली में अजय माकन के एक प्रेस कांफ्रेंस में पहुंच गए थे और उन्होंने एक अध्यादेश की काफी सार्वजनिक रूप से फाड़ दी थी। भन्नाए प्रणब मुखर्जी लिखते हैं कि राहुल गांधी खुद को क्या समझते हैं? वो कैबिनेट के सदस्य नहीं हैं। वो होते कौन हैं जो कैबिनेट के निर्णय को सार्वजनिक रूप से फाड़ डालें। प्रदानमंत्री विदेश में हैं। उनको(राहुल) को इस बात का अनुमान भी है कि उनके इस कदम का परिणाम और प्रधानमंत्री पर क्या असर होगा? राहुल को प्रधानमंत्री को इस तरह अपमानित करने का अधिकार किसने दिया? राहुल में गांधी-नेहरू खानदान से होने अहंकार तो है लेकिन राजनीतिक कौशल नहीं। कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन उपाध्यक्ष की इस हरकत को लेकर प्रणब मुखर्जी बेहज नाराज दिखते हैं और कहते हैं कि राहुल का यह कार्य कांग्रेस पार्टी के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हुई। वो प्रश्न उठाते हैं कि लोग कांग्रेस को इसके बाद वोट क्यों देंगे। वो इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी को फिर से सक्रिय कर पाएंगे। वो लिखते हैं कि सोनिया जी राहुल को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं लेकिन उनमें (राहुल) करिश्मा और राजनीतिक समझ की कमी के कारण कठिनाई हो रही है। 

राहुल गांधी को लेकर सिर्फ प्रणब मुखर्जी की ही ये राय नहीं है। अपनी पुस्तक अमेठी संग्राम लिखने के दौरान मैंने युवक कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष से बात की थी तो उन्होंने भी कमोबेश इसी तरह की बात कही थी। उन्होंने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही थी वो ये राहुल गांधी अगर किसी नेता से नाराज होते हैं तो वो उसको दंडित नहीं करते हैं और जब खुश होते हैं तो पारितोषिक भी नहीं देते। खफा होने से उससे बातचीत बंद कर देते हैं जिसका नुकसान संगठन को होता है। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी हैं जो दोनों स्थितियों में निर्णय लेते हैं। 2024 का लोकसभा चुनाव अगर नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी होता है तो आज की स्थिति में मोदी का हैट्रिक तो तय ही है। राहुल गांधी या आईएनडीआईए को अगर नरेन्द्र मोदी को चुनौती देनी है तो उनको एक परिपक्व राजनीतिक चेहरा ढूंढकर उसपर सभी दलों के बीच सहमति बनानी होगी। उस नेता को अपनी  नीतियों और विजन को जनता के सामने रखना होगा। आईएडीआईए ने अबतक दो ढाई दिन ही काम किया है। विपक्षी गठबंधन की तरफ से हाल ही में एक बैठक आहूत करने का समाचार आया था लेकिन अज्ञात कारणों से वो बैठक टाल दी गई। आमचुनाव में छह महीने से भी कम समय बचा है। भारतीय जनता पार्टी अपनी चुनावी तैयारियां कर चुकी है लेकिन विपक्षी गठबंधन को बहुत कुछ करना शेष है। अगर विपक्ष ने समय का सदुपयोग नहीं किया तो परिणाम हैट्रिक की ओर ही जाता दिख रहा है। 


Saturday, December 2, 2023

विखंडनवादियों का नया राजनीतिक पैंतरा


ऐसा बताया गया कि केरल के मुख्यमंत्री कामरेड पिनयारी विजयन ने केरल में आयोजित कटिंग साउथ नाम से आयोजित कार्यक्रम का न केवल शुभारंभ किया बल्कि इसमें भाषण भी दिया। ये कहना था प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे नंदकुमार का । प्रज्ञा प्रवाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित सांस्कृतिक संगठन है। वे लखनऊ में आयोजित दैनिक जागरण संवादी के पहले दिन के एक सत्र में शामिल हो रहे थे। उन्होंने प्रश्न उठाया कि किस साउथ को कहां से काटना चाहते हैं कटिंग साऊथ वाले ? क्या दक्षिण भारत को उत्तर भारत से काटना चाहते हैं? कटिंग साउथ के नाम से जो आयोजन हुआ उसको ग्लोबल साउथ से जोड़ने का प्रयास अवश्य किया गया लेकिन उसकी प्रासंगिकता स्थापित नहीं हो पाई। जे नंदकुमार ने अपनी टिप्पणी में इसको विखंडनवादी कदम करार दिया और जोर देकर कहा कि इस तरह के नाम और काम से राष्ट्र में विखंडनवादी प्रवृतियों को बल मिलता है। उन्होंने इसको वामपंथी सोच से जोड़कर भी देखा और कहा कि वामपंथी विचारधारा राष्ट्र में विश्वास नहीं करती है इसलिए इसको मानने वाले इस तरह के कार्य करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के सोच का निषेध करने के लिए और राष्ट्रवादी ताकतों को बल प्रदान के लिए दिल्ली और दक्षिण भारत के कई शहरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजन करेगी। ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्रियों के शामिल होने के संकेत भी दिए गए। 

कटिंग साउथ मीडिया के नाम पर मंथन का एक कार्यक्रम है लेकिन अगर सूक्ष्मता से विचार करें तो इसके पीछे का जो सोच परिलक्षित होता है वो विभाजनकारी है। कहा भी जाता है कि कोई कार्य या कार्यक्रम अपने नाम से अपने जनता के बीच एक संदेश देने का प्रयत्न करती है। एक ऐसा संदेश जिससे जनमानस प्रभावित हो सके। ये दोनों कार्यक्रमों के नाम से ही स्पष्ट है। दोनों के संदेश भी स्पष्ट हैं। आज जब भारत में उत्तर और दक्षिण का भेद लगभग मिट सा गया है तो कुछ राजनीति दल और कई सांस्कृतिक संगठन इस भेद की रेखा को फिर से उभारना चाहते हैं। कभी भाषा के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर तो कभी किसी अन्य बहाने से। कभी सनातन के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करके तो कभी हिंदू देवी देवताओं के नाम पर अनर्गल प्रलाप करके। वैचारिक मतभेद अपनी जगह हो सकते हैं, होने भी चाहिए लेकिन जब बात देश की हो, देश की एकता और अखंडता की हो, देश की प्रगति की हो या फिर देश को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मजबूती प्रदान करने की हो तो राजनीति को और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के लिए सोचने और एकमत रखने की अपेक्षा की जाती है। देश की एकता और अखंडता के प्रश्न पर राजनीति करना या उसको सत्ता हासिल करने का हथियार बनाना अनुचित है। यह इस कारण कह रहा हूं क्योंकि अभी पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव हुए हैं और आगामी छह महीने में लोकसभा के चुनाव होने हैं। जब जब कोई महत्वपूर्ण चुनाव आते हैं तो इस तरह की विखडंनवादी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं। 

आपको याद होगा कि जब 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होनेवाले थे तो उसके पहले इस तरह का ही एक आयोजन किया गया था जिसका नाम था डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व। 2021 के उत्तरार्ध में अचानक तीन दिनों के आनलाइन सम्मेलन की घोषणा की गई थी। वेबसाइट बन गया था, ट्विटर (अब एक्स) अकाउंट पर पोस्ट होने लगे थे। उस कार्यक्रम में तब असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी के प्रपंच में शामिल लोगों के नाम भी सामने आए थे। तब भी डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व का उद्देश्य भारतीय जनता पार्टी को नुकसान पहुंचाना था। कटिंग साउथ से भी कुछ इसी तरह की मंशा नजर आती है। वही लोग जिन्होंने देश में फर्जी तरीके से असहिष्णुता की बहस चलाई थी, पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा था, डिस्मैंटलिंग हिंदुत्व के साथ जुड़कर अपनी प्रासंगिकता तलाशी थी लगभग वही लोग कटिंग साउथ के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े हैं। डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के आयोजकों को न तो हिंदुत्व का ज्ञान था और न ही इसकी व्याप्ति और उदारता का अनुमान। महात्मा गांधी ने काल्पनिक स्थिति पर लिखा है कि ‘यदि सारे उपनिषद् और हमारे सारे धर्मग्रंथ अचानक नष्ट हो जाएं और ईशोपवनिषद् का पहला श्लोक हिंदुओं की स्मृति मे रहे तो भी हिंदू धर्म सदा जीवित रहेगा।‘ गांधी ने संस्कृत में उस श्लोक को उद्धृत करते हुए उसका अर्थ भी बताया है। श्लोक के पहले हिस्से का अर्थ ये है कि ‘विश्व में हम जो कुछ देखते हैं, सबमें ईश्वर की सत्ता व्याप्त है।‘ दूसरे हिस्से के बारे में गांधी कहते हैं कि ‘इसका त्याग करो और इसका भोग करो।‘ और अंतिम हिस्से का अनुवाद इस तरह से है कि ‘किसी की संपत्ति को लोभ की दृष्टि से मत देखो।‘ गांधी के अनुसार ‘इस उपनिषद के शेष सभी मंत्र इस पहले मंत्र के भाष्य हैं या ये भी कहा जा सकता है कि उनमें इसी का पूरा अर्थ उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है।‘ गांधी यहीं नहीं रुकते हैं और उससे आगे जाकर कहते हैं कि ‘जब मैं इस मंत्र को ध्यान में रखककर गीता का पाठ करता हूं तो मुझे लगता है कि गीता भी इसका ही भाष्य है।‘ और अंत में वो एक बेहद महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि ‘यह मंत्र समाजवादियों, साम्यवादियों, तत्वचिंतकों और अर्थशास्त्रियों सबका समाधान कर देता है। जो लोग हिंदू धर्म के अनुयायी नहीं हैं उनसे मैं ये कहने की धृष्टता करता हूं कि यह उन सबका भी समाधान करता है।‘  डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के समय भी अपने लेख में गांधी को उद्धृत किया था। 

भारत चाहे उत्तर हो या दक्षिण कोई भूमि का टुकड़ा नहीं है कि उसके किसी हिस्से को किसी अन्य हिस्से से काटा जा सके। भारत एक अवधारणा है। एक ऐसी अवधारणा जिसमें अपने धर्म से, धर्मगुरुओं से, भगवान तक से प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता है। अज्ञान में कुछ विदेशी विद्वान या वामपंथी सोच के लोग महाभारत की व्याख्या करते हुए कृष्ण को हिंसा के लिए उकसाने का दोषी करार देते हैं और कहते हैं कि अगर वो न होते तो महाभारत का युद्ध टल सकता था। अब अगर इस सोच को धारण करने वालों को कौन समझाए कि महाभारत को और कृष्ण को समझने के लिए समग्र दृष्टि का होना आवश्यक है। अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार नहीं होते और कौरवों का शासन कायम होता तब क्या होता। कृष्ण को हिंसा के जिम्मेदार ठहरानेवालों को महाभारत के युद्ध का परिणाम भी देखना चाहिए था। लेकिन अच्छी अंग्रेजी में आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर भारतीय पौराणिक ग्रंथों की व्याख्या करने से न तो भारताय ज्ञान परंपरा की व्याप्ति कम होगी और न ही उसका चरित्र बदलेगा। भारतीय समाज के अंदर ही खुद को सुधार करने की व्यवस्था है। यहां जब भी कुरीतियां बढ़ती हैं तो समाज और देश के अंदर से कोई न कोई सुधारक सामने आता है।

कटिंग साउथ की परिकल्पना करनेवालों और उसके माध्यम से परोक्ष रूप से राजनीति करने वालों को, भारतीय समाज को भारतीय लोकतंत्र को समझना होगा। वो अब इतना परिपक्व हो चुका है कि विखडंनवादी ताकतों की तत्काल पहचान करके उनके मंसूबों को नाकाम करता है। 2021 के बाद भी यही हुआ और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि 2024 के चुनाव में भी भारतीय जनता देशहित को समझेगी और उसके अनुसार ही अपने मतपत्र के जरिए उनका निषेध भी करेगी। 


Saturday, November 25, 2023

असहमति निर्माण का राजनीतिक खेल


शुक्रवार को भुनेश्वर में आयोजित एसओए साहित्य उत्सव में भाग लेने का अवसर मिला। इसके उद्घाटन सत्र में प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी का वक्तव्य हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में आशीष नंदी ने कई बार डिस्सेंट (असहमति) शब्द का उपयोग किया। उन्होंने साहित्यकारों की रचनाओं में असहमति के तत्व की बात की। उसकी महत्ता को भी स्थापित करने का प्रयत्न किया। अपने भाषण के आरंभ में उन्होंने कहा था कि वो कोई विवादित बयान नहीं देंगे। लेकिन असहमति की बात करते हुए उन्होंने एक किस्सा सुनाया। कहा कि एक कवयित्री हैं जो नरेन्द्र मोदी के बारे में  हमेशा अच्छा अच्छा लिखती थी। उनकी प्रशंसा करती थी। उस कवयित्री को उन्होंने नरेन्द्र मोदी का प्रशंसक तक बताया। फिर आगे बढ़े और कहा कि एक दिन उस कवयित्री ने गंगा नदी में बहती लाशों के बारे में लिख दिया। इसके बाद उसके प्रति कुछ लोगों का नजरिया बदल गया। वो इंटरनेट मीडिया पर ट्रोल होने लगी। इस किस्से के बाद वो अन्य मुद्दों पर चले गए। कहना न होगा कि आशीष नंदी का इशारा कोविड महामारी के दौरान गंगा नदी में बहती लाशों की ओर था। वो इतना कहकर आगे अवश्य बढ़ गए लेकिन वहां उपस्थित लोगों के मन में असहमति को लेकर एक संदेह खड़ा गए। परोक्ष रूप से वो ये कह गए कि वर्तमान केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर असहमति प्रकट करने के बाद प्रहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। यहां आशीष नंदी ये बताना भूल गए कि कोविड महामारी के दौरान गंगा में बहती लाशों को लेकर जो भ्रम फैलाया गया था वो एक षडयंत्र का हिस्सा था। केंद्र के साथ साथ उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा करने की मंशा से ये नैरेटिव बनाने का प्रयास किया गया था। उसी समय दैनिक जागरण ने गंगा नदी में बहती लाशों को लेकर उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक पड़ताल की थी। उस झूठ का पर्दाफाश किया था कि लाशें महामारी की भयावहता को छिपाने के लिए गंगा में बहा दी गईं थीं। बाद में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने भी गंगा में तैरती लाशों वाले उस नैरेटिव पर ध्यान नहीं दिया। किड महामारी के बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में फिर से योगी आदित्यनाथ की सरकार को जनादेश देकर उस विमर्श को खत्म कर दिया था। 

इन दिनों असहमति को लेकर खूब चर्चा होती है। यह भी कहा जाता है कि असहमति को दबाने का प्रयास किया जाता है। कई बार ये कहते हुए केंद्र सरकार के विरोध में अपनी राय रखनेवाले कथित बुद्धिजीवि असहमति को दबाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  पर आरोप भी लगाते हैं। यहां वो असहमति का एक महत्वपूर्ण पक्ष बताना भूल जाते हैं। असहमति का अधिकार लोकतंत्र में होता है, होना भी चाहिए लेकिन असहमति के साथ साथ उसकी मंशा और उद्देश्यों पर भी ध्यान देना चाहिए। डिस्सेंट जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है उस डिसेंट के पीछे का इंटेंट। अगर असहमति के पीछे छिपी मंशा किसी दल या विचारधारा का विरोध है तो उसको भी उजागर करना चाहिए। उसको भी असहमति के साथ ही रखकर विचार किया जाना चाहिए। अगर किसी विचार से असहमति हो और उसके पीछे मंशा वोटरों को लुभाने की हो तो उसपर खुलकर बात की जानी चाहिए। बौद्धिक और साहित्य जगत में असहमति होना आम बात है लेकिन अगर किसी रचना का उद्देश्य किसी विचारधारा विशेष को पोषित करना और उसके माध्यम से पार्टी विशेष को लाभ पहुंचना है तो फिर उस असहमति का प्रतिकार करने का अधिकार सामने वाले को भी होना ही चाहिए। वामपंथ में आस्था रखनेवाले बुद्धिजीवियों ने वर्षों तक ये किया। इल तरह का बौद्धिक छल कहानी, कविता और आलोचना के माध्यम से हिंदी जगत में वर्षों तक चला, अब भी चल ही रहा है। वामपंथी पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ट की तरह कार्य करनेवाले लेखक संगठनों से जुड़े लेखकों ने अपनी रचनाओं में वामपंथी विचारों को परोसने का काम किया। पाठकों को जब उनकी ये प्रवृति समझ में आई तो वो इस तरह की रचनाओं को खारिज करने लगे। इस तरह की रचना करनेवाले लेखकों की विश्वसनीयता भी पाठकों के बीच संदिग्ध हो गई। ये अकारण नहीं है कि एक जमाने में वामपंथ को पोषित करनेवाली लघुपत्रिकाएं धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। उनके बंद होने के पीछे इन लेखक संगठनों के मातृ संगठनों का कमजोर होना भी अन्य कारणों में से एक कारण रहा। इन मातृ संगठनों के कमजोर होने की वजह उनमें लोगों का भरोसा कम होना भी रहा। आशीष नंदी जैसे समाजशास्त्री जब असहमति की पैरोकारी करते हैं तो इस महत्वपूर्ण पक्ष को ओझल कर देते हैं। 

अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन ने 1922 में जनमत के प्रबंधन के लिए एक शब्द युग्म प्रयोग किया था, मैनुफैक्चरिंग कसेंट (सहमति निर्माण)। उसके बाद कई विद्वानों ने इस शब्द युग्म को अपने अपने तरीके से व्याख्यायित किया। एडवर्ड हरमन और नोम चोमस्की ने 1988 में एक पुस्तक लिखी मैनुफैक्चरिंग कंसेंट, द पालिटिकल इकोनामी आफ द मास मीडिया। इस पुस्तक में लेखकों का तर्क था कि अमेरिका में जनसंचार के माध्यम सरकारी प्रोपगैंडा का शक्तिशाली औजार है और उसके माध्यम से सरकारें अपने पक्ष में सहमति का निर्माण करती हैं। उनके ही तर्कों को मानते हुए अगर थोड़ा अलग तरीके से देखें तो हम कह सकते हैं कि हमारे देश में एक खास विचारधारा के पोषक मैनुफैक्चरिंग डिस्सेंट में लगे हैं। यानि वो अपने विचारों से, अपने वक्तव्यों से, अपने लेखन से असहमति का निर्माण करने का प्रयास करते हैं जिससे परोक्ष रूप से सरकार के विरोधी राजनीतिक दलों के प्रोपैगैंडा को बल प्रदान किया जा सके। इस असहमति के निर्माण में लोकतंत्र, जनतंत्र, संवैधानिक अधिकारों की एकांगी व्याख्या आदि का सहारा लिया जाता है ताकि उनको तर्कों को विश्वसनीयता का बाना पहनाकर जनता के सामने पेश किया जा सके। यहां वो यह भूल जाते हैं कि भारत और यहां की जनता अब पहले की अपेक्षा अधिक समझदार हो गई है, शिक्षा का स्तर बढ़ने और लोकतंत्र के गाढ़ा होने के कारण असहमति निर्माण का खेल बहुधा खुल जाता है। बौद्धिक जगत में भी अब असहमति निर्माण करनेवालों के सामने उनके उद्देश्य को लेकर प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं। परिणाम यह होने लगा है कि जनता को समग्रता में सोचने विचारने का अवसर मिलने लगा है। 

हमारे देश में असहमति निर्माण का ये खेल चुनावों के समय ज्यादा दिखाई देता है। जब जब देश में चुनाव होते हैं तो कभी पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा जाता है तो कभी असहिष्णुता को लेकर असहमति निर्माण का प्रयास किया जाता है तो कभी फासीवाद का नारा लगाकर तो कभी संस्थाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कब्जे का भ्रम फैलाकर। कई बार हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस चलाकर भी। लेकिन इन सबके पीछे का उद्देश्य एक ही होता है कि किसी तरह से मोदी सरकार की छवि धूमिल हो सके ताकि चुनाव में विपक्षी दलों को उसका लाभ मिल सके। लेकिन हो ये रहा है कि न तो पुरस्कार वापसी का प्रपंच चल पाया, न ही असहिष्णुता का आरोप गाढ़ा हो पाया। फासीवाद फासीवाद का नारा लगाने वाले भी अब ये जान चुके हैं कि ये शब्द भारत और यहां की राजनीति के संदर्भ में अपना अर्थ खो चुके हैं। हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस भी अब मंचों तक सीमित होकर रह गई है। अगले वर्ष के आरंभ में आम चुनाव होनेवाले हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि असहमति निर्माण के इस खेल में नए नए तर्क ढूंढे जाएं। पर असहमति निर्माण में लगे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये जो जनता है वो सब जानने लगी है। 

Saturday, November 18, 2023

हिंदी कहानी पर आत्मुग्धता का खतरा


काफी दिनों के बाद एक साहित्यिक गोष्ठी में जाना हुआ। वहां समकालीन हिंदी कहानी और उपन्यास लेखन पर चर्चा हो रही थी। कार्यक्रम चूंकि हिंदी कहानी और उपन्यास पर हो रही थी इस कारण वक्तों में कहानीकार और उपन्यासकार अधिक थे, टिप्पणीकार कम। एक बुजुर्ग लेखक ने जोरदार शब्दों में हिंदी कहानी से कथा तत्व के लगभग गायब होते जाने की बात कही। साथ ही उन्होंने कहानियों में जीवन दर्शन की कमी को भी रेखांकित किया। इस क्रम में उन्होंने रैल्फ फाक्स को उद्धृत करते हुए कहा कि हो सकता है कि ‘जब जब दार्शनिकों ने कहानियां लिखी हों मुंह की खाई हो, लेकिन यह भी तय है कि उपन्यास बिना एक सुनिश्चित जीवन-दर्शन के लिखा ही नहीं जा सकता।‘ इसके बाद एक युवा उपन्यासकार बोलने के लिए आए। युवा उत्साही होते हैं तो उनके वक्तव्य में भी उत्साह था और उन्होंने उपन्यास में जीवन दर्शन जैसे गंभीर बातों की खिल्ली उड़ाई और कहा कि हिंदी कहानी को इस तरह की बातों से ही नुकसान पहुंचा है। उसके मुताबिक आज का उपन्यास हिंदी के इन आलोचकीय विद्वता से मुक्त होकर आम आदमी की कहानी कहने लगा है। उसने इसके फायदे भी गिनाए और कहा कि जीवन दर्शन आदि की खोज से दूर जाकर हिंदी कहानी ने अपने को बोझिलता से दूर किया। युवा उपन्यासकार ने न केवल हिंदी की समृद्ध परंपरा का उपहास किया बल्कि यहां तक कह गए कि हिंदी कथा साहित्य को अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसों की बौद्धिकता से दूर ही रहने की आवश्यकता है। आश्चर्य की बात है कि जब वो ये सब बोल रहे थे तो सभागार में बैठे कुछ अन्य युवा तालियां भी बजा रहे थे। बाद के कुछ वक्ताओँ ने हल्के स्वर में उनकी स्थापनाओं का प्रतिरोध करने की औपचारिकता निभाई और अन्य बातों पर चले गए।

कार्यक्रम के अगले हिस्से में समकालीन कहानियों के समाचारों पर आधारित होने की बात एक वक्ता ने उठाई। उनका कहना था कि हिंदी के नए कहानीकार अब समाचारपत्रों से किसी घटना को उठाते हैं और उसको अपनी भाषा में थोड़ी काल्पनिकता का सहारा लेकर लिख डालते हैं। उन्होंने नए कहानीकारों पर फार्मूलाबद्ध और फैशनेबल कहानियां लिखने का आरोप भी जड़ा। उनका तर्क था कि जब इस तरह की कहानी पाठकों के सामने आती है तो वो सतही और छिछला प्रतीत होता है। उन्होंने नए कहानीकारों को हिंदी कहानी की परंपरा को साधने और उसको ही आगे बढ़ाने की नसीहत देते हुए कहा कि हिंदी के नए कहानीकारों को अपने पूर्वज कहानीकारों का ना केवल सम्मान करना चाहिए बल्कि उनको पढ़कर कहानी लिखने की कला भी सीखनी चाहिए। ये महोदय बहुत जोश में बोल रहे थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभागार में उपस्थित बहुसंख्यक श्रोता उनकी बातों से सहमत भी हो रहे थे। दो सत्र के बाद कार्यक्रम संपन्न हो गया। लेकिन दोनों सत्रों में वक्ताओं ने जिस प्रकार से अपने तर्क रखे उसको देखकर लगा कि हिंदी में इस समय अतिवादिता का दौर चल रहा है। एक तरफ अपने पूर्वज कथाकारों को नकारने की प्रवृत्ति देखने को मिली तो दूसरी तरफ युवा लेखकों को खारिज करने का सोच दिखा। दोनों ही अतिवाद है। ऐसा नहीं है कि हिंदी कहानी को लेकर इस तरह की गर्मागर्मी पहले नहीं होती थी। हर दौर में इस तरह की साहित्यिक बहसें होती थीं। पहले साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख और टिप्पणियों के माध्यम से इस प्रकार की बहसें चला करती थीं। अब साहित्यिक पत्रिकाओं के कम हो जाने के कारण गोष्ठियों में इस तरह की बातें ज्यादा सुनने को मिलती हैं।

इन दोनों टिप्पणियों को सुनने के बाद मुझे कथाकार राजेन्द्र यादव की याद आ गई। उन्होंने लिखा था कि ‘कभी-कभी होता क्या है कि साहित्य का कोई युग खुद ही एक अजब सा खाली-खालीपन, एक निर्जीव पुनरावृत्ति और सब मिलाकर एक निर्रथक अस्तित्व का बासीपन महसूस करने लगता है। सब कुछ तब बड़ा सतही और छिछला लगता है। उस समय उसे जीवन और प्रेरणा शक्ति देनेवाली दो शक्तियों की ओर निगाह जाती है, एक लोक साहित्य और और लोक जीवन की प्रेरणाएं और दूसरे विदेशी साहित्य की स्वस्थ उपलब्धियां। राजेन्द्र यादव ने तब लिखा था कि अगर इस देश के कथा साहित्य को तटस्थ होकर देखें तो ये दोनों ही प्रवृत्तियां साफ साफ दिखती हैं। उनका मानना था कि उनके समय में भी सतहीपन और झूठे मूल्यों का घपला ही था जिससे उबकर नवयुवक कथाकारों की एक धारा ग्रामीण जीवन और आंचलिक इकाइयों की ओर मुड़ गईं और दूसरी विदेशी साहित्य की ओर। वो उस काल को प्रयोग और परीक्षण का काल मानते थे जिसमें भटकाव भी था लेकिन दोनों धारा में एक सही रास्ता खोजने की तड़प थी। आज की कहानियों पर अगर विचार करें तो यहां न तो कोई प्रयोग दिखाई देता है और न ही किसी प्रकार का कोई परीक्षण। एक दो उपन्यासकार को छोड़ दें तो ज्यादातर उपन्यासकार प्रयोग का जोखिम नहीं उठाते हैं। इस समय जो लोग ग्रामीण जीवन पर कहानियां लिख रहे हैं वो तकनीक आदि के विस्तार से जीवन शैली में आए बदलाव को पकड़ नहीं पाते हैं या पकड़ना नहीं चाहते हैं। इसके पीछे एक कारण ये हो सकता है कि वो श्रम से बचना चाहते हों। लोगों के मनोविज्ञान में आ रहे बदलाव को समझने और उसको कथा में पिरोने की जगह वो ऐसा उपक्रम करते हैं कि पाठकों को लगे कि वो नई जमीन तोड़ रहे हैं। समाज में हिंदू-मुसलमान के सामाजिक रिश्तों में बदलाव आ रहा है। इस रिश्ते के मनोविज्ञान को पकड़ने का प्रयास हिंदी कहानी में कहां दिखाई देता है।

हम अज्ञेय या निर्मल वर्मा की भाषा की बात करें तो उसमें एक खास प्रकार का आकर्षण दिखाई देता है। जिसको एक कथाकार ने उत्साह में बोझिलता बता दिया था दरअसल वो हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक है। दरअसल होता यह है कि जब भी हिंदी में कहानियों की भाषा पर बात की जाती है तो वो भी यथार्थ के धरातल पर आकर टिक जाती है। इस तरह की बातें करनेवाले ये भूल जाते हैं कि भाषा केवल स्थितियों और परिस्थितियों को अभिव्यक्त ही नहीं करती है बल्कि पाठकों के सामने चिंतन के सूत्र भी छोड़ती है। वो अतीत में भी जाती है और वर्तमान से होते हुए भविष्य की चिंता भी करती है। आज के कहानीकारों के सामने सबसे बड़ा संकट ये है कि उनकी पीढ़ी का कोई कथा आलोचक नहीं है। इस वक्त हिंदी कहानी पर टिप्पणीकार तो कई हैं लेकिन समग्रता में कथा आलोचना के माध्यम से कहानीकारों और पाठकों के बीच सेतु बनने वाला कोई आलोचक नहीं है। आज के अधिकतर कहानीकार अपने लिखे को अंतिम सत्य मानते हैं और उसपर आत्ममुग्ध रहते हैं। उनको आईना दिखानेवाला न तो कोई देवीशंकर अवस्थी है, न कोई सुरेन्द्र चौधरी और न ही कोई नामवर सिंह। इसके अलावा इस समय कथा का जो संकट है वो ये है कि कहानीकार भी अपने समकालीनों पर लिखने से घबराते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर आपको सिर्फ प्रशंसात्मक टिप्पणियां मिलेंगी। अच्छी रचनाओं की प्रशंसा अवश्य होनी चाहिए। प्रशंसा से लेखक का उत्साह बढ़ता है लेकिन कई बार झूठी प्रशंसा लेखकों या रचनाकारों के लिए नुकसानदायक होती है। आज हिंदी के युवा कथाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वो सबसे पहले कहानी या उपन्यास की परंपरा का अध्ययन करें, उसको समझकर आत्मसात करें, फिर अपने लेखन में उसके आगे बढ़ाने का प्रयत्न करें। अगर लेखकों को अपनी परंपरा का ज्ञान नहीं होगा तो उसके आत्ममुग्ध होने का बड़ा खतरा होता है। ये खतरा इतना बड़ा होता है कि वो लेखन प्रतिभा को कुंद कर देता है।

Monday, November 13, 2023

मन के अंदर हों श्रीराम - मिश्र


हिंदी साहित्य के इतिहास में रामदरश मिश्र संभवत: पहले ऐसे लेखक हैं जो अपनी जन्म शताब्दी की देहरी पर खड़े हैं। अस्सी वर्षों से निरंतर साहित्य की विभिन्न विधाओं में सार्थक लेखन से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। इस उम्र में भी वो साहित्यिक बैठकी में जमकर संस्मरण सुनाते हैं और युवा लेखकों का उत्साहवर्धन भी करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शिक्ष रहे रामदरश मिश्र के अंदर अब भी उनका गांव बसता है। गांव की चर्चा होते ही उनका चेहरा प्रफुल्लित हो जाता है। वो मानते हैं कि अनुभव और मानवीय मूल्य ही किसी रचना को उत्तम बनाते हैं। दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर अनंत विजय ने  रामदरश मिश्र से उनके आरंभिक जीवन, शिक्षण के अनुभव, उनकी रचना प्रक्रिया, समकालीन साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य और अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण को लेकर उनसे लंबी बातचीत की। यह भी जानने का प्रयास किया गया कि उनके शतायु होने का राज क्या है। प्रस्तुत है उनसे विस्तृत बातचीत के प्रमुख अंशः

-आज का जो साहित्यिक परिदृश्य है, जिस तरह की चीजें लिखी जा रही हैं, उससे आपको कितनी संतुष्टि होती है या जितना आप पढ़ पाते हैं इस अवस्था में आने के बाद, जितना आपको सुनाया जाता है, या जितना आप जानते हैं, कोई आश्वस्ति होती है या लगता है कि जैसे कुछ छूट रहा है?

- पहली बात, मेरा लिखना-पढ़ना दोनों बंद हो गया है। जब लिखने की क्षमता कम हुई तो अपनी सर्जना को डायरी के माध्यम से, कभी-कभी गजल के माध्यम से व्यक्त करता रहा हूं।  मुझे लगता है कि इन दिनों चाहे गजल या कविता हो या कहानी, उनमें वो ऊंचाई नहीं है, गहराई नहीं है जो कुछ समय पहले तक थी। नागार्जुन, केदारनाथ, भवानी भाई के साथ जुड़ा हूं। इन लोगों को पढ़ने का जो एक आनंद था, वो मुझे महसूस नहीं होता है। किसी अच्छे कवि से संपर्क होता है, तो पता चलता है कि कुछ अच्छा भी लिखा जा रहा है। लेखन कोई भी हो, उसमें अपनापन होना चाहिए। जब जब हम चीजों को जीते हैं, तो जो रचनाएं उनकी अभिव्यक्ति होती हैं, वे प्रभावशाली होती हैं। उनमें अपने परिवेश से उपजा अनुभव होता है। हालांकि कई बार मात्र अनुभव ही पर्याप्त नहीं होता। लेखक अपने अनुभव से लिखते हैं, लेकिन लेखक का अपना निर्णय भी होता है कि क्या देना चाहिए और क्या नहीं।

- आपकी एक कविता है कि आप पहुंचे छलांगे लगाकर वहां मैं पहुंचा धीरे-धीरे। आप धीरे-धीरे लक्ष्य तक पहुंचे। साहित्य में प्रतिष्ठा मिली जो एक आलोचना का परिदृस्य था, काफी समय तक आपके साहित्य को मान्यता नहीं दी। उसमें कभी ऐसा लगा कि आपका देय आपको नहीं मिला?

- मेरा स्वभाव महत्वाकांक्षी नहीं है। मैं अपना काम करता हूं और यदि वो काम अच्छा होता है तो संतोष मिलता है, नहीं तो यह भी विश्वास रहता है कि कल वहां ये पहुंचेगा, जहां इसे पहुंचना चाहिए। लोगों की उपेक्षा से दुख इसलिए भी नहीं हुआ क्योंकि मैं मानता था कि एक विचारधारा है, एक दल है, वही सब कुछ निर्णय कर रहा है। वे अपने से अलग लोगों को हाशिये पर डाल रहे हैं, इसलिए उनकी चिंता मत करो, बस लिखते जाओ। यदि मैं उसमें शामिल हो गया होता तो मुझे भी वही मिलता, लेकिन मैं किसी दल से संबद्ध नहीं हुआ। बीएचयू में रहते हुए दो तीन-साल के लिए कम्युनिस्ट हुआ था लेकिन जल्दी ही ज्ञात हो गया कि उसके प्रभाव में जो लिख रहा हूं वो ठीक नहीं है। जब मेरी किताब आई तो उन कविताओं को हटा दिया। मैंने कोशिश की कि अपना रास्ता बनाऊं। अपने रास्ते पर चलने वालों की तारीफ करूं।  जिन पत्रिकाओं को मैं समझता था कि कुछ खास लोगों की हैं, जैसे अशोक बाजपेयी की 'पूर्वाग्रह', नामवर सिंह की 'आलोचना' हो, राजेंद्र यादव की 'हंस' हो वहां मैंने कुछ दिया ही नहीं, उन्होंने सम्मान से कुछ मांगा भी नहीं, एक तरह से अच्छा ही हुआ । मेरी नियति कुछ अजीब है। लगता है कि मेरा अपकार कर रही हैं, दुख दे रही है, फिर लगता है कि उस क्रिया में ही तो इतना सम्मान था। यौवनकाल में सब मस्ती से जी लेते हैं, लेकिन बुढा़पा सन्नाटों में भर जाता है, मेरी नियति ने बुढ़ापे को सम्मान से भर दिया। मुझे वृद्धावस्था में सम्मान और लोगों का प्यार मिल रहा है।

नियति पर बहुत भरोसा है, क्या आप भाग्यवादी हैं?

- भाग्यवादी नहीं हूं लेकिन जैसा मैंने अनुभव किया है उसके माध्यम से ये बात कह रहा हूं कि जब मेरे साथ दुर्घटना होती है तो लगता है कि एक बुरी नियति से जुड़ा हुआ हूं, लेकिन जब उसका दूसरा परिणाम आता है तो लगता है कि उस नियति का एक दूसरा पहलू भी है।

- आप बीएचयू के उस हिंदी विभाग में रहे हैं, जिसकी तुलना नामवर सिंह ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से की है कि वहां भी तीन बड़े आलोचक रहे। उन्होंने रामचंद्र शुक्ल रचनावली की भूमिका में ये बात कही बीएचयू में आचार्य शुक्ल, नंददुलारे वाजपेजी, हजारीप्रसाद द्विवेदी की त्रिमूर्ति थी। द्विवेदी जी की यादें साझा करेंगे कि वे कैसे छात्रों से मिलते थे। उन पर आरोप लगा कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित थे?

- द्विवेदी जी कहते थे कि साहित्य मनुष्य के लिए है। मनुष्य के हित के लिए जो भी साहित्य लिखा जाए वो अच्छा साहित्य है। जब द्विवेदी जी आरएसएस में बोलने गए तो बड़ी बदनामी हुई, लेकिन जब स्टालिन की मृत्यु हुई थी, तो उन्होंने जो भाषण दिया वो अद्भुत था। न वो आरएसएस के थे, ना कम्युनिस्ट थे। वे मानवता से जुड़े थे। उनके अध्यापन की विशेषता थी कि वो कोई विषय बहुत व्यापक रूप में लेते थे। कबीर का दोहा है, वो मात्र दोहा नहीं रह जाता था है, उस दोहे के भाव में जो भी है, वो जहां से भी संभव हो लाकर डाल देते थे। पूरा साहित्य उसमें मूर्त हो जाता था। बेहद प्रसन्नचित्त थे। छात्रों को बहुत प्यार करते थे। उनके साथ शाम को घूमना बहुत अच्छा लगता था। उस समय वे ऐसी बातें कहते थे जो शायद क्लास में नही कह सकते थे। वे ऐसे ढंग से कहते थे कि वो भीतर तक पहुंच रही है। एक बार उनके घर में बैठे थे, एक संन्यासी का फोन आया। पंडित जी आ जाऊं। उन्होंने कहा आ जाइए। उस संन्यासी ने एक किताब लिखी थी, जो द्विवेदी जी को पढ़ने को दी। उन्होंने कहा कि हर लेखक का लक्षित पाठक होता है। आपने लिखा है कि हमारे घर की औरतों को श्रृंगार नहीं करना चाहिए, सिनेमा नहीं देखना चाहिए। क्या वो पढ़ेंगी इसको। हमारे घर की जो स्त्रियां श्रृंगार नहीं करती, वे उसे पढ़ेंगी, लेकिन वह उनके काम की नहीं है।

- एमए के दौरान कभी आपको ऐसा लगा कि शुक्ल जी ने तुलसी की व्याख्या की, लेकिन दिवेदी जी ने तुलसी पर विचार न करके कबीर को पकड़ा। क्या आपको लगा कि वे तुलसी के बरअक्स कबीर को खड़ा करना चाहते थे?

- देखिए कबीर को मानना का क्या होता है। जिसने निर्भीकता से आडंबर का विरोध किया, उसके प्रस्तोता आचार्य दिवेदी जी थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने तुलसीदास की उपेक्षा की थी। उन्हें लगा कि तुलसीदास को तो मिल गया है, उन्होंने जो छूट गया यानी कबीरदास जी को संभाला, ये बड़ी बात थी।

-आप डेढ़ दो साल के लिए कम्युनिस्ट हुए। नागार्जुन की वो पंक्ति याद आती है कि जब उन्होंने 1975 के बाद कहा था कि कोई 24 घंटे कम्युनिस्ट नहीं हो सकता। घंटा दो घंटा तो ठीक। नामवर जी ने चुनाव लड़ा था। क्या आप राजनीति में आना चाहते थे?

- जब मैं एएमए फाइनल में था तब भाई साहब ने मुझे चुनाव लड़ने को कहा। कालेज की छुट्टियां थीं। भाई साहब मुझे लेकर चुनाव प्रचार को जाते थे। पूरे गांव का समर्थन था। इतना समां बंध गया था कि लगा कि जीत जाऊंगा लेकिन एक नुक्ता रह गया था जिसकी वजह से पर्चा खारिज हो गया। हमारे भाई साहब उस फैसले के खिलाफ हाइकोर्ट तक गए थे, पर मैं सोचता हूं जो हुआ अच्छा हुआ। राजनीति में वो जाए जो मोटी चमड़ी का हो।

-आपने स्वतंत्रता से पहले और उसके बाद की राजनीति देखी है। क्या अंतर महसूस करते हैं?

-पुराने समय में राजनेता साहित्य में रुचि रखते थे। उनका सम्मान भी करते थे। उनकी भाषा संसद या संसद के बाहर ऐसी नहीं थी, जैसी आज हो गई है। बाबू जगजीवनराम का एक आत्मीय था, वो मेरा शिष्य। मुझे बताने लगा कि बाबू जी आपको बहुत याद करते हैं। मिलने चलिए उनसे।बहुत आग्रह के बाद उनके घर मिलने गया। उनका बाहरी कमरा नेताओं से भरा हुआ था। उस लड़के ने बाबू जी से जाकर बताया तो वे दौड़कर मिलने आए और गले लगा लिया। राजनीति और साहित्य के संबंध में एक घटना याद आती है। लाल किले पर एक विशाल वार्षिक कवि सम्मेलन हुआ करता था। उसमें दिनकर जी आए हुए थे। जवाहर लाल मंच जी सीढ़ी जी चढ़ रहे थे, फिसल गए तो दिनकर जी ने संभाल लिया और कहा, नेहरू जी जब राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे संभालता। अब तो किसी नेता को साहित्य से कोई वास्ता नहीं है। 

-नए लेखकों को कोई संदेश देना चाहेंगे?

- सबसे मैं यही कहता हूं कि अपना रास्‍ता बनाओ। बड़े लोगों से कुछ पाने के लिए उन जैसा न लिखो। इनके जैसा लिखूंगा, इनसे मिलूंगा तो यह मिल जाएगा तो तुम्‍हारा अपना नहीं होगा। तुम खुद अपना रास्‍ता चुनो। गिरो, पड़ो, उठो। जो तुम्‍हारा अपना रास्‍ता होगा, वही तुम्‍हारा अपना लेखन होगा। वही तुम्‍हे ताकत देगा। लोग उसी को याद करेंगे। यही मैं सबसे कहता हूं कि अपना रास्‍ता बनाओ।

-सौ साल तक जीने का क्या राज है?

- जिसने मुझे बनाया है, उससे पूछो। मैं क्‍या जवाब दूं। मैं यही जवाब दे सकता हूं कि मैंने कभी महत्‍वाकांक्षा नहीं पाली। महत्‍वाकांक्षा बहुत मारती है। वह पूरी नहीं होती है, तो लोग रोते हैं, तड़पते हैं और जिनसे आपका काम पूरा नहीं होता, उसे गाली देते हैं। मन में द्वेष रखते हैं। दूसरी बात यह कि नशा नहीं किया। बनारस में रहकर पान नहीं खाया। ये भी एक कारण है कि मैं कभी उम्र के संकट में नहीं पड़ा। बीमार तो पड़ता गया लेकिन मुझे कोई ऐसा रोग नहीं है जो कि यकायक मुझे खत्‍म कर दे। तीसरी बात यह है कि पत्‍नी के होने से सब चीजें घर में ही मिल जाती रहीं। बाजार से संबंध नहीं होना भी एक कारण हो सकता है। बाकी तो ईश्‍वर जानें।

आपकी दिनचर्या क्या रहती है?

- देखिए ऐसा है कि पत्‍नी बीमार हैं। मेरे पैर में फ्रैक्‍चर हो गया था। सर्जरी के बाद अब आराम हो गया है, लेकिन अब चाहे बुढ़ापा कहिए या कुछ और, दोनों पांवों में दर्द होता है। मैं चल तो लेता हूं। ठीक से चल लेता हूं, लेकिन दर्द होता रहता है। दिन में सो लेता हूं। अब तो खाली ही रहता हूं।

अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में बताइए?

- मेरे लेखन की एक प्रक्रिया रही है। सबकी अलग अलग होती है। मैं केवल सुबह लिखता था। सुबह के मतलब नाश्ता आदि करने के बाद। लेकिन जिस दिन क्‍लास लगती थी, उस दिन नहीं लिखता था। लिखने के लिए दो घंटे चाहिए होता है। मैं किस्‍तों में लिखता था। लेकिन लिखते लिखते मैं इतना लिख गया कि देखकर खुश होता हूं कि अरे इसे मैंने लिखा है। ये उपन्‍यास, ये कहानियां मैंने लिखी हैं। मैं ये सब देखकर अब आश्‍चर्य करता हूं।

आपके देखकर लगता नहीं कि आप क्रोध करते होंगे। क्या सचमुच ऐसा है?

- नहीं, मुझे भी क्रोध  आता है। खासकर जहां गलत काम देखता हूं। जब नागरिकता बोध को खंडित होते देखता हूं तो उस पर बहुत गुस्‍सा आता है। 

-रावण वध के बाद श्रीराम के अयोध्या पहुंचने के उपलक्ष्य में हर साल दीवाली मनाई जाती है, लेकिन पांच सौ साल बाद रामलला भव्य मंदिर में विराजमान होने जा रहे हैं। इस अर्थ में क्या यह दीवाली कुछ खास है। ?

- राम मंदिर बनना अपने आपमें एक बड़ी चीज है। हालांकि मैं सोचता हूं कि श्रीराम ने तो रावण का वध कर दिया, लेकिन क्या वह सचमुच में मर गया है? एक गजल याद आ रही है- वह न मंदिर में, न मस्जिद में, न गुरुद्वारे में हैं। वह पराई पीर वाली आंख के तारे में है…। अपने मन के भीतर एक मंदिर बनाइए। राम मंदिर तो एक प्रतीक है। उसके माध्‍यम से श्रीराम को भीतर ले आइये। कृष्‍ण और राम के रूप में ईश्वर की जो सगुण कल्‍पना की गई है, यह बहुत बड़ी बात है। ईश्वर के उन गुणों को अगर आपने नहीं अपनाया तो फिर मंदिर भी व्‍यर्थ है और बाकी सब कुछ भी।


Saturday, November 11, 2023

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदू मन


भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में पिछले दिनों भारतीय भाषाओं के अंतरसंबंध पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने का अवसर मिला। उस दौरान आचार्य रामचंद्र शुक्ल का अंग्रेजी में लिखा लेख हिंदी एंड द मुसलमान्स पर चर्चा हुई। उसी क्रम में रामचंद्र शुक्ल की तुलसी की भक्तिपरक और काव्य पद्धति को पढ़ने का मौका मिला। उसके बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि रामचंद्र शुक्ल के साथ बाद के लेखकों ने न्याय नहीं किया। तुलसी काव्य की उनकी व्याख्या और उसके धार्मिक आधारों की विवेचना कम हुई। चर्चा इस बात की अधिक होती रही कि रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी के सामने कबीर को याद नहीं किया। इतना ही नहीं कोशिश तो ये भी हुई कि तुलसी और कबीर को लेकर आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी को प्रतिद्वंदी की तरह पेश किया गया। रामचंद्र शुक्ल के तुलसी काव्य पर लिखे को आगे बढ़ाने का प्रयास न के बराबर हुआ। अगर शुक्ल के लेखन के समग्र आयामों पर अगर बात होती तो उनका हिंदू मन या सनातन धर्म में उनकी आस्था सामने आ जाती। ये बात वामपंथ में आस्था रखनेवाले लेखकों और आलोचकों को स्वीकार नहीं होता, लिहाजा इस तरह का प्रपंच रचा गया कि शुक्ल के लेखन के हिंदू पक्ष के बारे में बात ही न हो। यह कार्य निराला के साथ भी किया गया, प्रेमचंद के साथ भी किया गया और कल्याण पत्रिका में प्रकाशित उनके लेखों को हिंदी के नए पाठकों से दूर रखने का बौद्धिक षडयंत्र रचा गया। इस षडयंत्र की चर्चा आगे होगी लेकिन पहले देख लेते हैं कि शुक्ल जी ने क्या लिखा है। 

तुलसी की भक्ति पद्धति में आचार्य शुक्ल ने दिल खोलकर हिंदूओं और उनके धर्म प्रतीकों पर लिखा है। लेख के आरंभ में आचार्य शुक्ल कहते हैं कि देश में मुसलमान साम्राज्य के पूर्णतया प्रतिठित हो जाने पर वीरोत्साह के सम्यक संचार के लिए वह स्वतंत्र क्षेत्र न रह गया, देश का ध्यान अपने पुरुषार्थ और बल-पराक्रम की ओर से हटकर भगवान की शक्ति और दया-दाक्षिण्य की ओर गया। देश का वह नैराश्य काल था जिसमें भगवान के सिवा कोई सहारा नहीं दिखाई देता था। आचार्य शुक्ल ने आगे कहा कि सूर और तुलसी ने इसी भक्ति के सुधारस से सींचकर मुरझाते हुए हिंदू जीवन को फिर से हरा कर दिया। भगवान का हंसता खेलता रूप दिखाकर सूरदास ने हिंदू जाति की नैराश्यजनित खिन्नता हटाई जिससे जीवन में प्रफुल्लता आ गई। पीछे तुलसीदासजी ने भगवान का लोक-व्यापारव्यापी मंगलमय रूप दिखाकर आशा और शक्ति का अपूर्व संचार किया। अब हिंदू जाति निराश नहीं है। आचार्य शुक्ल इतने पर ही नहीं रुकते हैं वो आगे कहते हैं कि सूरदास की दिव्य वाणी का मंजु घोष घर-घर क्या, एक एक हिंदू के ह्रदय तक पहुंच गया। यही वाणी हिंदू जाति को नया जीवनदान दे सकती थी। इसके बाद वो तुलसी के रामचरित की जीवनव्यापकता पर आते हैं और कहते हैं कि राम के चरित से तुलसी की जो वाणी निकली उसने राजा, रंक, धनी, दरिद्र, मूर्ख, पंडित सबके ह्रदय और कंठ में बसा दिया। गोस्वामी जी ने समस्त हिंदू जीवन को राममय कर दिया।

आचार्य शुक्ल ने सूफियों के ईश्वर को केवल अपने मन के भीतर समझने और ढूढ़ने की अवधारणा पर भी प्रहार किया। उन्होंने कहा कि भारतीय परपंरा का भक्त अपने उपास्य को बाहर लोक के बीच प्रतिष्ठित करके देखता है, अपने ह्रदय के कोने में नहीं। गोस्वामी जी भी ललकार कर कहते हैं कि भीतर ही क्यों देखें, बाहर क्यों न देखें- अन्तर्जामिहु तें बड़ बारहजामी हैं राम जो नाम लिए तें। पैज परे प्रह्लादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिए तें। वो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अगर भगवान को देखना है तो उन्हें व्यक्त जगत के संबंध से देखना चाहिए। वो यह मानते थे कि भगवान को मन के भीतर देखना योगमार्ग का सिद्धांत है भक्ति मार्ग का नहीं। सूफियों की इस अवधारणा के बाद गोस्वामी जी ने उपासना या भक्ति का केवल कर्म और ज्ञान के साथ ही सामंजस्य स्थापित नहीं किया, बल्कि भिन्न भिन्न उपास्य देवों के कारण जो जो भेद दिखाई पड़ते थे, उनका भी एक में पर्यवसान किया। इसी एक बात से ये अनुमान हो सकता है कि उनका प्रभाव हिंदू समाज की रक्षा के लिए ,उसके स्वरूप को रखने के लिए कितने महत्व का था। तुलसी के इस महत्व को बाद के दिनों में बहुत ही कम रेखांकित किया गया। आचार्य शुक्ल ने तुलसी के काव्य को लेकर इस प्रकार के जो विचार प्रस्तुत किए थे उसको भी दबाने का प्रयास किया गया। धर्म और जातीयता के समन्वय पर भी आचार्य शुक्ल ने विचार किया। उनका मानना था कि तुलसी ने अपने काव्य में जो रामरसायन तैयार किया जिसके सेवन से हिंदू जाति विदेशी मतों के आक्रमणों से बहुत कुछ रक्षित रही और अपने जातीय स्वरूप को दृढ़ता से पकड़े रही। उनका मानना था कि सारा हिंदू जीवन राममय हो गया था। वो तो यहां तक कह गए कि राम के बिना हिंदू जीवन नीरस है, फीका है, यही रामरस उनका स्वाद बनाए रहा और बनाए रहेगा। राम का मुंह देख हिंदी जनता का इतना बड़ा भाग अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा रहा। न उसे तलवार हटा सकी, न धनमान का लोभ, न उपदेशों की तड़क भड़क। जिन राम को जनता जीवन के प्रत्येक स्थिति में देखती आई, उन्हें छोड़ना अपने प्रियजन को छोड़ने से कम कष्टकर न था। आचार्य शुक्ल ने बहुत बोल्ड तरीके से अपनी बात कही थी कि हमने चौड़ी मोहरी का पायजामा पहना, आदाब अर्ज किया पर राम-राम न छोड़ा। कोट पतलून पहनकर बाहर ‘डैम नानसेंस’ कहते हैं पर घर आते ही राम-राम।

अब आते हैं बौद्धिक षडयंत्र पर जहां कि रामचंद्र शुक्ल के हिंदू मन को हिंदी पाठकों से छिपाने का प्रयत्न हुआ। यशपाल से लेकर प्रकाशचंद्र गुप्त तक ने शुक्ल जी को सामंतवाद का विरोधी और जनवादियों से सहानुभूति रखनेवाला बताया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका बहुवचन के प्रवेशांक( अक्तूबर-दिसंबर 1999) में सुधीश पचौरी का एक लेख प्रकाशित हुआ था, रामचंद्र शुक्ल की धर्म भूमि। विखंडनवाद के औजारों से लैस होकर सुधीश पचौरी ने रामचंद्र शुक्ल को एक धार्मिक विमर्शकार करार दिया था। लेख जब आगे बढ़ता है तो वो शुक्ल जी को एक हिंदू विमर्शकार के रूप में रेखांकित करते हैं और कहते हैं कि वो एक हिंदू विमर्शकार हैं जो अपने समय के प्रतिबिंब तो हैं ही अपने समय को सत्ता विमर्श में बदलनेवाले भी हैं और हिंदी आलोचना अभी तक उनके विमर्श से बाहर नहीं निकली है। इस लेख में सुधीश पचौरी ने शुक्ल जी की आलोचना करते हुए उनको एकार्थवादी हिंदुत्व के औजार बनते देखते हैं। सुधीश पचौरी की स्थापनाओं पर तब काफी विवाद हुआ था। यह साहित्यिक विमर्श का विषय हो सकता है लेकिन शुक्ल जी ने जिस प्रकार से हिंदी आलोचना की अस्मिता को तुलसी और सूर के काव्य के माध्यम से राम और कृष्ण से जोड़ा वो उनके हिंदू मन को सामने लाता है। आचार्य शुक्ल ने उस हिंदू मन को पकड़ा और रेखांकित किया है जो अपने अतीत को याद रखते हुए अपनी ज्ञानदृष्टि को समायनुकूल बनाने में नहीं हिचकता है। शुक्ल जी ने जर्मन वैज्ञानिक हैकल की एक पुस्तक का अनुवाद किया था जो ‘विश्वप्रपंच’ के नाम से प्रकाशित है उसकी भूमिका में उनकी समयानुकूल दृष्टि दिखती है। अपनी परंपरा और जड़ों से जुड़े रहकर भी आधुनिक बने रहने की। कहना न होगा कि शुक्ल हिंदी आलोचना के ऐसे हिरामन हैं जिनकी वैश्विक दृष्टि ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। जरूरत इस बात की है कि उनके हिंदू मन पर समग्रता में विमर्श हो। 

Saturday, November 4, 2023

आकांक्षी लेखक व बुजुर्ग अवसरवादिता


लखनऊ में आयोजित होनेवाले आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान का निमंत्रण पत्र पिछले दिनों मिला। कथाक्रम सम्मान, लखनऊ निवासी उपन्यासकार शैलेन्द्र सागर पिछले कई वर्षों से प्रदान कर रहे हैं। कथाक्रम सम्मान के निमंत्रण पत्र को देख रहा था। वहां कोष्ठक में उल्लिखित रजा फाउंडेशन से सहयोग प्राप्त पढ़ते समय थोड़ी देर रुका। रजा फाउंडेशन पूर्व नौकरशाह अशोक वाजपेयी चलाते हैं। इसके पहले कानपुर के किसी महाविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम की प्रचार सामग्री इंटरनेट मीडिया पर दिखी थी। उसपर भी रजा फाउंडेशन का लोगो लगा था। हिंदी साहित्य से जुड़े कई अन्य कार्यक्रमों में रजा फाउंडेशन का सहयोग दिखता है। इसमें से अधिकतर कार्यक्रमों में रजा फाउंडेशन से संबद्ध अशोक वाजपेयी का नाम वक्ता के तौर पर होता है। कथाक्रम सम्मान समारोह के निमंत्रण पत्र पर भी वक्ता के तौर पर अशोक वाजपेयी का नामोल्लेख है। जब रजा फाउंडेशन का लोगो और अशोक वाजपेयी का नाम वक्ता के तौर पर देखा तो एक उपन्यासकार मित्र को फोन किया। चर्चा के दौरान उन्होंने और भी कई दिलचस्प बातें बताईं। उन्होंने कहा कि सिर्फ आनंद सागर कथाक्रम सम्मान क्यों, रजा फाउंडेशन तो देवीशंकर अवस्थी सम्मान और भारत भूषण अग्रवाल सम्मान में भी सहयोग करता है और वहां भी कई बार अशोक वाजपेयी वक्ता होते हैं। सम्मान और आयोजनों में सहयोग करके वक्ता बनने की ये प्रवृत्ति हिंदी साहित्य के लिए नई और दिलचस्प है। इसपर अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक वाजपेयी रजा फाउंडेशन के माध्यम से हिंदी के पुरस्कारों का अधिग्रहण कर रहे हैं। क्या अशोक वाजपेयी हिंदी में एक नया साहित्यिक उपनिवेश बनाना चाहते हैं। 

हिंदी साहित्य में नया उपनिवेश बनते देखकर अशोक वाजपेयी की वर्षों पहले लिखी एक टिप्पणी का स्मरण हो उठा। बुजुर्ग अवसरवादिता के नाम से लिखी उस टिप्पणी में अशोक जी ने शायर कैफी आजमी और अली सरदार जाफरी पर प्रहार किया था। अशोक वाजपेयी ने तब लिखा था, सफलता के इस निर्लज्ज युग में अकसर यह मान लिया जाता है कि युवा लोग ही अवसरवादी होते हैं। पर सच यह नहीं है। हमारे बुजुर्ग चौहान भी अवसर का लाभ उठाने से कतई नहीं चूकते। गालिब की द्विशताब्दी के सिलसिले में दिल्ली के लालकिले के नौबतखाने पर जो मुशायरा मुनक्कद किया गया था उसमें, जाहिर है, गालिब को प्रणीति देनी थी। उर्दू में किसी पुराने कवि की जमीन पर नया कुछ कहकर प्रणीति देने की एक खूबसूरत परंपरा है। लेकिन उस शाम हमारे दो बुजुर्ग शायरों कैफी आजमी और सरदार अली जाफरी ने इस परंपरा को तज दिया जबकि बाकी सबने उसे बखूबी निभाया। इस टिप्पणी में अशोक वाजपेयी ने जाफरी साहब पर गालिब से अलग हटकर गोष्ठी को हिंद-पाक दोस्ती के गुणगान के कार्यक्रम में बदलने के लिए व्यंग्य किया। अशोक वाजपेयी इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने जाफरी साहब की आलोचना करते हुए लिखा कि उन्होंने अहमद फराज की दोस्ताना नज्म के उत्तर में हिंद-पाक के 1965 के युद्ध के समय लिखी अपनी नज्म सुनाई । उनकी टिप्पणी थी, माना कि बम परीक्षण के बाद हिंद-पाक संबंध फिर से हमारी चिंता के विषय हो गए हैं पर इसका यह मतलब तो नहीं कि हर मौके पर उसी का राग अलापा जाने लगे, वह भी गालिब को प्रणिति देने के बजाय। 

अशोक वाजपेयी ने अली सरदार जाफरी की अवसरवादिता का एक और उदाहरण अपनी उसी टिप्पणी में दिया था। उन्होंने लिखा था कि जाफरी साहब ने ज्ञानपीठ पुरस्कार के अवसर पर ऐसी ही अवसरवादिता का परिचय अपने स्वीकृति भाषण में दिया। अव्वल तो भारतीय संस्कृति में कमल के फूल के महत्व पर बेमौके काफी देर तक बोले जिसपर स्वयं प्रधानमंत्री जी ने भी बाद में चुटकी ली। दूसरे, उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की कविता उद्धृत की, प्रधानमंत्री जी को कवि की हैसियत से उनके बम-विरोध की याद दिलाने के लिए। अपनी टिप्पणी की अंतिम पंक्ति में अशोक वाजपेयी कहते हैं कि उम्र के इस पड़ाव पर जाफरी साहब को यह सब करने की क्या जरूरत है। आज से करीब 25 वर्ष पूर्व जब अशोक वाजपेयी उर्दू के दो कवियों के बहाने जिस बुजुर्ग अवसरवादिता को रेखांकित कर रहे थे वही अब परोक्ष रूप से उनके व्यवहार में या कर्म में दिखाई देता है। आयोजन को अपने फाउंडेशन के माध्यम से आर्थिक सहयोग देना और फिर उसी आयोजन में वक्ता बनना। यह तो ‘बुजुर्ग चौहान’ का अवसर का लाभ उठाने जैसा ही प्रतीत होता है। इस सहयोग का एक अन्य पहलू भी है। रजा फाउंडेशन के माध्यम से अशोक वाजपेयी साहित्य और संस्कृति की दुनिया में एक प्रतीकात्मक राजसत्ता की स्थापना कर रहे हैं। एक ऐसी राजसत्ता जिसमें साहित्यिक न्याय के लिए कोई जगह नहीं होगी। जिसमें समर्थकों और चाटुकारों को स्थान मिलेगा। स्थान उपलब्ध करवाने वाले के लिए नायकत्व का सृजन होगा। एक तरफ अपने राजनीतिक आकाओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कारों की वापसी का प्रपंच रचा जाता है दूसरी तरफ पूंजी की शक्ति का उपयोग करके पुरस्कारों का अधिग्रहण कर अपने समर्थकों को उपकृत किया जाता है। आयोजनों में ‘सहयोग’ देकर मंच हासिल करते हैं और फिर उस मंच से राग फासीवाद और समय का संकट जैसे राग अलापते हैं। अवसर मिलते ही ‘बुजुर्ग चौहान’ भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होकर अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता, संबद्धता और संलिप्तता भी साबित करते हैं। 

एक जमाना था जब हिंदी पट्टी के साहित्यकार दिल्ली आते थे तो अकारण राजेन्द्र यादव से मिलने हंस पत्रिका के कार्यालय चले जाते थे। वहां जानेवालों का उद्देश्य साहित्य सत्ता के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना होती थी। नामवर सिंह के यहां भी पद और पुरस्कार के आकांक्षी लेखक अपनी हाजिरी लगाते थे। राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह के निधन के बाद हिंदी के आकांक्षी लेखक अशोक वाजपेयी के दरबार में पहुंचने लगे। अशोक वाजपेयी के पास आर्थिक शक्ति भी है जिसका उद्घोष रजा फाउंडेशन से सहयोग प्राप्त, की पंक्ति निरंतर करती रहती है। ये पंक्ति आयोजनों की प्रचार सामग्री से लेकर पुस्तकों पर दिखती रहती है। हिंदी साहित्य में आपको कई ऐसे लेखक मिल जाएंगे जो रजा फाउंडेशन के लिए किसी दिवंगत हो गए लेखक की जीवनी लिख रहे होंगे। दिवंगत लेखक भी ‘बुजुर्ग चौहान’ की पसंद के होते हैं। लेखक को पैसे देकर जीवनी लिखवाना और फिर प्रकाशकों को सहायता प्रदान कर पुस्तकों का प्रकाशन। अब तो हालत यहां तक पहुंच गई है कि अपना साक्षात्कार भी ‘सहयोग और मदद’ से प्रकाशित करवा रहे हैं। परिणाम यह कि ‘बुजुर्ग चौहान’ के इर्द गिर्द आकांक्षी प्रकाशकों का जमावड़ा। आकांक्षी लेखक और आकांक्षी प्रकाशकों की मदद से नायकत्व का विस्तार होता जाता है। ‘बुजुर्ग चौहान’ फासीवाद-फासीवाद का राग भी अलापते रहते हैं लेकिन जब अपने नायकत्व को मजबूत कर रहे होते हैं तो एक प्रकार से साहित्यिक फासीवाद का पोषण कर रहे होते हैं। 

अशोक वाजपेयी ने सरदार जाफरी, कैफी आजमी से लेकर नामवर सिंह तक को अवसरवादी कहा और लिखा है। नामवर सिंह को तो उन्होंने उनके विचलनों के आधार पर अचूक अवसरवादी करार दिया था। जहां तक मुझे याद है तो इसी शीर्षक से एक लंबा लेख भी लिखा था। अपने साथी लेखकों को अवसरवादी करार देनेवाले अशोक वाजपेयी रजा फाउंडेशन के माध्यम से अपनी साहित्यिक महात्वाकांक्षओं की पूर्ति में लगे हैं। विचार करना होगा कि अपने को साहित्य का नायक स्थापित करने के लिए हर तरह के अवसर का लाभ उठाना अवसरवादिता है या नहीं। क्या साहित्य सेवा की आड़ में अपनी छवि को गाढ़ा करने का खेल अवसरवादिता है या नहीं। अंत में अशोक वाजपेयी के शब्दों के साथ में ही अगर कहूं तो, उम्र के इस पड़ाव पर आखिर ये सब करने की जरूरत क्या है।  


Saturday, October 28, 2023

मनोरंजन का कारोबार या एजेंडा सेटिंग


कुछ दिनों पूर्व दो वेबसीरीज आई जिसको लेकर काफी चर्चा रही। एक है बंबई मेरी जान और दूसरी है मुंबई डायरीज सीजन टू। दोनों वेबसीरीज मुंबई शहर की पृष्ठभूमि पर आधारित है। बंबई मेरी जान में 1960 के दशक में उस शहर के अपराध की दुनिया को दिखाया गया है। उस दौर में हाजी मस्तान से लेकर दाऊद इब्राहम, हसीना पार्कर, वरदराजन मुदलियार, करीम लाला जैसे गैंगस्टरों की कारस्तानियों और बांबे (अब मुंबई) पर कब्जे की लड़ाई को चित्रित किया गया है। मुंबई डायरीज के दूसरे संस्करण में मायानगरी में आई 2006 में आई भयानक बाढ के दौरान अस्पताल में डाक्टरों की कठिन जिंदगी को दिखाया गया है। इस सीरीज में न्यूज चैनलों के कामकाज पर भी कटाक्ष किया गया है। इस आलेख का मंतव्य सीरीज की समीक्षा नहीं बल्कि इनके माध्यम से दिए जानेवाले परोक्ष संदेश को रेखांकित करना है। मनोरंजन के माध्यमों का उपयोग करके किसी व्यक्तित्व, घटना या विचारधारा को पुष्ट किया जाता है, वो यहां स्पष्ट दृष्टिगोटर होता है। पहले बात करते हैं बंबई मेरी जान की। इस वेब सीरीज को रीतेश सिधवानी और फरहान अख्तर ने प्रोड्यूस किया है। दस एपिसोड का ये सीरीज एस हुसैन जैदी की पुस्तक डोंगरी टू दुबई, सिक्स डीकेड्स आफ द मुंबई माफिया पर आधारित है। इस सीरीज में विस्तार से हाजी मस्तान के आपराधिक साम्राज्य, उसकी कार्यशैली और फिर दाऊद इब्राहिम के अपराध की दुनिया में आने और छा जाने की परिस्थितियों को दिखाया गया है।

बंबई मेरी जान में के के मेनन ने दाऊद इब्राहिम के पिता इब्राहिम कासकर की भूमिका निभाई है। इस्लाइल कादरी नाम का ये शख्स पुलिस में होता है और उसको हाजी मस्तान, करीम लाला और वरदराजन मुदलियार के आपराधिक सांठगांठ को तोड़ने का काम सौंपा गया है। उसको एक बेहद ईमानदार पुलिस अधिकारी के तौर पर दिखाया गया है जो विषम परिस्थितियों में भी टूटने को तैयार नहीं होता है। नौकरी चली जाती है, गरीबी में पूरा परिवार बिखरने लगता है, बच्चे की पढ़ाई छूट जाती है, त्योहार पर घर में खाने या पकवान के लिए पैसे नहीं होते हैं। ऐसे माहौल में उसका बेटा दारा, जिसका चरित्र दाऊद इब्राइम पर आधारित है, बकरीद के मौके पर पहला अपराध करता है और बकरा चोरी करता है। यहां विचार करने योग्य बात ये है कि इस चोरी में भी मजहब को डालना क्यों जरूरी था। बकरीद के मौके पर बेचारे बच्चे को कुर्बानी देनी है, मांस खाना है इसलिए वो चोरी करता है। ऐसी परिस्थिति बना दी गई है कि दर्शकों को उसके अपराध के पीछे उसकी बेचारगी नजर आती है। जैसे जैसे दारा का चरित्र आगे बढ़ता है उसके अपराध को अन्य परिस्थितियों से जोड़ दिया जाता है। जब भी उसका पिता उसको अपराध के बाद किसी प्रकार का नसीहत देना चाहता है तो वो अपने पिता को उसकी बेचारगी और परिवार की बदहाली का ताना देकर अपने कुकर्मों को जस्टिफाई करता है। हाजी मस्तान जब इस्माइल कादरी के घर आता है। बच्चों को तोहफा देकर जाने लगता है तो कादरी विरोध करता है लेकिन उसकी पत्नी बच्चों की भूख का हवाला देकर उसके विरोध को कुंद कर देती है। 

पूरी कहानी इस तरह से बुनी गई है कि दाऊद जैसे अपराधी को लेकर दया का भाव उभरता है। उसको अच्छे बाप का बुरा बेटा दिखाया जाता है। चरित्र भले ही बुरा हो लेकिन बुराई में नायकत्व को उभारा गया है। वो हफ्ता भी वसूलता है तो मस्जिद के मरम्मत के नाम पर। एक बार फिर अपराध को जस्टिफाई करने के लिए मजहब की आड़ ली जाती है। कहीं भी कहानी में कहानीकार या सीरीज में निर्देशक ने उसके नायकत्व को गढ़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। ऐसा नायक जिसके परिवार के पीछे दूसरे गैंगस्टर पड़े हैं, उसके परिवार पर अस्पताल में हमला होता है। परिवार की जान बचाने के लिए एक भाई गोली खाकर जख्मी होता है तो बहन गोली चलाने को मजबूर हो जाती है। यहां ऐसा माहौल बनाया गया है जैसे आत्मरक्षा में हत्या की जा रही हो। अपराधी  मनोरंजन की आड़ में छवि निर्माण की कोशिश या खूंखार छवि को अपेक्षाकृत माइल्ड करने का प्रयास दिखता है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि कैसे वेब सीरीज निर्माताओं, निर्देशकों और कहानीकारों के एजेंडा का संवाहक बनता जा रहा है। वेबसरीज को लेकर जिस भी प्रकार का स्वनियमन हो लेकिन उसका प्रभाव कहीं दिखता नहीं है। फिक्शन की आड़ में कई तरह के खेल होते नजर आते हैं।

बंबई मेरी जान की तुलना में मुंबई डायरीज का दूसरा सीजन बेहतर है। इसमें न्यूज चैनल की एक एंकर को अपने शो की रेटिंग बढ़ाने के लिए शहीद की पत्नी की भावनाओं से खेलते हुए दिखाया गया है। ये घटना काल्पनिक हो सकती है लेकिन पीड़ितों को स्टूडियो में बैठाकर उनके आरोपों को प्रसारित होते तो हमारे देश ने देखा है। जब दिल्ली में निर्भया कांड हुआ तो पीड़ित लड़की के साथ बस में उसका जो दोस्त था उसको टीवी स्टूडियो में बिठाने की होड़ लगी थी। न्यूज चैनलों में जिस प्रकार का मीडिया ट्रायल होता है उसका चित्रण मुंबई डायरीज में है। डाक्टर किन परिस्थितयों में काम कर रहे होते हैं उसको जाने बगैर उनपर आरोपों की बौछार करना। असाधारण परिस्थिति में उनसे सामान्य परिस्थितियों की तरह व्यवहार की अपेक्षा कर दोषी ठहरा देने की प्रवृत्ति पर भी प्रहार किया गया है। लेकिन इस वेब सीरीज में भी यथार्थ चित्रण के नाम पर जिस तरह के दृष्य दिखाए गए हैं वो इस सैक्टर में नियमन या प्रमाणन की आवश्यकता को पुष्ट करते हैं। बाढ में फंसी गर्भवती महिला की स्थिति जब बिगड़ती है तो उसकी शल्यक्रिया का पूरा दृष्य दिखाना जुगुप्साजनक है। कैमरे पर आपरेशन के दौरान पेट को चीरने का दृश्य, खून से लथपथ बच्चे को माता के उदर से बाहर निकालने आदि से बचा जा सकता था। कोई भी संवेदनशील दर्शक ऐसे दृश्यों को नहीं देखना चाहता है। इस तरह के दृश्यों को दिखाकर निर्माता निर्देशक पता नहीं क्या हासिल करना चाहते हैं। 

ओवर द टाप (ओटीटी) पर एक फिल्म आई खुफिया उसमें एक संवाद है, जबतक दुनिया देश और धर्म में बंटी है तब तक खूनखराबा होता रहेगा।इस संवाद में भी एक एजेंडा है जहां परोक्ष रूप से राष्ट्र की अवधारणा का निषेध किया जा रहा है। एक विचारधारा विशेष में वर्षों से देशों की भौगोलिक सीमाओं को खत्म करने की पैरोकारी करता रहा है। उनका मानना है कि इससे युद्ध से लेकर समुदायों के बीच की घृणा समाप्त होगी। यहां तक तो ठीक है लेकिन जब उसको धर्म से जोड़ दिया जाता है तो मंशा स्पष्ट होने लगती है। प्रमाणन के बावजूद इस तरह के संवाद फिल्मों में दिख जाते हैं, पता नहीं क्यों और कैसे। फिल्म ब्रह्मास्त्र में मंदिरों के शहरों की बात होती है तो एक संवाद आता है, इस शहर में हर कोई कुछ न कुछ छुपाने आता है, कोई अपनी परछाईं छुपाता है तो कोई अपने पाप। आखिर धर्म से बड़ा मुखौटा और क्या हो सकता है। यहां जिस तरह से मंदिर, धर्म और मुखौटा का प्रयोग किया गया है उससे निर्माता निर्देशक की मंशा साफ हो जाती है। प्रमाणन वाली फिल्मों में इस तरह के संवाद अपेक्षाकृत कम होते है लेकिन ओटीटी पर प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों में और वेब सीरीज में तो ये आम है। ओटीटी इंडस्ट्री के स्वनियमन का असर नहीं दिख रहा है, सरकार को इस दिशा में कदम उठाना चाहिए। ओटीटी प्लेटफार्म्स को काफी अवसर दिए गए लेकिन वहां की अराजकता जस की तस है।   

  


Saturday, October 21, 2023

हिंदी फिल्मों के अच्छे दिन


हम आपके लिए सितारे लेकर आते हैं और आप उनमें चमक भरते हैं। कुछ दिनों पहले सिनेमा हाल के कारोबार की कंपनी पीवीआऱ आईनाक्स ने अपने विज्ञापन में ये भी बताया कि इस वर्ष जुलाई- सितंबर की तिमाही में उसके सिनेमाघरों में चार करोड़ अस्सी लाख दर्शक पहुंचे। । पीवीआर के पास देशभर के 115 शहरों में 1702 स्क्रीन हैं। इस विज्ञापन को देखकर मस्तिष्क में एक बात कौंधी कि अगर तीन महीने में पीवीआर के मल्टीप्लेक्सों में करीब पांच करोड़ दर्शक फिल्म देखने पहुंचे तो अगर इसमें सिंगल थिएटर और अन्य मल्टीप्लेक्स शृंखलाओं के दर्शकों को जोड़ दिया जाए तो आंकड़े कहीं और ऊपर चले जाएंगे। देशभर में सिंगल थिएटरों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकडों के मुताबिक देशभर में सिंगल थिएटर 10167 हैं। अगर इन आंकड़ों में कमी भी आई होगी तो छह से सात हजार तक सिंगल थिएटर तो देश में हैं हीं। पीवीआर के आंकड़े संकेत कर रहे हैं कि सिनेमा का दर्शक एक बार फिर से सिनेमाघरों की ओर लौट रहा है। पीवीआर के इन आंकड़ों को देखने के बाद सिनेमाप्रेमी होने के कारण मन में संतोष हुआ लेकिन ये जिज्ञासा भी हुई कि देखा जाए कि किन फिल्मों ने ये चमत्कार किया। खिन फिल्मों के कारण जुलाई-सितंबर की तिमाही में बाक्स आफिस पर खुशी का वातावरण देखने को मिल रहा है। 

जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान मुंबई में फिल्मकारों से चर्चा हो रही थी। पटकथा लेखक हैदर रिजवी ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी। उन्होंने बताया था कि अब मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में लोगों के चेहरे खिले हुए हैं। लोगों का विश्वास वापस लौटता दिख रहा है। उस समय ये बात आई गई हो गई। अब सोचता हूं तो ऐसा लगता है कि इस बात में कई संकेत छिपे हुए थे। फिल्मों से जुड़े लोगों का विश्वास वापस लौटना और उनके चेहरे के खिलने का सीधा संबंध सिनेमाघरों में दर्शकों की वापसी और मुनाफा से जुड़ा हुआ है। पिछले दिनों ओरमैक्स मीडिया की सिंतबर की बाक्स आफिस रिपोर्ट आई थी। ओरमैक्स मीडिया हर महीने के तीसरे सप्ताह में पिछले महीने की बाक्स आफिस रिपोर्ट जारी करती है जिसमें फिल्मों के कारोबार की जानकारी होती है। ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट पर फिल्म इंडस्ट्री और उससे जुड़े लोगों का विश्वास है। ऐसा माना और कहा जाता है। सिंतबर की भारत की बाक्स आफिस रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। सितंबर 2023 में प्रदर्शित फिल्मों ने घरेलू बाक्स आफिस पर 1353 करोड़ रुपए का कारोबार किया है। इस वर्ष प्रदर्शित फिल्मों के आंकड़ों पर नजर डालें तो फिल्म के कारोबार की तस्वीर बेहद अच्छी नजर आती है। इस वर्ष अबतक फिल्मों ने 8798 करोड़ रुपए का कारोबार किया है जो पिछले वर्ष से छह प्रतिशत अधिक है। 

दरअसल कोरोना महामारी के दौरान सिनेमाघरों से दर्शक दूर हो गए थे और कई बड़े बजट की फिल्में भी बाक्स आफिस पर अच्छा नहीं कर पाई थीं। इस वर्ष का आरंभ भी काफी अच्छा रहा था। उसके बाद के महीनों में भी प्रदर्शित गदर-2, पठान और जवान ने बाक्स आफिस पर बंपर कमाई की। इन तीनों फिल्मों ने अलग अलग 600 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार किया है। अब भी इनको दर्शक मिल रहे हैं। 66 वर्ष के अभिनेता सनी देओल ने जब लंबे अंतराल के बाद फिल्मों में वापसी की तो गदर 2 में उनका जादू सर चढ़कर बोला। इस फिल्म की सफलता का अनुमान फिल्मों से जुड़े लोग भी नहीं लगा पाए थे। इसी तरह 57 वर्ष के अभिनेता शाह रुख खान को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया। उनकी फिल्म पठान 646 करोड़ रुपए तो फिल्म जवान ने 733 करोड़ रुपए का कारोबार किया। इन अधेड़ उम्र के अभिनेताओं के साथ साथ तमिल फिल्मों के सुपर स्टार 72 वर्षीय के रजनीकांत की फिल्म जेलर ने भी भारत में करीब चार सौ करोड़ रुपए का कारोबार करके ये साबित किया कि दक्षिण भारतीय फिल्मों के बास का जलवा अब भी कायम है। इन सबके बीच एक फिल्म आई ओएमजी-2 । इसमें पंकज त्रिपाठी, यामी गौतम के अलावा अक्षय कुमार भी संक्षिप्त भूमिका में हैं। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से काफी दिक्कतों के बाद पास हुई इस फिल्म ने भी भारत में 200 करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। इस फिल्म के निर्देशक अमित राय की जमकर प्रशंसा हुई। फिल्म से जुड़े लोगों का मानना है कि अगर फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इस फिल्म को वयस्क फिल्म (ए सर्टिफिकेट) की बजाए यूनिवर्सल (यू) प्रमाण पत्र दिया तो इसका कारोबार और भी बेहतर हो सकता था। इस फिल्म ने न केवल अच्छा कारोबार किया बल्कि अक्षय कुमार को लगातार पांच फिल्मों की असफलता के बाद सफलता का स्वाद भी चखाया। तमाम विवादों के बीच भी फिल्म आदिपुरुष ने 331 करोड़ रुपए का और द केरला स्टोरी ने ढाई सौ करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार किया। इन फिल्मों ने दर्शकों को सिनेमाघरों में लौटाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। फिल्मों की इस सफलता में हिंदी फिल्मों की हिस्सेदारी 42 प्रतिशत है जबकि तमिल और तेलुगु फिल्मों की हिस्सेदारी सोलह सत्रह प्रतिशत के करीब है। 

कोरोना महामारी के समय भी और उसके बाद भी फिल्मों को लेकर कई फिल्मी पंडित सशंकित हो गए थे। उनको लगने लगा था कि हिंदी फिल्मों का बाजार खत्म हो गया है। पिछले वर्ष उन्होंने ये भवियवाणी तक कर दी थी कि अब दक्षिण भारतीय फिल्में ही चलेंगी। उस समय भी कार्तिक आर्यन की फिल्म भूल भुलैया-2 ने उम्मीद जगाए रखी थी और ढाई सौ करोड़ रुए से अधिक का कारोबार किया था। अजय देवगन और तब्बू की फिल्म दृश्यम 2 ने और भी अच्छा बिजनेस किया था। उस फिल्म ने बाक्स आफिस पर तीन सौ करोड़ रुपए के करीब अर्जित किया था। इन सभी सफल फिल्मों पर नजर डालें तो इनमें से कई पुरानी फार्मूला वाली फिल्में हैं। जिसमें जबरदस्त एक्शन है, रोमांस है और ऐसे संवाद हैं तो दर्शकों को पसंद आते हैं। लगता है कि दर्शकों को हल्का फुल्का मनोरंजन पसंद आ रहा है। द केरला स्टोरी और ओएमजी 2 में कहानी अलग हटकर है। द केरला स्टोरी और ओएमजी 2 दोनों में यथार्थ बहुत मजबूती के साथ उपस्थित है। अच्छी कहानी और अच्छा मनोरंजन दोनों दर्शकों को पसंद आ रहे हैं। आनेवाले दिनों में सलमान खान की फिल्म टाइगर 3, शाह रुख खान की डंकी और प्रभास की सालार आनेवाली है, जिसको लेकर दर्शकों के बीच उत्सुकता है। अगर इन तीनों फिल्मों ने बहुत अच्छा कारोबार किया तो ये वर्ष भारतीय फिल्मों के लिए बहुत अच्छा वर्ष साबित होगा। फिल्मों के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती है दर्शकों को सिनेमाघरों की तरफ निरंतर आकर्षित करते रहने की। इसके लिए फिल्मों के टिकटों की दरें कम करनी चाहिए। कई बार सिनेमाघर इस तरह के प्रयोग कर भी रहे हैं। जब वहां किसी विशेष दिन टिकटों की दर सौ रुपए के करीब रखा जाता है तो उस दिन दर्शकों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक रहती हैं। सिनेमाघरों में टिकटों के मूल्य के साथ साथ वहां मिलनेवाले खाद्य सामग्रियों और पेयजल के मूल्य पर भी ध्यान देना चाहिए और दर्शकों को उचित मूल्य पर उपलब्ध होना चाहिए। एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति अपने परिवार के साथ फिल्म देखने जाता है तो टिकट और इंटरवल में पापकार्न और चाय काफी के लिए उसे दो हजार रुपए तक खर्च करने पड़ते हैं। ऐसे में वो सोचता है कि एक दो महीने बाद फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म पर आ ही जाएगी, तब देख लेंगे। इस धारणा को कमजोर करना होगा ताकि फिल्मों के प्रति दर्शकों का प्रेम बना रहे।