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Thursday, April 19, 2012

ममता का तुगलकी रवैया

पश्चिम बंगाल की जनता ने बड़ी उम्मीदों से ममता बनर्जी का साथ दिया था और उसी उम्मीद पर सवार होकर ममता ने बंगाल में लेफ्ट पार्टियों का डब्बा गोल कर दिया था । अब तो विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम ने भी ममता बनर्जी को सौ ताकतवर शख्सियतों में शुमार कर लिया है । जनता के विशाल बहुमत मिलने से नेताओं के बेअंदाज होने का जो खतरा होता है ममता बनर्जी उसकी शिकार हो गई । जब से ममता बनर्जी सत्ता में आई हैं उनसे अपनी और अपनी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं हो पा रही है । वह अपने और अपनी नीतियों की आलोचना करनेवालों के खिलाफ लगातार कार्रवाई कर रही हैं । पहले सरकारी सहायता प्राप्त पुस्तकालयों में सिर्फ आठ अखबारों की खरीद को मंजूरी और बाकी सभी अखबारों पर पाबंदी लगा कर अखबरों को यह संदेश देने की कोशिश की गई कि सरकार के खिलाफ लिखना बंद करें । ममता बनर्जी की सरकार पर आरोप यह लगे कि उन अखबारों की सरकारी खरीद पर पाबंदी लगाई गई जो लगातार ममता और उनकी नीतियों के खिलाफ लिख रहे थे । जब देशभर में ममता बनर्जी के इस कदम की जमकर आलोचना हुई तो चंद अखबारों को और खरीद की सूची में जोड़ककर उसे संतुलित करने की कोशिश करने का दिखावा किया गया । पिछले दिनों ममता और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का कार्टून बनाने वाले को जेल की हवा खिलाकर ममता बनर्जी ने अपनी फासीवादी छवि और चमका ली है । जाधवपुर विश्वविद्यालय के विज्ञान के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा पर आरोप है कि उन्होंने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं के कार्टून ईमेल पर सर्कुलेट किए । उन कार्टून में ममता बनर्जी और रेल मंत्री मकुल रॉय के बीच दिनेश त्रिवेदी से निपटने की मंत्रणा है जो कि ममता को नागवार गुजरी । प्रोफेसर महापात्रा पर अन्य धाराओं के अलावा आउटरेजिंग द मॉडेस्टी ऑफ वुमेन लगा दी गई है, जिसमें साल भर की सजा का प्रावधान है। लेकिन ममता बनर्जी पुलिस की कार्रवाई को जायज ठहरा रही है। उनकी पार्टी के नेता कोलकाता पुलिस के कदम को उचित करार दे रहे हैं ।
विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत और बार बार केंद्र सरकार से अपनी बात मनवा लेने से ममता के हौसले सातवें आसमान पर हैं । उन्हें लगता है कि वो बहुत बड़ी नेता हो गई हैं, हो भी गई हैं लेकिन अभी वो बड़े नेता के बड़प्पन को हासिल नहीं कर पाई है । उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़ा नेता वह होता है जिसमें अपनी आलोचनाओं को सुनने और सामना करने का माद्दा होता है । इस संबंध में 1939 का एक वाकया याद आता है । गांधी जी ट्रेन य़ात्रा कर रहे थे, उनके साथ उनके सहयोगी महादेव देसाई भी थे । अचानक महात्मा गांधी के डब्बे में एक युवक आया उसके हाथ में गोंविंद दास कौंसुल की किताब महात्मा गांधी -द ग्रेट रोग(Rogue) ऑफ इंडिया थी । वह युवक उस किताब पर गांधी जी की सम्मति लेना चाहता था । जब वो किताब लेकर गांधी की ओर बढ़ा तो महादेव देसाई ने उसके हाथ से किताब झटक ली और उसका शीर्षक देखकर वो उसे फेंकने ही वाले थे कि इतने में गांधीजी की नजर उस पर पड़ गई । उन्होंने महादेव देसाई से लेकर वह किताब देखी और उस युवक को अपने पास बुलाकर उससे उसकी इच्छा पूछी । युवक जिसका नाम रणजीत था उसने पुस्तक लेखक का पत्र देकर गांधी जी से उस किताब पर उनकी राय पूछी । बगैर क्रोधित हुए गांधी ने किताब को उलटा पलटा और फिर उस पर लिखा- मैंने किताब को उलटा पुलटा और इस नतीजे पर पहुंचा कि शीर्षक से मुझे कोई आपत्ति नहीं है । लेखक जो भी उचित समझे उसे लिखने की छूट होनी चाहिए । ये गांधी थे जो अपनी आलोतना से जरा भी नहीं विचलित होते थे और आलोचना करने वाले को भी अभिवयक्ति की छूट देते थे ।
लेकिन गांधी के ही देश में आज एक नेता का कार्टून बनाने पर एक प्रोफेसर को जेल की हवा खानी पड़ती है । लगता है कि ममता बनर्जी कार्टून के माध्यम को दरअसल समझ नहीं पाई, उनके कदमों से ऐसा ही प्रतीत होता है । दरअसल कार्टूनिस्ट उन्हीं राजनेताओं के कार्टून बनाते हैं जिनकी शख्सियत में कुछ खास बात होती है । आम राजनेताओं के कार्टून कम ही बनते हैं । पूर् विश्व में कार्टून एक ऐसा माध्यम है जिसके सहारे कभी कभी तो पूरी व्यवस्था पर तल्ख टिप्पणी की जाती है जो लोगों को गुदगुदाते हुए अपनी बात कहती है और बहुधा किसी राजनेता या समाज के अहम लोगों के क्रियाकलापों को परखते हैं । आज ममता बनर्जी जैसी नेत्री कार्टून जैसे माध्यम की भावना को समझे बगैर कलाकार को जेल भिजवाने जैसा काम कर रही है उससे उनका कद राजनीति में छोटा ही हो रहा है । किसी प्रोफेसर को झुग्गी झोपड़ी वालों का समर्थन करने पर जेल जाना पड़ता है। उनकी पार्टी के नेता अपेन विरोधियों के साथ वयक्तिगत संबंध नहीं बनाने की वकालत करते हैं । उनकी पार्टी के सांसद खुलेआम यह ऐलान करते हैं कि संसद के सेंट्रल हॉल में वो लेफ् के नेताओं के साथ नहीं बैठ सकते । इस तरह की राजनीतिक छुआछूत का माहौल इस देश में पहले कभी नहीं बना था । यह सही है कि लेफ्ट के शासन काल में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर जमकर अत्याचार हुए । टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन का आरोप है कि लेफ्ट के इशारे पर तृणमूल के कई कार्यकर्ताओं की हत्या भी की गई। लेकिन इन तमाम बातों को आदार बनाकर जिस तरह से ममता विरोधियों की आवाज दबाने का प्रयास किया जा रहा है वह घोर निंदनीय है । ममता बनर्जी को याद होगा कि जब वो लेफ्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ रही थी तो उस वक्त बंगाल के बुद्धिजीवियों ने उनका खुलकर साथ दिया था । अब वही बुद्धिजीवी ममता के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं । बंगाल में अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए सड़क पर उतरे लोगों के साथ भी पुलिस ने बदतमीजी की लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अब वक्त आ गया है कि ममता बनर्जी को भारतीय राजनीति में अपनी गंभीर छवि के बारे में शिद्दत से सोचना चाहिए नहीं तो उनके लिए इतिहास के अंधेरे में गुम होने का खतरा पैदा हो जाएगा । क्योंकि वो किसी पार्टी की मुख्मंत्री नहीं बल्कि पूरे बंगाल की सीएम हैं । लेफ्ट को भी बंगाल ने कई बार भारी बहमनुत से जिताया था लेकिन जब सूबे की आवाम को लगा कि जिसको वो शासन की बागडोर सौंप रहे हैं उस पार्टी में और उस पार्टी के नेताओं में शासन में आने के बाद तटस्थता नहीं रहती है तो उसे भी उखाड़ फेंका । लेफ्ट ने भी वोट बैंक की खातिर तसलीमा नसरीन को बंगाल से निकालने की गलती की थी । जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा । अब ममता भी वही गलती दोहरा रही हैं । क्या इतिहास से वो कोई सबक नहीं लेना चाहती ।

Monday, April 16, 2012

भ्रम, भटकाव और भाजपा

चंद दिनों पहले ही देश के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने अपने नए अवतार के बत्तीस साल पूरे किए । बत्तीस साल एक ऐसी उम्र होती है जहां से किसी संगठन की एक साफ छवि उभर कर सामने आ जाती है । तीन दशक से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती यह खड़ी हो गई है कि वो जनता के सामने साबित करे कि उसमें कांग्रेस का विकल्प देने का दम है । यह बात सौ फीसदी सही है कि अब देश में गठबंधन की सरकारों का दौर है और आगे भी यह जारी रहेगा । लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सत्तारूढ गठबंधन के विकल्प के तौर पर भारतीय जनता पार्टी को ना केवल लीड लेनी होगी बल्कि जनता को यह भरोसा भी देना होगा कि उसेक नेतृत्व में वह एक बेहतर राजनैतिक विकल्प दे सकती है । पार्टी की स्थापना के बत्तीस साल बाद भी अगर वर्तमान पार्टी अध्यक्ष अपने अगले कार्यकाल को लेकर निश्चिंत नहीं हो तो यह पार्टी के अंदर सबकुछ ठीक नहीं होने का संकेत मात्र है । उसके पहले भी जिस तरह से पार्टी के कुछ सांसदों ने ही छत्तीसगढ़ की अपनी ही रमन सिंह सरकार पर कोल ब्लॉक में आवंटन की गड़बड़ियों को लेकर हमले किए उससे भी यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी के अनुशासन में कमी आई है । जिस तरह से कर्नाटक में येदुरप्पा ने खुद को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए लगभग बगावत कर दी थी वह भी यह साबित करते है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है । भारतीय जनता पार्टी हमेशा से पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करती रही है, अपने चाल चरित्र और चेहरे की दुहाई भी देती रही है, लेकिन गाहे बगाहे उनके चाल चरित्र और चेहरे पर प्रश्न उठते है। चाहे वो बंगारू लक्ष्मण का पार्टी अध्यक्ष रहते कैमरे पर घूस लेना हो, या फिर पार्टी सांसद दिलीप सिंह जूदेव का पैसे लेकर यह गर्वोक्ति कि - पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं हो , या फिर पार्टी विधायकों का विधान सभा के अंदर अश्लील फिल्में देखने का मामला हो । यह सब वो प्रसंग हैं जिनको लेकर पार्टी की बदनामी हुई  ।

भारतीय जनता पार्टी के लिए जो इस वक्त बेहद चिंता की बात है वह यह कि पार्टी में जो भी राजनैतिक फैसले हो रहे हैं वो विवादित हो जा रहे हैं । पार्टी के फैसलों के खिलाफ पार्टी के ही वरिष्ठ नेता खड़े हो जा रहे हैं और पार्टी फोरम से लेकर मीडिया तक में खुलकर आलाकमान के फैसलों पर रोष जता रहे हैं । ताजा मामला रक्षा मंत्रालय और सेनाध्यक्ष के विवाद के बीच का है । सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह की चिट्टी लीक होने के मामले में पार्टी नेताओं के अलग अलग सुर रहे । सुबह बीजेपी नेताओं का स्टैंड अलग था, संसद में अलग और शाम होते होते वह भी बदल जाता है । इससे लोगों के मन में भ्रम पैदा होता है पार्टी और उसके नेताओं को लेकर । इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि पार्टी को लेकर लोगों के मन में निर्णायक छवि नहीं बन पाएगी । दूसरा बड़ा मामला रहा झारखंड राज्यसभा चुनाव में पार्टी के विधायकों की भूमिका को लेकर । किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के लिए ऐसी स्थिति क्यों बनती है कि वो यह फैसला ले कि उनकी पार्टी के विधायक राज्यसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें । हलांकि झारखंड में सत्ता में बने रहने की मजबूरी ने उसे इस निर्णय को बदलने को मजबूर कर दिया । राज्यसभा के लिए टिकटों के बंटवारो को लेकर भी पार्टी अध्यक्ष नितिन गड़करी की आलोचना हुई । झारखंड में एक धनकुबेर को पार्टी के समर्थन को लेकर संसदीय दल में यशवंत सिन्हा ने इतना हल्ला मचाया कि आडवाणी को यह कहकर उनको शांत करना पड़ा कि वो अध्यक्ष से इस संबंध में बात करेंगे । बाद में पार्टी ने उनको समर्थन देने के अपने फैसले को भी बदला ।

इसके पहले के फैसलों पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं । विवाद होता रहा है । उत्तर प्रदेश चुनाव के वक्त बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों की गड़बड़ियों के आरोपी रहे बाबू सिंह कुशवाहा को बीजेपी में शामिल करने के अध्यक्ष के फैसलों पर आडवाणी और सुषमा समेत कई नेताओं ने विरोध जताया था लेकिन गड़करी ने किसी की एक नहीं सुनी । नतीजा सबके सामने है । दरअसल बीजेपी में नेताओं के अलग अलग बयान इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि पार्टी में भ्रम के हालात हैं । माना यह जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरदहस्त पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को हासिल है जिसकी वजह से वो पार्टी के आला नेताओं को दरकिनार कर मनमाने फैसले लेते हैं । पहले तो उनके इस मनमाने फैसले पर सवाल नहीं उठते थे लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के बाद गडकरी के फैसलों पर सवाल खड़े होने लगे हैं । 

सत्ता हासिल करने के लिए सिद्धांतों की जो तिलांजलि पार्टी ने दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में जता दी थी । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता । गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी । 
यूपीए सरकार पर जिस तरह से अएक के बाद एक घोटलों के आरोप लग रहे हैं , जिस तरह से यूपीए पर बैड गवर्नेंस के इल्जाम लग रहे हैं उसने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को निश्चिंत कर दिया है कि दो हजार चौदह में पार्टी केंद्र में सरकार बनाएगी । इसी निश्चिंतता में पार्टी के आला नेता जनता के पास जाने के बजाए दिल्ली में ट्विटर पर राजनीति कर रहे हैं । उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस से उब चुकी जनता उनके हाथ में सहर्ष सत्ता सौंप देगी । लेकिन यहां पार्टी के आला नेता यह भूल जाते हैं कि इस देश की जनता में जबतक आप संघर्ष करते नहीं दिखेंगे तबतक उनका भरोसा कायम नहीं होगा । भारतीय जनता पार्टी ने पिछले सालों में कोई बड़ा राजनैतिक आंदोलन खडा़ नहीं किया जबकि यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगे । वी पी सिंह ने बोफेर्स सौदे में 64 करोड़ की दलाली पर इतना बड़ा आंदोलन खडा़ कर दिया था कि देश की सत्ता बदल गई थी । दरअसल भारतीय जनता पार्टी के इतिहास से न तो सबक लेना चाहती है और न ही इतिहास में हुई गलतियों को दुहराने से परहेज कर रही है । नतीजा पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में भ्रम की स्थिति है जो पार्टी के लिए अच्छी स्थिति नहीं है । अगर इस भ्रम और भटकाव को नहीं रोका गया तो दिल्ली दूर ही रहेगी ।

Thursday, April 12, 2012

स्त्री विमर्श की बदमाश कंपनी

हिंदी में स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । हिंदी साहित्य में माना जाता है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस में स्त्री विमर्श की गंभीर शुरुआत की थी। दरअसल स्त्री विमर्श पश्चिमी देशों से आयातित एक कांसेप्ट है जिसको राजेन्द्र यादव ने भारत में झटक लिया और खूब शोर शराबा मचाकर स्त्री विमर्श के सबसे बड़े पैरोकार के तौर पर अपने आपको स्थापित कर लिया । हंस का मंच था ही उनके पास । इंगलैंड और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में फेमिनिस्ट मूवमेंट से इसकी शुरुआत हुई । दरअसल यह आंदोलन लैंगिंक समानता के साथ साथ समाज में बराबरी के हक की लड़ाई थी जो बाद में राजनीति से होती हुए साहित्य कला और संस्कृति तक आ पहुंची । फिर तो साहित्य में एक के बाद एक महिला लेखकों की कृतियों की ओर आलोचकों का ध्यान गया और एक नई दृष्टि से उनका मूल्यांकन शुरू हुआ । बाद में यह आंदोलन विश्व के कई देशों से होता हुआ भारत तक पहुंचा ।
भारत में खासतौर पर हिंदी में जब इसकी शुरुआत हुई तो इसमें कमोबेश लैंगिक समानता का मुद्दा ही केंद्र में रहा और सारे बहस मुहाबिसे उसके इर्द गिर्द ही चलते रहे । राजेन्द्र यादव के पास उनकी अपनी पत्रिका हंस थी और उन्होंने उसमें स्त्री की देह मुक्ति से संबंधित कई लेख और कहानियां छापी और हिंदी साहित्य में नब्बे के अंतिम दशक और उसके बाद के सालों में एक समय तो ऐसा लगने लगा कि स्त्री विमर्श विषयक कहानियां ही हिंदी के केंद्र में आ गई हों । यूरोपीय देशों से आयातित इस अवधारणा का जब देसीकरण हुआ तो हमारे यहां कई ऐसी महिला लेखिकाएं सामने आई जो अपनी रचनाओं में उनकी नायिकाएं देह से मुक्ति के लिए छटपटाती नजर आने लगी । उपन्यास हो या कहानी वहां देह मुक्ति का ऐसा नशा उनके पात्रों पर चढ़ा कि वो घर परिवार समाज सब से विद्रोह करती और पुरानी सामाजिक परंपराओं को छिन्न भिन्न करती दिखने की कोशिश करने लगी । साहित्यिक लेखन तक तो यह सब ठीक था लेकिन जब तोड़फोड़ और देह से मुक्त होने की छटपटाहट कई स्त्री लेखिकाओं ने अपनी जिंदगी में आत्मसात करने की कोशिश की तो लगा कि सामाजिक ताना बाना ही चकनाचूर हो जाएगा । कई स्त्री लेखिकाएं तो डंके की चोट पर यह कहने लगी की यह हमारी देह है हम जब चाहें जैसे चाहें जिसके साथ चाहें उसका इस्तेमाल करें । हम क्यों पति नाम के एक खूंटे से बंधकर अपनी जिंदगी तबाह कर दें । परिवार नाम की संस्था के अंदर की गुलामी उन्हें मंजूर नहीं थी और वो बोहेमियन जिंदगी जीने के सपने देखने लगी । मर्दों की बराबरी में वो यह तर्क देती नजर आने लगी कि अगर मर्द कई स्त्रियों से संबंध बना सकता है तो स्त्रियां कई मर्दों से संबंध क्यों नहीं बना सकती हैं । कई स्त्री लेखिकाएं अपने भाषण में पुरुषों के खिलाफ आग उगलने लगी । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्त्री विमर्श के नाम पर न्यूनतम मर्यादाओं का भी पालन नहीं हो सका और मान्यताओं और परंपराओं पर प्रहार करने की जिद ने लेखन को बदतमीज और अश्लील लेखन में तब्दील कर दिया । हिंदी में ऐसे उपन्यासों और कहानियों की बाढ़ आ गई जिसमें रचनात्मकता कम और सेक्सुअल अनुभव ज्यादा आने लगे । सेक्सुअल अनुभव के नाम पर जुगुप्साजनक अश्लीलता परोसी जाने लगी । पाठकों को भी इस तरह के लेखन में फौरी आनंद आने लगा और कुछ कहानियां और उपन्यास अपने सेक्स प्रसंगों की वजह से चर्चित भी हुई । हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने भी मौके का फायदा उठाया और लगे हाथों अपना विवादित लेख होना सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ लिख कर उसे वर्तमान साहित्य में प्रकाशित करवा लिया । उनकी विवादित और सेक्स प्रसंगों से भरपूर कहानी हासिल भी उसी दौर में प्रकाशित हुई । हासिल में मौजूद लंबे लंबे सेक्स प्रसंगों की तो होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ की भाषा को लेकर उस वक्त हिंदी में अच्छा खासा बवाल मचा । जब इस तरह की रचनाएं चर्चित होने लगी तो कई लेखिकाओं को सेक्स प्रसंगों को सार्वजनिक करके अपनी रचनाओं को सफल करवाने का आसान नुस्खा मिल गया और वो यूरेका यूरेका चिल्लाने लगी । उनकी यूरेका में सेक्स प्रसंगों की भरमार थी । उस दौर की कई कहानियों और उपन्यासों में भी जबरदस्ती ठूसे सेक्स प्रसंगों को देखा जा सकता है, जो फौरी तौर पर तो लोकप्रिय हुआ लेकिन उसके बाद उन रचनाओं का और उन लेखिकाओं का कहीं अता पता नहीं चल पाया । अमेरिका और इंगलैंड में भी स्त्री लेखन के नाम पर सेक्स परोसा गया है लेकिन हिंदी में जिस तरह से वो कई बार भौंडे और जुगुप्सा जनक रूप में छपा वो स्त्री विमर्श के नाम पर कलंक है । राजेन्द्र यादव के लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए एक उभरती हुई लेखिका, जिसके बारे में कहा जाता है कि वो एके 47 लेकर लेखन करती हैं , ने लिखा- दरअसल तो ये सारे विचार एक अकेले राजेन्द्र यादव के नहीं बल्कि उस पूरी जमात के हैं जो अपने आठ इंची अंग की ऐंठ में औरतों को कुचलती दबोचती और उनपर चढ़ चढ़ बैठती है । इस तरह की भाषा में स्त्री मुक्ति का अंहकारी दौर शुरू हुआ । स्त्री विमर्श के नाम पर दरअसल पुरुष विरोध का लेखन शुरू हो गया । जिसमें वही लेखिका श्रेष्ठ विमर्श करनेवाली मानी जाने लगी जो सबसे अपमानजनक और बदतमीज भाषा में पुरुषों को गाली देते हुए अपनी बात कह सकें । गाली गलौच का यह दौर लगभग सात आठ साल तक निर्बाध गति से चलता रहा । अब भी कई लेखिकाओं को लगता है कि सभी पुरुष उनको दबोचने और उनपर चढ़ बैठने के ललक पाले ही घूमते रहते हैं । लेकिन ऐसा है नहीं । उनकी गलतफहमी का इलाज नहीं है लेकिन जिस तरह से हिंदी साहित्य के पाठकों ने एक के बाद एक उस तरह की लेखिकाओं को हाशिए पर डाल दिया उससे यह साबित होता है कि देह मुक्ति के नाम पर , स्त्री विमर्श के नाम पर, स्त्रियों को पुरुषों की गुलामी से मुक्त कराने का नारा देनेवाला जो लेखन था उसमें तार्किकता की कमी थी । भारत में हमेशा से स्त्रियों को समाज में बहुत उंचा दर्जा दिया गया है । हमारे यहां पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों पर जोर जुल्म और अत्याचार भी किए गए लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सभी पुरुषों को लाइन में खड़े कर गोली मार देनी चाहिए ।
स्त्री विमर्श के नाम पर इस तरह की लेखिकाओं की पौध को राजेन्द्र यादव का ना केवल प्रश्रय और प्रोत्साहन मिला बल्कि उस तरह की बदतमीज लेखन को यादव जी ने वैधता प्रदान करने की भी भरसक कोशिश की । हंस का मंच उनके पास था ही लेकिन कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है । वही हुआ और स्त्री विमर्श की जो यह बदमाश कंपनी थी उसका लेखन एक बार तो पाठकों को शॉक दे पाया लेकिन पाठकों ने कई कई बार छप रहे उस तरह के लेखन को सिरे से खारिज कर दिया । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में जो स्त्री विमर्श की आंधी चल रही या चलाई जा रही थी वो थम सी गई और उसका जो गर्द ओ गुबार था वह भी कहां गुम हो गया पता ही नहीं चल पाया । अब एक बार फिर से हिंदी में कुछ नई लेखिकाएं आई हैं जो स्त्री विमर्श के नाम पर गंभीरता से लेखन कर रही हैं और अपनी कृतियों के बूते पर स्त्री की आजादी की जोरदार वकालत भी कर रही है । वहां स्त्रियों का दर्द है, उनकी जेनुइन समस्याएं हैं, उनको दूर करने और सामने लाने की छटपटाहट है । यह हिंदी के लिए सुखद संकेत है । सुथद यह भी है कि स्त्री विमर्श के नाम पर जो पुरुष विरोध की चाल चली गई थी जिसके झांसे में लेखिकाएं आ गई थी वो भी उससे मुक्त होकर अब उस दायरे से बाहर निकल कर लिख रही हैं ।

Friday, April 6, 2012

नहीं बदला मानदेय का अर्थशास्त्र

बात नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की है । उस वक्त मैं अपने शहर जमालपुर से दिल्ली आया था । अखबारों में लिखना पढ़ना तो अपने शहर से ही शुरू कर चुका था । लिहाजा दिल्ली आने के बाद जब बोरिया बिस्तर लगा और पढ़ाई शुरू हुई तो उसके साथ साथ अखबारों के दफ्तर में इस उम्मीद में चक्कर काटने लगा कि कोई असाइनमेंट मिले ताकि घर से मिलनेवाले पैसे के अलावा कुछ और पैसों का इंतजाम हो सके । दिल्ली विश्वविद्यालय के पास के मुहल्ले विजयनगर में रहता था और वहां से सौ नंबर की बस पकड़कर कनॉट प्लेस पहुंचता था जहां हिंदुस्तान और इंडिया टुडे के दफ्तर थे । उसके अलावा रफी मार्ग स्थित इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की बिल्डिंग में, जहां कई अखबारों के दफ्तर थे, जाकर कुछ काम लेता था । छात्र जीवन के दौरान फ्रीलांसिंग से जितने भी पैसे मिल जाते थे वो बोनस होते थे । उसी वक्त देश की शीर्ष पाक्षिक पत्रिका में दो किताबों पर एक समीक्षा लिखने का अवसर मिला । अगर मेरी स्मृति साथ दे रही है तो ये साल उन्नीस सौ तिरानवे की बात है – मेरी लिखी समीक्षा उक्त पाक्षिक पत्रिका में छपी पूरे एक पन्ने में । बेहद खुशी हुई । दिल्ली आने के बाद पहली बार किसी राष्ट्रीय पत्रिका में पूरे पन्ने पर जगह मिली, अखबारों में तो लेख वगैरह छप ही रहे थे । दो महीने बीतने के बाद एक लिफाफे में उक्त समीक्षा का मेहनताना आया, लिफाफा खोला तो उसमें एक हजार रुपए का चेक था । खुशी दुगनी हो गई । उस वक्त हजार रुपए बहुत हुआ करते थे । बाद में तो यह सिलसिला चल निकला और अखबारों और पत्रिकाओं में लिखकर चेक आने की प्रतीक्षा करने लगा । हम तीन लोग एक फ्लैट में रहते थे । साथ रह रहे दोस्तों को भी मेरी डाक में आनेवाले चेक का अंदाजा हो गया था और वो भी अखबार पत्रिकाओं के लिफाफे का इंतजार करने लगे थे । क्योंकि जिस दिन लिफाफा आता था उस दिन जश्न तय होता था । किंग्सवे कैंप के सम्राट या विक्रांत होटल में जाकर खाना खाना ।
अभी हाल में तकरीबन दो साल पहले उक्त पत्रिका में फिर से मेरे द्वारा लिखी गई एक पन्ने की समीक्षा छपी । दो महीने बाद फिर से चेक आया लेकिन राशि वही एक हजार रुपए । अचानक से मेरे दिमाग में एक बात कौंधी कि डेढ़ दशक बाद भी एक पृष्ठ समीक्षा लिखने के उतने ही पैसे, कोई बदलाव नहीं । फिर मैंने सोचना शुरू किया और अखबारों और पत्र पत्रिकाओं से लेखकों को मिलने वाले मानदेय सा मेहनताना पर विचार किया तो लगा कि तकरीबन पंद्रह साल बाद भी लेखकों को कोई इंक्रीमेंट नहीं मिला है । मानदेय कमोबेश वही है जो दस-बारह साल पहले थे। इस बीच अखबारों और पत्रिकाओं के मूल्य और उनमें छपनेवाले विज्ञापनों की दरें कई कई गुना बढ़ गई लेकिन लेखकों को मिलने वाले मानदेय में कोई इजाफा नहीं हुआ । दरअसल फ्रीलांसरों के बारे में किसी ने सोचने की जहमत ही नहीं उठाई, लगा ये तो जरूरतमंद है जितने पैसे दोगे उतने में ही काम करेगा । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्वतंत्र लेखन करनेवालों को जरूरतमंद मान लिया गया। हिंदी के लेखकों को अखबारों या पत्रिकाओं में लेख लिखने के एवज में जो पैसे मिलते हैं वह बहुत ही कम और लेखकों की प्रतिष्ठा के अनुरूप को कतई नहीं है । अब तो कई अखबारों में कम से कम लेखों का हिसाब रहने लगा है नहीं तो कुछ दिनों पहले तक तो हालत यह थी कि संपादकीय विभाग या लेखा विभाग में बैठा बाबू जितने की पेमेंट लगा दे उस से ही लेखकों को संतोष करना पड़ता था । अब भी कई अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में हजार शब्दों के एक लेख के लिए लेखकों को पांच सौ से लेकर सात सौ रुपए तक ही दिए जा रहे हैं । लेकिन लेखक लिख रहे हैं और खुशी-खुशी लिख रहे हैं । हिंदी में ना कहने की प्रवृत्ति या यों कहें कि साहस नहीं है उन्हें लगता है कि अगरर मना किया तो ये पांच सौ रुपये भी मिलने बंद हो जाएंगे ।
इस पूरे वाकए को बताने के पीछे मेरा मकसद उस सवाल से टकराने का है जो बार बार मेरे जेहन में कौंध रहे हैं । सवाल यह कि क्या हिंदी का लेखक सिर्फ लिखकर अपना जीवनयापन कर सकता है । अगर हम यह मान भी लें कि किसी लेखक का हर दिन कोई न कोई लेख किसी अखबार में छपता है, हलांकि यह मुमकिन है नहीं, फिर भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है । लेख के पारिश्रमिक को अगर हम बहुत उपर भी रखें और प्रति लेख पंद्रह सौ रुपए मानें तब भी महीने के पैंतालीस हजार होते हैं। क्या महानगर में सिर्फ पैंतालीस हजार के बूते पर जीवन चल सकता है । अभी के जो हालात हैं उसमें तो लगता है कि हिंदी का पूर्णकालिक लेखक अपने लेखन के बूते सरवाइव कर ही नहीं सकता है । इसका अगला सवाल यह उठता है कि क्यों कर हिंदी की हालत ऐसी है जबकि हिंदी का बाजार और उसमें देशी-विदेशी निवेश लगातार बढ़ता जा रहा है । इसके पीछे की अगर हम वजह ढूंढ़ते हैं तो वहां तस्वीर बेहद धुंधली सी नजर आती है । हिंदी के बढ़ते बाजार के बावजूद लेखकों को उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाने का कारण सिर्फ वह मानसिकता है जो यह सिखाता है कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों को ज्यादा पैसा क्यों दिया जाए , ये तो जरूरतमंद लोग हैं जितना दिया जाएगा याचक की तरह ले लेंगे और अहसान भी मानेंगे ।
अब अगर हम हिंदी की तुलना में अंग्रेजी की बात करें तो वहां के पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को मिलनेवाले पैसे हिंदी की तुलना में कहीं ज्यादा है और भुगतान भी व्यवस्थित है । अंग्रेजी अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख छपने के बाद कम से कम पांच हजार रुपये मिलते हैं और अगर आप सेलेब्रिटी राइटर हैं तो पारिश्रमिक की सीमा लेखक खुद तय करता या करती है । विदेशी अखबारों से मिलनेवाला पैसा तो और भी ज्यादा होता है । हिंदी की तुलना में अंग्रेजी के अखबार कम बिकते हैं लेकिन फिर भी लेखकों को मानदेय वहां ज्यादा है । दरअसल हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के कर्ता-धर्ता अब भी औपनिवेशिक ग्रंथि से मुक्त नहीं पाए हैं और अंग्रेजी उनके लिए अब भी मालिकों की भाषा है । लिहाजा अगर अंग्रेजी में लेखकों को ज्यादा पैसे मिलते हैं तो यह कहकर अपने कम देने को जायज ठहराते हैं कि वो अंग्रेजी है वहां आय ज्यादा है । लेकिन उस वक्त वो यह भूल जाते हैं कि हिंदी में पिछले दस सालों में हर अखबार के दर्जनों एडिशन शुरू हुए । प्रसार संख्या और विज्ञापनों में कई गुना इजाफा हुआ लेकिन नहीं बढ़ा तो सिर्फ लेखकों का मानदेय ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी पत्र पत्रिकाओं को चलानेवाले लोग या फिर संपादक एक बार अपने लेखकों को दिए जानेवाले मानदेय पर एक नजर डालें और उसमें समय के साथ सुधार करें । इससे लेखकों का तो भला होगा ही खुद हिंदी भाषा के साथ जुड़ने की लोगों की ललक भी बढ़ेगी । मैं एक किस्सा कई बार सुनाता हूं कि एक संपादक ने एक लेखक को एक पुस्तक समीक्षा के लिए अनुरोध पत्र भेजा और उनसे पूछा कि क्या पुस्तक उनको भेज दी जाए । लेखक महोदय ने उत्तर दिया- समीक्षा के लिए पुस्तक भेज दें, उक्त किताब पर लिखकर खुशी होगी लेकिन अगर पुस्तक के साथ मानदेय का चेक भी हो तो समीक्षा हुलसकर लिखूंगा । यह किस्सा बहुत कुछ कह देता है । आमीन ।

Saturday, March 31, 2012

काटजू का जादुई यथार्थवाद

पिछले दिनों दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकाररों और संपादकों का जमावड़ा हुआ था – मौका था पत्रकार शैलेश और डॉ ब्रजमोहन की वाणी प्रकाशन से प्रकाशित किताब स्मार्ट रिपोर्टर के विमोचन का । किताब का औपचारिक विमोचन प्रेस परिषद के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व विद्वान न्यायाधीश जस्टिस मार्केंडेय काटजू के साथ साथ एन के सिंह, आशुतोष, कमर वहीद नकवी, शशि शेखर ने किया । विमोचन के बाद वक्ताओं ने बोलना शुरू किया । जस्टिस काटजू की बगल में बैठे ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव एन के सिंह ने सारगर्भित भाषण दिया और पत्रकारों को पेशेगत जरूरी औजारों से लैस रहने की वकालत भी की । उसके बाद आईबीएन7 के प्रबंध संपादक आशुतोष ने ओजपूर्ण तरीके से अपनी बात रखी और कहा कि एक पत्रकार को अपने पेशे के हिसाब से जरूरी जानकारी रहनी चाहिए लेकिन उन्होंने ये कहा कि यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि उसे हर विषय का विद्वान होना चाहिए । इसके अलावा आशुतोष ने वाटरगेट कांड का उदाहरण देते हुए कहा कि एक पत्रकार को छोटी से छोटी घटना को मामूली कहकर खारिज नहीं करना चाहिए । आशुतोष ने कहा कि एक पत्रकार की सबसे बड़ी भूमिका यह होती है कि वो जो देखे उसको दिखाए । आशुतोष के बाद आजतक के न्यूज डारेक्टर कमर वहीद नकवी ने एक बेहद दिलचस्प वाकया बयां किया । उन्होंने बताया कि एक दिन उनके चैनल पर खबर चली कि अमुक जगह पर पारा साठ डिग्री के पार हो गया । जब खबर चली को उन्होंने पूछताछ शुरू कि खबर कहां से आई और कैसे चली । काफी छानबीन के बाद पता चला कि उस इलाके के एक स्ट्रिंगर ने खबर भेजी और उसमें एक सिपाही की बाइट लगी हुई थी कि इस बार गर्मी काफी बढ़ गई है और लगता है पारा साठ डिग्री के पार हो गया है । नकवी जी ने बताया कि उन्हें इस बात की हैरानी हुई कि कहीं भी किसी भी स्तर पर यह चेक करने की कोशिश नहीं की गई कि पारा साठ डिग्री तक पहुंच गया । यह बात कौन कह रहा है । नकवी जी ने इस वाकए के हवाले से पत्रकारिता में तथ्यों की जांच करने की कम होती प्रवृत्ति की ओर ध्यान दिलाया और खबरों को चेक करने की जोरदार वकालत की । उसके बाद हिंदुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर ने भी एक रिपोर्टर और संपादक की खबरों को फिल्टर की करने की क्षमता विकसित करने पर जोर दिया । उन्होंने बताया कि जब वो आजतक में काम करते थे उस दौरान संसद में गोलीबारी की खबर आई । उस वक्त वो लोग एक मीटिंग में थे और जब यह खबर आई तो मीटिंग से प्रोडक्शन कंट्रोल रूम तक दौड़ते हुए आशुतोष ने यही कहा था कि संसद में गोलीबारी हुई है बस इतनी सी खबर चलाओ । शशिशेखर ने इस वाकये के हवाले से कठिन से कठिन परिस्थिति में भी खबरों को पेश करने में संतुलन को कायम रखने का मुद्दा उठाया ।
इसके बाद बारी थी प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस काटजू की । काटजू ने पहले तो शैलेश-ब्रजमोहन की किताब की जमकर तारीफ की और उसको पत्रकारिता के कोर्स में लगाने की वकालत भी । थोड़ी देर बाद काटजू अपने पुराने फॉर्म में लौटे और वहां मौजूद तमाम संपादकों के सामने मीडिया को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसका उपदेश देने लगे । तकरीबन सभी हिंदी न्यज चौनलों के संपादकों की उपस्थिति से काटजू साहब कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो गए । बोलते बोलते वो कुछ ज्यादा ही आगे चले गए और सचिन तेंदुलकर और देवानंद के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कर डाली । देवानंद की मौत की खबर को न्यूज चैनलों पर प्रमुखता से प्रसारित करने पर काटजू ने मीडिया पर तीखा हमला बोला । उनके कहने का लब्बोलुआब यह था कि देवानंद मर गए तो कोई आफत नहीं आ गई जो सारे न्यूज चैनल दिनभर उस खबर पर लगे रहे । उसके पहले भी उन्होंने वहां मौजूद संपादकों को चुभनेवाली बातें कही थी लेकिन पद की गरिमा और कार्यक्रम की मर्यादा का ध्यान रखते हुए तमाम संपादक और पत्रकार चुप रहे थे । जब देवानंद के बारे में उन्होंने हल्की टिप्पणी की तो आशुतोष ने उनके भाषण को बीच में रोककर जोरदार प्रतिवाद दर्ज कराया । आशुतोष ने कहा कि देवानंद एक महान कलाकार थे और उनके बारे में इस तरह की हल्की टिप्पणी नहीं की जा सकती है । उसके बाद थोड़ा सा हो हल्ला मचा लेकिन फिर मामला शांत पर गया । लेकिन संपादकों के विरोध से काटजू और ज्यादा आक्रामक हो गए । उन्होंने सचिन तेंदुलकर के सौवें शतक की खबर को बिना रुके न्यूज चैनलों पर दिखाए जाने पर भी गंभीर आपत्ति दर्ज कराई । वहां भी उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि सचिन के शतक से ऐसा लगा कि देश में दूध की नदियां बह जाएंगी, खुशहाली आ जाएगी आदि आदि । जस्टिस काटजू विद्वान न्यायाधीश रहे हैं, काफी पढ़े लिखे माने जाते हैं लेकिन वो यह कैसे भूल गए कि भारतीय परंपरा में मृत लोगों के बारे में अपमानजनक बातें नहीं कही जाती हैं । देवानंद हमारे देश के एक महान कलाकार थे और उनकी कला को काटजू के प्रमाण पत्र की जरूरत भी नहीं है । लेकिन जिस तरह से उन्होंने देवानंद पर टिप्पणी की वह उनकी सामंती मानसिकता को दर्शाता है जिसमें फिल्मों में काम करनेवाला महज नाचने गाने वाला होता है । काटजू को देवानंद पर दिए गए अपने बयान पर देश से माफी मांगनी चाहिए ।
काटजू ने मीडिया को एक बार फिर से गरीबों, किसानों की आवाज बनने और देश की आम जनता को शिक्षित करने के उनके दायित्व की याद दिलाई । जस्टिस काटजू ने यह कहकर अपनी पीठ भी थपथपाई कि अगर उन्होंने मुहिम नहीं चलाई होती तो ऐश्वर्या राय के मां बनने की खबर न्यूज चैनलों पर बेहद प्रमुखता से चली होती । लेकिन अपनी तारीफ करते वक्त जस्टिस काटजू को यह याद नहीं रहा कि उसके पहले भी संपादकों की संस्था बीईए ने कई मौकों पर ऐसे फैसले लिए । जिसकी सबसे बड़ी मिसाल अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराए जाने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के वक्त की रिपोर्टिंग में देखी जा सकती है । दरअसल जस्टिस काटजू न्यूज चैनलों को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाना चाहते हैं लेकिन वो यह भूल जाते हैं कि प्रेस परिषद ने अपने गठन के बाद से लेकर अबतक कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया । उसकी वजह चाहे जो भी हो । दरअसल जिस तरह से देश का माहौल बदला है वैसे में प्रेस परिषद जैसी दंतविहीन संस्थाओं का कोई औचित्य ही नहीं है । प्रेस परिषद तो जनता के पैसे की बर्बादी है जहां से कुछ ठोस निकलता नहीं है क्योंकि उसकी परिकल्पना ही सलाहकार संस्था के रूप में की गई थी । इसलिए अब वक्त आ गया है कि सरकार प्रेस परिषद पर होने वाले फिजूल के खर्चों को बंद करे और इस संगठन को बंद कर जनता की गाढ़ी कमाई को किसी जनकल्याणकारी कार्य में खर्च करे ।
इन तमाम बहस मुहाबिसे के बीच शैलेश और ब्रजमोहन द्वारा लिखी गई किताब पर कम चर्चा हो पाई । यह किताब पत्रकारिता में कदम रखनेवालों को बेहद बुनियादी जानकारी देता है । उसे न्यूज चैनलों में होने वाली हलचलों से ना केवल वाकिफ कराता है बल्कि उसे एजुकेट भी करता चलता है । ब्रजमोहन जी की इस किताब में देश के शीर्ष रिपोर्टर्स की नजरों से उनके अनुभवों को आधार बनाया गया है जो इसको पांडित्य और शास्त्रीय बोझिलता से मुक्त करता है । इस किताब की एक और विशेषता है कि उसमें कई चित्रों के माध्यम से स्थितियों को समझाने की कोशिश की गई है जिससे पाठकों को सहूलियत होती है । दरअसल यह किताब सिर्फ पत्रकारिता के छात्रों के लिए नहीं होकर उन सभी लोगों के लिए उपयोगी और रोचक है जिनकी इस विषय में थोड़ी सी भी रुचि है ।

Friday, March 30, 2012

अखिलेश की चुनौती

उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी की जीत के बाद राजनीतिक टिप्पणीकार सूबे में बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं । सूबे की जनता में अपने युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को लेकर जबरदस्त उत्साह है । मायावती के शासनकाल के दौरान सांस्थानिक भ्रष्टाचार से त्रस्त और उसके पहले मुलायम सिंह यादव के राज में गुंडई से पस्त जनता को अखिलेश में एक ऐसा ताजा चेहरा दिखाई दिया जो प्रदेश को गुंडागर्दी से दूर कर सकता है । जनता ने प्रचंड बहुमत से अखिलेश को देश के सबसे बड़े राज्य का सबसे युवा मुख्यमंत्री चुन लिया । लेकिन जनता के इस विश्वास के बाद अखिलेश से उनकी अपेक्षाएं भी सातवें आसमान पर जा पहुंची हैं । अखिलेश को जनता की इन लगातार बढ़ती अपेक्षाओं पर उतरने की बहुत बड़ी चुनौती है । जब अखिलेश सूबे के मुख्यमंत्री बने तो राजनीतिक पंडितों का आकलन था कि उनके चाचा शिवपाल यादव हर कदम पर बाधाएं खड़ी करेंगे लेकिन यह आकलन इस वजह से गलत साबित हुआ कि मुलायम ने अपने राजनीतिक कौशल से उनको साध लिया और यह इंतजाम कर दिया कि शिवपाल अपने भतीजे की राह में रोड़े ना अटका सकें । जिस वक्त शिवपाल को केंद्र की राजनीति में जाने का प्रस्ताव दिया गया उसी वक्त यह तय हो गया था कि शिवपाल अगर सूबे में मंत्री बनते हैं तो अपने मंत्रालय तक सीमित रहेंगे। इसके अलावा आजम खां को भी स्पीकर बनाने का दांव चलकर मुलायम ने उस बाधा को भी खत्म कर दिया ।
तमाम राजनीतिक पंडितों की भविष्वाणियों के उलट अखिलेश के लिए जो सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहे हैं वो हैं उनके पिता मुलायम सिंह यादव। अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने पिता की छाया से निकलकर खुद को स्थापित और साबित करने की है । जब अखिलेश मुख्यमंत्री बने तो उनके सामने जो पहला बड़ा काम था वो था मंत्रिमंडल गठन का और मंत्रियों के बीच विभागों के बंटवारे का । अखिलेश को अपना मंत्रिमंडल बनाने में पसीने छूट गए और विभागों का बंटवारा तो हफ्ते भर से ज्यादा वक्त तक नहीं हो पाया । मंत्रियों को विभागों का वंटवारा होने के पहले एक मंत्रिमंडल विस्तार उनको करना पड़ा, जिसमें मुलायम के आदमियों को जगह दी गई । आजाद भारत के इतहास में ऐसा कम ही हुआ है कि अपने बल पर बहुमत पानेवाली पार्टी सरकार बनाने के बाद पहले मंत्रिमंडल विस्तार करे फिर मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा । अखिलेश के मंत्रिमंडल पर मुलायम सिंह यादव की गहरी छाप और छाया साफ दिखाई देती है । मुलायम के तमाम विश्वस्त सहयोगियों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई । हद तो तब हो गई पूर्ण बहुमत के बावजूद निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को मंत्री बनाकर उनकी पसंद का मंत्रालय सौंप दिया गया । अखिलेश ने जब अपने मंत्रियों के बीच विभागों का वंटवारा किया तो अपनी पसंद के मंत्रियों को कम अहम मंत्रालय दे सके । अभिषेक मिश्रा उनकी पसंद हैं, पढ़े लिखे समझदार युवा नेता हैं । प्रबंधन में वो सिद्धहस्त हैं लेकिन उनको मंत्रालय मिला प्रोटोकॉल, जहां करने के लिए बहुत कुछ है नहीं । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंत्रालयों के बंटवारे में भी अखिलेश की नहीं बल्कि मुलायम सिंह यादव की चली । अखिलेश का जो मंत्रिमंडल है उसे चाचाओं का मंत्रिमंडल कहा जा सकता है जिसमें अधिकांश मुलायम के सहयोगी और हमउम्र रह चुके हैं और अखिलेश को बच्चा समझते हैं । अखिलेश के सामने अपने पिता के इन सहयोगियों से काम करवाने की बेहद कड़ी चुनौती होगी । हर मंत्री अखिलेश को बच्चा और खुद को मुलायम का समकालीन मानता है । उनसे काम करवाना अखिलेश के लिए मुश्किल हो सकता है ।
अखिलेश यादव ने जब सूबे की कमान संभाली को उनको विरासत में जो नौकरशाही मिली वो राजनीति में आकंठ डूबी और करीब करीब भ्रष्ट हो चुकी थी । उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में हर अफसर किसी न किसी राजनेता का आदमी है । कोई मुलायम का तो कोई मायावती का तो कोई बीजेपी का । अखिलेश के सामने इस राजनीतिक और भ्रष्ट अफसरशाहों पर लगाम लगाने की चुनौती है । सूबे में अहम पदों पर अफसरों की तैनाती में मुलायम सिंह यादव की छाप ही देखी जा सकती है । अखिलेश की सचिवों की तैनाती में भी मुलायम की ही चली, जो मुलायम के शासन काल में पंचम तल पर बैठते थे उनकी फिर से वापसी हुई है । ऐसे में इस युवा मुख्यमंत्री की चुनौती और बढ़ जाती है कि उनको उन अफसरों से काम करवाना है जिनकी राजनैतिक आस्था कहीं और है और वो अपनी नियुक्ति के लिए अखिलेश नहीं बल्कि किसी और को जिम्मेदार मानता है । इसके अलावा बेलगाम और सांस्थानिक भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने वाले अफसरों और बाबुओं को काबू में करना और उनसे रचनात्मक और विकास के काम करवाना भी टेढी खीर साबित हो सकता है । यहीं पर अखिलेश के राजनैतिक और प्रशासनिक कौशल की परीक्षा होगी । अगर वो सफल हो जाते हैं तो इतिहास पुरुष बन जाएंगे और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो इतिहास में गुम हो जाएंगें ।
तीसरी बड़ी चुनौती भी अखिलेश के सामने मुलायम सिंह यादव के साथी संगी हैं और जिन्होंने पिछले पांच साल तक इस आस में नेताजी का साथ दिया कि सत्ता बदलेगी तो उसका स्वाद चखेंगे । इस आस के उल्लास का उत्पात में बदलते चले जाना और फिर उसका अपराध की सीमा में प्रवेश कर जाना अखिलेश को सीधे चुनौती दे रहा है । सात मार्च से लेकर बारह मार्च तक जिस तरह से समाजवादी पार्टी के समर्थकों ने उत्पात मचाया वो आने वाले दिनों का एक संकेत तो देता ही है । भदोही, सीतापुर, इलाहाबाद, बरेली, अंबेडकरनगर हरदोई, मुरादाबाद, प्रतापगढ़, औरैया में जिस तरह से हत्याएं हुई और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आगजनी और रंगदारी की उससे एक बार फिर से उत्तर प्रदेश में अपराध और अपराधियों के बोलबाला होने का खतरा मंडराने लगा है । जिस तरह से अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह के बाद सपाइयों ने मंच पर चढ़कर उत्पात किया वो भी आने वाले समय की बानगी पेश कर रहा था । अखिलेश ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले और बाद में भी अपराधमुक्त उत्तर प्रदेश का वादा किया था जिसकी मंत्रिमंडल गठन में ही धज्जी उड़ गई । जिस तरह से बाहुबली निर्दलीय विधायक राजा भैया को मुलायम के दबाव में मंत्रिमंडल में शामिल करना पड़ा उससे अखिलेश की बड़ी फजीहत हुई । इसके अलावा ब्रह्माशंकर शंकर त्रिपाठी, दुर्गा यादव, शिव कुमार बेरिया, राजकिशोर सिंह जैसे आपराधिक छवि के लोगों के साथ कैबिनेट में बैठकर अपराधमुक्त प्रदेश का वादा जरा खोखला लगता है ।
अखिलेश यादव युवा हैं, उत्तर प्रदेश को लेकर उनका एक सपना है, उसको वो पूरा भी करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें घर और पिता की छाया और उनकी मित्र मंडली से बाहर निकलना होगा और कुछ कड़े और बड़े फैसले लेने होंगे । चुनाव के वक्त जिस तरह से डी पी यादव को पार्टी में नहीं लेने पर वो अड़ गए थे उसी तरह के कड़े फैसलों की ही प्रतीक्षा उत्तर प्रदेश की जनता कर रही है । अखिलेश को भी मालूम है कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है और वक्त रहते अगर गुंडों पर काबू और विकास की पहिए को रफ्तार नहीं दी गई तो जनता की अदालत में उनका भविष्य तय हो जाएगा । जनता की अदालत में फैसला आने में भले ही पांच साल लग जाए लेकिन लोकतंत्र में उस फैसले को मानने के अलावा कोई विकल्प बचता नहीं है । उसको सभी को स्वीकार करना पड़ता है, अखिलेश को भी ।

Thursday, March 15, 2012

ताबड़तोड़ विमोचनों का मेला

कुछ दिनों पहले दिल्ली में बीसवां अतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला समाप्त हुआ । दरअसल यह मेला एक साहित्यिक उत्सव की तरह होता है जिसमें पाठकों की भागीदारी के साथ साथ देशभर के लेखक भी जुटते हैं और परस्पर वयक्तिगत संवाद संभव होता है । इस बार के मेले की विशेषता रही किताबों का ताबड़तोड़ विमोचन और कमी खली राजेन्द्र यादव की जो बीमारी की वजह से मेले में शिरकत नहीं कर सके । एक अनुमान के मुताबिक इस बार के पुस्तक मेले में हिंदी की तकरीबन सात से आठ सौ किताबों का विमोचन हुआ । हिंदी के हर प्रकाशक के स्टॉल पर हर दिन किसी ना किसी का संग्रह विमोचित हो रहा था । इस बार फिर से नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी ने सबसे ज्यादा किताबें विमोचित की होंगी, ऐसा मेरा अमुमान है । इस अनुमान का आधार प्रकाशकों से मिलनेवाले विमोचन के एसएमएस रूपी निमंत्रण हैं । मेले में इस बार शिद्दत से हंस संपादक राजेन्द्र यादव की कमी महसूस हुई । राजेन्द्र यादव एक छोटे से ऑपरेशन के बाद से ठीक होने की प्रक्रिया में हैं और इस प्रक्रिया में उनका बिस्तर से उठ पाना मुश्किल है । लिहाजा वो पुस्तक मेले में नहीं आ पाए । सिर्फ मेला ही क्यों दिल्ली का हिंदी समाज हंस के दरियागंज दफ्तर में उनकी अनुपस्थिति को महसूस कर रहा है। हिंदी साहित्य का एक स्थायी ठीहा आजकल उनकी अनुपस्थिति की वजह से वीरान ही नहीं उदास भी है । हम सबलोग उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं ताकि दिल्ली के हिंदी जगहत की जिंदादिली वापस आ सके ।
वापस लौटते हैं पुस्तक मेले पर । पुस्तक मेले में इतनी बड़ी संख्या में किताबों के विमोचन को देखते हुए लगता है कि हिंदी में पाठकों की कमी का रोना नाजायज है । अगर पाठक नहीं हैं तो फिर इतनी किताबें क्यों छप रही हैं । मेरा मानना है कि सिर्फ सरकारी खरीद के लिए इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकें नहीं छप सकती हैं । एक बार फिर से हिंदी के कर्ता-धर्ताओं को इस पर विचार करना चाहिए और डंके की चोट पर यह ऐलान भी करना चाहिए कि हिंदी सिर्फ पाठकों के बूते ही चलेगी भी और बढेगी भी । इससे ना केवल लेखकों का विश्वास बढेगा बल्कि पाठकों की कमी का रोना रोनेवालों को भी मुंहतोड़ जबाव मिल पाएगा । छात्रों की परीक्षा के बावजूद मेले में लोगों की सहभागिता के आधार पर मेरा विश्वास बढ़ा है । मेले में जो किताबें विमोचित या जारी हुई उसमें कवि-संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र के निबंधों का संग्रह विस्मय का बखान (वाणी प्रकाशन), कवि तजेन्दर लूथरा का कविता संग्रह अस्सी घाट पर बांसुरीवाला(राजकमल प्रकाशन), हाल के दिनों में अपनी कहानियों से हिंदी जगत को झकझोरनेवाली लेखिका जयश्री राय का उपन्यास –औरत जो नदी है(शिल्पायन, दिल्ली) अशोक वाजपेयी के अखबारों में लिखे टिप्पणियों का संग्रह- कुछ खोजते हुए के अलावा झारखंड की उपन्यासकार महुआ माजी का नया उपन्यास मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ (राजकमल प्रकाशन) – और पत्रकार और कहानीकार गीताश्री की शोधपरक पुस्तक सपनों की मंडी प्रमुख है । हिंदी में शोध के आधार पर साहित्यिक या गैर साहित्यिक लेखन बहुत ज्यादा हुआ नहीं है । जो हुआ है उसमें विषय विशेष की सूक्षमता से पड़ताल नहीं गई है । विषय विशेष को उभारने के लिए जिस तरह से उसके हर पक्ष की सूक्ष्म डिटेलिंग होनी चाहिए थी उसका आभाव लंबे समय से हिंदी जगत को खटक रहा था। अपने ज्ञान,प्रचलित मान्यताओं, पूर्व के लेखकों के लेखन और धर्म ग्रंथों को आधार बनाकर काफी लेखन हुआ है । लेकिन तर्क और प्रामाणिकता के अभाव में उस लेखन को बौद्धिक जगत से मान्यता नहीं मिल पाई । लेखकों की नई पीढ़ी में यह काम करने की छटपटाहट लक्षित की जा सकती है। इस पीढ़ी के लेखकों ने श्रमपूर्वक गैर साहित्यिक विषयों पर बेहद सूक्ष्म डीटेलिंग के साथ लिखना शुरू किया । नई पीढ़ी की उन्हीं चुनिंदा लेखकों में एक अहम नाम है गीताश्री का। कुछ दिनों पहले एक के बाद एक बेहतरीन कहानियां लिखकर कहानीकार के रूप में शोहरत हासिल कर चुकी पत्रकार गीताश्री ने तकरीबन एक दशक तक शोध और यात्राओं और उसके अनुभवों के आधार पर देह व्यापार की मंडी पर पर यह किताब लिखी है । गीताश्री ने अपनी इस किताब में अपनी आंखों से देखा हुआ और इस पेशे के दर्द को झेल चुकी और झेल रही महिलाओं से सुनकर जो दास्तान पेश की है उससे पाठकों के हृदय की तार झंकृत हो उठती है । उम्मीद की जा सकती है कि गीताश्री की इस किताब से हिंदी में जो एक कमी महसूस की जा रही थी वो पूरी होगी ।
कवि तजेन्दर लूथरा के कविता संग्रह का नाम अस्सी घाट पर बांसुरीवाला चौंकानेवाला है । संग्रह के विमोचन के बाद जब मैंने नामवर सिंह से इस कविता संग्रह के शीर्ष के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि जबतक वो बनारस में थे तबतक उन्होंने अस्सी घाट पर बांसुरी वाले को नहीं देखा था । लेकिन नामवर सिंह ने तजेन्दर की कविताओं को बेहतर बताया । हलांकि कवि का दावा है कि उन्होंने अस्सी घाटपर बजाप्ता बांसुरीवाले को बांसुरी बजाते देखा है और वहीं से इस कविता को उठाया है । मैंने भी तजेन्दर की कई कविताएं पढ़ी और सुनी हैं । उनकी कविताओं की एक विशेषता जिसे हिंदी के आलोचकों को रेखांकित करना चाहिए वो यह है कि वहां कविता के साथ साथ कहानी भी समांतर रूप से चलती है । तजेन्दर की कविताएं ज्यादातर लंबी होती हैं और उसमें जिस तरह से समांतर रूप से एक कहानी भी साथ साथ चलती है उससे पाठकों को दोनों का आस्वाद मिलता है । तजेन्दर की कविताओं के इस पक्ष पर हिंदी में चर्चा होना शेष है । मैं आमतौर पर कविता संग्रहों पर नहीं लिखता हूं क्योंकि मैं मानता हूं कि आज की ज्यादातर कविताएं सपाटबयानी और नारेबाजी की शिकार होकर रह गई हैं । लेकिन तजेन्दर की कविताओं में नारेबाजी या फैशन की क्रांति नहीं होने से यह थोड़ी अलग है । कभी विस्तार से इस कविता संग्रह पर लिखूंगा ।
महुआ माजी का पहला उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला ठीक ठाक चर्चित हुआ था । अब एक लंबे अंतराल के बाद उनका जो दूसरा उपन्यास आया है उसे लेखिका विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन से जुड़े आदिवासियों की गाथा बताया है । लेखिका के मुताबिक इसमें द्वितीय विश्वयुद्ध से हुए विध्वंस से लेकर वर्तमान तक को समेटा गया है । विजयमोहन सिंह इसे जंगल जीवन की महागाथा बताते हैं लेकिन देखना होगा कि हिंदी के पाठक इस उपन्यास को किस तरह से लेते हैं । रचनाओं को परखने की आलोचकों की नजर पाठकों से इतर होती है और बहुधा उनकी राय भी अलग ही होती है ।
पुस्तक मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट के नए और युवा निदेशक एम ए सिकंदर से भी लंबी बातचीत हुई । दरअसल मेले में कुछ प्रकाशकों ने आयोजन की तिथि और व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किए थे । एनबीटी के निदेशक ने साफ तौर पर यह स्वीकार किया कि बच्चे कम संख्या में आ पाए लेकिन जिस तरह से ट्रस्ट ने दिल्ली के कॉलेजों में एक अभियान चलाया उससे पुस्तक मेले में छात्रों की भागीदारी बढ़ी । बातचीत के क्रम में सिकंदर साहब ने जो एक अहम बात कही वो यह कि एनबीटी विश्व पुस्तक मेले को हर साल आयोजित करने की संभावनाओं को तलाश रहा है । अगर यह हो पाता है तो हिंदी समेत अन्य भाषाओं के लिए भी बेहतरीन काम होगा ।

Wednesday, February 29, 2012

व्हाइट हाउस की काली कहानी

कुछ दिनों पहले नेट पर विदेशी अखबारों को पढ़ रहा था । अचानक से डेली मेल के पन्नों की सर्फिंग करते हुए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की प्रेमिका और उनसे संबंधित लेख पर नजर चली गई । लेख में जे एफ कैनेडी और व्हाइट हाउस की इंटर्न के बीच राष्ट्रपति भवन में ही पनपे प्रेम प्रसंग का जिक्र था । राष्ट्रपति महोदय के बेडरूम के कुछ अंतरंग प्रसंगों के साथ स्टोरी छपी थी । स्टोरी इस तरह लिखी गई थी कि पाठकों को ना सिर्फ बांध सके बल्कि उस किताब को पढ़ने को लेकर उनके मन में ललक पैदा हो । वहां स्टोरी पढ़ने के बाद मैंने नेट पर खोज प्रारंभ की तो एक अमेरिकी टेलीविजन के बेवसाइट पर भी इससे ही जुड़ी स्टोरी छपी थी कि किस तरह से प्रेसीडेंट कैनेडी ने अपनी लिमोजीन भेजकर एक प्रेस इंटर्न को होटल में इश्क फरमाने के लिए बुलवाया। एक और अमेरिकी अखबार में छपा कि तकरीबन आधी सदी के बाद खुला कैनेडी का एक और प्रेम प्रसंग । लब्बोलुआब यह कि जनवरी और फरवरी में अमेरिका से लेकर इंगलैंड और पूरे यूरोप के अखबारों और तमाम टेलीविजन चैनल की बेवसाइट्स पर कैनेडी की इस प्रेम कथा की चर्चा थी । हर जगह स्टोरी को सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत किया गया था । सेक्स प्रसंगों को इस तरह से पेश किया गया था कि जब पूरा अमेरिका क्यूबा मिसाइल संकट के दौर से जूझ रहा था तो अमेरिका का राष्ट्रपति व्हाइट हाउस के प्रेस इंटर्न के साथ स्वीमिंग पूल और अपनी पत्नी के बेडरूम में रंगरेलियां मना रहा था । मैं भी फौरन अपने पसंदीदा बेवसाइट फिल्पकॉर्ट पर गया और वहां इस किताब की तलाश की । पच्चीस डॉलर की किताब छूट के बाद एक हजार पचपन रुपए में उपलब्ध थी । इस किताब के बारे में विदेशी अखबारों में इतना छप चुका था कि मेरे अंदर भी उसको पढ़ने की इच्छा प्रबल हो गई लिहाजा फ्लिपकॉर्ट पर ऑर्डर कर दिया । चूंकि यह किताब इंपोर्टेड एडिशन थी इस वजह से पांच दिनों के बाद मुझे मिली । तकरीबन दो सौ पन्नों की बेहतरीन प्रोडक्शन वाली किताब । किताब का पूरा नाम है – वंस अपॉन ए सिक्रेट, माई अफेयर विद प्रेसीडेंट जॉन एफ कैनेडी एंड इट्स ऑफ्टरमाथ और लेखिका है- मिमी अल्फर्ड । प्रकाशक हैं रैंडम हाउस, न्यूयॉर्क । बैक कवर पर लेखिका की हाल में ली हुई तस्वीर और फ्रंट कवर पर उनकी युवावस्था की ऐसी तस्वीर लगी है जिसमें उनकी मुस्कुराहट दिखाई दे रही है चेहरा नहीं । बेहद सुरुचिपूर्ण कवर । मैंने हिंदी में कई खूबसूरत लेखिकाओं और सुदर्शन लेखकों को उनकी किताबों पर उनकी खुद की तस्वीर छपवाने की सलाह दी लेकिन किसी ने मजाक में उड़ा दिया तो किसी को प्रकाशक ने मना कर दिया । एक मित्र ने तो मुझसे कहा कि अभी वो इतने बड़े लेखक नहीं हुए हैं कि किताब के कवर पर उनकी तस्वीर छपे । लेकिन जब मैंने मिमी की किताब देखी तो मुझे लगा कि कवर पर खुद की तस्वीर लगाने के लिए बड़ा होना जरूरी नहीं है । मिमी की यह पहली किताब है और वह कोई लेखिका भी नहीं है फिर भी पूरी किताब में तीन जगह उसकी पूरे पेज पर तस्वीर लगी है । मुझे तो कई बार यह लगता है कि हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों में खुद को लेकर विश्वास की कमी है । कवर पर लेखक या लेखिका की तस्वीर ना छपने का मुझे कोई कारण नजर नहीं आता । चूंकि सालों से यह परंपरा नहीं है तो इसे तोड़ने का जोखिम कोई लेना नहीं चाहता ।
यह तो अवांतर प्रसंग है । मैं एक बार फिर से किताब की ओर लौटता हूं । दरअसल अमेरिका में जॉन एफ कैनेडी के प्रेम प्रसंगों को लेकर किताब छापना एक कुटीर उद्योग की तरह हो गया है । हर साल कैनेडी और उसके सेक्सुअल लाइफ या फिर उनकी प्रेम कथाओं को लेकर किताबें छपती हैं और फिर चर्चित होकर बिक कर साहित्य के परिदृश्य से गायब हो जाती है । इस किताब की लेखिका मिमी ने स्वीकार किया है कि - जून 1962 से लेकर नवंबर 1963 तक मेरे प्रेसीडेंट कैनेडी से सेक्स संबंध रहे और पिछले चासीस सालों से मैंने इस रहस्य को अपने सीने में दबाए रखा । लेकिन हाल के मीडिया रिपोर्ट के बाद मैंने अपने बच्चों और परिवार के साथ इस राज को साझा किया । मेरा पूरा परिवार मेरे साथ खड़ा है । इस पूरी किताब को पढ़ने के बाद एक तस्वीर जो साफ तौर पर उभर कर सामने आती है वह यह है कि जॉन एऱ कैनेडी की कम उम्र लड़कियों में रुचि थी और दूसरी जो भयावह तस्वीर सामने आती है जिसको मिमी ने रेखांकित नहीं किया है वह यह कि कैनेडी के कार्यकाल में उसके कुछ दोस्त उसके सेक्सुअल डिजायर का खास तौर पर ख्याल रखते थे और उसे लड़कियां उपलब्ध हो इसके लिए प्रयासरत भी रहते थे । दौरों के समय भी कैनेडी के लिए लड़कियों का इंतजाम यही गैंग करता था। कैनेडी का स्पेशल असिस्टेंट डेव पॉवर्स इसके केंद्र में था और दो लड़कियां उसकी मदद किया करती थी । यूं तो डेव अमेरिका के राष्ट्रपति के स्पेशल असिटेंट के पद पर तैनात था लेकिन देशभर में वह प्रथम मित्र के रूप में जाना जाता था । जब मिमी व्हाइट हाउस के प्रेस कार्यलय में इंटर्न के तौर पर आई तो उसने कोई आवेदन नहीं किया था उसे तो राष्ट्रपति भवन से बुलावा आया था । दरअसल वो कैनेडी के राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी पत्नी से इंटरव्यू करने आई थी क्योंकि जिस स्कूल में मिमी पढ़ रही थी वहीं से कैनेडी की पत्नी ने भी स्कूलिंग की थी । उसी वक्त वो इस गैंग की नजर में आ गई थी । बाद में राष्ट्रपति भवन के बुलावे पर उसने प्रेस कार्यलय में इंटर्न के तौर पर ज्वाइन करवाया गया । एक दिन अचानक डेव ने उसे फोन करके राष्ट्रपति भवन के स्वीमिंग पूल में दोपहर की तैराकी का आनंद लेने का निमंत्रण दिया जिसे मिमी ने स्वीकार कर लिया । उसी स्वीमिंग पूल में उसकी और कैनेडी की पहली मुलाकात हुई । उसके बाद फिर से डेव ने उसे राष्ट्रपति भवन घूमने का न्योता दिया । लेकिन यहां कैनेडी उसे व्हाइट हाउस घुमाने के बहाने अपने बेडरूम में ले गए और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए । लेखिका खुद इस बात को लेकर भ्रम में है कि कैनेडी ने उसके साथ जबरदस्ती संबंध बनाए या फिर उसकी भी रजामंदी थी । बेहद साफगोई से उसने यह स्वीकार भी किया है । अठारह साल की उम्र में पैंतालीस साल के पुरुष से शारीरिक संबंध बनाने का बेहद ही शालीनता लेकिन सेंसुअल तरीके से वर्णन किया गया है । वर्णन में कहीं कोई अश्लीलता नहीं है। पहले सेक्सुअल एनकाउंटर के बाद एक लड़की की मनस्थिति का जो चित्रण मिमी ने किया है वह पठनीय है । उसके मन में यह द्वंद्व चलता है कि अपने से दुगने उम्र के पुरुष से संबंध बनाना कहां तक उचित है वहीं मन के कोने अंतरे में यह बात भी है कि दुनिया के सबसे ताकतवर पुरुष से उसके तालुक्कात है । वह उसका प्रेमी है ।
इस किताब में कैनेडी की वह छवि और मजबूत होती है कि वो महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझता था । इसको अंग्रेजी में सेक्सुअल प्लेजर के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला औजार भी कह सकते हैं । मिमी के साथ ही उसने शारीरिक संबंध ही नहीं बनाए बल्कि अपने सामने अपने स्पेशल असिस्टेंट डेव पॉवर्स के साथ भी सेक्स एक्ट परफॉर्म करने के लिए मजबूर किया । अगली गर्मी में कैनेडी ने फिर से यही काम अपने भाई के लिए करने को कहा जिसे मिमी ने ठुकरा दिया । एक पार्टी में उसने जबरदस्ती मिमी तो ड्रग्स लेने को मजबूर किया ।
सेक्स प्रसंगों के अलावा भी मिमी की जो दास्तां इस किताब में है उससे एक लड़की के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है । एक तरफ वह कैनेडी से सेक्सुअल रिलेशनशिप में है तो दूसरी तरफ अपने मित्र से शादी भी तय कर रही है । जिस दिन कैनेडी की हत्या होती है उस दिन वह अपने मंगेतर के साथ होती है । काफी देर तक सदमे में रहने के बाद वह अपने मंगेतर को यह बताती है कि उसके और कैनेडी के बीच संबंध थे । उसका मंगेतर यह सुनकर दूसरे कमरे में चला जाता है लेकिन अचानक से आकर मिमी पर टूट पड़ता है और मिमी के साथ शारीरिक संबंध बानाता है । उसके बाद वह मिमी से वादा करवाता है कि कैनेडी के संबंध के बारे में वो किसी को नहीं बताएगी । मिमी चार दशक तक उस वादे को निभाती है । उस पूरे प्रसंग को बेहद सधे तरीके से मिमी ने लिखा है । यहां आकर यह नहीं लगता कि यह लेखिका की पहली किताब है । न ही इस किताब में सेक्स प्रसंगों की भरमार है । जहां भी उसकी चर्चा है वह बेहद संजीदे अंदाज में है । हिंदी के कुछ लेखकों को यह देखना चाहिए कि किस तरह से सेक्स प्रसंगों को बगैर अश्लील बनाए भी लिखा जा सकता है । देखना तो हिंदी के प्रकाशकों को भी चाहिए कि किस तरह से पुस्तक की बिक्री को बढ़ाने के लिए उसके चुनिंदा अंश सनसनीखेज तरीके से अखबारों में छपवाए जाते हैं ।

Saturday, February 25, 2012

कसौटी पर अन्ना आंदोलन

पिछले दिनों कई संपादकों की किताबें आई जिनमें आउटलुक के प्रधान संपादक विनोद मेहता की लखनऊ ब्यॉय और एस निहाल सिंह की इंक इन माई वेंस अ लाइफ इन जर्नलिज्म प्रमुख हैं । ये दोनों किताबें कमोबेश उनकी आत्मकथाएं हैं जिनमें उनके दौर की राजनीतिक गतिविधियों का संक्षिप्त दस्तावेजीकरण है । विनोद मेहता और एस निहाल सिंह की किताब के बाद युवा संपादक आशुतोष की किताब आई है - अन्ना-थर्टीन डेज दैट अवेकंड इंडिया । जैसा कि किताब के नाम से ही स्पषट है कि यह किताब अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखी गई है । एक ओर जहां विनोद मेहता और निहाल सिंह की किताब एक लंबे कालखंड की राजनीतिक घटनाओं को सामने लाती है वहीं आशुतोष अपनी किताब में बेहद छोटे से कालखंड को उठाते हैं और उसमें घट रही घटनाओं को सूक्ष्मता से परखते हुए अपने राजनीतिक विवेक के आधार पर टिप्पणियां करते चलते हैं । किताब की शुरुआत बेहद ही दिलचस्प और रोमांचक तरीके से होती है । रामलीला मैदान में अपने सफल अनशन के बाद अन्ना मेदांता अस्पताल में इलाज करवा रहे होते हैं अचानक एजेंसी पर खबर आती है कि उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई है । जबकि कुछ घंटे पहले ही अन्ना के डॉक्टरों ने ऐलान किया था उन्हें पूरी तरह से ठीक होने में चार से पांच दिन लगेंगे । अचानक से आई इस खबर के बाद संपादक की उत्तेजना और टेलीविजन चैनल के न्यूजरूम में काम कर रहे पत्रकारों के उत्साह से लबरेज माहौल से यह किताब शुरू होती है । जिस तरह से खबर आगे बढ़ती है उसी तरह से रोमांच अपने चरम पर पहुंचता है । इसमें एक खबर को लेकर संपादक की बेचैनी और उसके सही साबित होने का संतोष भी लक्षित किया जा सकता है । आशुतोष ने अपनी इस किताब में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई मुहिम को शुरुआत से लेकर अन्ना के मुंबई के असफल अनशन तक को समेटा है । अन्ना और उनके आंदोलन पर लिखी गई इस किताब को आशुतोष ने बीस अध्याय में बांटकर उसके पहलुओं को उद्घाटित किया है ।
एक संपादक के तौर पर आशुतोष उस वक्त चिंतित और खिन्न दिखाई पड़ते हैं जब बाबा रामदेव की अगुवाई के लिए प्रणब मुखर्जी के एयरपोर्ट जाने की खबर आती है । आशुतोष लिखते हैं- जब यह खबर आती है तो वो एडिटर गिल्ड की मीटिंग में प्रणब मुखर्जी के साथ मौजूद हैं । दफ्तर से जब यह पूछते हुए फोन आता है कि क्या प्रणब मुखर्जी बाबा रामदेव की अगुवानी के लिए एयरपोर्ट जा रहे हैं तो उसके उत्तर में वो कहते हैं- क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है । तुम ये सोच भी कैसे सकते हो कि प्रणब मुखर्जी रामदेव को रिसीव करने जाएंगे । रामदेव कोई हेड ऑफ स्टेट नहीं हैं । इसके बाद जब यह खबर सही साबित होती है तो आशुतोष इसे सरकार के संत्रास के दौर पर देखते हैं और उसके राजनीतिक मायने और आगे की राजनीति पर पड़नेवाले प्रभाव पर अपनी चिंता जताते हैं । दरअसल आशुतोष अन्ना के दिल्ली के आंदोलनों के चश्मदीद गवाह रहे हैं चाहे वो जंतर मंतर का अनशन हों या राजघाट का अनशन या फिर रामलीला मैदान का ऐतिहासिक अनशन जिसने सरकार को घुटने पर आने को मजबूर कर दिया था । आशुतोष की इस किताब को पढ़ने के बाद एक बात और साफ तौर उभर कर सामने आती है कि इस आंदोलन के दौरान उनके अंदर का रिपोर्टर बेहद सक्रिय था । संपादक के अंदर का वह रिपोर्टर का एक साथ टीम अन्ना और सरकार के अपने सूत्रों से जानकारियां ले रहा था । अपने सूत्रों से मिल रही जानकारियों से ना सिर्फ अपने प्रतियोगियों को पीछे छोड़ रहा था बल्कि दर्शकों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा कर संतोष का अनुभव कर रहा था । अन्ना हजारे को जब उनके सहयोगियों अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के साथ दिल्ली के मयूर विहार से हिरासत में लिया गया था उस वक्त अरविंद के एसएमएस लगातर उनके पास आ रहे थे जो अन्ना की पल पल की गतिविधयों की जानकारी दे रहे थे । इसी तरह रामलीला मैदान में अनशन के दौरान भी उनके पास खबरें पहले आ रही थी ।

अपनी इस किताब में आशुतोष ने अन्ना के आंदोलन को ठीक तरीके नहीं निबट पाने के लिए गैर राजनीतिक मंत्रियों को जिम्मेदार माना है । उनके मुताबिक यह एक राजनीति आंदोलन था जिसे राजनीतिक रूप से ही निबटा जा सकता था । आशुतोष के मुताबिक दो गैरराजनैतिक वकील मंत्रियों ने इस पूरे मामले को मिसहैंडिल किया । जाहिर तौर पर उनका इशारा चिदंबरम और कपिल सिब्बल की ओर है । आंदोलन के दौरान सोनिया गांधी की देश से अनुपस्थिति को भी आशुतोष उसी मिसहैंडलिंग से जोड़कर देखते हैं । आशुतोष अन्ना के आंदोन में संघ की भागीदारी पर बेबाकी से कलम चलाते हैं और कई संदर्भों और लोगों की बातों को आधार बनाकर अपनी बात कहते हैं ।
इस किताब की खूबसूरती इस बात में है कि इसमें अन्ना के आंदोलन के समाने और परदे के पीछे के तथ्यों और गतिविधियों का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण किया गया है । लेकिन जब भी जहां भी लेखक को लगता है वो अन्ना और उनकी टीम की आलोचना से भी नहीं हिचकते हैं । जब इमाम बुखारी के बयान के दबाव में अनशन स्थल पर रोजा खुलवाने जैसा कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तो उसे आशुतोष सस्ता राजनीति हंथकंडा के तौर पर देखते हैं और कड़ी टिप्पणी करते हैं । किताब के अंत में एपिलॉग में आशुतोष ने मुंबई में अन्ना के आंदोलन के असफल होने की वजहें भी गिनाई हैं । इस किताब का प्राक्कथन मशहूर समाजवादी चिंतक आशीष नंदी और इंड्रोडक्शन योगेन्द्र यादव ने लिखा है । अगर हम समग्रता में देखें तो इस किताब में अन्ना के आंदोलन को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा और परखा गया है । अन्ना के आंदोलन को जानने और समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है ।

Tuesday, February 21, 2012

…कुछ तो है जिसकी परदादारी है

हिंदी में साहित्यिक किताबों की बिक्री के आंकड़ों को लेकर अच्छा खासा विवाद होता रहा है । लेखकों को लगता है कि प्रकाशक उन्हें उनकी कृतियों के बिक्री के सही आंकड़े नहीं देते हैं । दूसरी तरफ प्रकाशकों का कहना है कि हिंदी में साहित्यिक कृतियों के पाठक लगातार कम होते जा रहे हैं । बहुधा हिंदी के लेखक प्रकाशकों पर रॉयल्टी में गड़बड़ी के आरोप भी जड़ते रहे हैं । लेकिन प्रकाशकों पर लगने वाले इस तरह के आरोप कभी सही साबित नहीं हुए । निर्मल वर्मा की पत्नी और राजकमल के बीच का विवाद हिंदी जगत में खासा चर्चित रहा । निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल को लगा था कि राजकमल प्रकाशन से उन्हें उचित रॉयल्टी नहीं मिल रही है लिहाजा उन्होंने हिंदी के शीर्ष प्रकाशन गृह पर रॉयल्टी कम देने का आरोप लगाते हुए निर्मल की सारी किताबें वापस ले ली थी । उसके बाद यह पता नहीं चल पाया कि गगन गिल को निर्मल वर्मा की किताबों पर दूसरे प्रकाशन संस्थानों से कितनी रॉयल्टी मिली । अभी जनवरी के हंस में राजेन्द्र यादव ने एक बार फिर से इस मुद्दे को उटाया है । राजेन्द्र जी ने लिखा- वस्तुत : हिंदी प्रकाशन अभी भी पेशेवर नहीं हुआ है और उसी डंडी मार बनिया युग में बना हुआ है । मेरे उपर आरोप है कि मैं प्रकाशकों का पक्षन लेता हूं ; कि लेखक अभी भी हवाई दुनिया में रहते हैं । दस बीस पुस्तकों के लेखक अपने शोषण और प्रकाशक की शान शौकत को गालियां देते हैं । मेरा कहना है कि प्रकाशक हजारों पुस्तकें प्रकाशित करता है और अपनी लागत पर दस पांच प्रतिशत बचाता भी है तो यह राशि निश्चय ही किसी भी लेखकीय रॉयल्टी से सैकड़ों गुना अधिक होगी । राजेन्द्र यादव आगे लिखते हैं – आज लेखक-प्रकाशक के रिश्ते बेहद अनात्मीय और बाजरू हो गए हैं । कच्चा माल दो और भूल जाओ । अपने इस संपादकीय लेख में यादव जी ने यह भी बताया है कि उनके जवानी के दिनों में ओंप्रकाश जी, विश्वनाथ, रामलाल पुरी और शीला संधू किस तरह से लेखकों से दोस्ती का संबंध रखते थे । लेखकों की हर महीने पार्टी होती थी और एडवांस रॉयल्टी देकर लेखकों को लिखने के लिए दबाब डालते थे । लेकिन राजेन्द्र यादव ने रिश्तों के बाजारू और अनात्मीय होने की वजह नहीं बताई । हिंदी के इस शीर्ष लेखक से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वो इसकी वजह भी बताते और अपने अनुभवों के आधार पर इस रिश्ते की गरमाहट को बचाए रखने के लिए कुछ उपाय सुझाते । लेकिन बजाए एक वरिष्ठ लेखक की भूमिका अख्तियार करने के यादव जी वयक्तिगत लेन देन के ब्यौरे में उलझ कर रह गए । कहने लगे राजकमल और वाणी से मेरी लगभग 90 पुस्तकें प्रकाशित हुई- अनुवादित संपादित और लिखित । नगर दोनों जगह मिलाकर आंकड़ा डेढ लाख मुश्किल से छू पाता है- जबकि दस बीस किताबें ऐसी भी हैं जिनके हर साल संस्करण होते हैं –आठ दस विभिन्न पाठ्यक्रमों में भी लगी है । यादव जी का संपादकीय पढ़ने के बाद मुझे छाया मयूर छपने के बाद का एक प्रसंग याद आ रहा है । छाया मयूर के अंक में भारत भारद्वाज ने हिंदी की चुनिंदा पुस्तकों पर लिखा था । अब ठीक से याद नहीं है लेकिन भारत जी के उस लेख को लेकर राजेन्द्र जी कुछ विचलित और झुब्ध थे । उसके बाद मैंने राजेन्द्र जी का एक इंटरव्यू किया था उसमें यादव जी ने बताया था कि उन्हें साठ या सत्तर के दशक में ही रॉयल्टी के लाख रुपये मिला करते थे । मुझे याद नहीं है कि अब वो इंटरव्यू कहां है लेकिन यह प्रसंग इस वजह से याद है कि तब मैंने सोचा था कि लेखकों को ठीक ठाक पैसे मिलते हैं । साठ सत्तर के दशक में भी लाख-डेढ लाख और चार दशक के बाद भी लाख डेढ लाख – ये तो बेहद नाइंसाफी है । यादव जी को साफ तौर पर बताना चाहिए था कि उन्हें कितने पैसे रॉयल्टी के मिलते हैं और क्या प्रकाशक उन्हें एडवांस भी देते रहे हैं । उनके लेख से यह ध्वनि निकलती है कि किताबघर और सामयिक प्रकाशन उन्हें सही रॉयल्टी देते हैं । लेख को पढ़ते वक्त मेरे दिमाग में यह कौंधा कि यादव जी की क्या मजबूरी है कि वो वाणी और राजकमल के साथ बने हुए हैं क्यों नहीं अपनी किताबें सामयिक और किताबघर को दे देते हैं । रॉयल्टी में कमी का अंदेशा भी है और हंस के पच्चीस साल पूरे होने पर भी जो किताबें छपी वो भी वाणी और राजकमल से ही छपीं । कुछ तो है जिसकी परदादारी है ।
दरअसल यह पूरा मामला बेहद उलझा हुआ है और उतना आसान है नहीं जितना दिखता है । हिंदी में साहित्यिक कृतियों का अब बमुश्किल तीन सौ से लकर पांच सौ प्रतियों का संस्करण होता है और दूसरा संस्करण छपने में सालों बीत जाते हैं । लेकिन इसके ठीक उलट अंग्रेजी में हालात बिल्कुल जुदा है । वहां एक औसत से लेखक की कमजोर कृति भी आठ से दस हजार बिक ही जाती है । ऐसा नहीं है कि हिंदी का बाजार कम बड़ा है बल्कि हाल के दिनों में तो हिंदी का बाजार भी बहुत बढ़ा है । तो फिर क्या वजह है कि हिंदी में एक साहित्यिक कृति के अपेक्षाकृत कम संख्या वाले संस्करण को बिकने में अंग्रेजी की तुलना में काफी ज्यादा वक्त लगता है ।
मुझे लगता है कि इसकी कई वजहें साफ तौर पर नजर आती है । हमारे देश में हिंदी का बाजार अवश्य बढ़ा है यह तो अखबारों की बढ़ती प्रसार संख्या और उसके नए संस्करणों की लोकप्रियता से पता चल जाता है और प्रामाणिक भी लगता है । इसको ही हम हिंदी का विस्तार मानते हुए इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जाते हैं कि साहित्यिक कृतियों का बजार बढ़ा है । मेरे ख्याल से आकलन का यह तरीका सरही नहीं है । अखबारों और पत्रिताओं की संख्या में इजाफा के आधार पर साहित्यिक कृतियों की बिक्री का अंदाजा लगाना गलत है बल्कि इससे एक भ्रम और अविश्वास की स्थिति पैदा होती है । लेखकों को यह लगने लगता है कि उनकी कृतियां काफी बक रही है और प्रकाशक सर पीट रहा होता है कि जितनी पूंजी लगाकर किताब प्रकाशित की उसका निकल पाना भी संभव नहीं हो पा रहा है । ये दोनों ही स्थितियां प्रकाशन जगत के लिए हानिकारक हैं । अब से कुछ दिनों बाद नई दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला लगनेवाला है । वहां भी इस बात की चर्चा होगी, बहस होगी लेकिन होगा कुछ नहीं । प्रकाशकों और लेखकों के बीच इस तरह के अविश्वास की स्थिति हिंदी के लिए अच्छी नहीं है । अब वक्त आ गया है कि राजेन्द्र यादव जैसे बड़े लेखक वयक्तिगत दर्द से उपर उठकर इस मसले के स्थायी हल के लिए पहल करें और एक मुकम्मल रास्ता निकालें ।

Tuesday, February 7, 2012

विचारधारा के पूर्वग्रह

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी को वहां आने से रोकने और वीडियो कांफ्रेंसिंग को रुकवाने में सफलता हासिल करने के बाद कट्टरपंथियों और कठमुल्लों के हौसले बुलंद हैं। राजस्थान की कांग्रेस सरकार के घुटने टेकने के बाद अब बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने भी चंद कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए । कोलकाता पुस्तक मेले में तस्लीमा नसरीन की विवादास्पद किताब निर्बासन के सातवें खंड का लोकार्पण करने की इजाजत नहीं दी गई । तसलीमा के कोलकाता जाने पर प्रगतिशील वामपंथी सरकार ने पहले से ही पाबंदी लगाई हुई है जिसे क्रांतिकारी नेता ममता बनर्जी ने भी जारी रहने दिया । तस्लीमा की अनुपस्थिति में कोलकाता पुस्तक मेले में विमोचन को रोकना हैरान करनेवाला है । दरअसल ये कट्टरपंथ का एक ऐसा वायरस है जो हमारे देश में तेजी से फैलता जा रहा है । समय रहते अगर बौद्धिक समाज ने इसपर लगाम लगाने की कोशिश नहीं की तो इसके बेहद गंभीर परिणाम होंगे। प्रगतिशील लेखकों की बिरादरी हुसैन की प्रदर्शनी पर हमले को लेकर तो खूब जोर शोर से गरजती हैं लेकिन जब तस्लीमा या फिर सलमान का मुद्दा आता है तो रस्मी तौर पर विरोध जताकर या फिर चुप रह कर पूरे मसले से कन्नी काट लेते हैं । चिंता इस बात को लेकर है कि भारत में ये प्रवृत्ति अब जोर पकड़ने लगी है । हुसैन की पेंटिंग के विरोध को लेकर खूब हो हल्ला मचा था, माना जा सकता है कि विरोध जायज भी था । लेकिन सलमान के जयपुर ना आने पर विरोध का स्वर काफी धीमा था ।
जयपुर में सलमान रश्दी को अपने ही देश में आने से रोककर राजस्थान की गहलोत सरकार ने जिस खतरनाक परंपरा की शुरुआत की उसके परिणाम कोलकाता पुस्तक मेले में दिखा । दरअसल इस देश में पहले तो कांग्रेस और वामपंथी नेताओं ने सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं पर कब्जा किया और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में देश की परंपराओं और मान्यताओं की परवाह की परवाह करना बंद कर दिया । बाद में भारतीय जनता पार्टी और तमाम छोटे छोटे दलों ने भी यही काम करना शुरू कर दिया । इमरजेंसी के पहले और बाद के दौर में वामपंथी बुद्धिजीवियों का सरकार पर दबदबा रहा । वामपंथियों ने इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की सरकार को जो सहयोग दिया उसके एवज में जमकर कीमत वसूली । इमरजेंसी में मीडियापर पाबंदी को लेकर वामपंथियों ने खामोश समर्थन दिया । देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जरूर यह मानना था कि भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हर तरह की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को मजबूत करना होगा । साहित्य अकादमी के चैयरमैन के तौर पर उन्होंने हमेशा से इस मान्यता को मजबूत करने का काम किया । बाद में इंदिरा गांधी ने तो संस्थाओं और मान्यताओं की जमकर धज्जियां उड़ाई । एक तानाशाह की तरह जो मन में आया वो किया जिसकी परिणति देश में इमरजेंसी के तौर पर हुई । राजीव गांधी की ताजा नेता की छवि से देश को एक उम्मीद जगी थी लेकिन कालांतर में वो भी प्रगतिशील और परंपराओं को तोड़नेवाले नेता की छवि को तोड़ते हुए कट्टरपंथियों के आगे झुकते चले गए । सलमान रश्दी को जयपुर आने से रोकने और तस्लीमा की किताब के लोकापर्ण को रोकना सिर्फ अभिवयक्ति की आजादी पर पाबंदी का मसला नहीं है । इसके पीछे कांग्रेस एक बड़ा राजनीतिक खेल खेल रही है । इस बहाने से वो उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट अपनी ओर खींचना चाहती है । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को कांग्रेस ने अपने युवराज की लोकप्रियता के साथ जोड़कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है । उत्तर प्रदेश में सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा रही है । पार्टी को यह पता है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका बेहद अहम है और उनका समर्थन हासिल कर लेने से सफलता आसान हो जाएगी ।
कोलकाता में ममता बनर्जी ने भी यही खेल खेला । वह भी नहीं चाहती कि उनके सूबे में मुस्लिम नाराज ना हो इस वजह से तसलीमा की किताब का लोकार्पण की इजाजत नहीं मिली, वजह बताया गया कि इससे सांप्रदायिक सद्भाव को झटका लग सकता है और सूबे में कानून व्यवस्था के हालात पैदा हो सकते हैं । ममता बनर्जी ने वामपंथियों के शासन से कोलकाता को मुक्त किया और जोर शोर से यह वादा किया था कि अब सूबे में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा । लेकिन वामपंथी सरकार के तस्लीमा को कोलकाता से बाहर निकालने के फैसले को वापस लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाई । तस्लीमा जिसे अपना दूसरा घर कहती हैं वहां जाने की उनको इजाजत नहीं है । कानून व्यवस्था की आड़ में उनके कोलकाता जाने पर पहले से पाबंदी है । अपनी किताब के विमोचन पर रोक लगाने के बाद तस्लीमा मे ट्विट कर सवाल खड़ा किया कि कोलकाता खुद को बौद्धिक शहर कहता है लेकिन एक लेखक को प्रतिबंधित किया जा रहा है । मेरी अनुपस्थिति में भी किताब जारी होना कतई मंजूर नहीं है ।कोई पार्टी कोई संगठन कुछ नहीं कहता । आखिर ये कबतक होगा । तस्मीमा के ट्विट में जो दर्द है उसको समझते हुए भी लेखक बिरादरी की खामोशी हैरान करनेवाली है ।
दरअसल हमारे देश के बुद्धीजिवयों के साथ यह बड़ी दिक्कत है । उपर भी इस बात का संकेत किया गया है कि प्रगतिशीलता का मुखौटा लगानेवाले लेखक दरअसल प्रगतिशील हैं ही नहीं । जब फिदा हुसैन की पेंटिंग्स को लेकर हिंदू संगठनों ने बवाल खड़ा किया था और उनके प्रदर्शनियों में तोड़ फोड़ की थी तो उस वक्त वामपंथी लेखकों और उनके संगठनों ने जोर शोर से इसका विरोध किया था । लेखकों ने लेख लिखकर, सड़कों पर प्रदर्शन करके विरोध जताया था । अब भी वो तमाम लोग और उनके संगठन हुसैन की कतर की नागरिकता स्वीकार करने के फैसले को हिंदू संगठनों की धमकियों का नतीजा ही मानते हैं । अभी हालिया वाकये में जब दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामानुजम का रामायण से संबंधित एक लेख हटाया गया तो उसका वामपंथ से जुड़े लेखकों और अध्यापकों ने देशव्यापी विरोध किया । विश्वविद्यालय में धरना प्रदर्शन हुआ, देशभर के अखबारों में विरोध में लेख छपे । मंत्रियो को ज्ञापन दिया गया और उसको बहाल करने की मांग उठी । लेकिन जब पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने तस्लीमा को प्रदेश से निकाल बाहर किया तो लेखक संगठनों और प्रगतिशील लेखकों ने चुप्पी साध ली क्योंकि उस वक्त वहां उनकी सरकार थी और लेखकों के ये संगठन किसी भी तरह के कदम के लिए अपनी संबंधित राजनीति पार्टी से निर्देश लेते हैं । ठीक इसी तरह जब अब से कुछ दिनों पहले सलमान रश्दी को भारत आने से रोका गया तो तमाम प्रगतिशील लेखकों से लेकर उनके संगठनों तक ने इस बात पर विरोध जताना उचित नहीं समझा । इस चुप्पी या कमजोर विरोध से उन अनाम से हिंदू संगठनों को ताकत मिलती है जो लेखकीय स्वतंत्रता पर, अभिवयक्ति की आजादी पर हमला करते हैं या उस तरह के हमला करनेवालों को प्रश्रय देते हैं । अब देश में जरूरत इस बात की है कि कट्टरपंथियों के इस तरह के कदमों को बजाए अपनी चुप्पी या सक्रिय साझीदारी के उनपर रोक लगाने की कोशिश की जाए । इसके लिए देशभर के बुद्धिजीवियों को चाहे वो किसी भी विचारधारा से जुड़े हों खुलकर सामने आना होगा । लेखकों का किसी विचारधारा से जुड़ना और उनके हिसाब से लेखन करना गैरबाजिब नहीं है । लेकिन जब अपनी विचारधारा को धारा बनाने और सबसे उसी धारा में बहने का दुराग्रह शुरू हो जाता है तो विश्वसनीयता पर बड़ा संकट खड़ा हो जाता है । वक्त आ गया है कि लेखकों और संगठनों को इससे मुक्त होना होगा और जो कोई भी अभिवयक्ति की आजादी की राह में रोड़ा अटकाने की कोशिश करे या फिर उसमें बाधा बने उसका पुरजोर तरीके से विरोध किया जाना चाहिए। उस वक्त हमें यह भूलना होगा कि हम किस विचारधारा से हैं और हमारी लेखकीय आजादी पर हमला करने वाला किस विचारधारा का है । अगर हमारे देश में ऐसा संभव हो पाता है तो ये लेखक बिरादरी के लिए तो बेहतर होगा ही हमारे लोकतंत्र को भी मजबूकी प्रदान करेगा ।

Saturday, January 28, 2012

तुष्टीकरण का खतरनाक खेल

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आखिरकार विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी को नहीं आने दिया गया और राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने चंद कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए । बात यहीं खत्म नहीं हुई जयपुर में रश्दी को वीडियो कान्फ्रेंसिग भी नहीं करने दी गई । एक भारतीय मूल के लेखक को अपने ही देश में आने से रोककर और फिर उसे वीडियो लिंक के जरिए बातचीत की इजाजत नहीं देकर राजस्थान की गहलोत सरकार ने जिस खतरनाक परंपरा की शुरुआत कर दी है उसके दूरगामी परिणाम होंगे । लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने जवाहरलाल नेहरू के दौर के बाद संस्थाओं,परंपराओं और मान्यताओं की परवाह करना बंद कर दिया है । जवाहरलाल नेहरू का जरूर यह मानना था कि भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हर तरह की संस्थाओं को मजबूत करना होगा और नेहरू ने ताउम्र इसको अपनाया और संस्थाओं को मजबूत किया । बाद में इंदिरा गांधी ने तो संस्थाओं और मान्यताओं की परवाह ही नहीं की और एक तानाशाह की तरह जो मन में आया वो किया जिसकी परिणति देश में इमरजेंसी के तौर पर हुई । राजीव गांधी से भी शुरुआत में लोगों को उम्मीद थी लेकिन वह भी अपनी मां के पदचिन्हों पर ही चले और अंतत: अपनी सुधारवादी छवि को पीछे छोड़कर कट्टरपंथिय़ों के आगे झुकनेवाले नेता बनकर रह गए थे । जवाहरलाल नेहरू की संस्थाओं में आस्था अवश्य थी लेकिन वो भी मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते थे । 1964 में जब दिल्ली से राज्यसभा के सदस्य का चुनाव होना था को स्वभाविक दावेदारी उस वक्त नई दिल्ली म्युनिसिपल काउंसिल के उपाध्यक्ष इंद्र कुमार गुजराल की थी । लेकिन जवाहर लाल नेहरू दिल्ली के मेयर नूर उद्दीन अहमद को उम्मीदवार बनाना चाहते थे क्योंकि वो मुसलमान थे । नेहरू ने उनका नाम तय भी कर दिया था लेकिन इंदिरा गांधी की अपनी अलग राजनीति और गुट था । इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीति के तहत नेहरू की अनुपस्थिति में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई और पिता की पसंद बताकर इंद्र कुमार गुजराल के नाम पर मुहर लगवा ली । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जब कांग्रेस के नेताओं ने मुसलमानों को रिझाने के लिए इस तरह के काम किए ।
सलमान रश्दी को जयपुर आने से रोकने का मसला सिर्फ अभिवयक्ति का आजादी पर पाबंदी का मसला नहीं है यह पूरा मामला जुड़ा है उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को रिझाने से । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के लिए बेहद अहम है और अहम है उत्तर प्रदेश में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका भी । सूबे के तकरीबन 114 सीटों पर बीस हजार से ज्यादा मुसलमान मतदाता है । माना जाता है कि यही बीस हजार वोटर इन सीटों पर उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करते हैं । लिहाजा कांग्रेस ने उनको रिझाने और अपने पक्ष में करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है । कांग्रेस पार्टी मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है । सालों से बुनकरों की खास्ता हालत से बेपरवाह केंद्र सरकार को अचानक उनकी याद आती है और आनन फानन में बुनकरों के लिए हजारो करोड़ के पैकेज का ऐलान कर दिया जाता है । उत्तर प्रदेश में चुनावों के ऐलान से ठीक पहले मुसलमानों के लिए साढ़े चार फीसदी आरक्षण का फैसला कैबिनेट से हो जाता है । उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर जारी किए गए अपने विजन डॉक्यूमेंट में कांग्रेस ने आगे भी आबादी के हिसाब से अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की वकालत की है । उसी दस्तावेज में मुस्लिम अध्यापकों की भर्ती के विशेष अभियान से लेकर अल्पसंख्यक सशक्तीकरण के लिए पार्टी की प्राथमिकता पर बल दिया गया है । दरअसल यह सब कुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है । दरअसल कांग्रेस चाहती है कि किसी भी तरह से उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के वोट उसकी झोली में आए और दशकों से खोई राजनीतिक जमीन हासिल की जाए । यूपीए 1 के शासन काल के दौरान 30 नवंबर दो हजार छह को मुसलमानों की हालत पर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पेश की गई थी लेकिन तकरीबन पांच साल के बाद कांग्रेस उस रिपोर्ट पर जागी । रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट की सुध लेनेवाला कोई है या नहीं इसका पता अबतक नहीं चल पाया है । बटला हाउस एनकाउंटर को जिस तरह से दिग्विजय ने हवा दी और उसे एक बार फिर से जिंदा करने की कोशिश की उसके पीछे भी अल्पसंख्यकों को एक जुट करने की राजनीति है।
मुसलमानों के वोट के लिए जिस तरह से कांग्रेस काम कर रही है वह हमें अस्सी के दशक के राजीव गांधी के दौर की याद दिलाता है । अपनी मां की हत्या के बाद उपजे सहानुभूति लहर पर सवार होकर राजीव गांधी ने आजाद भारत के इतिहास में सबसे बडा़ बहुमत हासिल किया था । लेकिन चौरासी में सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से राजीव गांधी ने फैसले लिए वो बेहद चौंकानेवाले और हैरान करनेवाले थे। राजीव गांधी ने अपने शासनकाल में मुसलमानों को रिझाने के लिए जो कदम उठाए वो बाद में पार्टी के लिए आत्मघाती ही साबित हुए । बोफोर्स खरीद सौदे में दलाली के आरोपों और रामजन्मभूमि आंदोलन के भंवर में फंसे राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए संविधान में संशोधन कर दिया वह एक स्वपनदर्शी नेता का प्रतिगामी कदम था । राजीव गांधी ने उस वक्त के अपने प्रगतिशील मुस्लिम साथियों की राय को दरकिनार कर यह कदम उठाया था । राजीव गांधी ने ही सबसे पहले सलमान रश्दी की किताब पर पाबंदी लगाई थी । भारत विश्व का पहला देश था जिसने इस किताब पर बैन लगाया था तब सैटेनिक वर्सेस को छपे चंद ही दिन हुए थे । भारत में किताब बैन होने के बाद ईरान के खुमैनी ने सलमान के खिलाफ फतवा जारी किया था । उस दौर में राजीव गांधी ने जो गलतियां की उसका खामियाजा उन्हें 1989 के आम चुनाव में उठाना पड़ा और प्रचंड बहुमत से सरकार में आनेवाले राजीव को विपक्ष में बैठने के लिए मजबूर होना पड़ा । लेकिन कांग्रेस के अब के नेता राजीव के उस वक्त के फैसलों पर ध्यान देकर फैसले कर रहे हैं लेकिन नतीजों पर उनका ध्यान नहीं है । अगर नतीजों का विश्लेषण करते तो शायद इस तरह के कदम उटाने से परहेज करते । अब जो काम कांग्रेस सलमान रश्दी के बहाने से या फिर मुसलमानों को आरक्षण देने जैसे कदमों से कर रही है उसकी जड़ें हम राजीव गांधी के दौर में देख सकते हैं । जो काम उस वक्त राजीव गांधी की सरकार ने किया था वही काम अब राजस्थान की गहलोत सरकार कर रही है । गोपालगढ़ दंगे में सूबे की पुलिस की भूमिका को लेकर मुसलमानों का आक्रोश झेल रहे अशोक गहलोत को रश्दी में एक संभावना नजर आई और उन्होंने उसे एक अवसर की तरह झटकते हुए इस बात के पुख्ता इंतजाम कर दिए कि रश्दी किसी भी सूरत में भारत नहीं आ पाए । रश्दी को भारत आने से रोकने की सफलता से उत्साहित अशोक गहलोत ने मिल्ली काउंसिल की आड़ लेकर वीडियो कान्फ्रेंसिंग भी रुकवा दी । जिस समारोह में केंद्रीय मंत्री को घुसने के लिए आधे घंटे तक कतार में खड़ा रहना पड़े वहां मिल्ली काउंसिल के चंद कार्यकर्ता धड़धड़ाते हुए अंदर तक पहुंच जाएं तो पुलिस और सरकार की मंशा साफ तौर सवालों के घेरे में आ जाती है । उसी तरह से कांग्रेस को लग रहा है कि सलमान रश्दी को भारत आने से रोककर वो उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का वोट पा जाएगी । ऐसा हो पाता है या नहीं ये तो 6 मार्च को पता चलेगा लेकिन लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए जो खतरनाक खेल कांग्रेस केल रही है उससे न तो अकलियत का भला होनेवाला है और न ही कांग्रेस पार्टी का ।

Friday, January 27, 2012

'71 के अशोक

बीते सोलह जनवरी को हिंदी के वरिष्ठ कवि, आलोचक, स्तंभकार अशोक वाजपेयी इकहत्तर बरस के हो गए । उनके जन्मदिन के मौके पर इंडिया इंटरनेशलन सेंटर की एनेक्सी में एक बेहद आत्मीय सा समारोह हुआ । उस मौके पर वरिष्ठ आलोचक डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल के संपादन में अशोक वाजपेयी पर एकाग्र एक किताब का विमोचन मशहूर चित्रकार रजा साहब, अशोक जी और उनकी पत्नी रश्मि जी ने किया । डॉ अग्रवाल द्वारा संपादित इस पुस्तक का नाम कोलाज : अशोक वाजपेयी है जिसे राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने छापा है । समारोह के दौरान ही रजा साहब ने यह सवाल उठाया कि किताब का नाम कोलाज क्यों । जिसपर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सफाई देते हुए बताया कि उसमें अशोक वाजपेयी के व्यक्तित्व के विभिन्न रंगों को एक जगह इकट्ठा किया गया है इस वजह से पुस्तक का नाम कोलाज रखा गया है ।इस किताब को देखने का मौका अभी नहीं मिला है लेकिन जैसा कि पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने बताया उससे अंदाज लगा कि उसमें अशोक जी के मित्रों के लेख और उनके कुछ पुराने फोटोग्राफ्स संकलित हैं ।पुरुषोत्तम जी ने इस किताब की तैयारी और उसमें होने वाली देरी के बारे में बताया । कृष्ण बलदेव वैद ने अशोक वाजपेयी को सैकड़ों विशेषणों से बेहद ही रोचक तरीके से नवाजा है जो कि कोलाज में संकलित है ।
पुस्तक विमोचन और पुरुषोत्तम अग्रवाल के संक्षिप्त भाषण के बाद अशोक वाजपेयी से सवाल जवाब हुए । कई शास्त्रीय किस्म के सवाल हुए जिसका अंदाज अशोक जी ने अपने ही अंदाज में दिया । पहला सवाल उनकी पत्नी ने उनसे पूछा कि आपकी कविताओं में परिवार बार-बार आता है तो कविता के परिवार और खुद के परिवार में कोई अंतर नजर आता है । पत्नी के सवालों को वो भी सार्वजनिक तौर पर सामाना करना मुमकिन तो नहीं होता लेकिन वो भी ठहरे अशोक वाजपेयी । क्रिकेट की शब्दावली में कहें तो अशोक वाजपेयी ने अपनी पत्नी के सवाल को स्टेट ड्राइव करने की बजाए हल्के से टर्न देकर फ्लिक कर दिया । उन्होंने कहा कि मुझे ये मानने में कोई संकोच नहीं है कि मुझे परिवार को जितना वक्त देना चाहिए था उतना दे नहीं पाया । यहीं पर उन्होंने ये भी कहकर रश्मि जी को खुश कर दिया कि उनका रश्मि में इस बात को लेकर अगाध विश्वास था कि उनके अंदर एक को परिवार चलाने की क्षमता हैं । रश्मि जी के सवालों से ही उन्होंने उनको खुश करने का एक और मौका ढूंढा और सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी की तारीफ करके उनको प्रसन्न कर दिया, हलांकि पति के पास कोई विकल्प होता भी नहीं है । एक सवाल के जबाव में उन्होंने यह भी कहा कि वो बहुलतावाद के हिमायती हैं लेकिन अगर उनको चुनना पड़ा तो वो अनिच्छापूर्वक कविता और भारत भवन को चुनेंगे । इस बात पर अफसोस भी जताया कि वो पूर्वग्रह को नहीं चुन पाए । कविता में बेवजह और फैशन में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर अशोक जी ने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई । उन्होंने कहा कि कविता में अंग्रेजी शब्दों का गैरजरूरी इस्तेमाल उन्हें बौद्धिक लापरवाही लगता है इस तरह के जो शब्द इस्तेमाल होते है उससे कविता में कोई विशेष रस भी पैदा नहीं होता । लेकिन अशोक वाजपेयी ने साथ में यह भी जोड़ दिया कि भाषा का खुलापन बेहद आवश्यक है । कविता में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर तो कविवर जानें लेकिन मुझे लगता है कि अंग्रेजी के वो शब्द जो हमारी बोलचाल की भाषा में स्वीकृत होकर हमारी ही भाषा के शब्द जैसे हो गए हैं उनका इस्तेमाल गद्य में तो कम से कम गलत नहीं ही है । जैसे कि अगर हम कहीं चयनित पारदर्शिता की जगह सेलक्टिव ट्रासपेरिंसी लिखें तो प्रभाव भी ज्यादा होता है और ग्राह्यता भी । अशोक जी के बारे में मैं नहीं कह रहा हूं लेकिन हिंदी के कई बड़े लेखक भाषा की शुद्धता को लेकर खासे सतर्क रहते हैं और उन्हें लगता है कि अगर हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल हो जाएगा तो हमारी भाषा भ्रष्ट हो जाएगी । हिंदी के उन शुद्धतावादियों से मेरा आग्रह है कि वो हिंदी को इतनी कमजोर भाषा नहीं समझें कि अंग्रेजी के दो चार शब्दों के इस्तेमाल से वह भ्रष्ट हो जाएगी । मेरा तो मानना है कि किसी भी अन्य भाषा के शब्दों को ग्रहण करनेवाली भाषा समृद्ध होती है । अंग्रेजीवालों को तो किसी भी भाषा के शब्दों को लेने में और उसके उपयोग में कभी कोई दिक्कत नहीं होती । हर वर्ष अंग्रेजी के शब्दकोश में हिंदी के कई शब्दों को शामिल कर उसका धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है । अब जंगल, बंदोबस्त आदि अंग्रेजी में भी उपयोग में आते हैं और पश्चिम के कई लेखकों की कृतियों में इस तरह के शब्दों के इस्तेमाल को देखा जा सकता है । किसी भी शब्द को लेकर आग्रह और दुराग्रह ठीक नहीं है हमें तो उस शब्द की स्वीकार्यता और संप्रेषणीयता को देखने और तौलने की जरूरत है ।
हम फिर से वापस लौटते हैं अशोक जी के सवाल जबाव के सत्र की ओर । वहां कई छोटे बड़े सवाल हो रहे थे, शास्त्रीयता कुछ बढ़ रही थी लेकिन आयोजकों ने समय कम रखा था । जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने अशोक जी पर एक सवाल दागा । थानवी जी ने कहा कि अशोक वाजपेयी उनके जानते सबसे ज्यादा प्रेम कविताएं लिखनेवाले कवियों में से एक हैं । सवाल यह था कि इन प्रेम कविताओं के पीछे राज क्या है । लगा कि ओम थानवी की गुगली पर वाजपेयी जी बोल्ड हो जाएंगे लेकिन उन्होंने एक सधे हुए बल्लेबाज की तरह ओम जी की गुगली को पहले ही भांप लिया और सीधे बल्ले से उसको खेल दिया । वाजपेयी जी ने माना कि उनकी हर प्रेम कविता किसी ना किसी को संबोधित हैं । लेकिन यहां एक मंजे हुए खिलाड़ी की तरह यह जोड़ना भी नहीं भूले कि उन्हें यह नहीं पता कि जिनको ये प्रेम कविताएं संबोधित हैं उनतक वो पहुंच पाई या नहीं ।
अशोक वाजपेयी के बोलने के अंदाज में एक चुटीलापन है । वो बेहद कठिन से कठिन सवाल को भी हल्के फुल्के अंदाज में निबटाने की क्षमता रखते हैं । जब उनसे एक व्यक्ति ने पूछा कि वो नए लोगों के लिए क्या किया और उनके साथ क्यों नहीं उठते बैठते हैं तो अशोक जी ने बेहद खिलंदड़े अंदाज में यह कहा कि नई पीढ़ी को उनकी सलाह की जरूरत ही नहीं है वो लोग खुद से बहुत समझदार हैं । लेकिन नई पीढ़ी के लिए अपने किए गए कामों को याद भी दिलाया और वहां मौजूद लोगों को यह याद दिलाया कि पहचान सीरीज के तहत उन्होंने उस दौर के कई कवियों का पहला कविता संग्रह प्रकाशित करने में अहम भूमिका निभाई थी । इस छोटे लेकिन गरिमापूर्ण कार्यक्रम के बाद रजा साहब ने रात्रिभोज का आयोजन किया था । रजा साहब ने इस बात पर खुशी जाहिर की वो इतने लंबे समय तक फ्रांस में रहने के बाद अपने जिंदगी के इस पड़ाव पर मुल्क लौट आए हैं । मेरी इच्छा थी कि रजा साहब से यह पूछूं कि दशकों तक विदेश में रहने के बाद वो कौन सी वजह थी जो उनको भारत खींच लाई । लेकिन रजा साहब के इतने चाहनेवालों ने उनको घेर रखा था कि यह सवाल मेरे मन में ही रह गया । दो साल पहले भी रजा साहब का एक इंटरव्यू किया था लेकिन सनारोह में कई कैमरों के बीच उतना वक्त नहीं मिल पाया था कि तफसील से बात हो सके । ये ख्वाहिश है कि रजा साहब का एक लंबा इंटरव्यू करूं और उनसे पेंटिग्स के अलावा उनकी जिंदगी के कई पहलुओं पर बात करूं । देश की राजनीति से लेकर उनके समकालीन पेंटरों के संस्मऱण को कैमरे में कैद कर सकूं ।

Thursday, January 26, 2012

2011: उल्लेखनीय कृति का रहा इंतजार

साल 2011 खत्म हो गया । देश भर की तमाम साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में पिछले वर्ष प्रकाशित किताबों का लेखा-जोखा छपा । पत्र-पत्रिकाओं में जिस तरह के सर्वे छपे उससे हिंदी प्रकाशन की बेहद संजीदा तस्वीर सामने आई । एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन डेढ से दो हजार किताबों का प्रकाशन पिछले साल भर में हुआ । लेखा-जोखा करनेवाले लेखकों ने हर विधा में कई पुस्तकों को उल्लेखनीय तो कई पुस्तकों को साहित्यिक जगत की अहम घटना करार दिया । कुछ समीक्षकों ने तो चुनिंदा कृतियों को महान कृतियों की श्रेणी में भी रख दिया । मैं उन समीक्षकों पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन अगर हम वस्तुनिष्ठता के साथ पिछले वर्ष के हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो पाते हैं कि बीता वर्ष रचनात्मकता के लिहाज से उतना उर्वर नहीं रहा, जितना साहित्यिक सर्वे में हमें दिखा । मैंने पिछले वर्ष जितना पढ़ा या फिर यह कह सकता हूं कि जिन कृतियों के बारे में पढ़ा उसके आधार पर जो एक तस्वीर उभर कर सामने आती है वह बहुत निराशाजनक है । अगर हम हर विधा के हिसाब से बात करें तो भी हिंदी साहित्य में कोई आउटस्टैंडिंग कृति के आने का दावा नहीं कर सकते । अगर हम हिंदी साहित्य में उपन्यास के परिदृश्य को देखें तो पिछले साल साहित्य की इस विधा में दर्जनों किताबें प्रकाशित हुई, कईयों की चर्चा भी हुई लेकिन कोई भी किताब साहित्य में धूम मचा दे, यह हो नहीं सका । कुछ दिनों पहले सोशल नेटवर्किंग साइट पर समीक्षक साधना अग्रवाल ने पिछले वर्ष प्रकाशित दस किताबों की सूची जारी की । साधना अग्रवाल ने उन्हीं किताबों के आधार पर तहलका में लेख भी लिखा । फेसबुक पर मेरा और साधना जी का संवाद भी हुआ । वहां भी मैंने यह संकेत करने की कोशिश की थी कि इस वर्ष कुछ भी उल्लेखनीय नहीं छपा । यहां मैं अगर उल्लेखनीय कह रहा हूं तो उसका मतलब यह है कि वर्ष भर उसकी चर्चा हो और उस कृति के बहाने साहित्य में विमर्श भी हो । इसके अलावा साहित्यिक पत्रिका हंस और पाखी में भी साल भर की किताबों पर विस्तार से लेख छपे । हंस में अशोक मिश्र ने उपन्यासों की पूरी सूची दी । अशोक मिश्र के मुतबिक हरिसुमन विष्ठ का उपन्यास-बसेरा- साल का सबसे अच्छा उपन्यास है । उन्होंने श्रमपूर्वक उपन्यासों की एक पूरी सूची गिनाई है लेकिन विष्ठ के उपन्यास को सबसे अच्छा उपन्यास क्यों माना इसकी वजह नहीं बताई । हो सकता है अशोक मिश्र की राय में दम हो लेकिन हिंदी जगत में बिष्ठ का यह उपन्यास अननोटिस्ड रह गया । हंस के सर्वेक्षण में आलोचना विधा में पहला नाम निर्मला जैन की किताब कथा समय में तीन हमसफर का है । पता नहीं अशोक मिश्र को निर्मला जैन की किताब आलोचना की किताब कैसे लगी, ज्यादा से ज्यादा उस किताब को संस्मरणात्मक समीक्षा कह सकते हैं । निर्मला जैन की उक्त किताब में अपनी तीन सहेलियों के घर परिवार से लेकर नाते रिश्तेदार सभी मौजूद हैं । उस किताब को पढ़ने के बाद जो मेरी राय बनी वह यह है कि निर्मला जैन का लेखन बेहद कंफ्यूज्ड है और वो क्या लिखना चाहती थी यह साफ ही नहीं हो पाया । लेकिन आलोचना में जिन नामों को उन्होंने प्रमुख किताबें माना है उसमें से ज्यादातर लेखों के संग्रह हैं या फिर कुछ संपादित किताबें ।
पाखी में भारत भारद्वाज के लेख पर टिप्पणी करने से मैं अपने आप को रेस्कयू कर रहा हूं । तहलका में साधना अग्रवाल ने अपने चयन को सीमित किया है और सिर्फ दस किताबों पर बात की है । इसका एक फायदा यह हुआ कि दस किताबों के बारे में संक्षिप्त ही सही जानकारी तो मिली । साधना अग्रवाल ने पहला नाम मेवाराम के उपन्यास सुल्तान रजिया का दिया है । हो सकता है कि मेवाराम का यह उपन्यास बेहतर हो लेकिन अगर यह इतना अच्छा था तो हिंदी जगत में इस पर चर्चा होनी चाहिए थी जो सर्वेक्षणों के अलावा ज्यादा दिखी नहीं । सूची में और नाम हैं- मंजूर एहतेशाम का मदरसा, प्रदीप सौरभ का उपन्यास तीसरी ताली, ओम थानवी का यात्रा संस्मरण मुअनजोदड़ो । तीसरी ताली मैंने पढ़ी है और मुझे लगता है कि इस उपन्यास का ना तो विषय नया है और न ही कहने का अंदाज । इस विषय पर अंग्रेजी में कई किताबें लिखी जा चुकी हैं । प्रदीप सौरभ के उपन्यास तीसरी ताली और पूर्व में प्रकाशित रेवती के उपन्यास अ ट्रूथ अबाउट में संयोगवश कई समानताएं देखी जा सकती है । अब अगर जनसत्ता संपादक ओम थानवी के यात्रा संस्मरण मुअनजोदड़ों पर बात करें तो हम देखतें हैं कि इस किताब की समीक्षा हिंदी की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपी । एक अनुमान के मुताबिक इस किताब की तकरीबन दो से तीन दर्जन समीक्षा तो मेरी ही नजर से गुजरी होगी। ओम थानवी यशस्वी संपादक हैं, देश विदेश में घूमते रहते हैं । उनका यह यात्रा संस्मरण अच्छा है लेकिन हिंदी में जो यात्रा संस्मरणों की समृद्ध परंपरा रही है उसमें मुअनजोदड़ों ने थोड़ा ही जोड़ा है । इसके अलावा साधना अग्रवाल की सूची में जो अहम नाम है वह है विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब व्योमकेश दरवेश । इस किताब की भी खूब समीक्षा छपी लेकिन हिंदी के आलोचकों में इसको लेकर दो मत हैं । कुछ लोगों को यह कृति कालजयी लग रही है तो कई नामवर आलोचकों ने इस कृति को एक साधारण करार दिया जिसमें तथ्यात्मक भूलों के अलावा बहुत ज्यादा दुहराव है ।
मैंने दो सर्वेक्षणों का जिक्र इसलिए किया ताकि एक अंदाजा लग सके कि हिंदी में पिछले वर्ष किन रचनाओं को लेकर सर्वेक्षणकर्ताओं ने उत्साह दिखाया । मैं जो एक बड़ा सवाल खडा करना चाहता हूं वह यह कि हिंदी में पिछले वर्ष जो रचनाएं छपी उसको लेकर हिंदी साहित्य में कोई खासा उत्साह देखने को नहीं मिला । मैं यह बात पाठकों के पाले में डालता हूं कि वो यह तय करें और विचार करें कि क्या पिछले वर्ष कोई गालिब छुटी शराब, मुझे चांद चाहिए, चाक, आंवा, कितने पाकिस्तान जैसी कृतियां छपी । मैं सर्वेक्षणकर्ताओं और हिंदी के आलोचकों के सामने भी यह सवाल खड़ा करता हूं कि वो इस बात पर गौर करें कि बीते वर्षों में क्यों कोई अहम कृति सामने क्यों नहीं आ पा रही है । क्या हिंदी लेखकों के सामने रचनात्मकता का संकट है या फिर जो स्थापित लेखक हैं वो चुकने लगे हैं और नए लेखकों के लेखन में वो कलेवर या फिर कहें उनकी लेखनी पर अभी सान नहीं चढ़ पाई है कि हिंदी साहित्य जगत को झकझोर सकें । पिछले दिनों सामयिक प्रकाशन के सर्वेसर्वा और मित्र महेश भारद्वाज से बात हो रही थी तो मैंने यूं ही उनसे पूछ लिया कि पिछले कई सालों से आंवा जैसी कृति क्यों नहीं छाप रहे हैं । महेश जी ने जो बात कही उसने मुझे झकझोर दिया । महेश भारद्वाज के मुताबिक- आज का हिंदी का लेखक डूब कर लेखन नहीं कर रहा है और पाठकों के बदलते मिजाज को समझ भी नहीं पा रहा है, लेखकों से पाठकों की नब्ज छूटती हुई सी प्रतीत होती है । आज हिंदी के लेखकों का ज्यादा ध्यान लेखन की बजाए पुरस्कार और सम्मान पाने की तिकड़मों में लगा है । अगर हिंदी का लेखक इन तिकड़मों की बजाए अपने विषय पर ध्यान केंद्रित करे और विषय में डूब कर लिखे तो हिंदी जगत को पिछले एक दशक से जिस मुझे चांद चाहिए, आंवा और चाक जैसी कृतियों का इंतजार है वह खत्म गहो कता है । बातों बातों में महेश भारद्वाज ने बहुत बड़ी बात कह दी है जिसपर हिंदी के लेखकों को ध्यान देना चाहिए क्योंकि प्रकाशक होने की वजह से वो पाठकों के बदलते मन मिजाज से तो वाकिफ हैं ही ।

Wednesday, January 18, 2012

बार-बार वर्धा

दस ग्यारह महीने बाद एक बार फिर से वर्धा जाने का मौका मिला । वर्धा के महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के छात्रों से बात करने का मौका था । दो छात्रों - हिमांशु नारायण और दीप्ति दाधीच के शोध को सुनने का अवसर मिला । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में यह एक अच्छी परंपरा है कि पीएच डी के लिए किए गए शोध को जमा करने के पहले छात्रों, शिक्षकों और विशेषज्ञों के सामने प्रेजेंटेशन देना पड़ता है । कई विश्वविद्यालयों में जाने और वहां की प्रक्रिया को देखने-जानने के बाद मेरी यह धारणा बनी थी विश्वविद्यालयों में शोध प्रबंध बेहद जटिल और शास्त्रीय तरीके से पुराने विषयों पर ही किए जाते हैं । मेरी यह धारणा साहित्य के विषयों के इर्द-गिर्द बनी थी । जब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के छात्रों से मिलने और उनके शोध को सुनने का मौका मिला तो मेरी यह धारणा थोड़ी बदली । हिमांशु नारायण के शोध का विषय भारतीय फीचर फिल्म और शिक्षा से जुड़ा था जबकि दीप्ति ने इंडिया टीवी और एनडीटीवी का तुलनात्मक अध्ययन किया था । दोनों के अध्ययन में कई बेहतरीन निष्कर्ष देखने को मिले । हिमांशु ने तारे जमीं पर और थ्री इडियट जैसी फिल्मों के आधार पर श्रमपूर्वक कई बातें कहीं जिसपर गौर किया जाना चाहिए । हिमांशु ने पांच सौ से ज्यादा लोगों से बात कर उनकी राय को अपने शोद प्रबंध में शामिल किया है जो उसे प्रामाणिकता प्रदान करती है । उसके शोध के प्रेजेंटेशन के समय कई सवाल खड़े हुए । यह देखना बेहद दिलचस्प था कि दूसरे विषय के छात्र या फिर उसके ही विभाग के छात्र भी पूरी तैयारी के साथ आए थे ताकि शोध करनेवाले अपने साथी छात्रों को घेरा जाए । सुझाव और सलाह के नाम पर जब छात्र खड़े हुए तो फिर शुरू हुआ ग्रीलिंग का सिलसिला जिसे विभागाध्यक्ष प्रोपेसर अनिल राय अंकित ने रोका । दीप्ति का शोध बेहद दिलचस्प था । एनडीटीवी और इंडिया टीवी की तुलना ही अपने आप में दिलचस्प विषय है। खबरों को पेश करने का दोनों चैनलों को बेहद ही अलहदा अंदाज है । लेकिन दो साल के अपने शोध के दौरान दीप्ति ने यह निष्कर्ष दिया किस समाचार में कमी आई है और न्यूज चैनलों पर मनोरंजन बढ़ा है । दोनों चैनलों की कई हजार मिनटों की रिकॉर्डिग को विश्लेषण करने के बाद उसके निष्कर्ष दिलचस्प थे । चौंकानेवाले भी । वर्धा
जाकर एक बार फिर से बापू की कुटी या आश्रम में जाने का मन करने लगा था । दूसरे दिन सुबह सुबह वर्धा के ही गांधी आश्रम पहुंच गया जो विश्वविद्यालय से आधे घंटे की दूरी पर स्थित है । वहां पहुंचकर एक अजीब तरह की अनुभूति होती है । वातावरण इस तरह का है कि लगता है कि आप वहां घंटों बैठ सकते हैं । तकरीबन दस महीने पहले जब वर्धा गया था तो भी गांधी आश्रम गया था । वहां गांधी के कई सामान रखे हैं । गांधी का बाथ टब, उनका मालिश टेबल, उनकी चक्की आदि आदि । उनके बैठने का स्थान भी सुरक्षित रखा हुआ है । पिछली बार जब गया था तो वहां बंदिशें कम थी । लेकिन इस बार पाबंदियां इस वजह से ज्यादा थी कुछ महीनों पहले वहां रखा बापू का ऐनक चोरी चला गया था । बापू के चश्मे के चोरी हो जाने के बाद वहां रहनेवाले कार्यकर्ताओं ने थोड़ी ज्यादा सख्ती शुरू कर दी थी । गांधी जिस कमरे में बैठते थे वहां बैठने के बाद आप उनके सिद्धांतों को महसूस कर सकते हैं । एक अजीब सा अहसास । गांधी आश्रम में हम चार लोग गए थे । मैं था, अनिल राय जी थे, विश्वविद्यालय के ही शिक्षक मनोज राय थे और इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के शिक्षक प्रोफेसर सी पी सिंह थे । वहां इस बार मेरी मुलाकात गांधी जी के वक्त से आश्रम में रह रही कुसुम लता ताई से हुई । वो गांधी जी के कमरे के बाहर बैठी थी । वहां हम इनके साथ बैठे । बतियाए । हम एक ऐसी महिला के साथ बैठे थे जिन्होंने गांधी को न सिर्फ देखा था बल्कि उनके आश्रम में कई साल तक उनके साथ रही थी । बातचीत के क्रम में मैने उनसे गांधी जी के बारे में पूछा । गांधी कैसे थे । वो कैसे रहा करते थे, आदि आदि । गांधी, कस्तूरबा और जय प्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती के बारे में उन्होंने कई बातें बताई । उनसे प्रभावती देवी और जयप्रकाश के बारे में बात करते हुए मुझे गोपाल कृष्ण गांधी की कुछ बातें याद आ गई जो उन्होंने अपनी किताब- ऑफ अ सर्टेन एज- की याद आ गई । गोपाल कृष्ण गांधी ने लिखा है- जयप्रकाश नारायण को गांधी जी जमाई राजा मानते थे क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए जयप्रकाश के अमेरिका चले जाने के बाद प्रभावती जी गांधी के साथ वर्धा में ही रहने लगी थी और बा और बापू दोनों उन्हें पुत्रीवत स्नेह देते थे । दरअसल जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के भाई की लड़की थी । वर्धा के आश्रम में रहने के दौरान बापू और कस्तूरबा दोनों उन्हें अपनी बेटी की तरह मानने लगे । भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गांधी जी और कस्तूरबा को पुणे के आगा खान पैलेस में कैद कर लिया गया । वहां बा की तबीयत बिगड़ गई तो गांधी ने 6 जनवरी 1944 ने अधिकारियों को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि दरभंगा जेल में बंद प्रभावती देवी को पुणे जेल में स्थानांतरित किया जाए ताकि कस्तूरबा की उचित देखभाल हो सके । उस पत्र में गांधी ने लिखा कि प्रभावती उनकी बेटी की तरह हैं । यह बातें कुसुम लता ताई ने भी बताई । उन्होंने कहा कि बा और बापू दोनों प्रभावती देवी को बेटी की तरह मानते थे । गोपाल
कृष्ण गांधी ने गांधी और जयप्रकाश के बीच की पहली मुलाकात का दिलचस्प वर्णन किया है । उनके मुताबिक तकरीबन सात साल बाद जब जयप्रकाश नारायण अमेरिका में अपनी पढ़ाई खत्म कर भारत लौटे तो तो अपनी पत्नी से मिलने वर्धा गए जहां वो गांधी के सानिध्य में रह रही थी । पहली मुलाकात में गांधी ने जयप्रकाश से देश में चल रहे आजादी के आंदोलन के बारे में कोई बात नहीं कि बल्कि उन्हें ब्रह्मचर्य पर लंबा उपदेश दिया । बताते हैं कि गांधी जी ने प्रभावती जी के कहने पर ही ऐसा किया क्योंकि प्रभावती जी शादी तो कायम रखना चाहती थी लेकिन ब्रह्मचर्य के व्रत के साथ । जयप्रकाश नरायण ने अपनी पत्नी की इस इच्छा का आजीवन सम्मान किया । तभी तो गांधी जी ने एक बार लिखा- मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । गांधी जी की ये राय 25 जून 1946 के एक दैनिक में प्रकाशित भी हुई थी। गांधी से जयप्रकाश का मतभेद भी था, गांधी जयप्रकाश के वयक्तित्व में एक प्रकार की अधीरता भी देखते थे लेकिन बावजूद इसके वो कहते थे कि जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । कुसुम लता ताई ने भी जयप्रकाश और प्रभावती के बारे में कई दिलचस्प किस्से सुनाए । इसके अलावा देश की वर्तमान हालत और राजनीति के बारे में कुसुम ताई से लंबी बात हुई । उसके
बाद हमलोग वापस विश्वविद्यालय लौटे । वहां भी कुलपति विभूति नारायण राय की पहल पर गांधी हिल्स बना है । गांधी हिल्स पर बापू का ऐनक, उनकी बकरी, उनकी चप्पल और उनकी कुटी बनाई गई है । आप वहां घंटों बैठकर गांधी के दर्शन के बारे में मनन कर सकते हैं बगैर उबे । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्विविद्यालय में गांधी के बाद अब कबीर हिल्स बन रहा है जहां कबीर से जुड़ी यादें ताजा होंगी । बार बार वर्धा जाना और गांधी से जुड़ी चीजों को देखना पढ़ना चर्चा करना अपने आप में एक ऐसा अनुभव है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है बयां नहीं ।

Saturday, January 14, 2012

धौनी नहीं बुढ़ाते खिलाड़ी जिम्मेदार

विदेशी धरती पर पिछले छह टेस्ट में लगातार हार से भारतीय क्रिकेट में भूचाल आया हुआ है । एक दो लोगों को छोड़कर तमाम पूर्व क्रिकेटर और दिग्गज भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी को इस शर्मनाक हार का जिम्मेदार मानते हैं । धौनी के सर हार का ठीकरा फोड़ने के बाद अब उनके आलोचकों ने धौनी को हटाने का एक अभियान सा छेड़ दिया है । जिस महेन्द्र सिंह धौनी ने अब से नौ महीने पहले ही देश को क्रिकेट विश्व कप का तोहफा दिया था वही धौनी अब क्रिकेट के सबसे बड़े खलनायक करार दिए जा रहे हैं । हमें धौनी की आलोचना के पीछे के मनोविज्ञान और मानसिकता को समझने की जरूरत है । जब से भारत ने क्रिकेट खेलना शुरू किया तब से लेकर अबतक भारत में भी यह खेल अभिजात वर्ग के हाथ में ही रहा । क्रिकेट और क्रिकेट से जुड़े अहम संस्थाओं पर भी उसी इलीट वर्ग का वर्चस्व रहा । बड़े शहरों के बड़े लोगों का खेल क्रिकेट । दिल्ली और मुंबई का इस खेल पर लंब समय तक आधिपत्य रहा । लेकिन धौनी ने भारतीय क्रिकेट के उस मिथ को तोड़ा । झारखंड के एक छोटे से शहर रांची से आकर धौनी विश्व क्रिकेट के आकाश पर धूमकेतु की तरह चमके और छा गए । भारतीय क्रिकेट में धौनी युग की शुरूआत के बाद क्रिकेट दिल्ली मुंबई से निकलकर अमेठी-मेरठ हापुड-मेवात तक पहुंचा और वहां के खिलाड़ी सामने आने लगे और उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया। जब धौनी भारत के लिए तमाम सफलता हासिल कर रहे थे तब भी कई पूर्व क्रिकेटर उसको धौनी की मेहनत नहीं बल्कि किस्मत से जोड़कर देख रहे थे । उनको धौनी की सफलता रास नहीं आ रही थी । दिल्ली और मुंबई महानगरों की मानसिकता में जी रहे इन क्रिकेटरों को धौनी की सफलता से रश्क होने लगा था और वो उसको पचा नहीं पा रहे थे । इसलिए जैसे ही धौनी की कप्तानी में टीम इंडिया की हार होने लगी है तो महानगरीय मानसिकता वाले पूर्व क्रिकेटरों को भारतीय कप्तान पर हमला करने का मौका मिल गया ।धौनी की कप्तानी कौशल पर भी सवाल खड़े होने लगे और कुछ लोग तो उनको हटाने की मांग भी करने लगे हैं । लेकिन धौनी को हटाने की मांग करनेवाले या टीम इंडिया की हार के लिए अकेले धौनी को जिम्मेदार ठहरानेवाले इन विशेषज्ञों की टीम के दिग्गज और बुढा़ते बल्लेबाजों पर चुप्पी आश्चर्यजनक है। आज भारतीय टीम में जितने खिलाड़ी खेल रहे हैं अगर उनके शतकों को जोड़ दिया जाए तो वह पर्थ टेस्ट की पहली पारी में टीम इंडिया के स्कोर के करीब करीब बराबर होगी । लेकिन इतने दिग्गज बल्लेबाजों के रहते भी टीम इंडिया लगातार हार रही है तो सिर्फ कप्तान पर सवाल खड़े करने की वजह से क्रिकेट से अलहदा नजर आती है । टीम इंडिया के चार बड़े और दिग्गज बल्लेबाज- सचिन तेंदुलकर, विरेन्द्र सहवाग, राहुल द्रविड़ और वी वी एस लक्ष्मण का बल्ला विदेशी पिचों पर चल ही नहीं पा रहा है । क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर पिछले कई मैचों से एक शतक नहीं लगा पाने की वजह से भारी दबाव में हैं और अपने प्राकृतिक खेल से दूर होते जा रहे हैं । सचिन पर अपने सौंवे शतक का दबाव इतना ज्यादा है कि उसका खामियाजा टीम को उठाना पड़ रहा है । सवाल यह उठता है कि सचिन तेंदुलकर को और कितना मौका दिया जाएगा । क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि सचिन को खुद से संन्यास लेकर नए लोगों को खेलने का मौका देना चाहिए । अगर सौंवा शतक नहीं बन पा रहा है तो कब तक भारत उसका इंतजार करते रहेगा । धौनी पर आलोचना का तीर चलानेवाले विशेषज्ञों को यह कहने का साहस क्यों नहीं है कि सचिन को संन्यास ले लेना चाहिए ।
भारत के दूसरे दिग्गज बल्लेबाज विरेन्द्र सहवाग की बात करें तो वहां तस्वीर और भी दयनीय है । सहवाग कभी अच्छी बल्लेबाजी करते होंगे, अभी कुछ दिनों पहले देश में ही उन्होंने तिहरा शतक भी लगाया लेकिन विदेशी दौरों पर उनका प्रदर्शन दयनीय से भी बदतर है । दक्षिण अफ्रीका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक में सहवाग जब भी ओपनिंग करने आए तो बुरी तरह से फ्लॉप रहे । विदेशी धरती पर ओपनर के तौर पर उनका औसत 16 का है और भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर शतक लगाए हुए उनको चार साल हो गए । धौनी की आलोचना करनेवालों को सहवाग का इतना घटिया प्रदर्शन नजर नहीं आ रहा है । क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि सहवाग को टीम से बाहर का रास्ता दिखाया जाए । कब तक अतीत में अच्छे प्रदर्शन के आधार पर टीम इन वरिष्ठ खिलाड़ियों को ढोती और उसकी वजह से हारती रहेगी । सहवाग के अलावा एक जमाने में टीम इंडिया की दीवार कहे जानेवाले राहुल द्रविड़ के खेल को देखें तो वहां तो हालात और भी खराब है । मेलवर्न से लेकर पर्थ तक की पांच पारियों में द्रविड़ ने 24 रनों की औसत से 121 रन बनाए हैं और चार बार बोल्ड आउट हुए हैं । टीम इंडिया की दीवार अब ढहती नजर आने लगी है । तकनीक के मास्टर माने जानेवाले द्रविड़ जब पांच में चार पारियों में बोल्ड आउट होते हैं तो चयनकर्ताओं के लिए सोचने का वक्त आ गया है । उसी तरह अगर लक्ष्मण की बल्लेबाजी का आकलन करें तो वहां भी निराशा ही हाथ लगती है । ऐसे में सिर्फ धौनी को जिम्मेदार मानना उस शख्स के साथ अन्याय है जिसने देश को वनडे और टी-20 विश्वकप का तोहफा दिया । धौनी की कप्तानी पर सवाल खड़े करनेवालों को विश्व कप का फाइनल याद करना चाहिए जहां सहवाग के शून्य और सचिन के अठारह रन पर आउट होने के बाद धौनी ने जबरदस्त फॉर्म में चल रहे युवराज सिंह की बजाए खुद को बल्लेबाजी क्रम में उपर किया और फाइनल में नाबाद 97 रन बनाकर भारत को शानदार जीत दिलाई । हाई वोल्टेज मैच में शानदार छक्का लगाकर मैच जिताने का जिगरा बहुत ही कम बल्लेबाजों को होता है । उसी तरह टी-20 विश्व कप के फाइनल में जोगिंदर शर्मा को आखिरी ओवर देकर धौनी ने जीत हासिल की थी । तब सभी लोग धौनी की कप्तानी और उनकी रणनीति के गुणगान करने में जुटे थे । सौरभ गांगुली और सचिन ने भी अगल अलग वक्त पर धौनी को महानतमन कप्तान कहा है । टीम इंडिया के कोच गैरी कर्स्टन ने भी रिटायरमेंट के बाद कहा था कि अगर उन्हें युद्ध के मैदान में जाना होगा तो धौनी को अपना सेनापति रखना पसंद करेंगे । दरअसल क्रिकेट एक टीम गेम है और वो महान अनिश्चतिताओं का भी खेल है । इसमें किसी एक वयक्ति के प्रदर्शन पर हार या जीत का फैसला कम ही होता है ।
अगर हम हाल के दिनों में भारतीय क्रिकेट के खराब प्रदर्शन पर नजर डालें तो उसके लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड जिम्मेदार है । इतना अधिक क्रिकेट खेला जा रहा है कि खिलाड़ी बुरी तरह थक जा रहे हैं उन्हें आराम का मौका बिल्कुल नहीं मिल पा रहा है । चैंपियंस लीग जैसे बैकार के टूर्नामैंट हो रहे हैं जो खिलाड़ियों को तोड़ दे रहे हैं । जरूरत इस बात की है कि बीसीसीआई क्रिकेटिंग कैलेंडर को थोड़ा रिलैक्स्ड रखे । इसके अलावा टीम के हालिया खराब प्रदर्शन के लिए चयनकर्ता भी कम जिम्मेदार नहीं है । चयनकर्ताओं ने टीम इंडिया के बुढ़ाते खिलाड़ियों के विकल्प के लिए कोई नीति नहीं बनाई, युवा खिलाड़ियों को तैयार नहीं किया । आज सचिन, सहवाग,द्रविड़ और लक्ष्मण का विकल्प दूर दूर तक दिखाई नहीं देता । चयनकर्ताओं में

Saturday, January 7, 2012

क्यों दोराहे पर टीम अन्ना ?

अन्ना हजारे एक ऐसा नाम जिसमें देश के कई लोगों को गांधी का अक्स नजर आता है । अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी मुहिम के अगुआ । अन्ना हजारे जिन्होंने देश की वर्तमान सरकार को अपने आंदोलन की ताकत की वजह से घुटनों पर झुका दिया । अन्ना हजारे जिन्होंने दिल्ली में दो बार ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि जिसको कुछ राजनीतिक पंडितों ने जयप्रकाश नारयण के आंदोलन से बडा़ आंदोलन करार दिया । अन्ना हजारे जिन्होंने देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसा जनज्वार पैदा किया जिसमें लोग क्रांति के बीज तलाशने लगे । अन्ना की इन तमाम सफलताओं के पीछे उनके अहम सहयोगी अरविंद केजरीवाल का दिमाग माना गया । उन्हें अन्ना का अर्जुन और पूरे आंदोलन का मास्टर स्ट्रैटजिस्ट माना गया । आंदोलन की रणनीति से लेकर सरकार से बातचीत और सरकार पर तमाम तरह के हमलों के अगुवा अरविंद केजरीवाल ही रहे । तमाम मंचों पर अन्ना के बाद अरविंद केजरीवाल का ही ओजस्वी भाषण होता रहा है । कई बार जब टीम अन्ना मीडिया से मुखातिब हो रही होती थी तो अन्ना को सरेआम सलाह देते हुए अरविंद को देखा गया था । अब अन्ना के उन्हीं सहयोगी अरविंद केजरीवाल के मुताबिक अन्ना हजारे आजकल उदास हैं, उन्हें लगता है कि सरकार ने उन्हें धोखा दिया है, सरकार के बर्ताव से वो बेहद आहत हैं । अन्ना उदास हैं और अरविंद देश की जनता से पूछ रहे हैं कि बताओ टीम अन्ना को क्या करना चाहिए । अरविंद अब जनता से आगे की रणनीति पूछ रहे हैं । लेकिन सवाल यह उठता है कि इस वक्त उन्हें जनता की याद क्यों आई । अब वो भारतीय जनता पार्टी से अपनी नजदीकियों पर सफाई दे रहे हैं । इतनी देर से इस बात की सफाई देने का कोई मतलब रह नहीं जाता जबकि यह बात लगभग हर तरफ चर्चा का विषय है कि टीम अन्ना भारतीय जनता पार्टी को लेकर थोड़ी उदार है । अब वो यह स्वीकार कर रहे हैं कि दिसंबर में सरकार के साथ पर्दे के पीछे बातचीत चल रही थी जबकि उस वक्त उन्होंने इस बात से साफ इंकार किया था कि सरकार से किसी भी तरह की कोई बातचीत चल रही थी । जनता को सरकार से अपनी बातचीत के हर कदम की चीख चीख जानकारी देनेवाले अरविंद जनता से बिना बताए सरकार से बात कर रहे थे, यह उनका खुद का खुलासा है जो हैरान करनेवाला है । अब वो अपने कांग्रेस विरोध को इस बिनाह पर जस्टिफाई कर रहे हैं कि उन्हें लोकपाल पर सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की वजह से ऐसा करने को मजबूर होना पड़ा था । अब वो जनता से पूछ रहे हैं कि क्या उन्हें कांग्रेस या यूपीए के खिलाफ प्रचार करना चाहिए । क्या हरियाणा के हिसार में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करने से पहले अरविंद केजरीवाल ने जनता से पूछा था । तब तो उन्हें इस बात का अंदाजा था कि हिसार सीट पर कांग्रेस की हार तय है । उस वक्त तो टीम अन्ना ने बगैर जनता से पूछे हिसार के चुनाव को लोकतंत्र का लिटमस टेस्ट घोषित कर दिया था । वहां कांग्रेस पार्टी की हार को टीम अन्ना ने लोकतंत्र की जीत के तौर और भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ जनता के गुस्से की परिणति के तौर पर पेश किया था । लेकिन अब अचानक से जनता की याद आना हैरान करनेवाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि टीम अन्ना को यह लगने लगा हो कि उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति बेहतर होनेवाली है । और अगर खुदा ना खास्ते ऐसा हो गया तो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की हवा ही निकल जाएगी ।
अन्ना के दो अनशन की सफलता से उत्साहित टीम अन्ना को यह लगने लगा था कि पूरे देश की जनता उनके साथ है । दिल्ली के जंतर मंतर और रामलीला मैदान में जनसैलाब उमड़ा था उसमें कोई दो राय नहीं है । भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता को अन्ना में एक उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी थी । नतीजे में लोग घरों से बाहर सड़कों पर निकले । वह मध्यवर्ग घरों से निकला जिनके बारे में यह माना जाता था कि आमतौर पर वह ड्राइंगरूम में बहस कर संतोष कर लेता है । लेकिन किसी भी आंदोलन को शुरू करना उतना मुश्किल नहीं है जितना मुश्किल उसकी निरंतरता बरकरार रखना है । अरविंद केजरीवाल की तमाम बातों से इस बात के साफ संकेत मिल रहे हैं कि टीम अन्ना अपने आंदोलन को लेकर हतोत्साहित है ।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि टीम अन्ना क्यों हतोत्साहित है क्या वजह है जिसने टीम के मनोबल पर असर डाला है । एक वजह तो साफ तौर पर है जो सतह पर दिखाई भी देती है वह यह है कि सरकार ने टीम अन्ना के जनलोपाल बिल को स्वीकार नहीं किया और उसके खंड खंड करके कई बिल बना दिए । सरकार ने जो लोकपाल बिल पेश किया वह भी उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा । लेकिन लोकपाल बिल पर टीम अन्ना से रणनीतिक चूक भी हो गई । जब दिसंबर के तीन दिनों में संसद में लोकपाल पर बहस रखी गई थी उस वक्त अन्ना का अनशन पर बैठने से जनता के बीच संदेश यह गया कि टीम अन्ना अपनी ही जिद पर अड़ी है । लोगों को यह लगा कि जब संसद में लोकपाल पर बहस हो रही है तो टीम अन्ना को उसके नतीजों का इंतजार करना चाहिए । लेकिन टीम अन्ना अपने पिछले अनुभव और उसकी सफलताओं से सातवें आसमान पर थी । उन्हें लग रहा था कि अन्ना के अनशन पर बैठे रहने से संसद और सांसद दबाव में आ जाएंगें । लेकिन ऐसा हो नहीं सका । मुंबई के एमएमआरडीए मैदान पर अन्ना के अनशन में लोगों की भीड़ अपेक्षा से बेहद कम रही वहीं लोकसभा ने लोकपाल और लोकायुक्त बिल को मंजूरी दे दी । लोकसभा से लोकपाल बिल पास होने के दूसरे दिन अन्ना की तबीयत बिगड़ जाने की वजह से अनशन खत्म करना पड़ा । लोकसभा से लोकपाल बिल पास होने को टीम अन्ना ने अपनी हार की तरह लिया जबकि होना यह चाहिए था कि वो उसको जश्न की तरह देखते और देश के लोगों को यह संदेश देते कि जो काम 44 साल में नहीं हो पाया वो हमने साल भर के अंदर कर दिखाया । वहीं से यह भी ऐलान करते कि मजबूत लोकपाल के लिए लड़ाई जारी रहेगी । इसका एक बडा़ फायदा यह होता कि जनता के बीच जीत का एहसास जाता जो कि ऐसे आंदोलनों की निरंतरता बनाए रखने के लिए बेहद आवश्यक है । दूसरी चूक जो टीम अन्ना से हुई वह यह कि अनशन खत्म होने के बाद भी मंच से कांग्रेस पर जोरदार हमला हुआ और भारतीय जनता पार्टी के बावत सवाल पूछे जाने पर कन्नी काट ली गई । नतीजा यह हुआ कि टीम अन्ना की भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नजदीकियों को लेकर जो संदेह का वातावरण कांग्रेस ने खड़ा किया था वो थोड़ा और गहरा गया ।
इन दो रणनीतिक चूक और मुंबई में जनता से अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पाने से टीम अन्ना में हताशा है । अरविंद केजरीवाल अब कह रहे हैं कि आज भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चौराहे पर खड़ी है । कहां जाना है इस बात को लेकर सशंकित है । आशंका इस बात को लेकर भी है कि एक गलत निर्णय इस पूरे मुहिम को बर्बाद कर सकता है इसलिए उन्हें जनता की राय चाहिए । अरविंद जी जनता उसी चौराहे पर खड़ी है जहां भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम खडा़ है जरूरत इस बात की है कि उसे हमेशा विश्वास में लेने की कोशिश की जानी चाहिए सिर्फ उस वक्त नहीं जब वो आपसे मुंह फेर ले । दूसरी बात कि सरकार के प्रतिनिधि ने जब आपसे दिसंबर में कहा था आप चुनाव की राजनीति में उनको नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं, चाहे कितना भी अनशन-आंदोलन कर लें तो इतने दिन तक आप खामोश क्यों रहे। क्या मुंबई के मंच से आपको जनता को यह बात नहीं बतानी चाहिए थी। किसी भी आंदोलन को लेकर सरकार का दंभ जितना खतरनाक होता है उतना ही खतरनाक आंदोलनकारियों के नेतृत्व का सेलेक्टिव ट्रासपेरेंट होना भी होता है