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Thursday, June 14, 2012

टीम अन्ना बनाम टीम अरविंद

इंडिया अगेंस्ट करप्शन की बेवसाइट पर कई वीडियो लगे हैं । दो वीडियो ऐसे हैं जिनमें भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रही टीम अन्ना के अंदरखाने की कहानी साफ बयां हो रही है । वीडियो में अरविंद केजरीवाल को बोलते दिखाया गया है और उनके पीछे बैकग्राउंड में अन्ना हजारे की एक पेंटिंग लगी हुई है । यह तस्वीर प्रतीकात्मक हो सकती है लेकिन प्रतीकों से कई बार कहानी पूरी तरह से साफ हो जाती है । भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना के आंदोलन का जो वर्तमान है उसमें अन्ना हजारे नेपथ्य में चले गए हैं और अरविंद केजरीवाल केंद्र में आने की तैयारी प्राणपण से जुटे हैं । खुद को केंद्र में लाने की बिछात भी बिछा दी गई है । भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आंदोलन की शुरुआत और इसकी पूरी योजना अरविंद केजरीवाल ने ही बनाई थी । अपने आंदोलन को एक विश्वसनीय चेहरा देने के लिए अरविंद ने अन्ना हजारे को खोज निकाला था । अन्ना के रूप में अरविंद को आंदोलन का एक ऐसा मुखौटा भी मिल गया था जो मंदिर में रहता था, जिसका कोई परिवार नहीं था, जिसने अपने गांव में विकास के काफी काम किए, जो गांधी टोपी के अलावा धोती कुर्ता पहनता था । ये सारी ऐसी चीजें ऐसे प्रतीक है जो अब भी भारतीय जनमानस को गहरे तक प्रभावित करते हैं, कई बार आंदोलित भी । इन सारे गुणों के साथ जब एक बुजुर्ग अन्न जल त्याग कर दिल्ली के रामलीला मैदान से भारत में भ्रष्टाचार खत्म करने का हुंकार भरता था तो घूसखोरी से आजिज आ चुकी जनता को उसमें एक मसीहा दिखाई देने लगा था । अन्ना के प्रति आस्था और आंदोलन की भावना में डुबकी लगा रहे कई उत्साही लोगों ने उन्हें छोटा गांधी तक करार दे दिया था । हलांकि छोटा गांधी कहना बहुत जल्दबाजी थी और समय के साथ ये विशेषण खुद ही गायब हो गया ।

मुंबई में अन्ना के अनशन से उनकी विश्वसनीयता और आंदोलन के उद्देश्य पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया था जब बीजेपी के मुतल्लकि पूछे सवाल पर अन्ना उठकर चले गए थे और अरविंद ने भी कन्नी काट ली थी । मुंबई के बाद आंदोलनकारियों के तेवर ढीले पड़ गए थे । बीच-बीच में अरविंद केजरीवाल सांसदों को बुरा भला कह कर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखे थे । लेकिन टीम के बीच मनभेद की खबरें आती रही । खबरों से बाहर होने की वजह से टीम हताश थी और इस हताशा में मीडिया पर भी आरोप मढे जाने लगे । यह सब चलता रहा । इस बीच अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में मजबूत लोकायुक्त की मांग को लेकर प्रदेश भर का दौरा किया । महाराष्ट्र के दौरे पर अरविंद केजरीवाल और टीम का कोई भी अहम सदस्य अन्ना के साथ नहीं रहा । एकाध दिन के लिए कोई मिलने चला गया हो तो अलग बात है । वहां से अरविंद और अन्ना के बीच पहली बार एक खिंचाव, एक दूरी दिखाई दी । कहा तो यहां तक गया कि अरविंद केजरीवाल ने जिन 15 केंद्रीय मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं उनमें विलासराव देशमुख का नाम शामिल करने पर अन्ना को आपत्ति थी । इस वजह से वो उस प्रेस कांफ्रेंस में शामिल नहीं हुए जिसमें इन मंत्रियों पर टीम अरविंद ने आरोप जड़े । लेकिन टीम अरविंद ने अन्ना की आपत्ति को दरकिनार करते हुए प्रधानमंत्री समेत मंत्रियों पर आरोप लगाए । अन्ना की कभी हां और कभी ना वाले बयानों से भ्रम की स्थिति बनी । पहले मनमोहन सिंह को दोषी करार देना, फिर ठाणे में उन्हें क्लीन चिट देने से अन्ना की स्टैंड लेने और उसपर कायम रहने पर सवाल खड़े होने लगे । उधर टीम अरविंद ने प्रधानमंत्री समेत मंत्रियों पर हमलावर रुख जारी रखकर अन्ना हजारे को भी एक संदेश दे दिया कि अब उनका रुख अंतिम और सर्वमान्य नहीं है । मनभेद- मतभेद में बदला ।

रही सही कसर दिल्ली के संसद मार्ग पर रामदेव के साथ अन्ना की गलबहियां ने पूरी कर दी । अन्ना की सबसे बड़ी ताकत उनका नैतिक बल था । रामदेव के साथ गले लगते ही वो नैतिक बल निस्तेज हो गया । रामलीला मैदान पर भारत माता की जय की हुंकार लगाने वाले अन्ना हजारे रामदेव के सुर में सुर मिलाने लग गए । भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रहे अन्ना हजारे एक ऐसे शख्स के साथ गले लग रहे थे जिसके ट्रस्टों के खिलाफ इंकम टैक्स समेत कई सरकारी विभाग जांच कर रहा है । जिस शख्स के ट्रस्ट पर कई एकड़ जमीन हथियाने का आरोपों पर खासा बवाल मचा था । जो शख्स अपने एक आंदोलन के दौरान पुलिस के डर से  महिलाओं के कपड़े पहनकर आंदोलन छोड़कर भागता हुआ पकड़ा गया था । लेकिन अन्ना हजारे कह रहे थे कि उस शख्स के साथ आने से आंदोलन को ज्यादा मजबूती मिलेगी । मंच पर बालकृष्ण भी बैटे थे जिनके फर्जी पासपोर्ट की जांच चल रही है । उसी मंच पर बैठने से अन्ना और अरविंद केजरीवाल की साख को तगड़ा झटका लगा । अरविंद केजरीवाल बीमारी की बात कहकर वहां से चले गए लेकिन जो नुकसान होना था वो हो गया ।

दरअसल रामदेव को लेकर टीम अन्ना में दो धारा है । एक धारा का प्रतिनिधित्व खुद अन्ना हजारे करते हैं और उनके साथ हैं किरण बेदी हैं जो लगातार बैठकों में रामदेव के साथ आने की वकालत करते है । वहीं दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण हैं जिन्हें रामदेव के नाम से ही चिढ़ है ।कई बार बैठकों में इस बात पर जमकर बहस भी हुई है ।  टीम में ये विभाजन बहुत साफ है । दिखता भी है ।  रामदेव की मंशा और राजनीति बहुत साफ है । रामदेव अब चाहे जो भी कहें लेकिन एकाधिक बार अपने साक्षात्कार में वो यह बात स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं हैं । वो तो पार्टी बनाकर हर सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने की बात भी कह चुके हैं । जबकि अब तक टीम अन्ना चुनाव से दूर रहने की बात करती आई है । खुद अन्ना ने भी चुनाव की राजनीति को अपने आंदोलन से अलग रखा था ।

अन्ना और रामदेव के ताजा गठजोड़ से भ्रम और गहरा गया है । रामदेव सबसे पहले समर्थन के लिए गडकरी के पास पहुंचते हैं जहां वो उनका पांव छूकर आशीर्वाद लेते हैं । गडकरी के पांव छूने के अलग निहितार्थ है । रामदेव हर नेता के दर पर मत्था टेक कर काला धन के खिलाफ समर्थन मांग रहे हैं । विडंबना देखिए कि शरद पवार और मुलायम से भी काला धन के खिलाफ लड़ाई में रामदेव समर्थन मांग रहे हैं । जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जंग से टीम अन्ना ने नेताओं को दूर ही रखा था और खुद भी उनसे दूर रहे थे ।

रामदेव के साथ आने से इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन की दिशा भटक गई है । काला धन और भ्रष्टाचार एक दूसरे से जुड़े जरूर हैं लेकिन एक और जहां काला धन रोज रोज लोगों को प्रभावित नहीं करता है वहीं भ्रष्टाचार से हर रोज आम आदमी का वास्ता पड़ता है । इंडिया अगेंस्ट करप्शन की मूल लड़ाई उसी भ्रष्टाचार के खिलाफ थी जो रामदेव के साथ आने से भटक सी गई लगती है । अब टीम अन्ना की मांगें भी खंड़ित हो गई हैं । जनलोकपाल की मूल मांग के समांतर काला धन और पंद्रह मंत्रियों के खिलाफ आरोप की जांच की मांग ने  आंदोलन को मूल से भटका दिया है । अपने आंदोलन को राह से भटकते देख फौरन अरविंद केजरीवाल ने रणनीति बनाई और बेहद सफाई से  जनलोकपाल की मांग से दूर हटकर मंत्रियों के भ्रष्टाचार को मुद्दा बना लिया । बीच बीच में जनलोकपाल की मांग उठाते रहने की रणनीति बनी । एक बार फिर से 25 जुलाई से अनशन का ऐलान है लेकिन अन्ना तबियत खराब होने की वजह से अनशन नहीं करेंगे । पूरा शो अरविंद केजरीवाल का होगा । उस दिन ही अरविंद केजरीवाल का और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का भी भविष्य तय हो जाएगा ।

Monday, June 11, 2012

कहां गई 'पार्टी विद अ डिफरेंस'

कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए 2 सरकार एक के बाद एक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से बुरी तरह घिरी हुई है । सरकार महंगाई पर काबू पाने में बुरी तरह से नाकाम रही है । पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं, देशभर में आम जनता त्राहिमाम कर रही है । राजनीति में इस तरह की स्थितियां प्रमुख विपक्षी दल के आइडियल होती हैं । उन्हें बैठे बिठाए मुद्दा मिल जाता है और सत्तारूढ दल या गठबंधन को पछाड़ने का हथियार । याद हो कि वी पी सिंह ने सिर्फ चौंसठ करोड़ के बोफोर्स घोटाले को लेकर देशभर में इतना बड़ा जनज्वार पैदा कर दिया था कि सरकार बदल गई थी। लेकिन इस वक्त ऐसा होता नहीं दिख रहा । प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी में इतनी ज्यादा खींचतान है कि वो फिलहाल जनता को बेहतर विकल्प देने का भरोसा नहीं दे पा रही है । मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे जिस तरह से शीर्ष नेतृत्व के बीच मतभेद का इजहार हुआ वो पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं । नरेन्द्र मोदी और संजय जोशी का प्रकरण नेतृत्व की लाचारी दिखा गया । नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष को दूसरा कार्यकाल देने के लिए जब पार्टी संविधान में संशोधन का प्रस्ताव पास हो रहा था तो आडवाणी नदारद थे । बाद की रैली में आडवाणी के साथ सुषमा स्वराज भी गायब रही । बीजेपी भले ही उपर से एकजुट दिखने का प्रयास करे लेकिन हर जगह पार्टी आंतरिक कलह और अपने नेताओं की महात्वाकांक्षा से जूझ रही है । प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले नेताओं के बीच शह और मात का खेला जा रहा है तो कोई मुख्यमंत्री बनने के लिए बेताब है । इस अंतर्कलह के बीच पार्टी के लौहपुरुष आडवाणी रेसकोर्स जाने के अपने सपने को पूरा करना चाहते हैं । आडवाणी ने अपने ब्लॉग में जिस तरह से गडकरी पर निशाना साधा है उससे कलह खुलकर सामने आ गई है ।

केंद्रीय नेतृत्व की होड़ के बीच बीजेपी शासित राज्यों में भी हालात कोई अच्छे नहीं हैं । राजस्थान में वसुंधरा राजे ने आलाकमान के खिलाफ खुली बगावत करके उन्हें घुटने टेकने को मजबूर कर दिया संगठन के उपर व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा की जीत हुई । कर्नाटक में भी येदुरप्पा के बगावती तेवर पार्टी नेताओं को परेशान कर रहे हैं । इस वक्त जब पार्टी को चुनाव की तैयारी में जुटना चाहिए था और कांग्रेस को परास्त करने की रणनीति बनानी चाहिए थी तो नेता खुद की पार्टी को परास्त करने की बिसात बिछा रहे हैं । येदुरप्पा खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, सदानंद गौड़ा मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं और अनंत कुमार फल टपकने के इंतजार में हैं । गुजरात में इस साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं । वहां के संगठन में भी हालात बेहतर नहीं हैं । केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता और कांशीराम राणा जैसे कद्दावर नेता लगातार मोदी को कमजोर करने में जुटे हैं । गुजरात से निकलकर अगर महाराष्ट्र बीजेपी की बात करें तो प्रमोद महाजन के बाद पार्टी के सबसे बड़े और पिछड़े वर्ग से आने वाले गोपीनाथ मुंडे गाहे बगाहे बगावती तेवर दिखाते रहते हैं । गडकरी से उनकी अदावत पुरानी है । कांग्रेस-एनसीपी के बदतर प्रदर्शन के बावजूद पार्टी के अंतर्कलह से बीजेपी सत्तारूढ गठबंधन को चुनौती देने की हालत में नहीं है । मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान भी पार्टी से बड़े हो गए हैं । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त जब उमा भारती की पार्टी में वापसी का फैसला होनेवाला था तो शिवराज सिंह ने शर्त रख दी थी कि उमा भारती मध्यप्रदेश में कदम नहीं रखेंगी। आलाकमान के इस शर्त मानने के बाद ही भारती की पार्टी में वापसी संभव हुई । दिल्ली में तो शीला दीक्षित करीब पंद्रह साल से राज कर रही है लेकिन वहां डेढ़ दशक के बाद भी बीजेपी शीला को चुनौती देनेवाला नेता नहीं ढूंढ पाई है । झारखंड का मसला बहुत पुराना नहीं है जब राज्यसभा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन को लेकर यशवंत सिन्हा और गडकरी में ठन गई थी । बाद में पार्टी को एक धनवान उम्मीदवार के समर्थन के फैसले को बदलना पड़ा था जिससे आलाकमान की खासी किरकिरी हुई थी।
पार्टी में अंतर्कलह का नतीजा यह हुआ कि बीजेपी संसद से लेकर सड़क तक यूपीए सरकार के खिलाफ कोई ठोस मुद्दा पेश नहीं कर सकी । पिछले साल महंगाई के मुद्दे पर बीजेपी ने देशभर में सड़कों पर उतरने का ऐलान किया था लेकिन जनता को बेहतर विकल्प का भरोसा नहीं दे पाने की वजह से अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिला और मुहिम टांय टांय फिस्स हो गई । जब बीजेपी 1998 में सत्ता में आई थी तो उस वक्त उनका नारा था सार्वजनिक जीवन में शुचिता और पार्टी विद अ डिफरेंस । नरसिंह राव, देवगौड़ा और गुजराल जैसे नेताओं के शासन से उब चुकी जनता को बीजेपी में उम्मीद दिखी थी ।  पिछले तीन साल से संसद में बीजेपी यूपीए सरकार की नाकामी और भ्रष्टाचार पर वॉक आउट और शोर-शराबे के अलावा रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने में अबतक सफल नहीं हो पाई है । उनको लगता है कि यूपीए की नाकामी ही उनके लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त करेगी । पार्टी की आस नकारात्मक वोट से है लिहाजा सकारात्मक वोट पाने की कोशिश नहीं हो रही ।  

बीजेपी को हमेशा से मजबूत केंद्रीय नेतृत्व से ताकत मिलती थी । वैसा नेता जो जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हो, चाहे वो अटल बिहारी वाजपेयी का करिश्मा हो या फिर लालकृष्ण आडवाणी की सख्त और कट्टर हिंदूवादी छवि । उस दौर में केंद्रीय नेतृत्व अपने हर अहम फैसले के पहले पार्टी क्षत्रपों से बात कर उनको विश्वास में लेते थे । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से पार्टी की शीर्ष निर्णायक कमेटियों कोर ग्रुप, पार्लियामेंट्री बोर्ड, सेंट्रल इलेक्शन कमेटी से जमीन से जुड़े नेताओं को बाहर रखा गया, उससे मुश्किलें और बढ़ गई । जनता के बीच जानेवाले नेताओं के बजाए एयरकंडीशंड कमरों में रहनेवाले नेताओं की पूछ बढ़ गई है।  नतीजा यह हुआ कि पार्टी पक्षाघात का शिकार हो गई और दिल्ली में बैठे केंद्रीय नेताओं की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा संगठन पर हावी होती चली गई ।

इस वक्त जब बीजेपी के सामने सत्ता वापसी का सुनहरा मौका है लेकिन इस वक्त पार्टी व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं का कोलाज बन गई है । अंतर्कलह चरम पर है । बीजेपी के पास अब भी दो साल का वक्त है । अगर समय रहते पार्टी नहीं चेती और उसके नेता व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं को त्याग कर एकजुट होकर जनता का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हुए तो 2104 में भी उनके लिए दिल्ली दूर ही साबित होगी ।

Saturday, June 2, 2012

दबाव की राजनीति

भारतीय जनता पार्टी की मुंबई में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पहले, उस दौरान और उसके बाद जमकर ड्रामा हुआ । कार्यकारिणी की बैठक के पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के वहां पहुंचने को लेकर लगातार सस्पेंस बना रहा । अटकलबाजियों और कयासों के बीच मोदी खेमे से ये प्रचारित करके पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाया गया कि नरेन्द्र मोदी बैठक में शामिल नहीं होंगे । मोदी की नाराजगी उनके पूर्व सहयोगी संजय जोशी को पार्टी में लगातार मिल रही अहमियत को लेकर थी । मोदी खेमा ने गडकरी तक साफ संदेश भिजवा दिया कि या तो संजय जोशी या फिर नरेन्द्र मोदी । इस संदेश के बाद गडकरी मोदी के अर्दब में आ गए और आनन फानन में संजय जोशी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा हो गया । सुबह जोशी का इस्तीफा हुआ और उसके चंद घंटों बाद ही नरेन्द्र मोदी विजेता के भाव से सम्मेलन स्थल पर पहुंचे । मोदी ने जिस तरह से संजय जोशी के मसले पर पार्टी आलाकमान को झुकाया उसके बाद उनको कुछ लोग पार्टी से बड़े नेता के तौर पर देखने लगे । कुछ का कहना था कि संघ ने मोदी के सामने घुटने टेक दिए । कईयों ने ये कहकर संतोष जताया कि कार्यकर्ताओं के बीच संजय जोशी का सम्मान इस वजह से बढ़ गया कि उन्होंने संगठन के लिए त्याग किया । इस शोर के बीच जो एक बात उभर कर सामने आई वो यह कि बीजेपी जैसी कैडर आधारित पार्टी में जहां संगठन सर्वोपरि हुआ करता था वहां अब संगठन पर व्यक्ति हावी होने लगे हैं । माधव सदाशिव गोलवलकर ने विचार नवनीत में लिखा है - कोई भी व्यक्ति चाहे वो कितना भी महान क्यों ना हो, राष्ट्र के लिए आदर्श नहीं बन सकता । राष्ट्र जीवन की अनंतता की तुलना में व्यक्ति का जीवन बहुत क्षणभंगुर है । लेकिन बीजेपी के नेताओं को अब गोलवलकर, सावरकर और दीनदयाल उपाध्याय के सिद्धांतों की फिक्र कहां है ।
मोदी-जोशी के इस प्रकरण में मोदी की आलोचना करनेवाले बहुधा यह भूल जाते हैं कि पार्टी नेतृत्व को ठेंगे पर रखकर अपनी बात मनवाने की प्रवृत्ति के जनक वरिष्ठ नेता अरुण जेटली हैं । बात सिर्फ तीन साल पुरानी है । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह ने प्रमोद महाजन के करीबी रहे कारोबारी सुधांशु मित्तल को पू्र्वोत्तर राज्यों का सहप्रभारी बना दिया । राजनाथ सिंह के इस कदम से खफा अरुण जेटली ने उन सब बैठकों के बहिष्कार का फैसला ले लिया जिनकी अध्यक्षता पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह कर रहे थे । लिहाजा चुनाव के ठीक पहले जब उम्मीदवारों के बारे में अंतिम फैसले पर माथापच्ची हो रही थी उस वक्त बीजेपी अंतर्कलह में उलझ गई । उस दौरान अरुण जेटली लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के चुनाव प्रभारी थे । जिस दिन उन्होंने सीईसी की बैठक का बहिष्कार किया उस दिन बिहार की सीटों के तालमेल के लिए बैठक होने वाली थी । नीतीश कुमार से जेटली की कमेस्ट्री बेहतर थी । बीजेडी से पार्टी का गठबंधन टूटा था और बीजेपी नीतीश से कोई पंगा नहीं ले सकती थी । मौका देख जेटली ने पार्टी पर दबाव बनाया कि सुधांशु मित्तल को हटाए बगैर वो राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली बैठकों में नहीं जाएंगें । संघ से जुडे सुरेश सोनी ने जेटली को मनाने की लाख कोशिशें की लेकिन वो नहीं माने । लालकृष्ण आडवाणी ने भी बीच का रास्ता निकालने की असफल कोशिश की थी । अरुण जेटली झुकने को तैयार नहीं थे और राजनाथ भी सुंधाशु को हटाने को राजी नहीं थे । उस वक्त इस तरह की खबरें भी आई थी राजनाथ सिंह ने सुधांशु मित्तल को नियुक्त करने से पहले सुषमा स्वराज की सहमति ली थी । लेकिन अरुण जेटली को अपनी अहमियत का अहसास था लिहाजा वो अड़े रहे और बाद में आरएसएस से जुड़े पार्टी के वरिष्ठ नेता रामलाल और लालकृष्ण आडवाणी की पहले के बाद जेटली-राजनाथ के बीच की बर्फ पिघली । सुंधाशु मित्तल सिर्फ नाम के बने रहे, बैठकों और कार्यक्रमों से दूर । इस तरह बीजेपी में पहली बार किसी नेता ने अध्यक्ष को झुकने पर या फिर उनके निर्णय को बदलने पर मजबूर किया ।
अरुण जेटली ने पार्टी में जिस प्रवृत्ति की नींव डाली उसपर चंद महीनों बाज ही वुसंधरा राजे ने इमारत खड़ी कर ली । राजस्थान के चुनावों में पार्टी की हार के बाद राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे को घेरने के लिए प्रदेश अध्यक्ष से इस्तीफा दिलवाकर उनपर नेता विपक्ष का पद छोड़ने का दबाव बनाया । लेकिन राजनाथ सिंह को ये दांव उल्टा ही पड़ गया । वसुंधरा ने राजनाथ का फरमान मानने से इंकार कर दिया और खुलेआम अपने समर्थकों से ये संदेश दिलवाया कि लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की हार हुई है लिहाजा राजनाथ सिंह को भी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ देना चाहिए । हफ्तों तक दोनों के बीच रस्साकशी चलती रही । पार्टी और अध्यक्ष दोनों की फजीहत के बाद वसुंधरा ने नेता विपक्ष का पद तो छोड़ा लेकिन अपनी तमाम शर्तों को मनवाने के बाद ।
एक बार फिर संगठन पर व्यक्ति हावी हुआ । पार्टी विद अ डिफरेंस और अनुशासित पार्टी पर सवाल उठे। वसुंधरा ने राजस्थान में नेता विपक्ष के पद पर किसी की नियुक्ति नहीं होने दी और जब राजनाथ सिंह के बाद नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तो वो फिर से राजस्थान में नेता विपक्ष बनीं । लेकिन वसुंधरा एक बार फिर से संगठन पर हावी हो गई । कुछ दिनों पहले अध्यक्ष नितिन गडकरी से हरी झंडी मिलने के बाद संघ से जुड़े राजस्थान के नेता गुलाब चंद कटारिया ने प्रदेश भर में यात्रा का ऐलान किया । ये ऐलान वसुंधरा को रास नहीं आया और एक बार फिर से विधायकों के इस्तीफों की झड़ी लगवाकर वसुंधरा ने पार्टी को झुकने पर मजबूर कर दिया गया । यही हाल कर्नाटक का भी है जहां लगभग बागी हो चुके येदुरप्पा जब चाहे तक संगठन को ब्लैकमेल कर केंद्रीय नेतृत्व को घुटनों पर ला देते हैं । येदुरप्पा पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम हैं, बाबजूद इसके उनके सामने बीजेपी आलाकमान की बेबसी दयनीयता के स्तर पर पहुंच जाती है । मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने उमा भारती को पार्टी में तभी शामिल होने दिया गया जब आलाकमान ने ये भरोसा दिया कि वो मध्य प्रदेश से बाहर रहेंगी । दरअसल अरुण जेटली ने पार्टी नेताओं को जो राह दिखाई उसके बाद से बीजेपी के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही है ।
संजय जोशी को पार्टी कार्यकारिणी से बाहर निकलवाने के लिए नरेन्द्र मोदी की लानत मलामत करनेवाले अरुण जेटली और राजनाथ सिंह के झगड़े को भूल जाते हैं । अरुण जेटली को इस बात का श्रेय जाता है कि संगठन पर व्यक्ति के हावी होने की राह के अन्वेषक वही बने । दरअसल बीजेपी में कई नेताओं को इस बात का अंहकार हो गया है वो पार्टी के लिए अनिवार्य हो गए हैं । अनिवार्यता के इस दंभ में उन्हें लगने लगा है कि वो पार्टी और संगठन से बड़े हो गए हैं, लिहाजा वो मनमानी पर उतारू हैं । बीजेपी नेताओं के बढ़ते अहंकार पर गुरूजी गोलवलकर ने बेहद सटीक टिप्पणी की थी- जब कार्य बढता है तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करते हुए प्रभावी होने लगता है, तब लोग स्वभावत: ही कार्यकर्ताओं की प्रशंसा करना आरंभ कर देते हैं ।कार्यकर्ता के लिए वही खतरे का स्थान है । उसमें अपनी योग्यता और प्रभाव की चेतना जागृत होती है और उसमें एक प्रकार का मिथ्याभिमान उत्पन्न हो जाता है । गोलवलकर ने जिस मिथ्याभिमान की बात की है उसके शिकार हुए बीजेपी नेताओं को अपने पूजनीयों का भी ख्याल नहीं ।

सियासत का खूनी खेल !

केरल के मार्क्सवादी नेता के एक बयान ने सीपीएम के चेहरे से नकाब हटा दिया है और पूरी पार्टी के कठघरे में खड़ा कर दिया है । केरल के इडुक्की जिला सीपीएम के अध्यक्ष और राज्य कमेटी के सदस्य एम एम मणि ने ये कहकर सनसनी फैला दी कि उनकी पार्टी राजनैतिक विरोधियों की हत्या करवाने में यकीन रखती है । मणि ने ये बातें खुलेआम एक रैली में की । इस बयान को जोश में होश खो देने वाला बयान बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि मणि ने अपने मरने मारनेवाले बयान के बाद उसके समर्थन में उदाहरण देकर उसी सही भी ठहराया और कहा कि पार्टी को उन हत्याऔं की जिम्मेदारी लेने से कोई गुरेज भी नहीं है जो उसने करवाई है । पहले तो मणि ने खुलेआम ये कहा कि हमें मरने और मार डालने की आदत है । इसलिए उनकी पार्टी सीपीएम और उसके कार्यकर्ताओं को कोई धमकी ना दे । उन्होंने सरेआम ये ऐलान किया कि जो भी पार्टी के खिलाफ काम करेगा उसे रास्ते से हटा दिया जाएगा । मणि के मुताबिक सीपीएम ने 1982 में तेरह लोगों की सूची बनाई थी जिन्हें कत्ल करना था । इस सूची में से एक को गोली मारकर हत्या कर दी गई । दूसरे की सरेआम पीट-पीट कर हत्या कर दी गई और तीसरे शख्स को तो चाकुओं से गोदकर मार डाला गया । आरोपों को मुताबिक कत्ल किए गए दो लोगो कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और एक भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करता था । इंतहां तो तब हो गई थी जब इनमें से एक हत्या के चश्मदीद का भी कत्ल हो गया । इन हत्याओं के आरोप उस वक्त भी सीपीएम पर लगे थे । लेकिन उन हत्याओं में पड़ताल कहां तक पहुंची इसका पता ही नहीं चल पाया ।

मणि के इस बयान के बाद केरल समेत देश की राजनीति में भूचाल आ गया है । केरल सीपीएम के ताकतवर नेता पिनयारी विजयन ने इस बयान पर सफाई दी और कहा कि मणि ने सार्वजनिक रूप से बयान देकर गलत किया है और यह पार्टी के स्थापित मानदंडों के खिलाफ है । यहां यह बात गौर करने लायक है कि विजयन ने मणि के बायन को गलत नहीं ठहराया बल्कि सार्वजनिक रूप से बयान देने को गलत करार दिया । तो क्या यह मान लिया जाए कि विजयन की मणि के बयानों से सहमति हैं । केंद्रीय नेतृत्व को ये साफ करना होगा । मणि के इस बयान और विजयन की सफाई को केरल में हाल ही में सीपीएम छोड़कर अपनी पार्टी बनाने वाले टी पी चंद्रशेखरन की हत्या से जोड़कर देखा जाने लगा है । चंद्रशेखरन की हत्या के बाद पिनयारी विजयन के बयान को देखें तो उससे भी हिंसा की इस राजनीति की तस्वीर थोड़ी और साफ होती है । चंद्रशेखरन के कत्ल के बाद विजयन ने कहा था कि वो दलबदलू और विश्वासघाती थे । विजयन ने ये बयान उस वक्त दिय़ा था जब केरल के कद्दावर कम्युनिस्ट नेता वी एस अच्युतानंदन उनको श्रद्धांजली दे रहे थे । पिनयारी विजयन के इस बयान के अपने निहितार्थ हैं जिसको मणि के बयानों ने उजागर कर दिया है । एम एम मणि के बयान को सीपीएम के आला केंद्रीय नेता यह कहकर दबा देने के चक्कर में हैं कि वो पार्टी का एक बहुत छोटा नेता है लिहाजा उसके बयान को पार्टी की विचारधारा नहीं मानी जानी चाहिए । ये सही भी है कि किसी भी ऱाष्ट्रीय पार्टी(अगर सीपीएम अब भी है तो) के एक जिले के अध्यक्ष के बयान को पार्टी की विचारधारा नहीं माना जा सकता है लेकिन अगर उस जिलाध्यक्ष का इतना रुतबा हो कि विधानसभा चुनाव के वक्त अपनी पार्टी के शीर्ष नेता और सूबे के मुख्यमंत्री को प्रचार के लिए अपने इलाके में नहीं आने दे तो उसके रुतबे का अंदाजा लगाया जा सकता है । पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त मणि ने अच्युतानंदन को इडुक्की नहीं आने दिया था । ये है मणि की पार्टी में हैसियत और ताकत । उसके अलावा एम एम मणि पच्चीस साल से ज्यादा वक्त से जिलाध्यक्ष हैं और पार्टी में कोई कार्यकर्ता उनके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर सकता । क्यों नहीं कर सकता, इसकी वजह मणि ने खुद साफ कर दी है ।

ऐसा नहीं है कि वामपंथी दलों के शासन वाले राज्यों में पहली बार राजनीतिक हिंसा की बात सामने आ रही है । पश्चिम बंगाल में भी दशकों तक मार्क्सवादियों ने राज किया किया लेकिन उनका दामन भी सियासी हत्याओं से दागदार रहा है । ममता बनर्जी की पार्टी के नेता तो उस दौरान पचास हजार से ज्यादा राजनीतिक हत्या का आरोप लगाते रहे हैं । हो सकता है उसमें अतिशोक्ति हो लेकिन तटस्थ विश्लेषकों की मानें तो वामपंथी शासनकाल के दौरान तकरीबन चार हजार राजनैतिक कार्यकर्ताओं की हत्या हुई । उन्नीस सौ सतहत्तर से लेकर अब तक पंद्रह सौ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई और तकरीबन बीस हजार परिवारों को घर छोड़कर भागना पड़ा । तृणमूल कांग्रेस के भी दो हजार कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोप सीपीएम पर लगे। जब ममता बनर्जी सूबे में सत्तारूढ हुई तो कई सीपीएम नेताओं घर के पिछवाड़े में बने गार्डन से नरकंकाल बरामद होने से इन आरोपों को और बल मिला है ।  

दरअसल मणि के बयानों ने पार्टी की एक सचाई को उजागर कर दी । सीपीएम की बुनियाद और विचारधारा का आधार ही हिंसा रहा है । उन्नीस सौ साठ में जब कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्कसवादी का गठन हुआ तो उनकी आत्मा और विचारधारा चीन की तरफ झुकी हुई थी । सीपीआई तो सिस्टम में बनी रही लेकिन सीपीएम सशस्त्र संघर्ष के जरिए भारतीय गणतंत्र को हथियार के बल पर जीतने की ख्वाहिश पाल बैठी । उनके सामने माओवादी चीन का मॉडल था और वो बड़े फख्र के साथ नारा लगाया करते थे चीन का चेयरमैन, हमारा चेयरमैन । जाहिर तौर पर बात माओ की होती थी । माओ ने चीन में जिस विचारधारा की बुनियाद रखी चीन कमोबेश उसी पर आगे चलता रहा है । हलांकि माओ के विचारधारा पर डेंग जियाओपिंग ने उन्नीस सौ सत्तर में लगाम लगा दी थी लेकिन थियेन अन मन चौक पर जिस तरह से प्रदर्शनकारियों को टैंकों से कुचल दिया गया वह माओ की ही विचारधारा की परिणति थी। चीन में भी राजनीतिक विरोध करनेवालों को कुचला गया, सामूहिक नरसंहार किया गया । उसी चीनी कम्युनिस्ट विचारधारा की बुनियाद पर बनी पार्टी भारत में अब खुलेआम अपने राजनैतिक विरोधियों के कत्ल की बात करने लगी है ।

लेकिन चीन के चेयरमैन माओ की विचारधारा को सही मानने वाले लोग यह भूल गए कि भारत गांधी का देश है और यहां हिंसा और नफरत की राजनीति करनेवाले लोग सियासत में ज्यादा दिन टिक नहीं पाते हैं । बंगाल और केरल में में हार के बाद सीपीएम जिस तरह से पूरे देश में सिमट गई है उससे यह लगने लगा है कि हिंसा की बुनियाद पर राजनीति करने वाले कुछ वक्त के लिए तो प्रासंगिक हो सकते हैं लेकिन फिर जनता उनको नकार ही देती है । देश में कम्युनिस्टों के लाल झंडे को लहराने के पचहत्तर साल हो गए हैं । बाइस मई उन्नीस सौ सैंतीस को अलापुझा के राधा थिएटर में पहली बार हशिया और हथौड़ा वाला लाल झंडा फहराया गया ता लेकिन सिर्फ पचहत्तर साल में लाल रंग फीका पड़ने लगा है । दिक्कत ये है कि हमारे यहां के मार्कसवादी भारत को माओ के सिद्धांतो के अनुरूप बदलना चाहते हैं । उनको ये बिल्कुल गंवारा नहीं कि माओ के सिद्धांतों को भारतीयता के अनुरूप बदला जाए । जिस दिन वो इस बात को समझ पाएंगे उस दिन से सियासत का खूनी खेल बंद हो जाएगा और उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ जाएगी ।  

Sunday, May 27, 2012

इंदिरा गांधी के बहाने

भारतीय राजनेताओं में महात्मा गांधी के बाद इंदिरा गांधी लेखकों और राजनीति टिप्पणीकारों की पसंद हैं । उनपर प्रचुर मात्रा में लिखा गया और अब भी लिखा जा रहा है । महात्मा गांधी अपने विचारों को लेकर लेखकों को चुनौती देते हैं वहीं इंदिरा गांधी अपनी राजनीति और अपने निर्णयों और उसके पीछे की वजह सें लेखकों के लिए अब भी चुनौती बनी हुई है । इंदिरा गांधी पर एक अनुमान के मुताबिक सौ के करीब किताबें लिखी जा चुकी हैं जिनमें कैथरीन फ्रैंक, इंदर मल्होत्रा और पुपुल जयकर आदि प्रमुख हैं । मशहूर पत्रकार और लंबे समय तक न्यूजवीक और न्यूयॉर्क टाइम से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रणय गुप्ते ने इंदिरा गांधी की राजनीतिक जीवनी लिखी है- मदर इंडिया, अ पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ इंदिरा गांधी । तकरीबन छह सौ पन्नों में लिखी गई इस किताब में आजाद भारत की सबसे जटिल राजनीतिक शख्सियत इंदिरा गांधी के दर्द गिर्द भारतीय राजनीति का भी द्स्तावेजीकरण किया गया है । इंदिरा गांधी की इस किताब के बारे में लेखक का मानना है कि यह सामान्य पाठकों के लिए है खासकर उन विदेशी फाठकों के बारे में जो समकालीन भारतीय इतिहास में रुचि रखते हैं । इसमें इंदिरा गांधी का जीवन तो है ही साथ ही साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन और बढ़ती जनसंख्या जैसी समस्या पर भी लेखक ने विस्तार से लिखा गया है । ये दोनों विषय़ इंदिरा गांधी के लिए बेहद अगम थे । जब पूरे विश्व में शीत युद्ध चल रहा था तो उस वक्त इंदिरा गांधी ने बेहद संतुलन और राजनैतिक कौशल के साथ अमेरिका और रूस के खेमों से अलग हटकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन को मजबूती देकर विश्व नेता के तौर पर अपनी छवि मजबूत की । इस किताब में जनसंख्या नियंत्रण पर इंदिरा गांधी की नीतियों को प्रणय ने कसौटी पर कसा है और बहुधा आलोचनात्मक दृष्ठि के साथ ।

इमरजेंसी इंदिरा गांधी के जीवन का काला दाग है । 1975 में जब इंदिरागांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद देश में लोकतंत्र को खत्म करने की ठानी तो पूरा देश उनके खिलाफ एक जुट हो गया । ट्रांसफॉरमिंग डेमेक्रेसी नाम के अध्याय में प्रणय गुप्ते ने मिनट दर मिनट का हवाला देते हुए पूरे घटनाक्रम को परखा है । इंदिरा गांधी ने किन परिस्थितियों में इमरजेंसी लगाने का फैसला लिया और कौन कौन से सलाहकार थे जिनकी सलाह पर लोकतंत्र पर हमले की साजिश रची गई । इमरजेंसी में हुए ज्यादतियों के अलावा उस दौर में किस तरह से जयप्रकाश नारायण ने संघर्ष का ताना बाना बुना, उसका भी दस्तावेजीकरण है इस किताब में । 1936 में जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस की नीतियों से मतभेद होने के बाद पार्टी से इस्तीफा दे दिया था लेकिन करीब 40 साल के बाद फिर जब जयप्रकाश नारायण को लगा कि देश का लोकतंत्र खतरे में है  तो उन्होने मोरारजी देसाई के साथ मिलकर जनता मोर्चा बनाया और संघर्ष का बिगुल फूंक दिया। इस किताब में प्रणय गुप्ते ने बेहद बारीकी से उस दौर की राजनीति को पकड़ते हुए उसका विश्लेषण किया है ।

इस किताब में इंदिरा गांधी के विचारों को उनके दोस्तों के हवाले से, उनको लिखे पत्रों के हवाले से और उपलब्ध सामग्री के आधार सामने रखा गया है । लेखक खुद मानते हैं कि यह किताब दूसरों के शोध पर आधारित है । लेकिन उन्नीस सौ चौरासी में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जो वातावरण बना था उसके गवाह लेखक खुद बने हैं । उस वक्त उन्होंने देशभर में दौरा किया, पंजाब में लंबा वक्त बिताया और सिखों के मनोविज्ञान को समझा और फिर उन अनुभवों के आधार पर संकट के उन क्षणों को याद किया है । मोटो तौर पर लेखक ने इंदिरा गांधी की इस जीवनी को पांच भागों में बांटा है । शुरुआत उनकी हत्या और बाद के हालातों से की गई है । दूसरे भाग में उनके किशोरावस्था से लेकर फिरोज गांधी से उनके प्रेम विवाह और फिर उनसे अलगाव की गाथा है । तीसरे भाग में इंदिरा गांधी की राजनीति शिक्षा से लेकर पार्टी में उनके ताकतवर होकर उभरने के कालखंड को परखा गया है । इन अध्यायों में प्रणय गुप्ते ने इस दौर के नेताओं के बयानों और बाद के लेखकों को उद्धृत करके इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को सामने लाया है । चौथे भाग में इंदिरा गांधी के शक्तिशाली नेताओं से टकराव और उनकी जीत के बाद खुद को देश की राजनीति की केंद्रीय धुरी बनने की कहानी है । इसी अध्याय में इंदिरा गांधी की राजनीति के काले चेहरे इमरजेंसी के बारे में विस्तार से वर्णन है कि किन परिस्थितियों में वो इमरजेंसी तोपने पर मजबूर हुई और फिर किन हालातों में उनको लोकतंत्र के सामने मजबूर होकर हथियार डालना पड़ा ।

प्रणय गुप्ते की इस किताब में इंदिरा गांधी के बारे में नया कुछ भी नहीं है लेकिन जिस तरह से इंदर मल्होत्रा से अपनी किताब में तथ्यों को प्रधानता दी है और कैथरीन फ्रैंक ने अपनी किताब को सनसनीखेज बनाया था उससे अलग हटकर प्रणय गुप्ते ने वस्तुनिष्ठता के साथ घटनाओं, तथ्यों और उपल्बध सामग्री को एक जगह इकट्ठा कर अपने सामान्य पाठकों के लिए किताब के लिखने के उद्देश्य में सफलता पाई है । इस किताब में घटनाओं औप प्रसंगों के दुहराव को रोकने के लिए सख्त संपादन की जरूरत है ।

Thursday, May 24, 2012

दक्षिण में कमजोर होती कांग्रेस

कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में यूपीए ने लगातार आठ साल पूरे कर लिए । लेकिन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की हालत अच्छी नहीं है । गिनती के चंद राज्यों में कांग्रेस की सरकार है । हालिया विधानसभा चुनावों में पार्टी की उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा विधानसभा चुनावों में करारी हार हुई । हार के बाद एंटनी कमेटी ने उसके वजहों पर माथापच्ची की और पार्टी अध्यक्ष अपनी रिपोर्ट सौंप दी । रिपोर्ट में नेताओं के बेतुके बयानबाजी, बड़बोलापन को उत्तर प्रदेश में हार के लिए जिम्मेदार माना गया है लेकिन जो एक वजह तीनों जगह हार की बनी वो है गलत उम्मीदवारों को टिकट दिया जाना । दूसरी तरफ दिल्ली के नगर निकाय चुनाव में भी कांग्रेस का एक तरह से सफाया हो गया । लेकिन उस हार के लिए बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस खुद जिम्मेदार है । पार्टी में उस हार के बाद से सर फुटौव्वल जारी है । लेकिन उत्तर भारत के इन राज्यों में चुनावी हार के शोरगुल के बीच कांग्रेस को दक्षिणी राज्यों में पार्टी की लगातार होती बुरी गत की चिंता है, इसके संकेत भी नहीं मिल रहे हैं । कुछ मौकों को छोड़कर दक्षिण हमेशा से परंपरागत रूप से  कांग्रेस के पक्ष वाले राज्य रहे हैं । इंदिरा गांधी भी अपने सबसे बुरे दौर में आंध्र प्रदेश के मेढक से चुनाव लड़ी थी । उसी तरह सोनिया गांधी ने भी उत्तर प्रदेश के अलावा कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा था । लेकिन अगर राज्यवार विश्लेषण करें तो दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है । दक्षिणी राज्यों से कांग्रेस के पास चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, के कामराज और जी के मूपनार जैसे मजबूत नेता हुए । लेकिन तमिलनाडू (उस वक्त के मद्रास)में भाषाई आधार पर 1962 के हिंसक आंदोलन के बाद से सूबे में कांग्रेस लगभग खत्म सी हो गई है । कभी करुणानिधि के डीएमके तो कभी जयललिता के एआईएडीएमके की उंगली पकड़कर कुछ सीटें हासिल कर लेती है । कांग्रेस पार्टी ने तमिलनाडू में अपनी स्थिति सुधारने की कोई कोशिश की हो ऐसा सतह पर तो दिखाई देता नहीं है । मूपनार तमिलनाडू से आखिरी मजबूत कांग्रेंसी नेता थे । उनको भी पार्टी संभाल नहीं पाई और अब चिंदबरम जैसे नेता तो हैं लेकिन कोई जमीनी नेता नहीं दिखता जो जयललिता या करुणानिधि को टक्कर दे सके । पांडिचेरी में भी पार्टी की हालत कमोबेश एक जैसी है ।

आंध्र प्रदेश में दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया और बयालीस में से तैंतीस सीटें जीती । आंध्र प्रदेश में वाई एस राजशेखर रेड्डी कांग्रेस के खेवनहार बने। राजशेखर रेड्डी के मुख्यमंत्री रहते उनके बेटे जगन रेड्डी पर अकूत दौलत कमाने का आरोप लगा । सीबीआई इसकी जांच कर रही है, हो सकता है जगम मोहन रेड्डी गिरफ्तार भी हो जाएं । राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद आंध्रप्रदेश में कांग्रेस बिखर गई । पार्टी आलाकमान उनके बेटे जगन रेड्डी की महात्वाकांक्षाओं को समझने में गलती कर बैठी और उसके खिलाफ मोर्चा खोलकर पार्टी के लिए मुसीबत मोल ले ली । आज की तारीख में आंध्र प्रदेश की राजनीति में जगन एक मजबूत प्लेयर है । हो सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले चंद सीटों के लिए कांग्रेस जगन से समझौता कर लेकिन उस संभावित समझौते से जगन की ही ताकत बढ़ेगी, कांग्रेस पार्टी और आलाकमान की तो कम होगी । आंध्र के हालात को समझने में सिर्फ जगन ही नहीं बल्कि चिरंजीव और तेलंगाना के मुद्दे पर भी कांग्रेस आलाकमान बुरी तरह से असफल रहा । केंद्रीय नेतृत्व चिरंजीव को तो साथ ले आए लेकिन बुरी तरह से बेइज्जत करने के बाद उनको राज्यसभा में लेकर आए । उसी तरह तेलंगाना के मुद्दे को चिदंबरम ने एक बयान में लगभग नए राज्य के गठन की बात मान ली थी । बाद में उससे पलटने से पार्टी की खासी किरकिरी हुई । यह सब इस वजह से हो रहा है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कड़े फैसले नहीं ले रहा या फिर उनके फैसलों पर अमल नहीं हो पा रहा । इंदिरा गांधी पर तानाशाह होने का आरोप लगता है लेकिन उनके वक्त किसी भी पार्टी क्षत्रप की औकात नहीं थी कि केंद्रीय नेतृत्व के फैसले को हल्के में ले ले । जब तेलंगाना में जबरदस्त हिंसा हो रही थी तो केंद्र की ओर से बातचीत की पहल हो रही थी लेकिन कोई भी केंद्रीय नेता आंदोलनकारियों के बीच जाने की हिम्मत नहीं कर पाया था । इस मामले में इंदिरा गांधी के साहस और दूरदर्शिता की कमी खलती है । 1965 की बात है जब 26 जनवरी को अंग्रेजी की जगह हिंदी को राष्ट्र भाषा का स्थान लेना था । उलके विरोध में तमिलनाडू में जबरदस्त हिंसा शुरू हो गई थी । उस वक्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को ये भरोसा था कि वक्त के साथ आंदोलन थम जाएगा । हिंसा और कांग्रेस विरोध इतना था कि कामराज जैसा बड़ा कांग्रेसी नेता भी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे और दिल्ली में बैठे थे । उसी वक्त इंदिरा गांधी ने तय किया और प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को बिना बताए मद्रास पहुंच गई । वहां जाकर उन्होंने स्थानीय नेताओं से बात की और उन्हें ये भरोसा दिलाने में कामयाब हो गई कि केंद्र सरकार तमिलनाडू की जनता को विश्वास में लिए बगैर कोई कदम नहीं उठाएगी । इंदिरा गांधी के वहां पहुंचते और स्थानीय नेताओं से बातचीत के फौरन बाद हिंसा रुक गई । देश-विदेश में इंदिरा के इस कदम की तारीफ हुई थी । लेकिन जब तेलंगाना जल रहा था तो कांग्रेस के किसी नेता में यह साहस नहीं था कि वो आंदोलनकारियों के बीच जाकर उनसे बात कर उनका भरोसा जीतें । लिहाजा आंध्र प्रदेश के तेलांगना इलाके में पार्टी बेहद कमजोर हो गई है । रही सही कसर आंध्र के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी ने पूरी कर दी है । उन्हें तो क्लू लेस चीफ मिनिस्टर तक कहा जाने लगा है ।

यही हालत कर्नाटक की भी है । वहां बीजेपी में घमासान मचा है और पार्टी नेताओं पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे है उस स्थित में वहां कांग्रेस आसानी से कम मेहनत से सत्ता में वापस आ सकती है । लेकिन कांग्रेस के नेता हालात से फायदा उठाने की बजाए एक दूसरे की जड़ें काटने में लगे हैं । वहां भी आलाकमान जमीन से जुड़े नेताओं को तवज्जो ना देकर डी के शिवकुमार और बी के हरिप्रसाद जैसे हवाई नेताओं की सलाह पर फैसले कर रहा है । कुछ दिनों पहले इस तरह की खबरें आई थी क बार फिर से विदेश मंत्री एस एम कृष्णा को कर्नाटक की कमान सौंपी जाएगी। अगर ऐसा होता है तो सिद्धरमैया, बी एल शंकर, कृष्णा बायरे गौड़ा और शरण प्रकाश जैसे जमीनी नेताओं से पार्टी को सहयोग मिल पाएगा इसकी उम्मीद कम ही है । आज वहां जरूरत इस बात की है कि कृष्णा जैसे बुढाते नेताओं की बजाए शंकर और बायरे गौड़ा जैसे नेताओं को आलाकमान मजबूती से आगे बढ़ाए । नहीं तो येदुरप्पा की सत्ता वापसी की तड़प और बेल्लारी बंधुओं की बेहिसाब दौलत फिर से भारतीय जनता पार्टी को सूबे में सत्तारूढ कर सकती है ।

केरल के पिछले विधानसभा चुनाव में बमुश्किल कांग्रेस की सरकार बन पाई थी । इसी के आधार पर कांग्रेस को लोकसभा चुनाव की तैयारी करनी चाहिए । हलांकि पार्टी के नेता ओमान चांडी की क्षमताओं पर कोई शक नहीं है लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने मुस्लिम लीग के सामने जो समझौतावादी चेहरा दिखाया है वह अच्छा संकेत नहीं है । मुस्लिम लीग को एक मंत्रिपद देने के उनके फैसले पर पार्टी के अंदर गहरा असंतोष है । अब वक्त आ गया है कि सोनिया गांधी पार्टी को लेकर कुछ कड़े फैसले लें और असंतुष्ट नेताओं के मामलों में इंदिरा गांधी की तरह कड़ा रुख अख्तियार करे वर्ना उत्तर भारत में जो हश्र पार्टी का हुआ वही दक्षिण भारत में दुहराया जा सकता है । तीन साल पूरे होने के मौके पर सोनिया ने इस बात के संकेत अवश्य दिए हैं ।


  

Saturday, May 19, 2012

रिश्तों की गर्माहट का संग्रह

चौथी दुनिया में लगभग तीन साल से ज्यादा से लिख रहे अपने स्तंभ में कविता और कविता संग्रह पर बहुत कम लिखा । साहित्य से जुड़े कई लोगों ने शिकायती लहजे में इस बात के लिए मुझे उलाहना भी दिया । कईयों ने कविता की मेरी समझ पर भी सवाल खड़े किए । दोनों चीजें जायज हैं । शिकायत भी लाजिमी है क्योंकि इतने लंबे समय से हर हफ्ते लिखे जाने वाले स्तंभ में मैंने दो या तीन बार कविता पुस्तकों की चर्चा की । जहां तक समझ की बात है वो भी बहुत हद तक सही ही है । मेरी कविता में इस वजह से रुचि नहीं है या फिर समझविकसित नहीं हो पाई कि क्योंकि जिस तरह की ज्यादातर कविताएं पिछले तीन-चार दशकों में लिखी गई वो या तो बहुत दुरुह हैं या फिर उसमें बेहद सपाट बयानी है । दोनों हालत में कविता का जो रस होता है वह गायब है, लिहाजा उसको समझना कम से कम मेरे लिए आसान नहीं है । उस तरह की कविताओं में क्रांति की, यथार्थ का, सामाजिक विषमताओं का इतना ओवरडोज है कि वह आम हिंदी पाठकों से दूर होती चल गई । यह अनायास नहीं है कि आज कविता के पाठक क्यों कर कम होते जा रहे हैं । क्यों कवि सम्मेलनों का आयोजन सिमटता चला जा रहा है । जो हो भी रहे हैं वो दस बीस कवियों के बीच बैठकर एक दूसरे की कविताओं को सुन लेने भर जैसा आयोजन होता है । पाठकों और कविता प्रेमियों से कविता दूर होती चली जा रही है । मुझे जो वजह समझ में आती है वह यही है कि कविता में जो रस तत्व होता था या जिसको सुनना अच्छा लगता था वह यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । लिहाजा कविता में एक रूखापन सा आ गया । कविताएं नारेबाजी में तब्दील हो गई । कविताएं क्रांति करवाने में जुट गई । मेरे तर्कों को कविता प्रेमी यह कह कर खारिज करने की कोशिश करेंगे कि यह बहुत पुरना तर्क है  और तुकांत और अतुकांत कविताओं को लेकर उठे विवाद में ये तर्क लंबे समय से दिए जाते रहे हैं । चलिए अगर एक बारगी यह मान भी लिया जाए तो कि तर्क पुराने हैं और उसकी बिनाह पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है तो फिर उन आलोचकों को मैं चुनौती देता हूं कि वो इस बात की खोज करें और हिंदी साहित्य को यह बताएं कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि जन और लोक की बात करनेवाले कवियों और आलोचकों ने ही कविता को लोकप्रिय होने से रोक दिया है । कविता को शोध आधारित कथ्य और अति बौद्धिक बनाने के चक्कर में यथार्थ से भर दिया गया । इसी अति बौद्धिकता और भोगे हुए यथार्थ ने कविता को लोक और जन से दूर कर दिया और उसको किताबों में या फिर आलोचकों के लेखों का विषय बना दिया । अंग्रेजी के कवि विलियम वर्ड्सवर्थ का भी मानना था कि पॉएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरपुल फीलिंग्स रीकलेक्टेड उन ट्रैंक्विलिटीज ।
काफी दिनों पहले मुझे कवि मित्र तजेन्दर लूथरा के घर पर आयोजित छोटी से कवि गोष्ठी में जाने का अवसर मिला था । जिसमें विष्णु नागर, मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, पंकज सिंह, सविता सिंह, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, राजेन्द्र शर्मा समेत कई दिग्गज कवियों को सुनने का अवसर मिला था। उस कवि गोष्ठी में कुछ कवियों को छोड़कर वैसी ही दुरूह कविताएं सुनने को मिली । मैं उन कवियों का नाम लेकर नाहक विवाद खड़ा नहीं करना चाहता लेकिन कई कवियों की कविताएं तो मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आई थी । मैं उनकी कविताओं को नहीं बल्कि अपनी समझ को इसके लिए जिम्मेदार मानता हूं । हां उस कवि गोष्ठी में ही कई कवियों की कविताएं बेहतरीन थी और समझ में आनेवाली भी थी । मैं उन कवियों का भी नाम नहीं ले रहा हूं क्योंकि इससे भी एक अलग तरह का खतरा है । हिंदी साहित्य की राजनीति को जाननेवालों के लिए उस खतरे को समझना आसान है । मैं यहां सिर्फ एक कवयित्री का नाम ले रहा हूं जिनकी कविताएं मुझे पसंद आई थी- उनका नाम है ममता किरण । मैं उनकी कविताओं का जिक्र चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में पहले भी कर भी चुका हूं । ममता किरण का नाम मैंने जरूर सुना था लेकिन कविता की राजनीति और उसका भविष्य तय करनेवालों की सूची में कभी उनका नाम देखा-पढ़ा नहीं था । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो पहली कवि गोष्ठी में उन्होंने स्त्री और नदी नाम की कविता का पाठ किया था । कविता मुझे पसंद आई । गोष्ठी खत्म होने के बाद मैं उनको बधाई देना चाहता था लेकिन किन्हीं वजहों से वह संभव नहीं हो पाया । छह आठ महीने बाद एक बार फिर से तजेन्दर जी के यहां ही गोष्ठी हुई । फिर से अन्य कवियों के अलावा ममता किरण ने अपनी कविताएं सुनाकर वहां मौजूद लोगों की प्रशंसा बटोरी । दूसरी गोष्ठी के बाद मैंने उनको उनकी कविताओं के लिए बधाई दी । स्त्री और नदी कविता के लिए भी ।
अभी हाल ही में जब मुझे डाक से ममता किरण का नया कविता संग्रह- वृक्ष था हरा भरा (किताबघर प्रकाशन, अंसारी रोड, नई दिल्ली) मिला तो मैंने संग्रह की 56 कविताएं एक झटके में पढ़ ली। कविताओं से गुजरते हुए मुझे अच्छा लगा । कवयित्री का रेंज बहुत व्यापक है । उनकी कविताओं में परिवार प्रमुखता से आता है वहां मां है, मां का हठ है , बेटी है , बड़े भैया हैं । मां पर लिखते हुए कवयित्री परोक्ष रूप से बेटे के नौकरी या फिर कारोबार(जो भी कवयित्री ने सोचा हो ) करने को लेकर बाहर चले जाने के बाद मां के दर्द को समेटा है । मां अपने बेटे को खत लिखवाती हैं जिसमें होता है अब जरूरत नहीं/तुम्हारे भेजे/पैसे और दवाओं की/सिर्फ तुम आ जाओ/बैठो मेरे पास/तुम्हारे बचपन की स्मृतियों में/ तलाशूं /अपना अतीत/अपने जीवन की संतुष्टि । इस एक छोटी सी कविता में गांव से लेकर महानगर तक की मां का दर्द है । जिस बच्चे को पढ़ा लिखाकर अपने सीने से लगाकर पाला पोसा बड़ा किया वह उसे छोड़कर चला गया है । उसका ख्याल भी रखता है । उम्र के उस पड़ाव पर जब देखभाल से ज्यादा जरूरत होती है इमोशनल सपोर्ट की तब मां को अकेलेपन का दंश झेलना पड़ता है । ठीक उसी तरह बड़े भैया कविता में भी कवयित्री ने एक पूरी पीढ़ी के ट्रांसफॉर्मेशन को अपनी कविकता के माध्यम से कहा है । एक लड़का जब पिता बनता है तो उसमें अपने मां की वही सारी आदतें आ जाती है जिसका वो जवानी में मजाक उड़ाया करता था । उम्र के साथ संतान मोह में किस तरह से लोगों की मानसिकता बदलती है उसका चित्रण है इस कविता में । इस संग्रह में एक कविता है संबोधन- कंक्रीट के इस जंगल में/एकदमन अप्रत्याशित/एक बुजुर्ग से अपने लिए/बहूरानी संबोधन सुनकर/जिस तरह मैं चौंकी/उसी तरह अनायास/श्रद्धा से झुक भी गई/बहूरानी कहनेवाले के सामने । इस कविता के बारे में संग्रह के ब्लर्ब पर कवि केदारनाथ सिंह लिखते हैं- इस संग्रह में जहां जाकर मैं रुका वह संबोधन शीर्षक कविता थी । इन पंक्तियों में एक मानवीय संस्पर्श है जो अच्छा लगता है । कहीं कहीं शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि भी सुनाई पड़ती है कुछ पंक्तियों में और शायद इस रचनाकर्मी की कविता का मूल स्वर भी यही है । केदार जी को इस बात का संशय क्यों है कि शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि ममता किरण की कविताओं का मूल स्वर है । मूल ना भी कहें तो अनेक स्वरों में से एक स्वर यह भी है जो एक छुपी हुई धारा की तरह कमोबेश हर जगह मौजूद है । इस कविता की भूमिका अनामिका ने लिखी है और उन्होंने बिल्कुल सही लिखा है कि ग्रहण के समय खाने-पीने की चीजों में मां तुलसी-पत्र डाल देती थी जैसे हम किताबों में फूल डाले देते थे परंपरा के पन्नों में ममता किरण जी की कविता ऐसा ही कुछ डाल देती है और काफी नफासत से । अब यहां मैं पाठकों पर छोड़ता हू कि वो तय करें कि कविता को लेकर मेरी जो राय है उसको अनामिका का कथन पुष्ट करता है या नहीं । क्योंकि अनामिता ग्रहण और तुलसी-पत्र के प्रतीकों में बहुत बड़ी बात कह गई हैं। सोचिए समझिए और निषकर्ष पर पहुंचिए । आमीन ।

Saturday, May 12, 2012

अन्ना रामदेव-लाचारी में गठजोड़

बाबा रामदेव जो हजारों भक्तों के समर्थन का दावा करते हैं । देशभर में लाखों लोगों को योग सिखा चुके हैं । आयुर्वेद का उनका लंबा चौड़ा कारोबार है । लेकिन इस योग गुरू ने ठानी थी काला धन के खिलाफ मुहिम चलाने की । सालभर पहले भी एक आंदोलन किया था जिसकी परिणिति हुई थी दिल्ली के रामलीला मैदान में जहां अनशन पर दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई की थी । बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस कार्रवाई के लिए पुलिस के साथ साथ रामदेव को भी जिम्मेदार माना था । बाबा रामदेव इस वक्त एक बार फिर से काले धन के खिलाफ देशव्यापी मुहिम को लेकर यात्रा पर हैं । जनलोकपाल कीमांग को लेकर सरकार को हिला देने वाले अन्ना हजारे एक बार फिर से महाराष्ट्र में मजबूत लोकायुक्त की मांग को लेकर पूरे सूबे का दौरा कर रहे हैं । लेकिन दोनों के दौरे के पहले दिल्ली में एक अहम घटना हुई । अन्ना हजारे और रामदेव ने एक साझा प्रेस कांफ्रेस कर एक बार फिर से साथ आने का ऐलान किया था । ऐलान के फौरन बाद ही टीम अन्ना के अहम सदस्य और मास्टर स्ट्रैजिस्ट अरविंद केजरीवाल ने एक चतुर राजनेता की तरह सफाई दी थी कि यह साथ सिर्फ मुद्दों का है और वो भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर साझा आंदोलन कर रहे हैं । अरविंद की बातों को मान भी लिया जाए कि सिर्फ मुद्दों के आधार पर अन्ना और रामदेव के बीच समझौता हुआ है तो एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है । कल को सुरेश कलमाड़ी, ए राजा, बंगारू लक्ष्मण और सुखराम भ्रष्टाचार विरोधी मोर्चा बनाते हैं तो क्या टीम अन्ना उनके साथ भी समझौता कल लेगी और उन्हें एक साथ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाने में कोई गुरेज नहीं होगा ।

रामदेव और उनके ट्रस्ट पर पर सैकड़ों एकड़ जमीन कब्जा करने से लेकर और भी कई संगीन इल्जाम हैं । कुछ दिनों पहले उनकी दवाइयों को लेकर जा रहे ट्रकों की जब्ती की खबर आई थी ।उनके बेहद करीबी सहयोगी बालकृष्ण पर फर्जी पासपोर्ट का केस चल रहा है । लेकिन टीम अन्ना इन रामदेव और उनके सहयोगियों पर लगे इन तमाम आरोपों को अलग हटाकर रामदेव के साथ हाथ मिला रही है । दरअसल अगर हम इसकी पड़ताल करें तो जो तस्वीर सामने आती है उस पर शक के गर्दोगुबार मौजूद हैं।

रामलीला मैदान में पिछले साल जून में बाबा रामदेव के अनशन के दौरान की उनकी गतिविधियों ने उनकी विश्वसनीयता को संदिग्ध कर दिया था । एक तरफ वो भ्रष्टाचाकर के खिलाफ हुंकार भर रहे थे तो दूसरी तरफ परदे के पीछे मनमोहन सरकार के मंत्रियों से डील कर रहे थे । अनशन के दौरान ही सरकार ने रामदेव की पोल खोल दी थी । उसके बाद जब रामलीला मैदान में पुलिस ने लाठीचार्ज किया था तो महिलाओं के वेष में रामदेव के भागने को लेकर भी रामदेव की खासी फजीहत हुई थी । महिला के वेष में अनशन छोड़कर भागने का मलाल रामदेव को इतना है कि जब भिंड की एक सभा में एक शख्स ने उनसे इस बाबत सवाल पूछा तो उनके समर्थकों ने रामदेव के सामने उसकी जमकर पिटाई कर दी । वो शख्स पिटता रहा और सत्य अहिंसा की बात करनेवाले बाबा खामोश रहे । इन फजीहतों के बाद भी उनपर कई संगीन इल्जाम लगे जिसने बाबा की छवि को तार-तार कर दिया । वो हरिद्वार के अपने आश्रम में अनशन पर भी बैठे लेकिन जब कहीं से किसी ने नोटिस नहीं लिया तो आनन-फानन में श्री श्री रविशंकर से अनशन तुड़वाया गया । नतीजा यह हुआ कि रामदेव के सामने विश्वसनीयता का एक बडा़ संकट खड़ा हो गया और वो इससे निकलने का रास्ता तलाशने लगे ।

उधर अन्ना हजारे भी अपने घटते जनसमर्थन और उनकी टीम मीडिया में तवज्जो नहीं मिलने से बेहद परेशान थी । पिछले साल दिसंबर में जब मुंबई में अन्ना हजारे ने अनशन किया तो वहां लोगों की भीड़ नहीं आई । चैनलों पर कवरेज के तमाम इंतजाम धरे रह गए क्योंकि मैदान खाली था। अचानक से माहौल बना कि अन्ना की तबियत खराब हो रही है और उस वजह से वो अनशन तोड़ेंगे । कई लोगों ने अनशन खत्म करने के फैसले के पीछे अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिलना बताया था । अनशन खत्म होने के बाद जब पत्रकारों से बातचीत हो रही थी तो उस वक्त बीजेपी से रिश्तों को लेकर पूछे सवाल पर अन्ना का उठकर चले जाना और अरविंद केजरीवाल का साफ जबाव नहीं देना भी पूरे आंदोलन को सवालों के चक्रव्यूह में फंसा गया । जिससे निकल पाना टीम अन्ना के लिए आसान नहीं था । नतीजा यह हुआ कि हर वक्त टीवी कैमरे और पत्रकारों से से घिरी रहनेवाली टीम अन्ना को भाव मिलना बंद हो गया । उनका कहा सुर्खियों से गायब होने लगा । मुंबई में बीजेपी पर टीम अन्ना के लिए स्टैंड से उनकी विश्वसनीयता और साख दोनों कम हो गई । बाद में अरविंद केजरीवाल ने प्रचार की खोई जमीन हासिल करने के लिए संसादों के खिलाफ बयान दिया जिससे उन्हें संजीवनी मिली । अब बाबा रामदेव की तरह टीम अन्ना भी नई जमीन की संभावना तलाशने की जुगत में लग गई । सारी संभावनाओं पर माथापच्ची और विकल्पों पर विचार करने के बाद टीम अन्ना को बाबा रामदेव में ही फिर से समझौते की संभावना नजर आई और तय हुआ कि बाबा रामदेव के साथ मिलकर काम किया जाए । इस पर टीम अन्ना में मतभेद रहा । टीम अन्ना के कुछ लोग रामदेव की मह्त्वाकांक्षा को इस समझौते में बाधा मानते थे । खैर समझौता हुआ और कहना ना होगा कि यह समझौता मजबूरी में किया गया क्योंकि दोनों के सामने सरवाइवल का संकट था । टीम अन्ना को रामदेव के कार्यकर्ताओं की जरूरत थी और रामदेव को टीम अन्ना की बची खुची विश्वसनीयता की । मजबूरी में दोनों एक साथ तो आ गए लेकिन दोनों को इस समझौते से फायदा होगा यह तो भविष्य के गर्भ में हैं । मजबूरी में किए गए समझौतों में मन नहीं मिला करते और इस तरह के आंदोलन में अगर शीर्ष नेतृत्व का मन नहीं मिला तो दोनों पक्ष बहुत आगे नहीं जा सकते हैं । फौरी फायदा मुमकिन है लेकिन दीर्घकालीन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं सकती है ।

जब यह कहा जा रहा है कि टीम अन्ना और बाबा रामदेव के बीच समझौते में मन नहीं मिले हैं और मजबूरी की वजह से क्षणिक फायदे के लिए किया गया समझौता है तो उसके पीछे ऐतिहासिक वजहें हैं । दो हजार दस के नवंबर में जब अरविंद केजरीवाल और कुछ अन्य आरटीआई कार्यकर्ता सुरेश कलमाडी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने की सोच रहे थे तो किरण बेदी ने रामदेव का नाम सुझाया था । रामदेव को इस वजह से साथ लिया गया कि आंदोलन को एक चेहरा मिले । बाद में जब रामदेव को लगा कि अरविंद और उनकी टीम उनका इस्तेमाल कर रही है तो उन्होंने किनारा कर लिया । बाद में अरविंद की टीम ने अन्ना हजारे को खोज निकाला । उसके बाद की घटनाएं तो इतिहास बन गई हैं । रामदेव के मन में टीस बरकरार रही और वो अन्ना के जंतर मंतर के पहले अनशन में शुरू में शरीक नहीं हुए । जब उन्हें लगा कि हजारे पूरा मजमा अन्ना लूट रहे हैं तो हारे को हरिनाम की तर्ज पर वहां पहुंचे । लेकिन मन में जो टीस थी उसकी परिणति रामलीला मैदान के जवाबी अनशन के रूप में सामने आया । लेकिन वहां एक नया लेकिन मनोरंजक इतिहास बना । आजाद भारत के इतिहास में अनशन को छोड़कर भागने की यह अपने तरह की पहली और अनूठी घटना थी जिसे लोगों ने टीवी पर रियलिटी शो की तरह देखा । आनेवाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि मजबूरी में साथ आए ये दोनों दिग्गज कहां तक और कितनी दूर साथ चल पाते हैं ।

Saturday, April 28, 2012

डर्टी पिक्टर पर डर्टी पॉलिटिक्स

फिल्म डर्टी पिक्चर को एक निजी टेलीविजन चैनल पर प्रसारित नहीं करने की सलाह देकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है । फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों से लेकर बौद्धिक वर्ग के बीच इस बात को लेकर डिबेट शुरू हो गई है । सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक निजी टेलीविजन चैनल को भेजे अपनी सलाह में केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल 1994 का सहारा लिया और उसके सबरूल 5 और 6 का हवाला देते हुए फिल्म डर्टी पिक्चर के प्रसारण को रात ग्यारह बजे के बाद करने की सलाह दी । केबल टेलीविजन रूल यह कहता है कि किसी भी चैनल को बच्चों के नहीं देखने लायक कार्यक्रम के प्रसारण की इजाजत उस वक्त नहीं दी जा सकती जिस वक्त बच्चे सबसे ज्यादा टीवी देखते हों। सूचना और प्रसारण मंत्रालय यह मानकर चल  रहा है कि रात ग्यारह बजे के बाद अपेक्षाकृत कम बच्चे टीवी देखते हैं । सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस बात की जानकारी कहां से मिली कि दोपहर बारह बजे सबसे ज्यादा संख्या में बच्चे टीवी देखते हैं । उसका आधार क्या है । क्या इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार है या फिर टीआरपी के दस हजार बक्सों से किए जाने वाले विश्लेषण के आधार पर यह मान लिया गया है कि दिन में ज्यादा संख्या में बच्चे टीवी देखते हैं । क्या रात ग्यारह बजे के बच्चे टीवी नहीं देखते हैं । मंत्रालय के आला अफसर अबतक उसी पुरातन काल में जी रहे हैं जब यह माना जाता था कि बच्चे खा पीकर रात नौ बजे तक सो जाते हैं । समाज में हो रहे बदलाव और बच्चों के बदलते लाइफ स्टाइल को मंत्रालय नजरअंदाज कर रहा है । महानगर की अगर बात छोड़ भी दें तो किस शहर में अब बच्चे ग्यारह बजे तक सोते होंगे, वो भी छुट्टी वाले दिन। मंत्रालय को लगता है कि वो निजी टीवी चैनल पर डर्टी पिक्चर का प्रसारण रुकवाकर बच्चों और किशोरों को इस फिल्म को देखने से रोक लेंगे । आज बच्चों के लिए इंटरनेट का एक्सेस इतना आसान है कि उन्हें रोक पाना मुमकिन ही नहीं है । किशोरों के हाथ में जो मोबाइल फोन है उसमें भी इंटरनेट की सुविधा मौजूद है । समाज बदल रहा है, विचार बदल रहे हैं, बदल रही है लोगों की सोच, लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय में बैठे कर्ता-धर्ता अबतक पाषाणकाल में ही जी रहे हैं । उन्हें तो खुद को बदलना होगा और अगर किसी एक्ट में इस तरह के प्रावधान हैं तो पुराने पड़ चुके उन नियम कानून में भी बदलाव की दरकार है ।   लेकिन लगता है कि यहां मूल कारण बच्चे नहीं कुछ और हैं जिसका खुलासा होना चाहिए।
दक्षिण भारतीय हिरोइन स्लिक स्मिता की जिंदगी पर बनी इस फिल्म को पहले तो सेंसर बोर्ड ने एडल्ट सर्टिफिकेट दिया लेकिन बाद में जब इस फिल्म के टीवी पर दिखाने के अधिकार का करार हुआ तो बोर्ड ने करीब पचास से ज्यादा दृश्य और डॉयलॉग पर कैंची चलाने के बाद इस फिल्म को यूए यानि यूनिवर्सल एडल्ट का दर्जा दे दिया । एडल्ट फिल्म और यूनिवर्सल एडल्ट फिल्म में बुनियादी फर्क है । सोलह साल से कम उम्र के बच्चे सिनेमा हॉल में एडल्ट यानि वयस्क फिल्में नहीं देख सकते हैं भले ही वो अपने माता पिता के साथ क्यों ना हों । लेकिन जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड युनिवर्सल एडल्ट फिल्म का प्रमाण पत्र देती है उसको बच्चे अपने अभिभावक के साथ जाकर देख सकते हैं । माना यह गया था कि कई फिल्में बच्चे अपने माता पिता के साथ देख सकते हैं ताकि उनके मन में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर उनके साथ बैठे मां-बाप दे सकें।  डर्टी पिक्चर को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाला केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने टीवी पर दिखाए जाने के लिए जब यूए सर्टिफिकेट दिया है तो नियमानुसार डर्टी पिक्चर को टीवी पर नहीं दिखाए जाने की सलाह देना सरासर गलत है । अगर बच्चे अपने घर में माता पिता की मौजूदगी में डर्टी पिक्टर देखना चाहें तो देखें । और ऐसा पहली बार नहीं होता कि यूए प्रमाण पत्र मिली फिल्म टीवी पर दिखाई जाती । इसके पहले भी इस श्रेणी की कई फिल्में निजी चैनलों पर दिन और शाम के वक्त दिखाई जा चुकी है । लंबी सूची है जिसको यहां गिनाने का कोई मतलब नहीं है ।  
अब अगर हम उन तर्कों पर विचार करें जिसके आधार पर डर्टी पिक्चर के प्रसारण को रात ग्यारह बजे के बाद करने लायक माना गया तो क्या वही तर्क मनोरंजन चैनल पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों पर लागू नहीं होते । ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब एक चैनल पर सबसे ज्यादा दर्शक संख्या वाले वक्त पर इस जंगल से मुझे बचाओ जैसे धारावाहिक दिखाए गए जिसमें नायिकाएं बेहद कम कपड़ों में झरने के नीचे नहाती हुई दिखाई गई । बिग बॉस में चाहे वो अस्मित और वीणा मलिक के एक ही बिस्तर में लेटकर अंतरंग संवाद के दृश्य हों या फिर राहुल महाजन और उसकी नायिका पायल रोहतगी के स्वीमिंग पूल में तैरने के दृश्य हों क्या वो एडल्ट की श्रेणी में नहीं आते । हाल ही में एक सीरियल में लंबे लंबे चुंबन दृश्य दिखाए गए तो उस वक्त मंत्रालय ने क्या कर लिया । हमारे देश में सच का सामना जैसे कार्यक्रम भी दिखाए गए जिसमें सीधे सीधे पूछा जाता था कि आपने पत्नी के अलावा कितनी महिलाओं से जिस्मानी संबंध बनाए । उसे भी रात ग्यारह बजे के बाद दिखाने के लिए उक्त चैनल को राजी करने में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पसीने छूट गए थे । एक चैनल पर राखी सावंत का शो आता था जिसमें इस तरह के संवाद होते थे जिसको सुनकर वयस्क भी असहज हो जाते थे ।
मंत्रालय का तर्क है कि उनके पास प्री सेंसरशिप का अधिकार नहीं है । ठीक है मान लिया कि आपके पास वो अधिकार नहीं है । लेकिन क्या रात ग्यारह बजे से पहले वैसे दृश्यों को दिखाने वाले चैनलों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई की गई या सिर्फ चेतावनी देकर खानापूरी कर ली गई । अब भी कई चैनलों पर ऐसे धारावाहिक चल रहे हैं जिनके संवाद इतने अश्लील होते हैं कि आप परिवार के साथ बैठकर देखने में खुद को असहज महसूस करते हैं लेकिन मंत्रालय के अधिकारियों को उस वक्त केबल टेलीविजन रेगुलेशन एक्ट की याद नहीं आती है । क्यों । 
दूसरी जो अहम बात है वह भी समझ से परे है । इस फिल्म में शानदार भूमिका निभाने के लिए फिल्म की नायिका विद्या बालन को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया । उनकी भूमिका की जोरदार प्रशंसा की गई । अब यहां भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय बुरी तरह से फंसता नजर आ रहा है । नियमों के मुताबिक जिस भी फिल्म को किसी भी क्षेत्र में चाहे वो अभिनय हो या फिर गीत से लेकर साउंड रिकॉर्डिंग तक में अगर राष्ट्रीय पुरस्कार मिलता है तो उस फिल्म को टैक्स फ्री करना पड़ता है । साथ ही उस फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाने की भी परंपरा है । अब अगर मंत्रालय यह मानता है कि यह फिल्म बच्चों के देखने लायक नहीं है तो क्या दूरदर्शन पर भी इसका प्रसारण रात ग्यारह बजे के बाद ही किया जाएगा या फिर दूरदर्शन पर डर्टी पिक्चर का प्रसारण ही नहीं किया जाएगा । दूरदर्शन की पहुंच केबल टीवी से कहीं ज्यादा है यह बात तो प्रामाणिक है । क्या डर्टी पिक्टर को टैक्स फ्री किया जाएगा या फिर इस नियम की भी काट मंत्रालय निकाल लेगा । कुल मिलाकर देखा जाए तो इस पूरे मामले में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की खासी किरकिरी हुई है और अब वक्त आ गया है कि मंत्रालय अपने फैसले लेने के पहले उससे जुड़े सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार करे ।


Tuesday, April 24, 2012

दिग्गज नेताओं की कमी से हलकान कांग्रेस

देश की सबसे बड़ी और पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस इन दिनों एक अजीब से संकट से जूझ रही है । उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी संगठन में फेरबदल कर उसे मजबूती प्रदान करना चाहती है । इस बात को लेकर पार्टी में खासी मशक्कत हो रही है लेकिन जनाधार वाले नेताओं की खासी कमी महसूस की जा रही है । पार्टी में फिलहाल जो नेता मौजूद हैं उसमें राजनीतिक कौशल या जनाधार की कमी है जिसके बूते वो विरोधियों को टक्कर दे सके । अब अगर हम राज्यवार बात करें तो बिहार के विधानसबा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति को सालभर से ज्यादा हो गए लेकिन अब तक पार्टी वहां एक ढंग का प्रदेश अध्यक्ष नहीं ढूंढ पा रही है । अब भी महबूब अली कैसर के भरोसे ही पार्टी चल रही है । समस्या यह है कि वहां नीतीश कुमार को टक्कर देने की बात तो दूर उनके आस पास का भी कोई नेता कांग्रेस में दिखाई नहीं दे रहा है । यही हालत उत्तर प्रदेश की भी है जहां किसी नेता के पास मुलायम सिंह यादव या मायावती जैसा जनाधार नहीं है । बेनी वर्मा या श्री प्रकाश जायसवाल या सलमान खुर्शीद जैसे नेता उत्तर प्रदेश से आते हैं लेकिन विधानसभा चुनाव में जनता ने उन्हें उनकी असली जगह दिखा दी थी । रही बात आर पी एन सिंह और जितिन प्रसाद जैसे युवा नेताओं की तो उन्हें अभी अपने आप को प्रूव करना बाकी है । यही हाल गुजरात का हैं जहां इस साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होने हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी के सामने अर्जुन मोढवाडिया और शक्ति सिंह गोहिल जैसे नेता हैं जो कहीं से भी मोदी की लोकप्रियता के आगे टिकते नहीं हैं । गुजरात में एक जमाने में अहमद पटेल जैसे नेता हुए जो इमरजेंसी के बाद कांग्रेस विरोध के लहर के बावजूद 1977 के लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की । उसके बाद भी दो लोकसभा चुनाव में जीत का परचम फहराया । गुजरात के बाद अगर हम बात महाराष्ट्र की करें को वहां विलासराव देशमुख और सुशील कुमार शिंदे के बाद कोई दमदार नेता नजर नहीं आता । इन दोनों नेताओं के नाम आदर्श घोटाले में आने के बाद पार्टी का संकट और बढ़ गया है । मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण की छवि भले ही अच्छी हो लेकिन उनका राज्य में कोई बड़ा जनाधार नहीं है । बंगाल और उड़ीसा में भी पार्टी की यही गत है । उड़ीसा में भी पार्टी के पास नवीन पटनायक के करिश्मे को चुनौती देनेवाला नेता नहीं है । बंगाल में तो खैर संगठन कभी मजबूत हो ही नहीं पाया और ममता बनर्जी को कांग्रेस अपने साथ रख नहीं पाई । मध्यप्रदेश में पार्टी के पास भले ही दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ जैसे नेता हैं लेकिन तीनों की रुचि केंद्र में ज्यादा है । दक्षिण भारत में तो कांग्रेस की हालत और बुरी है । तमिलनाडु में तो कांग्रेस काफी दिनों से डीएमके और एआईएडीएमके की अंगुली पकड़कर ही राजनीति करती रही है । जी के मूपनार के बाद वहां भी कोई मजबूत कांग्रेसी हुआ नहीं जो करुणानिधि और जयललिता को टक्कर दे सके । वाई एस राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद आंध्र प्रदेश में पार्टी अनाथ सी हो गई लगती है । पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने जोरदार प्रदर्शन किया था लेकिन अब कमजोर नेतृत्व की वजह से वहां की समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही है । कर्नाटक में पार्टी के पास जरूर एस एम कृष्णा, मोइली जैसे नेता हैं लेकिन लोकप्रियता में येदुरप्पा उनपर भारी पड़ते हैं । पंजाब में ले देकर कैप्टन अमरिंदर सिंह बचते हैं जिसे लोगों ने विधानसभा चुनाव में नकार दिया । लब्बोलुआब यह कि कांग्रेस पार्टी इन दिनों मजबूत और जुझारू नेताओं की कमी से परेशान है । आज कांग्रेस में जो भी बड़े नेता हैं उनकी प्रतिभा को संजय गांधी ने पहचाना और युवा कांग्रेस के रास्त से उन्हें राजनीति का रास्ता दिखाया। चाहे वो अंबिका सोनी हो, कमलनाथ हों, अहमद पटेल हों, सुरेश पचौरी हों । दरअसल राजीव गांधी की पार्टी की कमान संभालने के बाद से ही कांग्रेस में दूसरी पंक्ति के नेताओं को तैयार करने का कोई प्रयास नहीं किया गया । राजीव गांधी के कई सखा राजनीति में जरूर आए लेकिन वो लंबे समय तक टिक नहीं पाए । राजीव के बाद तो कांग्रेस की हालत और बदतर हो गई और सीताराम केसरी के अध्यक्ष रहते तो एक बारगी यह लगा कि कांग्रेस खत्म ही हो जाएगी । लेकिन सोनिया गांधी ने पार्टी को तो संभाल लिया लेकिन नेताओं की पौध सींचने का काम नहीं हो पाया । अब जरूर राहुल गांधी ने इस कमी को महसूस किया और पार्टी में दूसरी पक्ति के युवा नेताओं को तैयार करने का काम शुरू किया । राहुल गांधी ने अलवर के जीतेन्द्र सिंह, सिरसा से अशोक तंवर, मध्यप्रदेश से मीनाक्षी नटराजन और तमिलनाडु से माणिक टैगोर को हैंडपिक किया और उन्हें लोकसभा का टिकट दिलवाकर संगठन में अहम भूमिका दी । राहुल के चुने गए इन नेताओं ने अपने इलाके में विपक्ष के दिग्गजों को लोकसभा चुनाव में शिकस्त दी । माणिक टैगोर ने तो वाइको को हराया, मीनाक्षी ने बीजेपी के गढ़ मंदसौर से तो अशोक तंवर ने चौटाला के गढ़ सिरसा से जीत हासिल की। अब इन नेताओं में ही कांग्रेस का भविष्य है । जितिन प्रसाद,सचिन पायलट और दीपेन्द्र हुडा तो राजनीतिक वंशवाद की उपज हैं । राहुल गांधी की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा दिया और युवक कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनाव करवाने की कोशिश की । राहुल गांधी ने संगठन को मजबूत करने के लिए दो हजार आठ से टैलेंट हंट शुरू किया जिसे आम आदमी का सिपाही नाम दिया गया । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से सक्रिय रहे अब्दुल हफीज गांधी और उत्तर पू्र्व की सजरीटा इस टैलेंट हंट की उपज हैं । एक उत्तर प्रदेश में तो दूसरी उत्तर पूर्व में पार्टी के लिए मजबूती से काम कर रहे हैं । लेकिन राहुल गांधी ने जिस काम की शुरुआत की है उसके नतीजे इतनी जल्दी नहीं मिलेंगे,उसमें वक्त लगेगा, तबतक कांग्रेस पार्टी में नेताओं की कमी महसूस होती रहेगी और कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के लिए सूबों से लेकर केंद्रीय संगठन में नेताओं का चुनाव एक अपहिल टास्क होगा ।

Thursday, April 19, 2012

ममता का तुगलकी रवैया

पश्चिम बंगाल की जनता ने बड़ी उम्मीदों से ममता बनर्जी का साथ दिया था और उसी उम्मीद पर सवार होकर ममता ने बंगाल में लेफ्ट पार्टियों का डब्बा गोल कर दिया था । अब तो विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम ने भी ममता बनर्जी को सौ ताकतवर शख्सियतों में शुमार कर लिया है । जनता के विशाल बहुमत मिलने से नेताओं के बेअंदाज होने का जो खतरा होता है ममता बनर्जी उसकी शिकार हो गई । जब से ममता बनर्जी सत्ता में आई हैं उनसे अपनी और अपनी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं हो पा रही है । वह अपने और अपनी नीतियों की आलोचना करनेवालों के खिलाफ लगातार कार्रवाई कर रही हैं । पहले सरकारी सहायता प्राप्त पुस्तकालयों में सिर्फ आठ अखबारों की खरीद को मंजूरी और बाकी सभी अखबारों पर पाबंदी लगा कर अखबरों को यह संदेश देने की कोशिश की गई कि सरकार के खिलाफ लिखना बंद करें । ममता बनर्जी की सरकार पर आरोप यह लगे कि उन अखबारों की सरकारी खरीद पर पाबंदी लगाई गई जो लगातार ममता और उनकी नीतियों के खिलाफ लिख रहे थे । जब देशभर में ममता बनर्जी के इस कदम की जमकर आलोचना हुई तो चंद अखबारों को और खरीद की सूची में जोड़ककर उसे संतुलित करने की कोशिश करने का दिखावा किया गया । पिछले दिनों ममता और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का कार्टून बनाने वाले को जेल की हवा खिलाकर ममता बनर्जी ने अपनी फासीवादी छवि और चमका ली है । जाधवपुर विश्वविद्यालय के विज्ञान के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा पर आरोप है कि उन्होंने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं के कार्टून ईमेल पर सर्कुलेट किए । उन कार्टून में ममता बनर्जी और रेल मंत्री मकुल रॉय के बीच दिनेश त्रिवेदी से निपटने की मंत्रणा है जो कि ममता को नागवार गुजरी । प्रोफेसर महापात्रा पर अन्य धाराओं के अलावा आउटरेजिंग द मॉडेस्टी ऑफ वुमेन लगा दी गई है, जिसमें साल भर की सजा का प्रावधान है। लेकिन ममता बनर्जी पुलिस की कार्रवाई को जायज ठहरा रही है। उनकी पार्टी के नेता कोलकाता पुलिस के कदम को उचित करार दे रहे हैं ।
विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत और बार बार केंद्र सरकार से अपनी बात मनवा लेने से ममता के हौसले सातवें आसमान पर हैं । उन्हें लगता है कि वो बहुत बड़ी नेता हो गई हैं, हो भी गई हैं लेकिन अभी वो बड़े नेता के बड़प्पन को हासिल नहीं कर पाई है । उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़ा नेता वह होता है जिसमें अपनी आलोचनाओं को सुनने और सामना करने का माद्दा होता है । इस संबंध में 1939 का एक वाकया याद आता है । गांधी जी ट्रेन य़ात्रा कर रहे थे, उनके साथ उनके सहयोगी महादेव देसाई भी थे । अचानक महात्मा गांधी के डब्बे में एक युवक आया उसके हाथ में गोंविंद दास कौंसुल की किताब महात्मा गांधी -द ग्रेट रोग(Rogue) ऑफ इंडिया थी । वह युवक उस किताब पर गांधी जी की सम्मति लेना चाहता था । जब वो किताब लेकर गांधी की ओर बढ़ा तो महादेव देसाई ने उसके हाथ से किताब झटक ली और उसका शीर्षक देखकर वो उसे फेंकने ही वाले थे कि इतने में गांधीजी की नजर उस पर पड़ गई । उन्होंने महादेव देसाई से लेकर वह किताब देखी और उस युवक को अपने पास बुलाकर उससे उसकी इच्छा पूछी । युवक जिसका नाम रणजीत था उसने पुस्तक लेखक का पत्र देकर गांधी जी से उस किताब पर उनकी राय पूछी । बगैर क्रोधित हुए गांधी ने किताब को उलटा पलटा और फिर उस पर लिखा- मैंने किताब को उलटा पुलटा और इस नतीजे पर पहुंचा कि शीर्षक से मुझे कोई आपत्ति नहीं है । लेखक जो भी उचित समझे उसे लिखने की छूट होनी चाहिए । ये गांधी थे जो अपनी आलोतना से जरा भी नहीं विचलित होते थे और आलोचना करने वाले को भी अभिवयक्ति की छूट देते थे ।
लेकिन गांधी के ही देश में आज एक नेता का कार्टून बनाने पर एक प्रोफेसर को जेल की हवा खानी पड़ती है । लगता है कि ममता बनर्जी कार्टून के माध्यम को दरअसल समझ नहीं पाई, उनके कदमों से ऐसा ही प्रतीत होता है । दरअसल कार्टूनिस्ट उन्हीं राजनेताओं के कार्टून बनाते हैं जिनकी शख्सियत में कुछ खास बात होती है । आम राजनेताओं के कार्टून कम ही बनते हैं । पूर् विश्व में कार्टून एक ऐसा माध्यम है जिसके सहारे कभी कभी तो पूरी व्यवस्था पर तल्ख टिप्पणी की जाती है जो लोगों को गुदगुदाते हुए अपनी बात कहती है और बहुधा किसी राजनेता या समाज के अहम लोगों के क्रियाकलापों को परखते हैं । आज ममता बनर्जी जैसी नेत्री कार्टून जैसे माध्यम की भावना को समझे बगैर कलाकार को जेल भिजवाने जैसा काम कर रही है उससे उनका कद राजनीति में छोटा ही हो रहा है । किसी प्रोफेसर को झुग्गी झोपड़ी वालों का समर्थन करने पर जेल जाना पड़ता है। उनकी पार्टी के नेता अपेन विरोधियों के साथ वयक्तिगत संबंध नहीं बनाने की वकालत करते हैं । उनकी पार्टी के सांसद खुलेआम यह ऐलान करते हैं कि संसद के सेंट्रल हॉल में वो लेफ् के नेताओं के साथ नहीं बैठ सकते । इस तरह की राजनीतिक छुआछूत का माहौल इस देश में पहले कभी नहीं बना था । यह सही है कि लेफ्ट के शासन काल में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर जमकर अत्याचार हुए । टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन का आरोप है कि लेफ्ट के इशारे पर तृणमूल के कई कार्यकर्ताओं की हत्या भी की गई। लेकिन इन तमाम बातों को आदार बनाकर जिस तरह से ममता विरोधियों की आवाज दबाने का प्रयास किया जा रहा है वह घोर निंदनीय है । ममता बनर्जी को याद होगा कि जब वो लेफ्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ रही थी तो उस वक्त बंगाल के बुद्धिजीवियों ने उनका खुलकर साथ दिया था । अब वही बुद्धिजीवी ममता के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं । बंगाल में अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए सड़क पर उतरे लोगों के साथ भी पुलिस ने बदतमीजी की लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अब वक्त आ गया है कि ममता बनर्जी को भारतीय राजनीति में अपनी गंभीर छवि के बारे में शिद्दत से सोचना चाहिए नहीं तो उनके लिए इतिहास के अंधेरे में गुम होने का खतरा पैदा हो जाएगा । क्योंकि वो किसी पार्टी की मुख्मंत्री नहीं बल्कि पूरे बंगाल की सीएम हैं । लेफ्ट को भी बंगाल ने कई बार भारी बहमनुत से जिताया था लेकिन जब सूबे की आवाम को लगा कि जिसको वो शासन की बागडोर सौंप रहे हैं उस पार्टी में और उस पार्टी के नेताओं में शासन में आने के बाद तटस्थता नहीं रहती है तो उसे भी उखाड़ फेंका । लेफ्ट ने भी वोट बैंक की खातिर तसलीमा नसरीन को बंगाल से निकालने की गलती की थी । जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा । अब ममता भी वही गलती दोहरा रही हैं । क्या इतिहास से वो कोई सबक नहीं लेना चाहती ।

Monday, April 16, 2012

भ्रम, भटकाव और भाजपा

चंद दिनों पहले ही देश के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने अपने नए अवतार के बत्तीस साल पूरे किए । बत्तीस साल एक ऐसी उम्र होती है जहां से किसी संगठन की एक साफ छवि उभर कर सामने आ जाती है । तीन दशक से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती यह खड़ी हो गई है कि वो जनता के सामने साबित करे कि उसमें कांग्रेस का विकल्प देने का दम है । यह बात सौ फीसदी सही है कि अब देश में गठबंधन की सरकारों का दौर है और आगे भी यह जारी रहेगा । लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सत्तारूढ गठबंधन के विकल्प के तौर पर भारतीय जनता पार्टी को ना केवल लीड लेनी होगी बल्कि जनता को यह भरोसा भी देना होगा कि उसेक नेतृत्व में वह एक बेहतर राजनैतिक विकल्प दे सकती है । पार्टी की स्थापना के बत्तीस साल बाद भी अगर वर्तमान पार्टी अध्यक्ष अपने अगले कार्यकाल को लेकर निश्चिंत नहीं हो तो यह पार्टी के अंदर सबकुछ ठीक नहीं होने का संकेत मात्र है । उसके पहले भी जिस तरह से पार्टी के कुछ सांसदों ने ही छत्तीसगढ़ की अपनी ही रमन सिंह सरकार पर कोल ब्लॉक में आवंटन की गड़बड़ियों को लेकर हमले किए उससे भी यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी के अनुशासन में कमी आई है । जिस तरह से कर्नाटक में येदुरप्पा ने खुद को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए लगभग बगावत कर दी थी वह भी यह साबित करते है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है । भारतीय जनता पार्टी हमेशा से पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करती रही है, अपने चाल चरित्र और चेहरे की दुहाई भी देती रही है, लेकिन गाहे बगाहे उनके चाल चरित्र और चेहरे पर प्रश्न उठते है। चाहे वो बंगारू लक्ष्मण का पार्टी अध्यक्ष रहते कैमरे पर घूस लेना हो, या फिर पार्टी सांसद दिलीप सिंह जूदेव का पैसे लेकर यह गर्वोक्ति कि - पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं हो , या फिर पार्टी विधायकों का विधान सभा के अंदर अश्लील फिल्में देखने का मामला हो । यह सब वो प्रसंग हैं जिनको लेकर पार्टी की बदनामी हुई  ।

भारतीय जनता पार्टी के लिए जो इस वक्त बेहद चिंता की बात है वह यह कि पार्टी में जो भी राजनैतिक फैसले हो रहे हैं वो विवादित हो जा रहे हैं । पार्टी के फैसलों के खिलाफ पार्टी के ही वरिष्ठ नेता खड़े हो जा रहे हैं और पार्टी फोरम से लेकर मीडिया तक में खुलकर आलाकमान के फैसलों पर रोष जता रहे हैं । ताजा मामला रक्षा मंत्रालय और सेनाध्यक्ष के विवाद के बीच का है । सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह की चिट्टी लीक होने के मामले में पार्टी नेताओं के अलग अलग सुर रहे । सुबह बीजेपी नेताओं का स्टैंड अलग था, संसद में अलग और शाम होते होते वह भी बदल जाता है । इससे लोगों के मन में भ्रम पैदा होता है पार्टी और उसके नेताओं को लेकर । इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि पार्टी को लेकर लोगों के मन में निर्णायक छवि नहीं बन पाएगी । दूसरा बड़ा मामला रहा झारखंड राज्यसभा चुनाव में पार्टी के विधायकों की भूमिका को लेकर । किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के लिए ऐसी स्थिति क्यों बनती है कि वो यह फैसला ले कि उनकी पार्टी के विधायक राज्यसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें । हलांकि झारखंड में सत्ता में बने रहने की मजबूरी ने उसे इस निर्णय को बदलने को मजबूर कर दिया । राज्यसभा के लिए टिकटों के बंटवारो को लेकर भी पार्टी अध्यक्ष नितिन गड़करी की आलोचना हुई । झारखंड में एक धनकुबेर को पार्टी के समर्थन को लेकर संसदीय दल में यशवंत सिन्हा ने इतना हल्ला मचाया कि आडवाणी को यह कहकर उनको शांत करना पड़ा कि वो अध्यक्ष से इस संबंध में बात करेंगे । बाद में पार्टी ने उनको समर्थन देने के अपने फैसले को भी बदला ।

इसके पहले के फैसलों पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं । विवाद होता रहा है । उत्तर प्रदेश चुनाव के वक्त बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों की गड़बड़ियों के आरोपी रहे बाबू सिंह कुशवाहा को बीजेपी में शामिल करने के अध्यक्ष के फैसलों पर आडवाणी और सुषमा समेत कई नेताओं ने विरोध जताया था लेकिन गड़करी ने किसी की एक नहीं सुनी । नतीजा सबके सामने है । दरअसल बीजेपी में नेताओं के अलग अलग बयान इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि पार्टी में भ्रम के हालात हैं । माना यह जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरदहस्त पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को हासिल है जिसकी वजह से वो पार्टी के आला नेताओं को दरकिनार कर मनमाने फैसले लेते हैं । पहले तो उनके इस मनमाने फैसले पर सवाल नहीं उठते थे लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के बाद गडकरी के फैसलों पर सवाल खड़े होने लगे हैं । 

सत्ता हासिल करने के लिए सिद्धांतों की जो तिलांजलि पार्टी ने दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में जता दी थी । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता । गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी । 
यूपीए सरकार पर जिस तरह से अएक के बाद एक घोटलों के आरोप लग रहे हैं , जिस तरह से यूपीए पर बैड गवर्नेंस के इल्जाम लग रहे हैं उसने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को निश्चिंत कर दिया है कि दो हजार चौदह में पार्टी केंद्र में सरकार बनाएगी । इसी निश्चिंतता में पार्टी के आला नेता जनता के पास जाने के बजाए दिल्ली में ट्विटर पर राजनीति कर रहे हैं । उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस से उब चुकी जनता उनके हाथ में सहर्ष सत्ता सौंप देगी । लेकिन यहां पार्टी के आला नेता यह भूल जाते हैं कि इस देश की जनता में जबतक आप संघर्ष करते नहीं दिखेंगे तबतक उनका भरोसा कायम नहीं होगा । भारतीय जनता पार्टी ने पिछले सालों में कोई बड़ा राजनैतिक आंदोलन खडा़ नहीं किया जबकि यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगे । वी पी सिंह ने बोफेर्स सौदे में 64 करोड़ की दलाली पर इतना बड़ा आंदोलन खडा़ कर दिया था कि देश की सत्ता बदल गई थी । दरअसल भारतीय जनता पार्टी के इतिहास से न तो सबक लेना चाहती है और न ही इतिहास में हुई गलतियों को दुहराने से परहेज कर रही है । नतीजा पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में भ्रम की स्थिति है जो पार्टी के लिए अच्छी स्थिति नहीं है । अगर इस भ्रम और भटकाव को नहीं रोका गया तो दिल्ली दूर ही रहेगी ।

Thursday, April 12, 2012

स्त्री विमर्श की बदमाश कंपनी

हिंदी में स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । हिंदी साहित्य में माना जाता है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस में स्त्री विमर्श की गंभीर शुरुआत की थी। दरअसल स्त्री विमर्श पश्चिमी देशों से आयातित एक कांसेप्ट है जिसको राजेन्द्र यादव ने भारत में झटक लिया और खूब शोर शराबा मचाकर स्त्री विमर्श के सबसे बड़े पैरोकार के तौर पर अपने आपको स्थापित कर लिया । हंस का मंच था ही उनके पास । इंगलैंड और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में फेमिनिस्ट मूवमेंट से इसकी शुरुआत हुई । दरअसल यह आंदोलन लैंगिंक समानता के साथ साथ समाज में बराबरी के हक की लड़ाई थी जो बाद में राजनीति से होती हुए साहित्य कला और संस्कृति तक आ पहुंची । फिर तो साहित्य में एक के बाद एक महिला लेखकों की कृतियों की ओर आलोचकों का ध्यान गया और एक नई दृष्टि से उनका मूल्यांकन शुरू हुआ । बाद में यह आंदोलन विश्व के कई देशों से होता हुआ भारत तक पहुंचा ।
भारत में खासतौर पर हिंदी में जब इसकी शुरुआत हुई तो इसमें कमोबेश लैंगिक समानता का मुद्दा ही केंद्र में रहा और सारे बहस मुहाबिसे उसके इर्द गिर्द ही चलते रहे । राजेन्द्र यादव के पास उनकी अपनी पत्रिका हंस थी और उन्होंने उसमें स्त्री की देह मुक्ति से संबंधित कई लेख और कहानियां छापी और हिंदी साहित्य में नब्बे के अंतिम दशक और उसके बाद के सालों में एक समय तो ऐसा लगने लगा कि स्त्री विमर्श विषयक कहानियां ही हिंदी के केंद्र में आ गई हों । यूरोपीय देशों से आयातित इस अवधारणा का जब देसीकरण हुआ तो हमारे यहां कई ऐसी महिला लेखिकाएं सामने आई जो अपनी रचनाओं में उनकी नायिकाएं देह से मुक्ति के लिए छटपटाती नजर आने लगी । उपन्यास हो या कहानी वहां देह मुक्ति का ऐसा नशा उनके पात्रों पर चढ़ा कि वो घर परिवार समाज सब से विद्रोह करती और पुरानी सामाजिक परंपराओं को छिन्न भिन्न करती दिखने की कोशिश करने लगी । साहित्यिक लेखन तक तो यह सब ठीक था लेकिन जब तोड़फोड़ और देह से मुक्त होने की छटपटाहट कई स्त्री लेखिकाओं ने अपनी जिंदगी में आत्मसात करने की कोशिश की तो लगा कि सामाजिक ताना बाना ही चकनाचूर हो जाएगा । कई स्त्री लेखिकाएं तो डंके की चोट पर यह कहने लगी की यह हमारी देह है हम जब चाहें जैसे चाहें जिसके साथ चाहें उसका इस्तेमाल करें । हम क्यों पति नाम के एक खूंटे से बंधकर अपनी जिंदगी तबाह कर दें । परिवार नाम की संस्था के अंदर की गुलामी उन्हें मंजूर नहीं थी और वो बोहेमियन जिंदगी जीने के सपने देखने लगी । मर्दों की बराबरी में वो यह तर्क देती नजर आने लगी कि अगर मर्द कई स्त्रियों से संबंध बना सकता है तो स्त्रियां कई मर्दों से संबंध क्यों नहीं बना सकती हैं । कई स्त्री लेखिकाएं अपने भाषण में पुरुषों के खिलाफ आग उगलने लगी । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्त्री विमर्श के नाम पर न्यूनतम मर्यादाओं का भी पालन नहीं हो सका और मान्यताओं और परंपराओं पर प्रहार करने की जिद ने लेखन को बदतमीज और अश्लील लेखन में तब्दील कर दिया । हिंदी में ऐसे उपन्यासों और कहानियों की बाढ़ आ गई जिसमें रचनात्मकता कम और सेक्सुअल अनुभव ज्यादा आने लगे । सेक्सुअल अनुभव के नाम पर जुगुप्साजनक अश्लीलता परोसी जाने लगी । पाठकों को भी इस तरह के लेखन में फौरी आनंद आने लगा और कुछ कहानियां और उपन्यास अपने सेक्स प्रसंगों की वजह से चर्चित भी हुई । हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने भी मौके का फायदा उठाया और लगे हाथों अपना विवादित लेख होना सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ लिख कर उसे वर्तमान साहित्य में प्रकाशित करवा लिया । उनकी विवादित और सेक्स प्रसंगों से भरपूर कहानी हासिल भी उसी दौर में प्रकाशित हुई । हासिल में मौजूद लंबे लंबे सेक्स प्रसंगों की तो होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ की भाषा को लेकर उस वक्त हिंदी में अच्छा खासा बवाल मचा । जब इस तरह की रचनाएं चर्चित होने लगी तो कई लेखिकाओं को सेक्स प्रसंगों को सार्वजनिक करके अपनी रचनाओं को सफल करवाने का आसान नुस्खा मिल गया और वो यूरेका यूरेका चिल्लाने लगी । उनकी यूरेका में सेक्स प्रसंगों की भरमार थी । उस दौर की कई कहानियों और उपन्यासों में भी जबरदस्ती ठूसे सेक्स प्रसंगों को देखा जा सकता है, जो फौरी तौर पर तो लोकप्रिय हुआ लेकिन उसके बाद उन रचनाओं का और उन लेखिकाओं का कहीं अता पता नहीं चल पाया । अमेरिका और इंगलैंड में भी स्त्री लेखन के नाम पर सेक्स परोसा गया है लेकिन हिंदी में जिस तरह से वो कई बार भौंडे और जुगुप्सा जनक रूप में छपा वो स्त्री विमर्श के नाम पर कलंक है । राजेन्द्र यादव के लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए एक उभरती हुई लेखिका, जिसके बारे में कहा जाता है कि वो एके 47 लेकर लेखन करती हैं , ने लिखा- दरअसल तो ये सारे विचार एक अकेले राजेन्द्र यादव के नहीं बल्कि उस पूरी जमात के हैं जो अपने आठ इंची अंग की ऐंठ में औरतों को कुचलती दबोचती और उनपर चढ़ चढ़ बैठती है । इस तरह की भाषा में स्त्री मुक्ति का अंहकारी दौर शुरू हुआ । स्त्री विमर्श के नाम पर दरअसल पुरुष विरोध का लेखन शुरू हो गया । जिसमें वही लेखिका श्रेष्ठ विमर्श करनेवाली मानी जाने लगी जो सबसे अपमानजनक और बदतमीज भाषा में पुरुषों को गाली देते हुए अपनी बात कह सकें । गाली गलौच का यह दौर लगभग सात आठ साल तक निर्बाध गति से चलता रहा । अब भी कई लेखिकाओं को लगता है कि सभी पुरुष उनको दबोचने और उनपर चढ़ बैठने के ललक पाले ही घूमते रहते हैं । लेकिन ऐसा है नहीं । उनकी गलतफहमी का इलाज नहीं है लेकिन जिस तरह से हिंदी साहित्य के पाठकों ने एक के बाद एक उस तरह की लेखिकाओं को हाशिए पर डाल दिया उससे यह साबित होता है कि देह मुक्ति के नाम पर , स्त्री विमर्श के नाम पर, स्त्रियों को पुरुषों की गुलामी से मुक्त कराने का नारा देनेवाला जो लेखन था उसमें तार्किकता की कमी थी । भारत में हमेशा से स्त्रियों को समाज में बहुत उंचा दर्जा दिया गया है । हमारे यहां पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों पर जोर जुल्म और अत्याचार भी किए गए लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सभी पुरुषों को लाइन में खड़े कर गोली मार देनी चाहिए ।
स्त्री विमर्श के नाम पर इस तरह की लेखिकाओं की पौध को राजेन्द्र यादव का ना केवल प्रश्रय और प्रोत्साहन मिला बल्कि उस तरह की बदतमीज लेखन को यादव जी ने वैधता प्रदान करने की भी भरसक कोशिश की । हंस का मंच उनके पास था ही लेकिन कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है । वही हुआ और स्त्री विमर्श की जो यह बदमाश कंपनी थी उसका लेखन एक बार तो पाठकों को शॉक दे पाया लेकिन पाठकों ने कई कई बार छप रहे उस तरह के लेखन को सिरे से खारिज कर दिया । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में जो स्त्री विमर्श की आंधी चल रही या चलाई जा रही थी वो थम सी गई और उसका जो गर्द ओ गुबार था वह भी कहां गुम हो गया पता ही नहीं चल पाया । अब एक बार फिर से हिंदी में कुछ नई लेखिकाएं आई हैं जो स्त्री विमर्श के नाम पर गंभीरता से लेखन कर रही हैं और अपनी कृतियों के बूते पर स्त्री की आजादी की जोरदार वकालत भी कर रही है । वहां स्त्रियों का दर्द है, उनकी जेनुइन समस्याएं हैं, उनको दूर करने और सामने लाने की छटपटाहट है । यह हिंदी के लिए सुखद संकेत है । सुथद यह भी है कि स्त्री विमर्श के नाम पर जो पुरुष विरोध की चाल चली गई थी जिसके झांसे में लेखिकाएं आ गई थी वो भी उससे मुक्त होकर अब उस दायरे से बाहर निकल कर लिख रही हैं ।

Friday, April 6, 2012

नहीं बदला मानदेय का अर्थशास्त्र

बात नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की है । उस वक्त मैं अपने शहर जमालपुर से दिल्ली आया था । अखबारों में लिखना पढ़ना तो अपने शहर से ही शुरू कर चुका था । लिहाजा दिल्ली आने के बाद जब बोरिया बिस्तर लगा और पढ़ाई शुरू हुई तो उसके साथ साथ अखबारों के दफ्तर में इस उम्मीद में चक्कर काटने लगा कि कोई असाइनमेंट मिले ताकि घर से मिलनेवाले पैसे के अलावा कुछ और पैसों का इंतजाम हो सके । दिल्ली विश्वविद्यालय के पास के मुहल्ले विजयनगर में रहता था और वहां से सौ नंबर की बस पकड़कर कनॉट प्लेस पहुंचता था जहां हिंदुस्तान और इंडिया टुडे के दफ्तर थे । उसके अलावा रफी मार्ग स्थित इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की बिल्डिंग में, जहां कई अखबारों के दफ्तर थे, जाकर कुछ काम लेता था । छात्र जीवन के दौरान फ्रीलांसिंग से जितने भी पैसे मिल जाते थे वो बोनस होते थे । उसी वक्त देश की शीर्ष पाक्षिक पत्रिका में दो किताबों पर एक समीक्षा लिखने का अवसर मिला । अगर मेरी स्मृति साथ दे रही है तो ये साल उन्नीस सौ तिरानवे की बात है – मेरी लिखी समीक्षा उक्त पाक्षिक पत्रिका में छपी पूरे एक पन्ने में । बेहद खुशी हुई । दिल्ली आने के बाद पहली बार किसी राष्ट्रीय पत्रिका में पूरे पन्ने पर जगह मिली, अखबारों में तो लेख वगैरह छप ही रहे थे । दो महीने बीतने के बाद एक लिफाफे में उक्त समीक्षा का मेहनताना आया, लिफाफा खोला तो उसमें एक हजार रुपए का चेक था । खुशी दुगनी हो गई । उस वक्त हजार रुपए बहुत हुआ करते थे । बाद में तो यह सिलसिला चल निकला और अखबारों और पत्रिकाओं में लिखकर चेक आने की प्रतीक्षा करने लगा । हम तीन लोग एक फ्लैट में रहते थे । साथ रह रहे दोस्तों को भी मेरी डाक में आनेवाले चेक का अंदाजा हो गया था और वो भी अखबार पत्रिकाओं के लिफाफे का इंतजार करने लगे थे । क्योंकि जिस दिन लिफाफा आता था उस दिन जश्न तय होता था । किंग्सवे कैंप के सम्राट या विक्रांत होटल में जाकर खाना खाना ।
अभी हाल में तकरीबन दो साल पहले उक्त पत्रिका में फिर से मेरे द्वारा लिखी गई एक पन्ने की समीक्षा छपी । दो महीने बाद फिर से चेक आया लेकिन राशि वही एक हजार रुपए । अचानक से मेरे दिमाग में एक बात कौंधी कि डेढ़ दशक बाद भी एक पृष्ठ समीक्षा लिखने के उतने ही पैसे, कोई बदलाव नहीं । फिर मैंने सोचना शुरू किया और अखबारों और पत्र पत्रिकाओं से लेखकों को मिलने वाले मानदेय सा मेहनताना पर विचार किया तो लगा कि तकरीबन पंद्रह साल बाद भी लेखकों को कोई इंक्रीमेंट नहीं मिला है । मानदेय कमोबेश वही है जो दस-बारह साल पहले थे। इस बीच अखबारों और पत्रिकाओं के मूल्य और उनमें छपनेवाले विज्ञापनों की दरें कई कई गुना बढ़ गई लेकिन लेखकों को मिलने वाले मानदेय में कोई इजाफा नहीं हुआ । दरअसल फ्रीलांसरों के बारे में किसी ने सोचने की जहमत ही नहीं उठाई, लगा ये तो जरूरतमंद है जितने पैसे दोगे उतने में ही काम करेगा । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्वतंत्र लेखन करनेवालों को जरूरतमंद मान लिया गया। हिंदी के लेखकों को अखबारों या पत्रिकाओं में लेख लिखने के एवज में जो पैसे मिलते हैं वह बहुत ही कम और लेखकों की प्रतिष्ठा के अनुरूप को कतई नहीं है । अब तो कई अखबारों में कम से कम लेखों का हिसाब रहने लगा है नहीं तो कुछ दिनों पहले तक तो हालत यह थी कि संपादकीय विभाग या लेखा विभाग में बैठा बाबू जितने की पेमेंट लगा दे उस से ही लेखकों को संतोष करना पड़ता था । अब भी कई अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में हजार शब्दों के एक लेख के लिए लेखकों को पांच सौ से लेकर सात सौ रुपए तक ही दिए जा रहे हैं । लेकिन लेखक लिख रहे हैं और खुशी-खुशी लिख रहे हैं । हिंदी में ना कहने की प्रवृत्ति या यों कहें कि साहस नहीं है उन्हें लगता है कि अगरर मना किया तो ये पांच सौ रुपये भी मिलने बंद हो जाएंगे ।
इस पूरे वाकए को बताने के पीछे मेरा मकसद उस सवाल से टकराने का है जो बार बार मेरे जेहन में कौंध रहे हैं । सवाल यह कि क्या हिंदी का लेखक सिर्फ लिखकर अपना जीवनयापन कर सकता है । अगर हम यह मान भी लें कि किसी लेखक का हर दिन कोई न कोई लेख किसी अखबार में छपता है, हलांकि यह मुमकिन है नहीं, फिर भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है । लेख के पारिश्रमिक को अगर हम बहुत उपर भी रखें और प्रति लेख पंद्रह सौ रुपए मानें तब भी महीने के पैंतालीस हजार होते हैं। क्या महानगर में सिर्फ पैंतालीस हजार के बूते पर जीवन चल सकता है । अभी के जो हालात हैं उसमें तो लगता है कि हिंदी का पूर्णकालिक लेखक अपने लेखन के बूते सरवाइव कर ही नहीं सकता है । इसका अगला सवाल यह उठता है कि क्यों कर हिंदी की हालत ऐसी है जबकि हिंदी का बाजार और उसमें देशी-विदेशी निवेश लगातार बढ़ता जा रहा है । इसके पीछे की अगर हम वजह ढूंढ़ते हैं तो वहां तस्वीर बेहद धुंधली सी नजर आती है । हिंदी के बढ़ते बाजार के बावजूद लेखकों को उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाने का कारण सिर्फ वह मानसिकता है जो यह सिखाता है कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों को ज्यादा पैसा क्यों दिया जाए , ये तो जरूरतमंद लोग हैं जितना दिया जाएगा याचक की तरह ले लेंगे और अहसान भी मानेंगे ।
अब अगर हम हिंदी की तुलना में अंग्रेजी की बात करें तो वहां के पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को मिलनेवाले पैसे हिंदी की तुलना में कहीं ज्यादा है और भुगतान भी व्यवस्थित है । अंग्रेजी अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख छपने के बाद कम से कम पांच हजार रुपये मिलते हैं और अगर आप सेलेब्रिटी राइटर हैं तो पारिश्रमिक की सीमा लेखक खुद तय करता या करती है । विदेशी अखबारों से मिलनेवाला पैसा तो और भी ज्यादा होता है । हिंदी की तुलना में अंग्रेजी के अखबार कम बिकते हैं लेकिन फिर भी लेखकों को मानदेय वहां ज्यादा है । दरअसल हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के कर्ता-धर्ता अब भी औपनिवेशिक ग्रंथि से मुक्त नहीं पाए हैं और अंग्रेजी उनके लिए अब भी मालिकों की भाषा है । लिहाजा अगर अंग्रेजी में लेखकों को ज्यादा पैसे मिलते हैं तो यह कहकर अपने कम देने को जायज ठहराते हैं कि वो अंग्रेजी है वहां आय ज्यादा है । लेकिन उस वक्त वो यह भूल जाते हैं कि हिंदी में पिछले दस सालों में हर अखबार के दर्जनों एडिशन शुरू हुए । प्रसार संख्या और विज्ञापनों में कई गुना इजाफा हुआ लेकिन नहीं बढ़ा तो सिर्फ लेखकों का मानदेय ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी पत्र पत्रिकाओं को चलानेवाले लोग या फिर संपादक एक बार अपने लेखकों को दिए जानेवाले मानदेय पर एक नजर डालें और उसमें समय के साथ सुधार करें । इससे लेखकों का तो भला होगा ही खुद हिंदी भाषा के साथ जुड़ने की लोगों की ललक भी बढ़ेगी । मैं एक किस्सा कई बार सुनाता हूं कि एक संपादक ने एक लेखक को एक पुस्तक समीक्षा के लिए अनुरोध पत्र भेजा और उनसे पूछा कि क्या पुस्तक उनको भेज दी जाए । लेखक महोदय ने उत्तर दिया- समीक्षा के लिए पुस्तक भेज दें, उक्त किताब पर लिखकर खुशी होगी लेकिन अगर पुस्तक के साथ मानदेय का चेक भी हो तो समीक्षा हुलसकर लिखूंगा । यह किस्सा बहुत कुछ कह देता है । आमीन ।