अपनी किताब ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ’ के विमोचन के मौके पर
पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने एलान किया कि उनकी किताब की करीब पचास हजार
प्रतियां बिक चुकी हैं । किताब के विमोचन के पहले पचास हजार प्रतियां बिक जाना
मामूली घटना नहीं है । नटवर सिंह ने इसके लिए इशारों इशारों में सोनिया गांधी के
सर सेहरा बांधा । दरअसल नटवर सिंह की किताब के रिलीज होने के तकरीबन दस दिनों पहले
ये खबर आई थी कि सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी नटवर सिंह से मिलने उनके घर गईं
थी । इस मुलाकात में प्रियंका ने छपने वाली किताब के बारे में दरियाफ्त की थी । ये
खबर लीक इस तरह से की गई कि सोनिया और प्रियंका किताब के कुछ अंशों को रोकने का
आग्रह करने के लिए नटवर सिंह के पास गईं थी । ये खबर जंगल में आग की तरह फैली और
पूरे देश में नटवर सिंह की आनेवाली किताब को लेकर एक उत्सुकता का वातावरण बना । इसके
बाद नटवर सिंह की किताब के कुछ चुनिंदा अंश लीक किए गए जिसमें ये बताया गया था कि
सोनिया गांधी ने दो हजार चार में प्रधानमंत्री का पद राहुल गांधी के दबाव में
छोड़ा था । किताब रिलीज होने के पहले ही इस बात को लेकर देशभर में चर्चा शुरू हो
गई । लोकसभा चुनाव में करारी हार के सदमे से उबर रही कांग्रेस के लिए ये खुलासा बड़े
झटके की तरह था । सोनिया ने जब दो हजार चार में प्रधानमंत्री पद ठुकराया था तब
उन्होंने अपने भाषण में इसे अंतरात्मा की आवाज करार दिया था । इस खबर के सामने आते
ही कांग्रेसियों में नंबर बढ़ाने की होड़ लग गई और वो सोनिया के समर्थन में
बयानबाजी करने लगे । नटवर की किताब को लेकर बने उत्सुकता के माहौल को कांग्रेसियों
की बयानबाजी ने और बढ़ा दिया । एक खुलासा और हुआ कि सोनिया की मर्जी के बगैर सरकार
में पत्ता भी नहीं हिलता था । प्रकरांतर से ये बात फैली कि सोनिया सरकारी फाइलें
देखती थी । इस खुलासे को मजबूती मिली प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया
सलाहकार की किताब में हुए खुलासे से । संजय बारू की किताब में भी इस तरह की ही बात
थी कि यूपीए सरकार के अहम फैसले सोनिया की मंजूरी के बाद होते थे । हलांकि यह बात
दीगर है कि सोनिया गांधी ने अपने इंटरव्यू में कह चुकी थीं कि उनके बच्चे उनके
प्रधानमंत्री बनने के खिलाफ थे । इस बात का खंडन भी आ चुका था कि मनमोहन सिंह
सरकार के फैसलों में सोनिया का दखल नहीं होता था । लेकिन किताब की बिक्री बढ़ाने
के लिए इतना मसाला काफी था । नतीजा यह हुआ कि किताब के औपचारिक रूप से जारी होने
के पहले ही उसकी पचास हजार प्रतिया बिक गई । इस बिक्री को बढ़ाने में ऑनलाइन
शॉपिंग साइट्स ने भी मदद की । प्री लांच के तहत पाठकों को छूट के साथ औपचारिक
रिलीज के पहले किताब देने की रणनीति काम आई । ऑनलाइऩ बिक्री के आंकड़े सार्वजनिक
नहीं हुए हैं लेकिन जानकारों का मानना है कि पचास फीसदी से ज्यादा बिक्री इन
साइट्स के माध्यम से हुई ।
अब एक दूसरी साहित्यक घटना पर नजर डालें । अंग्रेजी में उपन्यास लिखनेवाले
चेतन भगत के नए उपन्यास का एलान एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक के पहले पन्ने पर छपे
पूरे पेज के विज्ञापन से हुआ । विज्ञापन की भाषा थी – द लेटेस्ट ब्लॉकबस्टर फ्राम
चेतन भगत इज हाफ गर्ल फ्रेंड, अ लव स्टोरी । पूरे पेज के इस विज्ञापन और उसकी भाषा
को देखने के बाद पहली नजर में किसी फिल्म का प्रचार लगा था । लेकिन यह विज्ञापन था
चेतन भगत के नए उपन्यास का । भारत के साहित्य जगत में इस तरह का ये पहला और अनूठा प्रयोग
है । चेतन भगत मूलत: अंग्रेजी में लिखते हैं । गंभीर साहित्य
लिखनेवाले लेखक और आलोचक चेतन भगत के उपन्यासों हल्का और चालू किस्म का मानते हैं
। हिंदी के साहित्यकार चेतन भगत की तुलना मेरठ से लुगदी पर छपने वाले उपन्यासकारों
से करते हैं । लेकिन पाठकों के बीच चेतन भगत की लोकप्रियता जबरदस्त है । चेतन भगत
अपनी और अपनी किताबों की मार्केटिंग करने का नुस्खा जानते हैं । बाजार का फायदा
उठाना जानते हैं । उनके उपन्यासों पर आमिर खान अभिनीत ‘थ्री इडियट्स’ के अलावा ‘टू स्टेट्स’ समेत कई सुपर हिट फिल्में भी बन चुकी
हैं । बाजार का फायदा उठाने और पाठकों को झटका
देने की रणनीति के तहत उपन्यास छपने के पहले ही करीब पचास लाख रुपए उसके विज्ञापन
पर खर्च कर दिया गया । इसकी कल्पना भारतीय साहित्य जगत में नहीं की गई थी । यह
आक्रामक मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा है । जिसमें पाठकों को पहले चौंकाओ और फिर
उसे किताब खरीदने के लिए बाध्य कर दो । छपने के पहले उपन्यास की साढे सात लाख
प्रतियों का ऑर्डर देना और उसे प्रचारित करना उसी आक्रामक रणनीति का हिस्सा है । किताब
की अग्रिम बुकिंग शुरू हो चुकी है । पहले दो महीने किताब सिर्फ ऑनलाइन बेवसाइट पर ही
मिलेगी । एक खास बेवसाइट के साथ टाईअप किया गया है जो कि किताब के प्रचार में बढ़ चढ़कर
हिस्सा ले रही है । उपन्यास के विज्ञापन में चेतन की किताब के अलावा बेवसाइट का
पता और प्रकाशक का नाम भी छपा है । भारतीय किताब बाजार के लिए ये एक घटना है ।
भारत में किताबों का इतना बड़ा बाजार है, इसकी कल्पना नहीं की गई थी, लेकिन ऑनलाइऩ
के कारोबार के फैलाव ने इसको यथार्थ बना दिया । भारत की जनसंख्या और साक्षरता दर
में बढ़ोतरी के बाद पाठकों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है । इस इजाफे को
भुनाने में ऑनलाइन कंपनियां आगे हैं । भारत में जैसे जैसे इंटरनेट का घनत्व बढ़ता जाएगा और तकनीक का विकास होगा
वैसे वैसे बाजार का फैलाव होगा ।
अब जरा इन दोनों घटनाओं के बरक्श हिंदी प्रकाशन
जगत पर नजर डालते हैं तो एक ऐसा सन्नाटा दिखाई देता है जिसके निकट भविष्य में
टूटने की गुंजाइश नजर नहीं आती है । हिंदी के ज्यादातर प्रकाशक तकनीक का अपने हक
में इस्तेमाल करने से हिचकिचा रहे हैं । हिंदी पट्टी में साहित्य के पाठक हैं यह
बात हर छोटे बड़े शहरों में लगने वाले पुस्तक मेले से बार बार साबित होती है । दिल्ली
और अन्य हिंदी भाषी शहरों में किताबो की दुकानें बंद हो गई हैं । पाठकों के लिए किताब खरीदना एक श्रमसाध्य कार्य है । इस
कमी को ऑनलाइन बुक स्टोर से खत्म नहीं तो कम करने की कोशिश की है । हिंदी के हमारे
प्रकाशक अबतक इन ऑनलाइन बुक शॉप तक पहुंच नहीं पाए हैं । हिंदी में बड़ी संख्या
में किताबें छपती हैं लेकिन बहुत कम संख्या में ये किताबें ऑनलाइन बुकस्टोर तक
पहुंच पाती हैं । इसके लिए हिंदी के प्रकाशकों को पहल करनी पड़ेगी । उन्हें इन
साइट्स के साथ रणनीतिक तौर पर समझौते करने होंगे । एक बार हिंदी के पाठकों को यह
पता लग गया कि फलां किताब ऑनलाइऩ है तो फिर उसकी बिक्री भी होगी । दूसरी बड़ी बात
है कि हिंदी के लेखकों को भी तकनीक को गले लगाना होगा उससे दूर नहीं भागना होगा । पिछले
विश्व पुस्तक मेले में एक संगोष्ठी में हिंदी के लेखकों के तकनीक से दूर रहने पर
मैने सवाल खड़े किए थे तो गोष्ठी में शामिल एक लेखक को यह बात नागवार गुजरी थी । अब
हिंदी के लेखकों में फेसबुक को लेकर एक उत्साह जगा है लेकिन हमारे वरिष्ठ लेखक अब
भी फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस आदि से दूर हैं । कई उत्साही युवा लेखक अवश्य तकनीक
का बेहतर इस्तेमाल कर पाठकों तक पहुंच रहे हैं । अब जरूरत इस बात की है कि पाठकों
तक रचनाएं कैसे पहुंचाई जाएं । नटवर सिंह और चेतन भगत की किताब की सफलता से यह बात
साबित हो गई है कि भारत में पाठक हैं । अंग्रेजी पढ़नेवालों की तुलना में हिंदी के
पाठक कहीं ज्यादा हैं । अगर नटवर सिंह की किताब पचास हजार बिक सकती है तो रवीन्द्र
कालिया, उदय प्रकाश, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुदगल, मृदुला गर्ग जैसी हमारे
वरिष्ठ लेखकों की किताबें इतनी कम संख्या में बिकेंगी, इसका कोई आधार नहीं है । कम
बिक्री का सिर्फ और सिर्फ एक आधार समझ में आता है वह है कृतियों की अनुपलब्धता । हिंदी
साहित्य को लेकर मीडिया में भी एक उपेक्षा भाव लगातार विकसित होता जा रहा है । पहले
हिंदी की नई कृतियों और कृतिकारों के बारे में अखबारों में छपा करता था लेकिन
बाजारवाद की आड़ में अखबारों में साहित्य का स्पेस कम हुआ । टेलीविजन चैनलों पर तो
साहित्य के लिए जगह ही नहीं बची । उधर अंग्रेजी में इसके उलट है । चेतन भगत और
नटवर सिंह की किताबें छपने के पहले ही मीडिया ने उनको हिट करवा दिया । हिंदी
साहित्य को जनता तक पहुंचाने के लिए एक सामूहिक प्रयास की जरूरत है जिसमें
प्रकाशकों को पहल करनी होगी और लेखकों और मीडिया को उसमें सहयोग करना होगा । अगर
ऐसा होता है तो हिंदी में किताबों के संस्करण तीन सौ से बढ़कर हजारों में पहुंच
सकते हैं ।
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