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Monday, August 25, 2014

हमारे समय का कबीर

हिंदी के मशहूर कथाकार और हंस पत्रिका के संपादक राजेन्द्र यादव आज अगर जीवित होते तो 28 अगस्त को पचासी साल के होते । पिछले साल राजेन्द्र यादव के निधन से साहित्य का एक जीवंत कोना सूना हो गया । कहना ना होगा कि राजेन्द्र जी की जिंदादिली के किस्से और उनके  ठहाकों की गूंज अब भी साहित्य जगत में महसूस किए जा सकते हैं । राजेन्द्र यादव अपने लेखन और जीवन में लगातार प्रयोग करते रहते थे लेकिन अपने प्रयोगों से वो कभी संतुष्ट नहीं होते थे । कहानी और उपन्यास लेखन में जब वो अपने प्रयोगों से संतुष्ट नहीं हुए तो प्रकाशन की तरफ मुड़े । प्रकाशन में होम करते ही जब हाथ जले तो हंस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया । हंस में उन्होंने लगातार प्रयोग किए । राजेन्द्र यादव ने हंस के माध्यम से कहानीकारों की कई पीढ़ी तैयार कर दी । उसके बाद फिर कुछ नया करने की चाहत उन्हें स्त्री और दलित विमर्श की ओर ले गई । यादव जी ने साहित्य में विमर्श की ऐसी आंधी चलाई कि दोनों ही साहित्य की परिधि उसके केंद्र में आ गए । सामाजिक कुरीतियों और सांप्रदायिकता पर उन्होंने अपने संपादकीय के माध्यम से लगातार चोट की । एक और बड़ा भारी दुर्गुण राजेन्द्र यादव के अंदर था । वो परले दर्जे के जिद्दी थी । जो ठान लेते थे उसको पूरा करके ही दम लेते थे । और उस जिद में अगर पूर्वग्रहों और विचारधारा का घोल मिला दिया जाए तो राजेन्द्र यादव की मानसिकता को समझने में मदद मिल सकती है । हलांकि राजेन्द्र यादव का दावा था कि वो खुद को नहीं समझ पाए तो दूसरे उन्हें क्या समझ पाएंगे । इसी तरह के संकेत मन्नू भंडारी ने भी अपने एक लेख में दिए थे ।

राजेन्द्र यादव की एक और खूबी थी कि जिस किसी में भी थोड़ा सा स्पार्क दिखाई देता था उसको वो लगातार उत्साहित करते रहते थे । उसे लिखने के लिए प्रेरित करते रहते थे और उससे लिखवा कर ही दनम लेते थे । राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी शादी के बाद कलकत्ता में थे तो एक दिन पता चला कि उनका नौकर कहानियां लिखता है । फिर क्या था यादव जी का अगला पूरा दिन नौकर की काहनियां सुनने और उसको कहानी पर भाषण पिलाने में बीता । राजेन्द्र यादव लगातार युवाओं को आगे बढ़ाने और उनके साथ कदमताल करना चाहते थे । उन्हें किसी भी तरह का बंधन मंजूर नहीं था, ना लेखन में ना ही समाज और परिवार में और ना ही प्रेम में । सामाजिक विसंगतियों पर वो कबीर की ही तरह चोट करते थे । यहां कबीर और राजेन्द्र यादव में एक बुनियादी फर्क था । कबीर जहां अपने लेखन में गंभीर थे वहीं राजेन्द्र यादव के बाद के लेखन में एक खास किस्म की विवादप्रियता दिखती है । तर्क की बजाए राजेन्द्र यादव भावुकता से काम लेने लगे थे । बावजूद इसके यादव जी अपने कुछ गुणों की वजह से कबीर के करीब थे । उनके जाने से साहित्य जगत में जो सन्नाटा पसरा है वह हाल फिलहाल में टूटता नजर नहीं आ रहा है । 

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