जिस शहर को यू आर अनंतमूर्ति ने नया नाम दिया था। बैंगलोर को बेंगलुरू बनाने कीमहिम
छेड़ी थी । अपने उसी शहर में कन्नड के महान साहित्यकार अनंतमूर्ति ने अंतिम सांसें
ली । यू आर अनंतमूर्ति का मानना था कि बैंगलोर गुलामी का प्रतीक है और इस नाम से औपनिवेशिकता
का बोध होता है, लिहाजा उन्होंने लंबे संघर्ष के बाद बेंगलुरू नाम दिलाने में सफलता
हासिल की थी । कई सालों से नियमित डायलिसिस पर चल रहे अनंतमूर्ति पिछले कई दिनों से
किडनी में तकलीफ की वजह से अस्पताल में थे । शुक्रवार को उनकी तबीयत इतनी बिगड़ी की
उनको बचाया नहीं जा सका । यू आर अनंतमूर्ति अपने जीवन के इक्यासी वर्ष पूरे कर चुके
थे और दिसंबर में बयासी साल के होनेवाले थे । अनंतमूर्ति का जाना कन्नड साहित्य के
अलावा देश के बौद्धिक ताकतों का कमजोर होना भी है । अनंतमूर्ति देश के उन बौद्धिक शख्सियतों
में थे जिनकी पूरे देश को प्रभावित करने वाले हर अहम मसले पर राय होती है, लेकिन इन
बौद्धिकों में से कम ही लोग अपनी इस राय को सार्वजनिक करते हैं । अनंतमूर्ति उन चंद
लोगों में थे जो अपनी राय सार्वजनिक करने में हिचकते नहीं थे । गांधीवादी समाजवादी
होने के बावजूद यू आर अनंतमूर्ति किसी विचारधारा या वाद से बंधे हुए नहीं थे । उन्होंने
जहां गलत लगा वहां जमकर प्रहार किया । सच कहने के साहस का दुर्लभ गुण उनमें था । जिस
तरह से उन्होंने कट्टर हिंदूवादी ताकतों का जमकर विरोध उसी तरह से उन्होंने अपने लेखन
के माध्यम से समाज में जाति प्रथा जैसी कुरीति और समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर
प्रहार किया । नतीजा यह हुआ कि कट्टरपंथी हिंदू ताकतें उनसे खफा हो गई और ब्राह्मणों
को इस बात की नाराजगी हुई कि उनकी जाति में पैदा हुआ शख्स ही ब्राह्मणवाद पर हमले कर
रहा है । विडंबना यह कि मार्क्सवादी लेखक भी उनको अपना नहीं समझते थे । उनकी शिकायत
थी कि अनंतमूर्ति नास्तिक नहीं है । इसी बिनाह पर वामपंथी उन्हें खास तवज्जो नहीं देते
थे और प्रकारांतर से उनके लेखन को ध्वंस करने में लगे रहते थे । एक साक्षात्कार में
अनंतमूर्ति ने जोर देकर कहा था कि उनके लिए आलोचकों से ज्यादा अर्थ पाठकों का प्यार
का है । इस सिलसिले में उन्होंने एक उदाहरण देते हुए बताया था कि उर्दू के शायरों के
लिए श्रोताओं की एक ‘वाह’ और ‘इरशाद’ आलोचकों की टिप्पणियों
से ज्यादा अहमियत रखती है । अपनी इसी बेबाक और बेखौफ शैली की वजह से अनंतमूर्ति इस
साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान विवादों से घिर गए थे । अनंतमूर्ति ने कहा
था कि अगर नरेन्द्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो देश छोड़ देंगे । इस
बयान के बाद उनपर चौतरफा हमले शुरू हो गए थे । धमकियां मिलने लगी थी, उन्हें सरकार
को सुरक्षा मुहैया करवानी पड़ी थी । बाबवजूद इसके अनंतमूर्ति अपने बयान पर कायम रहे
थे । चुनाव नतीजों में नरेन्द्र मोदी को अभूतपूर्व सफलता के बाद अनंतमूर्ति ने कहा
था कि उन्होंने भावना में बहकर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बयान दे दिया था । वो भारत छोड़कर
कहीं जा ही नहीं सकते हैं क्योंकि और कहीं वो रह नहीं सकते या रहने का साधन नहीं है
। यह थी उनकी साफगोई और सच को स्वीकार करने का साहस । यह गुण हमारे लेखकों में देखने
को मिलता नहीं है । भगवा ब्रिगेड चाहे अनंतमूर्ति से लाख खफा हो लेकिन वो इस बात पर
हमेशा एतराज जताते थे कि इस तरह के कट्टरपंथियों को भगवा कहना उचित नहीं है । लगभग
तीन साल पहले दिल्ली के आईआईसी में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा था कि भगवा बहुत
ही खूबसूरत रंग है और इस तरह की हरकत करनेवालों को भगवा के साथ जोड़ना उचित नहीं है
। यह उनके व्यक्तित्व का ऐसा पहलू था जो कम उभरकर सामने आ सका । अनंतमूर्ति की राजनीति
में गहरी रुचि थी और वो चुनाव भी लड़े और पराजित भी हुए । दरअसल अनंतमूर्ति ने बर्मिंघम
युनिवर्सिटी से जो शोध किया था उसका विषय था – फिक्शन एंड द राइज
ऑफ फासिज्म इन यूरोप इन द थर्टीज । अनंतमूर्ति के पूरे लेखन पर इस विषय की छाया किसी
ना किसी रूप में देखी जा सकती है ।
पचास और साठ के दशक में कन्नड साहित्य परंपरा की बेड़ियों से जकड़ा हुआ था । लगभग
उसी दौर में यू आर अनंतमूर्ति ने लिखना शुरू किया और अपने लेखन से उन्होंने साहित्य
के परंपरागत लेखन और सामाजिक कुरीतियों पर जमकर प्रहार किए । यह वही दौर था जब अपनी
कविताओं के माध्यम से पी लंकेश और अपने नाटकों से माध्यम से गिरीश कर्नाड कन्नड समाज
को झकझोर रहे थे । इसी दौर में अनंतमूर्ति ने कन्नड साहित्य में नव्य आंदोलन की शुरुआत
की । अनंतमूर्ति के उन्नीस सौ छियासठ में छपे उपन्यास ‘संस्कार’ ने कन्नड साहित्य और पाठकों को झटका दिया । इस उपन्यास
में अनंतमूर्ति ने जातिप्रथा पर जमकर हमला बोला है । अनंतमूर्ति के इस उपन्यास को भारतीय
साहित्य में मील के पत्थर की तरह देखा गया । आलोचकों का मानना है कि इस उपन्यास ने
कन्नड साहित्य की धारा मोड़ दी । अनंतमूर्ति ने अनेकों उपन्यास और दर्जनों कहानियां
लिखी । उन्हें उनके साहित्यक अवदान के लिए 1994 में भारत के सबसे प्रतिष्ठित साहित्यक
सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया । उन्नीस अठानवे में उनको पद्मभूषण
से सम्मानित किया गया ।
दिसंबर उन्नीस सौ बत्तीस
में कर्नाटक के शिमोगा में पैदा हुए यू आर अनंतमूर्ति ने मैसूर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी
साहित्य में एम किया फिर बर्मिंघम विश्वविद्यालय से पीएचडी । उन्नीस सौ सत्तर से मैसूर
विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाना शुरू किया। अनंतमूर्ति साहित्य अकादमी के अध्यक्ष
और नेशनल बुक ट्रस्ट के मुखिया भी रहे । इसके अलावा अनंतमूर्ति ने पुणे के मशहूर फिल्म
और टेलीविजन संस्थान का दायित्व भी संभाला । कर्नाटक सेंट्रल य़ुनिवर्सिटी के चांसलर
भी रहे । देशभर में होनेवाले साहित्यक फेस्टिवल में अनंतमूर्ति की मौजूदगी आवश्यक होती
थी । वो भाषणों से वहां होनेवाले विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप करते थे । अपनी जिंदगी
के अस्सी पड़ाव पार कर लेने के बावजूद वो लगातार लेखन में जुटे थे और अखबारों में नियमित
स्तंभ लिख रहे थे । इन दिनों ‘स्वराज और हिंदुत्व’ नाम की किताब पर काम कर रहे थे । इस किताब के शीर्षक से साफ है कि उन्होंने स्वराज
को हिंदुत्व के नजरिए से देखने की कोशिश की होगी । ब्राउन विश्वविद्यालय में अंतराष्ट्रीय
अध्ययन और समाज विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने सही कहा कि यू आर अनंतमूर्ति
ज्वाजल्यमान बौद्धिक व्यक्तित्व थे, जिनकी राजनीति में गहरी रुचि थी और हमेशा दूसरों
की बातें सुनने को तैयार रहते थे । ऐसे शख्स का जाना ना केवल साहित्य समाज की क्षति
है बल्कि समाज में भी एक रिक्ति पैदा करती है । सलाम अनंतमूर्ति ( वो हमेशा ‘जी’ और ‘सर’ कहे जाने के खिलाफ रहते थे )
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