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Wednesday, August 20, 2014

भारतीय लोकतंत्र की परख

हमारे देश को आजाद हुए तकरीबन सड़सठ साल हो गए हैं और देश ने आज से करीब चौंसठ साल पहले अपने को गणतंत्र घोषित किया था । अगर राजनीतिशास्त्र के लिहाज से किसी भी देश के लोकतंत्र का आंकलन करें तो इसके लिए छह सात दशक की यात्रा बहुत लंबी नहीं मानी जाती है । आजादी के सडसठ साल बाद ही भारतीय लोकतंत्र की जड़े बहुत गहरी हो गई हैं । अगर सिर्फ उन्नीस सौ पचहत्तर के इमरजेंसी के दौर को छोड़ दें तो उसके अलावा हमारे लोकतंत्र पर कोई गंभीर संकट खड़ा नहीं हुआ । इंदिरा गांधी के इमरजेंसी को भी देश की जनता ने महज दो ढाई साल ही में उखाड़ फेंका । इमरेंजसी के खिलाफ देशभर में जनता के उठ खड़े होने का जो इतिहास है वो भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का भी सबूत है । देश की जनता अपने नागरिक अधिकारों को लेकर बेहद सतर्क और जागरूक है और इसपर किसी भी तरह की पाबंदी या कटौती उसे किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है । भारतीय लोकतंत्र और उसकी सफलता को लेकर राजनीतिशास्त्र के विदेशी विद्वान और विश्लेषक हमेशा से आशंका ही जताते रहे हैं । वो अमेरिका, इंगलैंड और अन्य यूरोपीय देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के आधार और कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र को कसते और परखते रहे हैं । उन्हें लंबे समय से भारतीय लोकतंत्र की सफलता में संदेह रहा है । भारत की विविधता उनको लोकतंत्र की सफलता में सबसे बड़ी बाधा लगती रही है । जाति, धर्म और संप्रदाय के आधार पर बंटा भारतीय समाज लोकतंत्र के नाम पर एकजुट रहेगा, इसमें पश्चिमी विद्वानों को संदेह रहता है । ब्राउन विश्वविद्यालय में अंतराष्ट्रीय अध्ययन और समाज विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की नई किताब बैटल्स हॉफ वन, इंडियाज़ इंप्रोबेबल डेमोक्रैसी- आजादी के बाद से लेकर अबतक के कालखंड को परखती है । प्रोफेसर वार्ष्णेय ने अपनी इस किताब बैटल्स हॉफ वन, इंडियाज़ इंप्रोबेबल डेमोक्रैसी में आजादी के बाद भारतीय लोकतंत्र को लेकर चले विश्वव्यापी मंथन को नए सिरे और नजरिए से देखने की कोशिश की है । अपनी स्थापनाओं में प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय कई पश्चिमी राजनीति विज्ञानियों की स्थापनाओं और परिभाषाओं को दिलचस्प तर्कों के साथ निगेट करते हैं । प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय का नाम भारतीय राजनीति में रुचि रखनेवाले पाठकों के लिए नया नहीं है । उनके स्तंभ भारतीय अखबारों में नियमित अंतराल पर छपते रहते हैं । वो भारतीय राजनीति के बदलते स्वरूप का बारीकी से अध्ययन करते हुए उनपर टिप्पणी करते रहते हैं । प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की यह किताब उसी तरह की टिप्पणियों का संग्रह है ।आशुतोष वार्ष्णेय के ये लेख पिछले बीस सालों में लिखे गए हैं जो लोकतंत्र के अलावा लोकतंत्र में धर्म की भूमिका, लोकतंत्र में जाति और भाषा की भूमिका के अलावा गरीबी और आर्थिक उन्नति को लोकतंत्र से जोड़कर नए सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं । प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की यह किताब हलांकि लोकसभा चुनाव के पहले प्रकाशित हो गई थी लेकिन यह कहा जा सकता है कि इस किताब का प्रकाशन और उसका वितरण उपयुक्त वक्त पर हो रहा है । इस वक्त हमारे देश में लोकतंत्र और आजादी को लेकर बहस की शुरुआत हो रही है । इस तरह की बहस की शुरुआत तो लोकसभा चुनाव के पहले हो गई थी लेकिन भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में जबरदस्त सफलता के बाद यह बहस तेज होने लगी है । देश और लोकतंत्र को लेकर अलग अलग मतों और विचारधारा के लेखकों और विचारकों की अलग अलग राय है । भारतीय जनता पार्टी पर धर्म-आधारित राजनीति करने और लोगों की भावनाएं भड़काकर वोट लेने के आरोप लगते रहे हैं । धर्म और राजनीति के घालमेल के भी, लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में धर्म के अलावा विकास के मुद्दे पर जिस तरह से रिवर्स पोलराइजेशन हुआ उसने तमाम सिद्धांतकारों को पुनर्विचार करने को बाध्य कर दिया । फासीवाद के आसन्न खतरे की भी बहुत बातें होती रही हैं, हो भी रही हैं । ऐसे में प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की ये किताब लोकतंत्र की गुणवत्ता और लोकतंत्र के अस्तित्व दोनों को अपने तर्कों की कसौटी पर परखती है ।
इस किताब के शुरुआती लेख में आशुतोष वार्ष्णेय अपने तर्कों के साथ यह बताते हैं कि भारतीय लोकतंत्र सिर्फ एक व्यवस्था नहीं है बल्कि यह लोगों के लिए यह एक जीवनशैली है और देश की राजनीतिक संस्कृति में बहुत गहरे तक अपनी पैठ बना चुकी है । वार्ष्णेय इस बात पर भी जोर देते हैं कि देश की आजादी के वक्त उन्नीस सौ सैंतालीस में कांग्रेस ने अंग्रेजों से जो सत्ता व्यवस्था हासिल की उसने भी हमारे देश में लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने में एक अहम भूमिका निभाई । अंग्रेजों के वक्त जो संघीय ढांचा था उसको अपनाकर भारत ने अपने लोकतंत्र को मजबूत किया । आशुतोष वार्ष्णेय का मानना है कि ब्रिटिश व्यवस्था का अपनाने से कांग्रेस को लोकतंत्र को लेकर एक समझ विकसित हुई जिसे जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में मजबूती मिली, वहीं उनका यह भी मानना है कि मुस्लिम लीग को ब्रिटिश व्यवस्था की विरासत से कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि उनके नेतृत्व में इस व्यवस्था को मजबूत करने की ना तो चाहत थी और ना ही इच्छाश्कति और विजन । हलांकि इस किताब में आशुतोष वार्ष्णेय जवाहरलाल नेहरू के प्रति नरम दिखते हैं । एक जगह वो सवाल उछालते हैं कि इस बात की कल्पना की जा सकती है कि अगर उन्नीस सौ चालीस और पचास के दशक में सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस का दबदबा रहता तो किस प्रकार की व्यवस्था होती । सुभाषचंद्र बोस की भूमिका और उनकी बातों को अगर हम एक मिनट के लिए ओझल भी कर दें तो यह मानना कठिन है कि लेखक को पचास के दशक में सरदार पटेल की भूमिका के बारे में पता नहीं है । पचास के दशक में भारतीय लोकतंत्र के बरक्श सरदार पटेल की भूमिका एक निर्माणकर्ता की थी जिसने हमारे लोकतंत्रीय वयवस्था को ना सिर्फ दिशा दी बल्कि उसको मजबूत करने में भी अहम भूमिका निभाई । जवाहरलाल नेहरू को लेकर आशुतोष वार्ष्णेय की नरनमी कई बार साफ तौर पर दिखती है । इसका एक और उदाहरण है जब वो इंदिरा गांधी की धर्मनिरपेक्षता को जवाहर लाल नेहरू की धर्मनिरपेक्षता से तुलना करते हैं । इंदिरा गांधी की पंजाब के चरमपंथी भिंडरावाले से निपटने की रणनीति और जवाहरलाल नेहरू की मास्टर तारा सिंह से निपटने की रणनीति का तुलनात्मक अध्ययन पेश करते हुए इंदिरा की अड़ियल धर्मिनरपेक्षता पर सवाल खड़े करते हैं ।

विविधताओं भरे इस देश में अगर क्षेत्रीय आकांक्षाओं को अहमियत मिलती है तो देश का लोकतंत्र मजबूत होता है । आशुतोष वार्ष्णेय ने बेहद दिलचस्प व्याख्या की है । उनके मुताबिक देश में जातियों की बहुतायत इस देश को जोड़े रखने में अहमियत रखती है । उनके मुताबिक एक ही जाति के लोगों के अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग नेता हैं । उदाहरण के तौर पर उन्होंने यादव जाति का अध्ययन किया है । उत्तर प्रदेश में इस जाति की रहनुमाई मुलायम सिंह यादव के पास है तो बिहार में इस जाति के अगुवा लालू प्रसाद यादव हैं । इन दोनों नेताओं की स्वीकार्यता अपने प्रदेश से बाहर दूसरे प्रदेशों में नहीं है । आशुतोष वार्ष्णेय का तर्क है कि पिछड़ी जातियों के अलग अलग तरह के नेतृत्व की वजह से ये जातियां पूरे देश में एकजुट नहीं हो पाती हैं, लिहाजा लोकतंत्र के लिए उनके खतरा बनने की संभावना कम रहती है । अपनी इस किताब में आशुतोष वार्ष्णेय धर्म की राजनीति को चिंता के तौर पर देखते हैं । अस्सी के दशक में पंजाब और कश्मीर के अलावा शाह बानो केस के दौरान संविधान में बदलाव को लेकर लेखक चिंतित दिखाई देते हैं । अस्सी के दशक में ही धर्म के आधार पर जारी गतिविधियों की परणिति मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर उठे जनज्वार में होती है । वो दौर धर्म की राजनीति का उत्स था । उस दौर में चुनिंदा धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ देशभर एक अजीब किस्म की प्रतिक्रिया देखने को मिली और जिसका नतीजा ध्रुवीकरण में हुआ । यहीं से भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को लोकप्रियता मिलनी शुरु हुई । नब्बे के दशक के आखिरी वर्षों में जब देश में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी तो विचारकों ने इसे धर्म आधारित राजनीति बताकर उसपर चिंता जताना शुरू कर दिया था । उसके बाद के दिनों में एक बार फिर से कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार ने देश पर शासन किया जो इतिहास है । भारत में धर्म पर आधारित राजनीति को लेकर चिंता जताई जा सकती है, जताऩी भी चाहिए लेकिन भारतीय लोकतंत्र अब इतना मजबूत हो चुका है कि इस तरह की राजनीति करनेवालों को भी अपना रास्ता बदलना पड़ रहा है । उन्हें यह बात अच्छी तरह से पता है कि धर्म के रास्ते पर चलकर राजनीति में फौरी तौर पर तो सफलता प्राप्त की जा सकती है लेकिन स्थायी राजनीति का रास्ता कहीं और से निकलता है । इस किताब के दूसरे खंड- धर्म, भाषा और राजनीति में आशुतोष वार्ष्णेय ने इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है । इसमें हिंदू राष्ट्रवाद के उभार के साथ साथ जाति आधारित राजनीति को भी व्याख्यायित किया गया है । पहले खंड में आजादी के बाद से लेकर अबतक के लोकतंत्र को एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में परखते हुए विदेशी विद्वानों की व्याख्याओं के बरक्श अपने सिद्धांतों को लेखक ने सामने रखा है । इस किताब का तीसरा अध्याय आर्थिक विकास और लोकतंत्र पर है । इस अध्याय में गरीबी और लोकतंत्र में विस्तार से इस बात पर चर्चा की गई है कि गरीब लोकतंत्र के सामंने कैसी दिक्कतें हैं । अंत में आशुतोष वार्ष्णेय ने लोकतंत्र और भारतीय बाजार की चर्चा की है । आशुतोष वार्ष्णेय की इस किताब को अगर समग्रता में देखें तो भारतीय राजनीति पर पैनी और गहरी नजर रखनेवालों के लिए तो पठनीय सामग्री मुहैया करवाती ही है लेकिन नए पाठकों को भारतीय लोकतंत्र और इसके साल दर साल मजबूत होने की दास्तां भी कहती चलती है ।  

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