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Sunday, August 31, 2014

स्वायत्ता की आड़ में खेल

भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सरकार बनाने के बाद इस बात की आशंका तेज हो गई थी कि सांस्कृतिक संगठनों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि के लोगों की नियुक्ति होगी । वामपंथी बुद्धिजीवी लगातार यह आशंका जता रहे हैं कि सांस्कृतिक संगठनों की स्वायत्ता खत्म करके सरकार इन संगठनों पर अपना कब्जा जमा लेगी । भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर संघ की पृष्ठभूमि के वाई सुदर्शन राव की नियुक्ति से इन आशंकाओं को बल भी मिला । दरअसल हमारे देश में इन सांस्कृतिक संगठनों पर लंबे समय से वामपंथी बुद्धिजीवियों का कब्जा रहा है । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उन्नीस सौ पचहत्तर में जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाया था तब वामपंथी बुद्धिजीवियों ने आपातकाल का समर्थन किया था । दिल्ली में भीष्म साहनी की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ की एक बैठक में आपातकाल के समर्थन में प्रस्ताव पास किया गया था । उसके बाद से इंदिरा गांधी ने पुरस्कार स्वरूप सांस्कृतिक संस्थाओं की कमान प्रगतिशीलों के हाथ में सौप दी । प्रगतिशील जब बंटे तो इन संस्थाओं का भी बंटवारा हुआ और कुछ लेखक जनवाद के फेरे में जा पहुंचे, लेकिन मूल विचारधारा वही रही । ईनाम में मिली मिल्कियत का जो हश्र होता है वही इन साहित्यक सांस्कृतिक संगठनों का हुआ । अंधा बांटे रेवड़ी जमकर अपने अपनों को दे । 1954 में जब साहित्य अकादमी की स्थापना की गई थी तो कौशल विकास और शोध प्रमुख उद्देश्य थे । तकरीबन छह दशक के बाद भी साहित्य अकादमी देश की सभी भाषाओं में शोध और कौशल विकास को अपेक्षित स्तर पर नहीं ले जा पाई । साहित्य और अन्य कला अकादमियां एक तरह से पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों के नाम पर अपने पसंदीदा लेखक लेखिकाओं को घुमाने वाली ट्रैवल एजेंसी या फिर इवेंट मैनजमेंट कंपनी मात्र बनकर रह गई है । साहित्य अकादमी के पूर्व सचिव पर यात्रा भत्ता में घपले के आरोप समेत कई संगीन इल्जाम लगे थे । उन्हें मुअत्तल किया गया । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बना दी गई थी । जांच के दौरान ही सचिव रिटायर और तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष चुन लिए गए । जांच कहां तक पहुंची या फिर क्या कार्रवाई की गई ये सार्वजनिक नहीं हुआ । इसके पहले भी गोपीचंद नारंग के साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहते उनपर अपने कार्यलय की साज सज्जा पर फिजूलखर्ची के आरोप लगे थे । यह हाल सिर्फ साहित्य अकादमी का नहीं है ।  ललित कला अकादमी ने अपने पूर्व अध्यक्ष के आर सुब्बन्ना समेत इ्क्कीस कलाकारों पर प्रतिबंध लगा दिया है । इन सभी पर अनियमितताओं और पद पर दुरुपयोग का आरोप लगाए गए हैं । संगीत नाटक अकादमी के एक सचिव के कार्यकाल को बढ़ाने को लेकर भी नियुक्ति प्रक्रिया का पालन किए बिना अधिशासी बोर्ड ने फैसला ले लिया था । बाद में विधि और न्याय मंत्रालय ने अपनी राय दी थी कि नियुक्ति गैरकानूनी तरीके से की गई थी ।
इन स्थितियों से इस बात के पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि हमारे देश के सांस्कृतिक संगठनों में स्वायत्ता की आड़ में कुछ गड़बड़ चल रहा है । सत्रह दिसंबर दो हजार तेरह को संसद के दोनों सदनों में सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली एक संसदीय कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी । इस रिपोर्ट में साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी के अलावा इंदिरा गांधी कला केंद्र और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कामकाज पर टिप्पणियां की गई थी । येचुरी की अगुवाई वाली इस समिति ने साफ तौर पर कहा कि देश की ये अकादमियां निहित स्वार्थों को साधने का अड्डा बन गई हैं । अपने प्रतिवेदन में  संसदीय समिति ने लिखा- समिति यह अनुभव करती है कि कला और संस्कृति अभिन्न रूप से हमारी परंपराओं से जुड़े हैं और इसे एक विकास और आवयविक प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए साथ ही ये केवल अतीत की वस्तु नहीं हैं इनका वर्तमान और भविष्य के साथ निकट सहसंबंध है । अत: समिति ये सिफारिश करती है कि संस्कृति को इसके समग्र रूप में समझने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और ऐसा तभी हो सकता है जब हमारे उत्कृष्ट सांस्कृतिक संगठन, जैसे विभिन्न अकादमियों के बीच समुचित समन्वय और सहक्रिया हो ।कमेटी ने यह भी माना था कि अनुवाद के काम स्तरीय नहीं हो रहे हैं । कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक साहित्य अकादमी के पुरस्कारों में पारर्दर्शिता का अभाव है । अब अगर हम वर्तमान में साहित्य अकादमी में हिंदी की बात करें इसके जो संयोजक हैं उनका साहित्य को योगदान अभी तक ज्ञात नहीं है, पर वो हिंदी की दशा दिशा तय करते हैं । रिमोट चाहे जिनके भी हाथ में हो । यह बात भी सामने आई कि साहित्य अकादमी में वित्तीय सहायता देने की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव है । इस तरह की अनियमितताएं के आरोप साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी पर भी लगते रहे हैं और लग रहे हैं । साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक उसके अध्यक्ष को असीमित अधिकार हैं । कई बार इन अधिकारों के दुरुपयोग के आरोप भी लगे हैं ।  साहित्य अकादमी में तो अनुवाद का इतना बुरा हाल है कि पारिश्रमिक का भुगतान होने के बाद भी अनुवादकों को किताब छपने के लिए दस दस साल का इंतजार करना पड़ता है । संसदीय समिति की रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि साहित्य अकादमी साल भर में तकरीबन चार सौ सेमिनार आयोजित करती है । बेहतर होता कि संसदीय समिति के अध्यक्ष अपनी रिपोर्ट में इस बात पर विस्तार से प्रकाश डालते कि कितने कार्यक्रम दिल्ली में अकादमी के सेमिनार हॉल में हुए और कितने बाहर । इसी तरह से ललित कला अकादमी में भी कलाकारों के साथ भेदभाव किया जाता है । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब ललित कला अकादमी पर कला दीर्घा की बुकिंग में भी धारा और विचारधारा के आधार पर खारिज करने का आरोप लगा था । सवाल यही कि क्या देश की सांस्कृतिक संस्थाएं किसी खास विचारधाऱा की पोषक और किसी खास विचारधारा की राह में बाधा बन सकती हैं ।
अकादमियों की इन बदइंतजामियों के बारे में संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट के पैरा 56 में लिखा- समिति यह दृढता से महसूस करती है कि ऐसी स्थिति को बनाए नहीं रखा जा सकता है और इन अकादमियों को व्यवस्थित करने के लिए कुछ करने का यह सही समय है । समिति यह महसूस करती है कि इन निकायों को भारत की समेकित निधि से धनराशि प्राप्त होती है और इस संसदीय समिति की सिफारिशों पर इनकी अुनदान मांगों को संसद द्वारा प्रत्येक वित्तीय वर्षों में अमुमोदित किया जाता है । अत यह समिति पूरी जिम्मेदारी से कहती है कि इन संस्थाओं को आवंटित निधियों का इनके कार्यनिष्पादन की लेखा परीक्षा करके प्रत्येक वर्ष गहन तथा नियमित अनुवीक्षण किए जाने की आवश्यकता है । सांस्कृतिक संस्थानों के कार्यक्रमों की नियमित समीक्षा की जानी चाहिए । ये समीक्षाएं बाहरी व्यक्तियों और समितियों द्वारा की जानी चाहिए और उन्हें उन वार्षिक प्रतिवेदनों में शामिल किया जाना चाहिए । बाद में उन्हें संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए । इस तरह की कठोर टिप्पणियों से यह संदेश जा सकता है कि संसदीय समिति इन अकादमियों की स्वायत्ता को खत्म करना चाहती है ।
संसदीय समिति की इस रिपोर्ट के बाद जनवरी 2014 में यूपीए सरकार के दौरान अभिजीत सेन की अध्यक्षता में एक हाई पॉवर कमेटी का गठन किया गया । अकादमियों के कामकाज की समीक्षा के बारे में 1988 में हक्सर कमेटी बनी थी और तकरीबन पच्चीस साल बाद अब सेन कमेटी का गठन हुआ है । इस कमेटी में  नामवर सिंह, रतन थियम, सुषमा यादव, ओ पी जैन आदि सदस्य थे । इस कमेटी का गठन इन अकादमियों के संविधान और उसके कामकाज में बदलाव को लेकर सुझाव देना था ।इस कमेटी ने मई 2014 में अपनी रिपोर्ट पेश की । लगभग सवा सौ पृष्ठों की रिपोर्ट में इस कमेटी ने भी माना कि इन अकादमियों में जमकर गड़बड़झाले को अंजाम दिया जा रहा है । हाई पावर कमेटी ने यह भी माना कि साहित्य अकादमी की आम सभा में विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि होने के बावजूद स्तरीय शोध नहीं होते हैं । इस समिति ने अकादमी के अध्यक्ष का चुनाव विशेषज्ञों की एक समिति से करवाने की सिफारिश भी की है । इसके अलावा अकादमी के अध्यक्ष और अन्य कमेटियों के अध्यक्षों की उम्र सीमा भी 70 साल तय करने की सिफारिश की गई है । उपाध्यक्ष के पद को बेकार मानते हुए उसे खत्म करने और सचिव का कार्यकाल तीन साल करने की सिफारिश की गई है । इसके अलावा एक टैलेंट पूल की भी वकालत की गई है, साथ ही तीनों अकादमियों की लाइब्रेरी को मिलाकर एक करने का सुझाव भी दिया गया है । यहां यह याद दिलाते चलें कि यह सब कुछ यूपीए सरकार के दौरान हुआ है ।

सेन कमेटी की इन सिफारिशों को लेकर साहित्य अकादमी के अंदर खलबली मची हुई है । इसको अकादमी की स्वायत्ता पर हमले के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है । संभव है कि एनडीए सरकार की मंशा भी ऐसी हो । साहित्य अकादमी की गंभीरता को समझने के लिए पिछले दिनों गुवाहाटी में हुई सामान्य सभा की बैठक पर गौर फर्माना होगा । सेन कमेटी समेत अन्य मुद्दों पर बाइस अगस्त को सामान्य सभा की बैठक होनी थी । सुबह साढे् ग्यारह बजे का वक्त तय था । बैठक सवा बारह बजे शुरु हुई और दोपहर एक बजे लंच लग गया । इस बैठक में एक दो वक्ताओं ने सेन कमेटी की सिफारिशों पर ज्ञान दिया और फिर हाथ उठाकर पहले से तैयार किए गए एजेंडे को स्वीकृति । दरअसल अगर हम साहित्य अकादमी के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो यह देखकर तकलीफ होती है कि वहां किस तरह से स्वायत्ता के नाम पर प्रतिभाहीनता को बढ़ावा दिया जा रहा है । साहित्य अकादमी अपने स्थापना की मूल अवधारणा से भटक गई प्रतीत होती है । साहित्य अकादमी समेत अन्य केंद्रीय अकादमियों की स्वायत्ता का मोदी सरकार अगर अतिक्रमण करती है तो इसके लिए हाल के वर्षों में वहां काबिज रहे रहनुमाओं की भी थोड़ी बहुत जिम्मेदारी बनती है । क्योंकि यह सवालतो खड़ा होगा ही कि जिन संस्थाओं पर देशभर की साहित्य-संस्कृति को वैश्विक फलक पर ले जाने की जिम्मेदारी थी वो उसमें कहां तक सफल रही है । अशोक वाजपेयी और नमिता गोखले की संयुक्त पहल और संकल्पना इंडियन लिटरेचर अब्रॉड का क्या हुआ इस बारे में भी जानकारी बाहर आनी शेष है । स्वायत्ता के नाम पर इस अराजकता पर कहीं ना कहीं तो पूर्ण विराम लगाना ही होगा । 

1 comment:

वंदना शुक्ला said...

इस लेख से कुछ बातें स्पष्ट (ज़ाहिर) होती हैं जैसे
-जब भी कोई सरकार सत्ता में आती है संस्कृतिक अकादमियों में ख़ास विचारधारा और उनके अनुयायी संगठनों /गुटों में में हलचल बढ़ जाती है और भय भी कि स्वायत्ताता पर वो हमला ना करे |यही वजह हे कि सरकार के आते ही नई नई अटकलबाजियां,घोषणाएं,संभावनाएं,विरोध आदि का बाज़ार गर्म होता है जैसे कि मौजूदा सरकार ले किये हुआ |
-सांस्कृतिक संगठनों पर वामपंथ का कब्जा रहा है |दिया गया उदाहरन इस बात का साक्षी है कि प्रलेस लोकतंत्र का विरोधी रहा है |इसका उस वक़्त उन्हें इनाम भी मिला (और उनके निहितार्थ की पुष्टि हुई )हो सकता है जलेस का उदय इसी असहमति का परिणाम हो |
- आजकल अधिकारियों या साहित्यिक रसूखदारों के लिए ‘’पसंदीदा’’ शब्द मात्र साहित्यिक योग्यता से नहीं रह गया है उसके और भी निहितार्थ हैं | आखिर पुरुस्कारों ,विदेश यात्राओं आदि पर हो हल्ले यूँ ही नहीं होते ये अलग बात है कि उन्हें ज़मीन के नीचे दफ़न होते भी देर भी नहीं लगती |पदासीन लोगों द्वारा किये गए आर्थिक घपलों ने इसे और संदिग्ध बनाया है |
-‘’रिमोट किसके हाथ में’’ इसका ताल्लुक सिर्फ राजनैतिक मसलों तक ही नहीं (इतिहास साक्षी है) बल्कि संस्कृतिक मसलों पर भी लागू होता है |
-कुल मिलाकर ‘’सवाल यही कि क्या देश की सांस्कृतिक संस्थाएं किसी खास विचारधाऱा की पोषक और किसी खास विचारधारा की राह में बाधा बन सकती हैं ।‘’ये सवाल दशकों से प्रासंगिक रहा है शायद निष्पक्ष और योग्य अधिकारियों द्वारा नियमित समीक्षाओं का अभाव और संविधान का लचीलापन भी इसका एक प्रमुख कारन होसकता है |

)स्वायत्तता जहाँ भी होगी अनियमितताएं, मनमानी,गडबड़ियां ,अंधा बांटे रेवड़ी वाली कहावत होगी ही और स्वायत्तता का पक्ष भी सबसे ज्यादा वही लोग लेते हैं जो प्रकारांत में इससे लाभान्विर होते रहे हैं |लोकतान्त्रिकता का लाभ उन्हें मिलता रहा है ये सच है | स्वायत्तता के नाम पर प्रतिभाहीनता को जो बढ़ावा दिया जा रहा है उसके पीछे ‘’एकाधिकार’’ और अन्य कई कारन हैं |
जब तक संविधान में इन अकादमियों की निष्पक्षता और स्तरीयता को प्रमुखता में रखते हुए कोई ज़रूरी परिवर्तन नहीं होंगे, साहित्य अकादमी अपने स्थापना की मूल अवधारणा में वापस नहीं लौट सकेगी |
अनंत विजय जी का विश्लेष्णात्मक और विचारणीय लेख