दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में मशहूर गीतकार और लेखक
गुलजार ने हिंदी में बाल साहित्य की उपेक्षा पर क्षोभ प्रकट किया था । गुलजार ने कहा
कि हमारे साथी साहित्यकार बच्चों को ध्यान में रखते हुए छिटपुट लिख रहे हैं, जो किसी
भी पीढ़ी को संस्कारित करने के लिए नाकाफी है । गुलजार ने कहा कि हमारे समाज में बच्चों
को लेकर एक खास किस्म की उपेक्षा दिखाई देती है जो हमारी जिंदगी के हर क्षेत्र में
है । चाहे वो बाल मजदूरी को लेकर कानूनी खामियां हों या फिर बच्चों के यौन शोषण का
मामला । समाज की इस उपेक्षा से हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं है । गुलजार ने जिस समस्या
की ओर ध्यान दिलाया दरअसल वह हमारे साहित्य समाज की तो बड़ी समस्या है ही उसका असर
भी बहुत दूरगामी है । अगर हम हिंदी समाज में बाल साहित्य के परिदृश्य पर नजर डालें
तो लगभग सन्नाटा नजर आता है । बच्चों की कई स्तरीय पत्रिकाएं बंद हो गईं । जो निकल
रही हैं उनकी रचनाओं में विविधता का अभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है । एक जमाने में
अमर चित्रकथा समेत कई कॉमिक्स बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय थे लेकिन अब सब गायब । अभी
हाल ही में प्राण का निधन हुआ । उन्होंने चाचा चौधरी और साबू जैसे मशहूर चरित्र को
गढा और बच्चों के बीच उसे दीवानगी की हद तक लोकप्रिय बना दिया था । बच्चे उस श्रृंखला
की नई कॉमिक्स का शिद्दत से इंतजार करते थे । पता नहीं किस बिनाह पर उसका प्रकाशन बंद
कर दिया गया । माना यह गया कि घाटे की वजह से प्रकाशन बंद कर दिया गया । उसी तरह से
एक बड़े प्रकाशन गृह से निकलनेवाली बच्चों की एक पत्रिका लोकप्रियता के चरम पर बंद
कर दी गई । वजह वही बताया गया कि पत्रिका से मुनाफा नहीं हो रहा था । बाल प्रकाशनों
में सवाल मुनाफे का नहीं होना चाहिए यह तो एक पूरी पीढ़ी को पढ़ने की आदत डालने के
लिए किए जाने वाले निवेश की तरह देखा जाना चाहिए । एक ऐसा निवेश जो आगे जाकर कारोबारी
और समाज दोनों को फायदा पहुंचा सकता है । अगर बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित ही नहीं
होगी तो बड़ा होकर वो अखबार और अन्य पत्र पत्रिकाएं कैसे पढे़गा । इस मामूली सी बात
को समझ कर बच्चों के प्रकाशनों पर कंपनियों को निवेश करना चाहिए था ।
अगर हम साहित्य को देखें तो वहां भी बच्चों को लेकर एक अजीब
किस्म की उदासीनता देखने को मिलती है, सिर्फ मराठी, बांग्ला और मलयालम को छोड़कर, जहां
जमकर बाल साहित्य लिखा और छापा जा रहा है ।
इसका नतीजा वहां साफ दिखता है । इन भाषाओं में साहित्य के गंभीर पाठक हैं और नई पीढ़ी
की भी पढ़ाई में रुचि है जो इन भाषाओं में बिकनेवाली किताबों की संख्या में साफ तौर
पर दिखाई देती है । हिंदी साहित्य की ही बात
करें तो वहां पिछले चार पांच दशकों से बाल साहित्य पर गंभीरता से कोई काम ही नहीं हुआ है। अब भी बच्चों को महाभारत की काहनियां, रामायण
की प्रेरक कहानियां और पंचतंत्र की कहानियां पढ़ाकर बड़ा किया जाता है । जो लोग भी
बाल साहित्य लिखते हैं उनको साहित्य जगत में मेनस्ट्रीम का लेखक नहीं माना जाता है
। यह अकारण नहीं हो सकता कि जैसे जैसे एक खास विचारधारा का साहित्य में दबदबा बढ़ा
वैसे वैसे हिंदी साहित्य में बाल साहित्य हाशिए पर चला गया ।बाल साहित्य के प्रति लेखकों
की उदासीनता को समझा जा सकता है । अब अगर हम साहित्य और साहित्यकारों से इतर हटकर अखबारों
को देखें तो इक्का दुक्का अखबारों को छोड़कर, बच्चों के लिए वहां पढ़ने की सामग्री
नहीं के बारबर होती है। जो होती भी हैं वो साप्ताहिक परिशिष्ठों के अंत में बच्चों
का कोना में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती हैं । टेलीविजन चैनलों पर तो और भीबुरा हाल
है । कार्टूनों की बहुलता ने बच्चों को पढ़ाई से दूर करने में अहम भूमिका का निर्वाह
किया है । बाल साहित्य को लेकर इस उदासीनता से तो एक बात साफ है कि हमारा समाज चाहे
वो किसी भी तबके का हो अपने बच्चों और उसके भविष्य को लेकर गंभीर नहीं हैं । मध्यवर्ग
में हर माता पिता चाहता है कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा हासिल करे लेकिन बच्चों को नैतिक
शिक्षा देने को लेकर कोई पहल दिखाई नहीं देती है । इसी समस्या से जुड़ा है बच्चों की
शिक्षा पद्धति । पिछले दो तीन दशकों में पूरे देश में अंग्रेजी स्कूलों की दुकानें
गली मुहल्ले में खुलीं । कॉंन्वेंट स्कूल या अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर माता पिता बच्चों
को धड़ल्ले से वहां भेज रहे हैं । इस तरह के स्कूलों में साहित्य के नाम पर आर्चीज
और ऐरी आदि काफी लोकप्रिय हैं । इन स्कूलों के फैलाव ने हिंदी के बाल साहित्य पर काफी
बुरा असर डाला क्योंकि अभिभावकों ने भी बच्चों को अंगेजी में पढ़ने के लिए प्रेरित
करना शुरू किया ।
अब वक्त आ गया है कि हमें यह समझना होगा कि देश को अगर सचमुच
विकसित राष्ट्र बनाना है तो समाज में बच्चों की उपेक्षा का जो अंधकारपूर्ण माहौल है
उसको को खत्म करना होगा । हमारे नौनिहाल हमारे देश के भविष्य हैं और अपने भविष्य की
उपेक्षा करनेवाला राष्ट्र एक हद से ज्यादा आगे नहीं जा सकता है । इस काम में देश के
नागरिकों और सरकार को कंधे से कंधा मिलाकर काम करना होगा । यह बात तो हिंदी के कर्ताधर्ताओं को भी समझनी होगी
और रचनाकर्म से जुड़े लोगों को भी ताकि बाल साहित्य में जो एक सन्नाटा है उसको तोड़ा
जा सके । इससे बच्चों के साथ साथ साहित्य के लिए भी एक बड़ी जमीन तैयार होगी ।
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