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Sunday, April 12, 2015

बुद्धिजीवियों की चुभती चुप्पी

मराठी एक ऐसा शब्द ऐसा है जिसको महाराष्ट्र में राजनीति करनेवाले सभी दल लगातार भुनाते रहे हैं और उसको भुनाना रहे हैं और आगे भुनाते रहेंगे । राजनीतिक दलों को लगता है कि मराठी अस्मिता के नाम पर वो जो भी कार्ड खेलेंगे वो तुरुप का इक्का ही होगा । दरअसल सियासी दल अपनी लोकप्रियता को बढ़ाने के लिए बहुधा इस तरह की चाल चलते हैं । कभी कभार अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए भी इस तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं । महाराष्ट्र में मराठी और मराठा मानुष के नाम पर राजनीति की एक लंबी परंपरा रही है । स्वतंत्रता बाद की परिस्थितियों में शिवसेना ने इसको काफी भुनाया और राज ठाकरे की राजनीति की तो बुनियाद ही मराठी अस्मिता रही है । हलांकि पिछले चुनाव में महाराष्ट्र की जनता ने इस तरह की राजनीति करनेवालों को उनकी सही जगह दिखा दी । अब इसी मराठी भावना को भुनाने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने मल्टीपलैक्स को शाम छह बजे से नौ बजे तक मराठी फिल्में दिखाने का फरमान जारी कर दिया था । यह एक ऐसा फरमान था जिसके खिलाफ बुद्धिजीवियों को मजबूती से उठ खड़ा होना चाहिए था । राजनेताओं से तो अपेक्षा की ही नहीं जा सकती हैं क्योंकि जहां संविधान और वोटबैंक को चुनना होता है तो उनकी प्राथमिकता वोट बैंक होती है । लेखकों की कोई मजबूरी नहीं होती है उनको तो सत्य के साथ खड़ा होना चाहिए । इस बार भी लगभग पूरा लेखक समाज चुप रहा । लेकिन अंग्रजी की लेखिका और पत्रकार शोभा डे ने इसके खिलाफ सोशल मीडिया पर मुहिम शुरू कर दी । उन्होंने ट्वीट कर महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करवाया । उन्होंने महाराष्ट्र सरकार के इस फरमान पर तंज कसते हुए लिखा कि अब मल्टीप्लैक्स में पॉपकार्न की जगह दही मिसल और वडा पाव मिला करेंगे । इसके अलावा भी उन्होंने कई ट्वीट कर अपना विरोध जताया । शोभा डे के ट्वीट के बाद आगबबूला शिवसेना ने उनके खिलाफ बयानों की झड़ी लगा दी । लेकिन शोभा अपने स्टैंड पर कायम रहीं । इसके बाद तो शोभा डे के खिलाफ शिवसेना के विधायक ने महाराष्ट्र विधानसभा में विशेषाधिकार हनन का नोटिस तक डे डाला लेकिन शोभा टस से मस नहीं हुई । इस बीच शोभा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तेज होने लगे, पुतले फूंके जाने लगे, उसके घर की सुरक्षा बढ़ा दी गई, वडा पाव लेकर शिवसैनिक उनके घर तक जा पहुंचे लेकिन हमारा लेखक समुदाय खामोश रहा । जितनी चिंता की बात सरकार का सिनेमाघरों को मराठी फिल्मों के लिए वक्त तय करना है उससे ज्यादा चिता की बात लेखक और बुद्धिजीवी समुदाय का इसपर खामोश रहना है । यह एक ऐसा सवाल है जिसपर देशभर के लेखकों को विचार करना होगा । गंभीरता से चिंतन और मनन करना होगा । इस तरह की खामोशी एक तरह से सरकारों को बल प्रदान करती है । संविधान के नाम पर शपथ लेकर सत्ताधीश बने नेताओं के हौसले इस कदर बुलंद हो जाते हैं कि वो संविधान की परवाह करना छोड़ने की सोचने लगते हैं । लेकिन एक शोभा डे की पहल ने महाराष्ट्र सरकार को अपना फरमान बदलने के लिए मजबूर कर दिया । भारत में लेखकों और साहित्यकारों के सत्ता और उसके फैसलों के विरोध की एक लंबी परंपरा रही है लेकिन हाल के दिनों में उसका क्षरण रेखांकित किया जा सकता है । आजादी के बाद लेखक समुदाय हर मसले पर अपनी राय रखते थे और उसको प्रकट करते थे । पिछले लोकसभा चुनाव में भी मशहूर कन्नड़ लेखक अनंतमूर्ति ने नरेन्द्र मोदी का विरोध किया था । यह अलहदा बात है कि विरोध करने के लिए उन्होंने जिन शब्दों का चयन किया था वो विवादित था । उन्होंने मोदी के जीतने पर देश छोड़ने की बात कह दी थी जिसपर बाद में उन्होंने सफाई भी दी । राजनीति के आगे मशाल की तरह चलनेवाला साहित्य इन दिनों उसी राजनीति का शिकार हो गया है । सत्य  और चुनिंदा सत्य में जो फर्क होता है उसने साहित्य जगत का बड़ा नुकसान पहुंचाया ।
अगर हम हिंदी साहित्य की ही बात करें तो देखते हैं कि साठ और सत्तर के दशक के बाद से लेखन और विमर्श में तो प्रतिरोध की खूब बातें हुई । सत्ता के विरोध और प्रतिरोध के नाम पर जमकर सत्ता सुख भोगने के मामले भी सामने आए । प्रगतिशीलता, जनवाद आदि आदि जैसे जुमले गढ़कर देश की जनता को गुमराह करने का खेल खेला गया । साहित्य में प्रगतिशीलता की कोई आवश्यकता ही नहीं थी । साहित्य तो खुद प्रगतिशील होता है । दरअसल यह पूरा खेल अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर खेला गया था । लेखक संघ बनाए गए । जो भी लेखक संघ बने वो किसी ना किसी राजनीतिक दल से जुड़े रहे । उनके बुद्दिजीवी प्रकोष्ट की तरह काम करते रहे । लेकिन जनता के सामने अपना दूसरा चेहरा पेश कर उनको भरमाते रहे । प्रगतिशील लेखक संघ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अंग रहा, उसी तरह जनवादी लेखक संघ सीपीएम का बौद्धिक प्रकोष्ट बना रहा । जैसे जैसे वामपंथी पार्टी में विभाजन होते रहे उनके लेखक प्रकोष्ट बनते रहे । जब सीपीएम में विभाजन हुआ तो एक और बौद्धिक प्रकोष्ठ बना उसका नाम पड़ा जन संस्कृति मंच । दरअसल हमारा मानना है कि लेखकों को इन वामदलों ने सिद्धांत, प्रतिरोध, गरीब, दबे, कुचले के नाम पर भ्रमित किया और फिर उनका फायदा उठाया । जब ये लेखक संगठन इन पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह काम करने लगे तो जाहिर है कि उनके विरोध और प्रतिरोध भी अपने राजनीतिक आकाओं की मुंहदेखी होने लगी । इसका सर्वोत्तम उदाहरण है कि प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी का समर्थन किया । इस तरह के कई उदाहरण हैं लेकिन इन उदाहरणों का उल्लेख यहां आवश्यक नहीं है । अब तो प्रगतिशील लेखक संघ की हालत यह हो गई है कि वो लेखकों की सहमति के बगैर उन्हें पार्टी के पद बांट रही है । ताजा मामला पश्चिम बंगाल का है जहां कवि राज्यवर्धन को बगैर उनकी जानकारी और सूचना के राज्य इकाई का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया । राज्यवर्धन ने फेसबुक पर इस बारे  में लिखकर जानकारी साझा की है ।
पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ बनने का नतीया यह हुआ कि लेखकों ने चुनिंदा सत्य बोलना शुरू कर दिया । चुनिंदा और सुविधानुसार बोला गया सत्य, झूठ से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है । इन लेखक संगठनों से जुड़े रचनाकार तस्मीमा नसरीन के मुद्दे पर खामोशी अख्चियार कर लेते हैं लेकिन एम एफ हुसैन के मामले पर जोरदार विरोध शुरू हो जाता है । गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का विरोध करनेवाले लोग सलमान रश्दी के मामले में खामोश हो जाते हैं । क्या यह एक प्रकार की लेखकीय सांप्रदायिकता नहीं है । कट्टरपंथी हिंदूवादी ताकतों के खिलाफ खड़े होनेवाले लेखक मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ बोलने में घबराने लगते हैं । जुबान खामोश हो जाती है । अच्छा इस तरह के लेखकों को लगता है कि अगर वो मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ बोलेंगे तो उनको सांप्रदायिक मान लिया जाएगा । सांप्रदायिकता और फासीवाद की आड़ लेनेवाले लेखक उसी का शिकार होते चले गए । इस तरह की प्रवृत्ति लंबे समय तक चलती रही जिसका परिणाम यह हुआ कि लेखकों से लोगों का भरोसा उठता चला गया । लेखक भी सत्ता के हिसाब से अपनी प्रथामिकताएं तय करने लगी । राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल सत्ता की पिछलग्गू बन गईं । जब आप सत्ता के पिछलग्गू बनेंगे तो फिर उसके खिलाफ बोलने का साहस का ह्रास होता चला जाएगा । फिर इसकी परिणति शोभा डे जैसे मामले में देखने को मिलेगा । शोभा डे के समर्थन में साहित्य जगत का ना आना चौंकाता नहीं बल्कि उस धारणा को पुष्ट करता है ।
दरअलस अगर हम पूरी गंभीरता से हिंदी के लेखकीय परिदृश्य पर विचार करें तो निराशाजनक तस्वीर सामने आती है । मुक्तिबोध और उनकी कविता की  पंक्ति तोड़ने ही होंगे सारे गढ़ और मठ को नारे की तरह इस्तेामल करनेवाले लेखक गढ़ और मठ में शामिल होने की जुगत में लगे रहते हैं । कोई किसी अकादमी का सदस्य बनना चाहता है तो कोई किसी सरकारी कमेटी में फिट होने के जुगाड़ में लगा रहता है, किसी की ख्वाहिश किसी विश्वविद्लाय के कुलपति बनने की होती है तो कोई पुरस्कार के दंद फंद में जुटा रहता है । ऐसे परिदृश्य में यह अपेक्षा करना बेमानी है कि लेखक सरकारी फैसलों के खिलाफ बोलने की हिम्मत कर पाएंगे । सरकारी संरक्षण की लालसा लिए घूम रहे इस तरह के लेखकों की भीड़ बढ़ती जा रही है । इसकी ऐतिहासिकता में अगर जाएं तो इसके बीज इंदिरा गांधी के शासन काल में दिखाई देते हैं । जब इमरजेंसी पूर्व ही उन्होंने साहित्य और संस्कृति का मसला वामपंथियों को सौंप दिया । इंदिरा गांधी की ये सोची समझी रणनीति थी जिसके वामपंथी शिकार हुए और इसके एवज में वो इंदिरा गांधी का समर्थन करते रहे । अब वक्त आ गया है कि लेखक समुदाय को खासकर हिंदी के लेखकों को साहस के साथ सच बोलना चाहिए वो भी समग्रता में क्योंकि चुनिंदा सत्य ने लेखकों पर से समाज का भरोसा कम कर दिया है । चुनौती उसिी भरोसो को वापस लाने की है ।


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