कोलकाता में एक बार फिर से धर्म के नाम पर हिंसा का खेल खेला गया । एक मदरसे के
हेडमास्टर पर उसके स्कूल में घुसकर जानलेवा हमला किया गया । चिंता की बात तो ये है
कि पुलिस की मौजूदगी में मासूम अख्तर नाम के इस शख्स पर हमला होता रहा और बंगाल पुलिस
खामोशी के साथ असहाय खड़ी रही । मासूम अख्तर का दोष सिर्फ इतना है कि उसने बर्धवान
धमाके को लेकर एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने यह संकेत दिया था कि अगर किसी मदरसे
से आतंकवाद की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है या फिर मदरसे में आतंकवाद को पनाह दिया
जाता है तो उसको भंग कर दिया जाना चाहिए । यह बात इस्लामी कट्टरपंथियों के गले नहीं
उतरी और इस लेख के बाद मासूम अख्तर को धमकियां मिलने लगीं । फिर बहाना मिला ईशनिंदा
का । अपने एक क्लास में मासूम अख्तर मे ऐतिहासिक संदर्भ में पैगंबर मोहम्मद की शिक्षा
को लेकर टिप्पणी की । वह टिप्पणी इस संदर्भ में थी बगैर किसी औपचारिक शिक्षा के पैगंबर
ने दुनिया में ज्ञान का प्रकाश फैलाया । लेकिन कट्टरपंथियों ने क्लास में दिए मासूम
के वक्तव्य को इस तरह से पेश कर दिया कि उसने पैगंबर की शिक्षा पर सवाल खड़े किए ।
यह बात जंगल में आग की तरह फैली और फिर मासूम अख्तर के स्कूल में घुसकर कट्टरपंथियों
ने उनपर लाठी और सरिए से वार किया । अस्पताल में इलाज करा कर घर लौटे मासूम अख्तर को
अब भी जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं । वो सरकार से गुहार लगा रहे हैं, उनको
कार्रवाई का भरोसा मिल रहा है लेकिन स्तंभ लिखे जाने तक हमलावर आजाद घूम रहे हैं ।
मासूम अख्तर को इस बात का डर है कि उनका हश्र भी बांग्लादेश के उन ब्लागरों जैसा ना
हो । पिछले दिनों बांग्लादेश में दो ब्लागरों को कट्टरपंथियों ने मौत के घाट उतार दिया
। इसके पहले भी ईशनिंदा के आरोप में पाकिस्तान के सूबे के गवर्नर को भी गोली मार दी
गई थी । सलमान रश्दी पर भी यही आरोप है, तस्मीमा पर भी । मासूम अख्तर को भी यही धमकी
मिल रही है कि तुम सलमान रश्दी बनना चाहते हो तो सुधर जाओ वर्ना अंजाम भुगतने के लिए
तैयार रहो । क्या यह अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला नहीं है । हमारा संविधान किसी भी
नागरिक को अपनी बात कहने का हक देता है । इस हक की सीमा वहां तक है जहां कि किसी को
नुकसान ना पहुंचे या उसकी प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आए । अभी हाल के अपने फैसले में सुप्रीम
कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66 ए को खत्म करते हुए भी कहा था कि संविधान में मिली अभिव्यक्ति
की आजादी से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है । सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि आईटी एक्ट
की धारा 66 ए से अभिव्यक्ति की आजादी बाधित होती है लिहाजा उस धारा को रद्द कर दिया
। एक तरफ जहां सुप्रीम कोर्ट अभियक्ति की आजादी की रक्षा के लिए भारत सरकार के कानून
को रद्द कर दे रहा है वहीं दूसरी ओर एक शख्स अपने इस अधिकार की रक्षा के लिए दर बदर
भटक रहा है । बंगाल की ममता सरकार की चुप्पी मासूम के लिए जानलेवा साबिकत हो सकती है
। उसकी जान खतरे में है लेकिन कोई देखनेवाला
नहीं, कोई सुनने वाला नहीं, कोई कानून सम्मत काम करने के लिए आगे आना वाला नहीं । हमारे
मजबूत होते लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही चिंता का विषय है ।
अब हम मासूम अख्तर के बहाने से अगर इस बात की पड़ताल करें कि क्यों ममता सरकार
इस पर सख्ती से पेश नहीं आ रही है । क्यों बंगाल पुलिस त्वरित कार्रवाई कर मासूम के
जान की गारंटी नहीं दे पा रही है । क्यों हमलावरों
को गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है ? क्यों हमलावरों
की खुलेआम पैरोकारी करने वाले इमाम की गिरफ्तारी नहीं हो रही है ? क्यों मासूम अख्तर को सुरक्षा नहीं दी जा रही है ? अगर हम इन सवालों से मुठभेड़ करते हैं तो नतीजे पर पहुंचते हैं कि इसके पीछे सियासी
और वोट बैंक की राजनीति है । पश्चिम बंगाल की आबादी में से करीब छब्बीस फीसदी हिस्सा
मुसलमानों का है। कई लोकसभा और विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं को मत निर्णायक
होता है । अब इसी चुनावी गणित की वजह से बंगाल का में राजनीतिक दल कट्टरपंथियों के
खिलाफ मुंह खोलने की हिमाकत नहीं कर पाते हैं । पश्चिम बंगाल वामपंथियों का गढ़ रहा
है । वामपंथी हमेशा से अपने आपको अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार के तौर पर पेश करते
रहे हैं । मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को लेकर जब विवाद उठा था तो इन वामपंथियों ने
आसमान सर पर उठा लिया था । लेकिन यही वामपंथी नेता, विचारक, लेखक उस वक्त खामोश रहे
जब पश्चिम बंगाल की सरकार ने बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन को वहां
से निकाल दिया । वही वामपंथी नेता इलस वक्त भी खामोश हैं जब मासूम अख्तर अपनिी जान
बचाने के लिए भागा भागा फिर रहा है । उस वक्त
आसमान सर पर उठा लेने वाली ममता बनर्जी जब सूबे की मुख्यमंत्री बनी तो वो तस्लीमा के मसले पर खामोश रहीं । तस्मीमा
को अब भी बंगाल में कदम रखवे की इजाजत नहीं है, उसकी किताबों को कोलकाता पुस्तक मेले
में बेचे जाने पर अघोषित रोक है । अगर गलती से कोई प्रकाशक तस्मीमा की किताब बेचने
लगता है तो वहां हंगामा होता है या हंगामे की कोशिश होती है । तस्लीमा को बंगाल से
बाहर करने को लेकर एक मौलाना खुलेआम गरजते हैं कि हां उन्होंने बाहर किया तस्मीमा को
लेकिन ना तो वामपंथी नेता और ना ही ममता बनर्जी उसका विरोध करती है, कार्रवाई की बात
तो दूर । वामपंथियों के इसी चुनिंदा विरोध
की वजह से उनकी साख रसातल में चली गई । राजनीति में उनके घटते समर्थन का असर साहित्य
पर भी दिखा और साहित्य में वामपंथियों की गिरोहबंदी कमजोर पड़ती नजर आने लगी । खैर
यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर कई फिर विस्तर से चर्चा होगी ।
मासूम अख्तर के बहाने से एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है वह है देश में अभिव्यक्ति
की आजादी का । क्या किसी भी शख्स को वाजिब सवाल उठाने पर जान से मार देने की धमकी मिलेगी
या फिर उसे जान से मार दिया जाएगा । क्या भारत में भी कट्टरपंथियों के हौसले इतने बुलंद
हो जाएंगे कि उनको कानून का खौफ नहीं रहेगा । क्या वोटबैंक की इस राजनीति को लोकतंत्र
को कमजोर करने की इजाजत दी जा सकती है । इन सवालों के आलोक में देशभर में बहस होनी
चाहिए । हमारा मानना है कि इस्लाम को मानने वाले सभी कट्टरपंथी नहीं हो सकते हैं ।
मासूम अख्तर जैसे विवादित मसलों पर मुसलिम इंटलैक्चुअल को सामने आना होगा और उनको सही
तस्वीर पेश करनी होगी । अपनिी राय से देश को अवगत करवाना होगा । इस तरह के मसलों पर
मुस्लिम बौद्धिक का खामोश रहना कट्टरपंथियों को मौन समर्थन देने जैसा है । इससे यह
भी संदेश जाता है कि इस्लाम में कट्टरपंथ है जबकि ऐसा है नहीं । अव्वल तो सभी लोगों
को इस तरह के कदमों का और इस तरह की राजनीति का विरोध करना होगा लेकिन अगर इसी धर्म
को मानने वाले लोग अंदर से अपनी बात कहेंगे तो उसका दूसरा असर होगा । देश के सियासतदां
को लगेगा कि मुसलमानों के बीच भी अलहदा सोच रखनेवाले लोग हैं । इससे उनको यह भी संदेश
जाएगा कि वोट बंट सकते हैं । इस संकेत को बाद संभव है कि वो कोई कार्रवाई कर सकें या
कम से कम इस दिशा में कोई कदम तो उठा सकें ।
जिस तरह से मुस्लिम बैद्धिकों से अपेक्षा की जाती है कि वो कट्टरपंथियों के खिलाफ
बोलें, उठ खड़े हों , उसी तरह से सभी बौद्धिकों को समान रूप से इस तरह की घटनाओं के
विरोध में लिखना चाहिए याजिस भी तरीके से हो सके विरोध जताना चाहिए । यह खतरा उठाना
होगा । दरअसल हमारे देश के बौद्धिक जगत में वामपंथी विचारधारा के दबदबे ने इस तरह का
माहौल बना दिया है कि अगर मुसलमानों के कट्टरपंथ के बारे में लिखोगे तो संघी करार दिया
जाएगा । आपकी धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े होने लगेंगे । इसी माहौल की वजह से लेखक
विचारक इस मसले पर बोलने से कतराते हैं । हिंदी के मशहूर लेखक राजेन्द्र यादव तो हमेशा
कहते थे कि मुसलमानों के मसले पर हम क्यों बोलें वो खुद अपने मसलों पर बोलें । दरअसल
हमें इस सोच को बदलने की आवश्यकता है । सच को सच कहना ही होगा । वर्ना मासूम अख्तर
जैसे शख्स दर बदर भटकते हुए किसी दिन मार दिए जाएंगे और कट्टरपंथियों के हौसले बुलंद
होंगे और सियासतदां उनकी कब्र पर वोट की लहलहाती फसल देख कर खुश होते रहेंगे ।
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