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Wednesday, April 1, 2015

‘बंच ऑफ थॉट्स’ एक

पिछले साल अक्तूबर में लखनऊ में हुई राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के कार्यकारी मंडल की बैठक से संदेश निकला था कि संघ की कल्पना को साकार करने का उचित समय आ गया है, अब जरूरत इस बात की है कि संगठन का कार्य तेजी से और विवादास्पद मुद्दों पर सावधानी से चला जाए ताकि केंद्र की मोदी सरकार को किसी तरह की कोई असुविधा ना हो । कुछ इसी तरह की बात पिछले महीने संघ की नागपुर में हुई प्रतिनिधि सभा की बैठक से भी निकल कर आई । वहां भी कहा गया कि किसानों के मुद्दे पर संघ, भारतीय किसान मंजदूर संगठन की चिंताओं से वाकिफ है, उसपर सरकार से बातचीत होगी । संघ का मानना है कि मोदी सरकार अभी नई है लिहाजा उसको काम करने का कुछ वक्त दिया जाना चाहिए । इन दो बैठकों से जो सूत्र समान्य रूप से निकल कर आते हैं वो ये हैं कि संघ और बीजेपी में कई मुद्दों पर मतभेद हैं लेकिन संघ सावधानी से इन मुद्दों को पीछे रखकर अपने विस्तार पर जोर देने की कोशिशों में लगा है । दरअसल अगर हम देखें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की बुनियादी अवधारणाएं एक हैं । दोनों ही हिंदुत्व से लेकर राष्ट्रवाद तक एक ही विचारधारा के पोषक हैं । फर्क है तो बस उसके अप्रोच में । अगर हम इकोनॉमी की बात करें तो संघ स्वदेशी मॉडल को अपनाना चाहता है, बीजेपी भी कुछ इसी तरह की बात करती रही है । 1992 के नेशनल एक्जीक्यूटिव में बीजेपी ने एक प्रस्ताव पास किया था जिसमें साफ तौर पर कहा गया था कि उन्हें उदारवादी नीतियां मंजूर हैं लेकिन आत्मनिर्भरता के साथ । संघ बगैर किसी अगर मगर के स्वदेशी की वकालत करता है । इस मसले पर दोनों के बीच का झगड़ा इतना बढ़ा था कि 1998 में भारतीय किसान मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच ने वाजपेयी सरकार पर जन विरोधी और स्वदेशी विरोधी होने का आरोप तक लगाया  था । दो हजार एक में तो विवाद इतना बढ़ गया कि बीएमएस के नेता दत्तोपंत ठेगड़ी ने उस वक्त के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को क्रिमिनल तक करार दे दिया था । इन झगड़ों से सबक लेते हुए इस बार संघ ने सावधानी से आगे बढ़ने का फैसला लिया है ताकि झगड़ा सावर्जनिक रूप से उजागर ना हो पाए । मोदी सरकार खुले आम खुली अर्थव्यवस्था की पैरोकारी कर रही है लेकिन स्वदेशी की वकालत करनेवाला संघ खामोश हैं । इंश्योरेंस सेक्टर में 49 फीसदी विदेशी निवेश से लेकर नए भूमि अध्ग्रहण बिल में किसानों की अनदेखी के मुद्दे पर भी संघ को ज्यादा दिक्कत नहीं हो रही है । इसके मूल में अपने संगठन की विस्तार है और उसकी नजर 2020 में अपने सौ साल पूरे होने तक कमोबेश अपना एजेंडा लागू करने का लक्ष्य है । 
अब अगर धर्मांतरण और घर वापसी जैसे मुद्दों को देखें तो संघ इस मुद्दे पर रैडिकल अप्रोच रखता है लेकिन बीजेपी उसके अप्रोच को एंडोर्स नहीं करती है । बीजेपी को पता है कि भारत का वृहत्तर हिंदू समाज इस तरह की आक्रामकता को पसंद नहीं करती है । संघ अपनी सैद्धांतिकी को लेकर आगे बढ़ना चाहता है और बीजेपी व्यावहारिकता के साथ । सरकार सैद्धांतिकी से नहीं चलती है और संगठन को चलाने के लिए सैद्धांतिकी जरूरी है । लिहाजा यहीं से मतभेद शुरू होता है या फिर दिखाई देने लगता है। घर वापसी और बापू के हत्यारे गोडसे की मूर्ति जैसे मुद्दे पर पीएम मोदी अपनी नाराजगी जताते हैं लेकिन संघ और उसके अनुषांगिक संगठन इस एजेंडे से हिलने को तैयार नहीं हैं । संघ को लगता है कि इन मुद्दों से हटते ही उसके कोर समर्थक उससे छिटकने लगेंगे लिहाजा उसको बनाए रखने के लिए उग्र हिंदुत्व की बयानबाजियां होती रहती हैं । अब अगर भारत में बांग्लादेशी मुसलमानों के मुद्दे को लेकर ही संघ और बीजेपी के स्टैंड को देखें तो यह साफ होता है कि इलस मुद्दे पर दोनों के अप्रोच अलग है । संघ जहां बांग्लादेशी मुसलमानों को देश से निकाल बाहर करने की मांग बेहद आक्रामक तरीके से करता है, वहीं बीजेपी संभलकर आगे बढ़ना चाहती है, बढ़ती भी है । सरकार में आने के बाद उसे पता है कि करीब तीन-चार करोड़ बांग्लादेशी मुसलमानों को एकदम से वापस नहीं भेजा जा सकता है ।

इसी तरह से अगर अनुच्छेद 370 और कॉमन सिविल कोड के मुद्दे पर भी बीजेपी ने लचीला रुख अपनाया तो संघ परोक्ष रूप से उसके साथ है । कश्मीर में मुफ्ती के साथ सरकार बनाने को लेकर संघ के कट्टर समर्थकों में घोर निराशा है । वो कोई भी तर्क सुनने को तैयार नहीं है । इस खतरे को उठाते हुए भी संघ कहता है कि कश्मीर में एक प्रयोग किया गया है और उसके नतीजों का इंतजार करना चाहिए। हां इतना अवश्य है कि संघ इन मुद्दों पर अब इससे आगे बढ़ने का खतरा नहीं उठा सकता है, क्योंकि आम स्वयंसेवकों को लगने लगा है कि बीजेपी ने कश्मीर पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत पर समझौता कर लिया है । बीजेपी और संघ में थोडी बहुत मतभेद आदि दिखाई देते रहेंगे लेकिन दोनों के बंच ऑफ थॉट्स एक हैं । एक और अहम मुद्दा है शिक्षा का । इस मसले पर भी थोड़ी बहुत खींचतान दिखाई देती है लेकिन कमोबेश एजेंडा संघ का ही चलता है जबतक कि व्यावहारिकता आड़े ना आए । स्कूलों में जर्मन की जगह संस्कृत । आईसीएचआर से लेकर अन्य सरकारी संगठनों में संघ के कार्यकर्ताओं की नियुक्तियां आदि ऐसे मुद्दे हैं जिसपर सरकार उदार है लेकिन इस उदारता के बदले वो सरकारी नीतियों पर अपनी चलाने की छूट चाहते हैं । जो उन्हें हासिल भी है । वाजपेयी के दौर में जिस तरह से संघ और पार्टी आमने सामने आ गई थी उसके आसार इस बार कम हैं क्योंकि संघ को लगता है कि नरेन्द्र मोदी की कट्टर, निर्णायक हिंदुत्ववादी छवि उसके लिए लाभदायक है और थोड़े बहुत समझौते के साथ इसको बरकरार रखा जाना चाहिए । 

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