नारेबाजी को तो स्त्री की ईमानदार अभिव्यक्तियों के खिलाफ जानबूझकर स्थापित किया
गया और उसे ही स्त्री लेखन का पैमाना बना दिया गया । जो देह विमर्श की पूरी राजनीति,
पितृसत्तास्तमक रणनीति के साथ की गई थी, उसने बहुत सी लेखिकाओं को भ्रमित किया । बहुत
से लोग, जो गंभीर काम कर सकते थे, इसी की भेंट चढ़ गए । अपनी देह पर निर्णय का अधिकार
एक बड़ा मुद्दा है, इसे इतना हल्का नहीं बनाया जा सकता । देह पर निर्णय का अधिकार आसानी
से नहीं मिलता ।बिना शिक्षा, बिना आर्थिक
आत्मनिर्भरता के यह कितना संभव हो सकेगा ! निर्णय की स्थिति तक आने में आत्मसंघर्ष से भी गुजरना
होता है । प्रेम में जिम्मेदारी भी होती है और मनुष्य अपने प्रियजनों को इतनी जल्दी
नहीं छोड़ना चाहता है । जल्दी हारना भी नहीं चाहता । सबसे पहले मनुष्य अपनी परिस्थिति
को ठीक करना चाहता है जब लगता है कि इसे ठीक नहीं किया जा सकता, तभी दूसरे रास्ते की
तरफ बढ़ता है – ये कहना है दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक और कथाकार
अल्पना मिश्र का । साहित्यक पत्रिका समीक्षा
में प्रकाशित अपने साक्षात्कार में जब अल्पना ये बातें कहती हैं तो समकालीन साहित्य
में जारी स्त्री विमर्श को वो इशारों इशारों में कठघरे में भी खड़ा करती हैं । अल्पना
जब कहती हैं कि नारेबाजी को तो स्त्री की ईमानदार अभिव्यक्तियों के खिलाफ जानबूझकर
स्थापित किया गया और उसे ही स्त्री लेखन का पैमाना बना दिया गया । जो देह विमर्श की
पूरी राजनीति, पितृसत्तास्तमक रणनीति के साथ की गई थी, उसने बहुत सी लेखिकाओं को भ्रमित
किया । यह साक्षात्कारकर्ता की सीमा थी कि वो लेखिका से इस विषय पर गहराई से बात नहीं
कर पाई । अल्पना मिश्र ने जो बातें संकेत में कही हैं उसपर उनसे विस्तार से पूछा जाना
चाहिए था । तभी सारी बातें और उनकी राय भी साफ हो पातीं ।
उनके साक्षात्कार में बेहद गंभीर बातें हैं और शब्दों का चयन भी बेहद समझदारी से
किया गया है जिसपर स्त्री विमर्श के पैरोकारों को अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए । स्त्री
विमर्श के नाम पर ए के सैंतालीस लेकर घूम रही लेखिकाओं को भी अल्पना के उठाए सवालों
या उनके कथन पर अपनी राय देनी चाहिए, शांत दिमाग से बगैर गोलीबारी किए । स्त्री विमर्श
के संदर्भ में अल्पना नारेबाजी. देह विमर्श
की पूरी राजनीति, पितृसत्तास्तमक रणनीति, लेखिकाओं के भ्रमित होने की बात उठाती हैं
। ये एक एक शब्द विस्तार से चर्चा की मांग करता है । मेरी समझ में जब अल्पना स्त्री
विमर्श में नारेबाजी की बात करती हैं तो वो बिल्कुल सही हैं लेकिन उसको स्थापित किसने
किया इसपर साहित्य में बहस होनी चाहिए । विचार पर तो इसपर भी होना चाहिए कि क्या सचमुच
पितृसत्तास्तमक रणनीति के तहत इस नारेबाजी को ही स्त्री की ईमानदार अभिव्यक्ति मान
लिया गया । अल्पना ने बेहद संजीदगी के साथ अपनी बातें रखीं हैं । अपने उपन्यास के पात्रों
के बहाने वो ये सवाल उठाती हैं । हिंदी में स्त्री की देह मुक्ति के आंदोलन के जनक
राजेन्द्र यादव आज अगर जीवित होते तो उनकी इस मसले पर राय दिलचस्प होती । राजेन्द्र
यादव स्कूल की लेखिकाओं से अपेक्षा की जाती है कि वो इस बहस को आगे बढ़ाएं । अल्पना
जब कहती हैं कि स्त्री को अपनी देह के बारे में फैसला करने का अधिकार बहुत मुश्किल
से मिलता है, तो वो एक और बड़ा सवाल खड़ा करती हैं । स्त्री विमर्श के नाम पर देह मुक्ति
के लिए छटपटा रही लेखिकाओं को भी सामने आकर अल्पना के सवालों से या उनकी राय से मुठभेड़
की अपेक्षा है । दरअसल स्त्री विमर्श के नाम पर देहमुक्ति के खेल ने साहित्य में एक
खास किस्म की अराजकता को भी बढ़ावा दिया है । देह मुक्ति शब्द की अवधारणा के पीछे तर्क
यह था कि स्त्री अपने शरीर के बारे में खुद फैसला ले सके । समाज में यह स्थिति बने
। इसको ही आधार बनाकर पश्चिम में विमर्श की शुरुआत की गई । लेकिन राजेन्द्र यादव ने
स्त्री विमर्श में जिस देह मुक्ति को व्याख्यायित किया उसका आधार उच्छृंखलता ज्यादा
था । देह मुक्ति और आजादी के नाम पर कुछ लेखिकाओं ने सारी मान्यताओं को छिन्न भिन्न
कर दिया । मान्यताएं टूटवने ही चाहिए । परंपराओं को ढोने के कोई फायदा भी नहीं है ।
लेकिन भ्रम में जीकर तो सिर्फ नुकसान ही हो सकता है । अल्पना ने इसी भ्रम के नुकसान
की बात की है । क्या स्त्री विमर्श और देह से आजादी का यह मतलब है कि घर परिवार शादी
ब्याह नाते रिश्ते जैसे सारे सामाजिक संस्थाओं को तहस नहस कर दिया जाए । हमारे इस तर्क
पर फिर से पितृसत्तात्मक वितार होने का आरोप लग सकता है लेकिन मैं तो सिर्फ सवाल उठा
रहा हूं ष उन सवालों को जिन्हें एक लेखिका ने ही उठाया है । देह मुक्ति को अपनी शोहरत
और सफलता की सीढ़ी बनानेवालों की पहचान की जानी चाहिए और उस युक्ति पर भी लेखक समुदाय
को शिद्दत से विचार करना चाहिए ।
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