त्रिया चरित्रम पुरसस्य भाग्यम । दैवो ना जानि कुतो मुनष्यम । रजनी गुप्त के नए
उपन्यास कठघरे को पढ़ते हुए संस्कृत का ये श्लोक शिद्दत से याद आया । इस उपन्यास की
नायिका रत्ना का जो चरित्र रजनी गुप्त ने गढ़ा है वो बेहद जटिल है । उसकी आकांक्षाएं,
उसके सपने, उसके इरादे और उसको पूरा करने के लिए उसके फैसले सब बेहद जटिल चरित्र को
उबारते हैं । अपने सपनों को पूरा करने के लिए सब कुछ जानते हुए लगातार अपने मन की करती
चलती है । स्त्री चेतना का यह एक ऐसा प्रदेश है जिसपर स्त्री विमर्श के नाम पर झंडा
डंडा लेकर निकलनेवाली लेखिकाएं जरा कम ही प्रवेश करती हैं । वो नारी स्वातंत्र्य के
नाम पर साहित्यक नारेबाजी और लेखों का जुलूस निकालती हैं लेकिन लेकिन स्त्री मन की
सचाइयों को उन शोर शराबे में छुपा जाती हैं । रजनी गुप्त ने अपने उपन्यास में बहुत
बेबाकी से स्त्री के उस चरित्र को उघाड़ कर रख दिया है । उपन्यास की नायिका रत्ना एक
गरीब परिवार से है । सब कुछ जानते बूझते उसने मानसिक रूप से चैलेंज्ड युवक से विवाह
करना स्वीकार कर लिया । अब उस स्वीकार के फैसले के पीछे की तात्कालिक वजह अपनी होनेवाली
सास की गाड़ी में घूमना, उनका फर्राटेदार अंग्रजी बोलना आदि है लेकिन मूल वजह यह है
कि वो अपनी पढ़ाई पूरी कर अच्छी नौकरी करना चाहती है । पढ़ाई और नौकरी का ये सपना उसको
अपने परिवार में रहते हुए पूरा होता नहीं दिखता है, लिहाजा यह जानते हुए कि लडका मंदबुद्धि
है रत्ना उससे विवाह की हामी भर देती है । जबकि उसकी होनेवाली सास उसको विवाह के प्रस्ताव
के बाद भी कहती है- ‘रत्ना खूब अच्छे से सोच समझकर जब भीमन
करे अपने मन से फैसला लेना किसी के दबाव में कतई मत आना । किसी की जोर जबरदस्ती से
कोई निर्णय कभी भूलकर भी मत लेना वरना जीवन भर पछताती रहेगी । देख, तू मेरे घर की बहू
बने, न बने, कोई बात नहींमगर मेरी बेटी तो बन ही सकती है ।‘ इसके आगे भी जोर देकर कहती है – ‘हमेशा अपने दिल की आवाज सुनना । घर वालों की, बाहर वालों की या किसी के दबाव में
कभी मत आना ।‘ इतनी साफगोई के बाद भी रत्ना उनके लड़के से शादी करने
पर राजी हो जाती है। बीच में लेखिका ने एक
ज्योतिषनुमा मास्साब के चरित्र के बहाने से रत्ना की चाहत को बल देने की कोशिश की है
। अंतत: रत्ना सोचती
है कि – अपने फटेहाल घर में रहने से तो बेहतर विकल्प यही है
कि उनकी सुविधाओं के बीच रहते हुए वह अपना करियर बनाए । वैसे भी उस पति नामक जीव से
ज्यादा लेना-देना तो रहेगा नहीं । समय पर खाना पीना दे दो, बस और क्या ? हम तो अपना कैरियर बनाएंगें और अपनी मर्जी से अपना जीवन जिएंगे । यही सब सोचते
सोचते उसने उस मंदबुद्धि परंतु अमीर लड़के से शादी करने की हामी भर दी थी । हलांकि
शादी के बाद वो अपनी स्थितियों को लेकर सशंकित भी रहती थी । वो सोचती है बिना आगा-पीछा
सोचे जब उसने खुद अपने लिए ऐसा जीवन चुना है तोफिर किससे गिला शिकवा कर पाएगी वह और
क्यों ? अपनी सास को लेकर वह पहले ही दिन से सशंकित भी रहती है । पर यह बात समझ से परे
है कि जिस लड़की ने अपने करियर के लिए मानसिकरूप से चैलेंज्ड लड़के से शादी करना स्वीकार
कर लिया हो वो सालभर के अंदर ही मां बन गईं । क्या सुख सुविधाओं तले उसके करियर का
सपना दब गया या कुछ और । इस तरह के कई सवाल ये उपन्यास उठाती है ।
बेटे ईशान के पैदा होने के बाद रत्ना के
जीवन में कई तरह के बदलाव आने शुरू हो जाते हैं । उसे अपनी सास के उस इरादे का पता
चल जाता है कि वो अपना वंश चलाने के लिए उसको अपने घर की बहू बनाकर लाई थी । ईशान के
पैदा होने के बाद उसकी दादी अपने पोते को लेकर पजेसिव हो जाती है और ये बहुधा सास-बहू
के बीच विवाद की वजह भी बनती है । परिवार में विवाद बढ़ता है तो उसकी परिणति रत्ना
के लिए घर में बुटीक खोलने में होती है । रत्ना की मेहनत से बुटीक का कामकाज चल पड़ता
है और ग्राहकों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर वहां कर्माचारियों की जरूरत होती है ।
यहां एक बार फिर से कहानी में जबरदस्त नाटकीय मोड़ आता है । रत्ना जब अपने मां-बांप
के घर में रहती थी तो उसका पुराना प्रेमी रामकिशन बूटिक में नौकरी के लिए नमूदार होता
है । उसके पुराने प्रेमी होने का संकेत मुफलिसी के दौर में तोहफे में घड़ी देने के
प्रसंग से मिलता है । फिर साथ काम करने के दौरान प्रेम का अंकुर फिर से फूटने लगता
है । अपने नौकर के साथ प्रेम को लेकर रत्ना का अपने सास ससुर से झगड़ा शुरू हो जाता
है । इन विवादों के बीच रत्ना के विवाहेत्तर संबंध को जायज ठहराने के लिए अचानक से
वो अपने पति की अप्राकृतिक यौनाकांक्षा के बारे में सोचकर सिहरने लगती है । इन तमाम
विवादों के बीच रत्ना के मंदबुद्धि पति की अनुपस्थिति भी लगातार महसूस की जाती है ।
जब रत्ना विवाहेत्तर संबंध में आगे बढ़ती है और प्रेम देह में प्रवेश करता है तो पति
की अप्राकृतिक यौन रुचि के संकेत के वक्त उसका उल्लेख मात्र होता है । यह स्त्री विमर्श
का एक ऐसा चेहरा है जिसपर आनेवाले दिनों में जमकर विमर्श की गुंजाइश नजर आती है । वो
अपने पुराने प्रेमी के साथ खुल्लमखुल्ला प्यार करती है, लांग ड्राइव पर जाती है, घंटों
फोन पर बतियाती है, देह संबंध बनाती है । इससे आजिज आकर उसके सास ससुर अखबार में इश्तेहार
देकर रत्ना से अपने को अलग कर लेते हैं । एक दिन अचानक रत्ना की सास की हत्या हो जाती
है । उसका प्रेमी आपसी बातचीत में बुढिया को रास्ते से हटाने की बात कई बार कह चुका
था । हत्या के बाद मौका ए वारदात पर उसका तौलिया मिलता है । उसको वहां से भागते उसका
मासूम बेटा ईशान देख लेता है । लेकिन वो अपने बेटे को चुप रहने की नसीहत देती है ।
अपने प्रेमी को बचाने के लिए पति के मां की हत्या की बात को दबा देना ।
रत्ना नाम की इस स्त्री
की कहानी के बहाने रजनी गुप्त भारत के जेलों में रह रही महिलाओं की बुरी स्थितियों
पर भी साथ साथ बात करते चलती हैं । उपन्यास का शीर्षक भी है कितने कठघरे । उपन्यास
को पढ़ने के बाद शीर्षक इस मायने में सार्थक लगता है कि वो स्त्रियों के समाजिक कठघरे
की बात करता है । जेल और जेल में बंद महिलाओं की दुर्दशा को भी उन्होंने रत्ना की कहानी
से ही जोड़ा है । वांछा नाम की एक लड़की रत्ना को आजादी दिलाना चाहती है जो संयोग से
उसके बेटे ईशान की मंगेतर है । वांछा जेल में उससे मिलती है और फिर कहानी धीरे धीरे
खुलती जाती है । और जब कहानी खुलती है तो जेल जीवन की मार्मिक दास्तां भी सामने आती
है । हिंदी उपन्यासों से हमेशा से ये शिकायत रहती है कि लेखक डिटेलिंग में नहीं जाते
हैं लेकिन रजनी गुप्त ने अपने इस उपन्यास में उस धारणा को निगेट किया है । रजनी ने
बहुत सूक्ष्मता के साथ और आंकड़ों के आधार पर जेल जीवन की भयावह तस्वीर पेश की है ।
ऊपर से देखने पर यह उपन्यास जेल जीवन का आख्यान लगता है लेकिन दरअसल यह उपन्यास जेल
जीवन के बहाने स्त्री विमर्श का एक ऐसा छोर पकड़ता है जिसका सिरा अब तक इस विमर्श के
पैरोकारों से छूटता रहा है । हो सकता है आने वाले दिनों में रजनी गुप्त के इस उपन्यास
के बहाने स्त्री विमर्श के इस अबतक छूटे प्रदेश पर चर्चा हो ।
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