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Saturday, January 5, 2013

राजनीति का दिवालियापन

उन्नीस सौ पैंसठ की जनवरी की बात है तब यह तय किया गया था कि 26 जनवरी को अंग्रेजी की जगह हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने का ऐलान किया जाएगा । दक्षिणी राज्यों के हुक्मरान इस बात के लिए तैयार भी हो गए थे लेकिन जनता में इस बात को लेकर गहरा रोष था कि हिंदी उनपर थोपी जा रही है । लिहाजा तमिलनाडु में हिंसात्मक प्रदर्शन हो रहे थे । तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री इंतजार करो और देखो की रणनीति अपना कर चुप बैठे थे । लेकिन मद्रास में हालात बेकाबू हो रहे थे और प्रदर्शनकारी लगातार उग्र हो रहे थे और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे थे । उस वक्त तमिलनाडू कांग्रेस के दिग्गज के कामराज की भी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि वो तमिलनाडु के हिंसाग्रस्त इलाकों में जाएं और वो दिल्ली में ही रुके थे । ऐसे हालात में इंदिरा गांधी ने फैसला लिया कि वो तमिलनाडु जाएंगी । वो वहां पहुंच गई और मद्रास में प्रदर्शनकारियों के बीच जाकर उनसे बात की । उनकी मांगों को सुना और उन्हें जितना हो सकता है वो करने का आश्वासन दिया । इतिहास इस बात का गवाह है कि इंदिरा गांधी के मद्रास पहुंचने और आंदोलनकारियों से बात करने का जबरदस्त असर हुआ और हिंसा की आग में जल रहा मद्रास एकदम से शांत हो गया ।
पिछले दिनों दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा के साथ गैंग-रेप के दौरान इंडिया गेट और राजपथ पर लोगों के प्रदर्शन के दौरान इंदिरा गांधी और मद्रास आंदोलन का प्रसंग शिद्दत से याद आ रहा था । गैंगरेप के खिलाफ जब आंदोलन अपने चरम पर था तो सोनिया गांधी ने जरूर अपने घर के बाहर निकलकर गेट पर चंद मिनट आंदोलनकारियों से बात चीत की थी । उनसे बातचीत भी हुई थी लेकिन अगले दिन उनके कारकुनों ने जिन छात्रों को उनसे मिलवाया उनके परिदृश्य से गायब होने से सोनिया की पहल हवा हो गई । इसके अलावा आंदोलन के काफी दिनों बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जंतर मंतर पर पहुंची थी । यह अलग बात है कि तबतक काफी देर हो चुकी थी और आंदोलनकारियों ने उन्हें वहां रुकने की इजाजत नहीं दी । देर ही सही शीला दीक्षित ने यह साहस तो दिखाया कि वो आंदोलनकारियों के बीच जाएं । गैंगरेप के खिलाफ लगभग हफते भर तक इंडिया गेट और विजय चौक पर जमा लोगों से मिलने के लिए किसी भी दल का राजनेता नहीं पहुंचा । उम्मीद तो सत्ता पक्ष के नेताओं से काफी थी कि कोई वहां पहुंचकर आक्रोशित आंदोलनकारियों से बात करेगा । लेकिन कांग्रेस का कोई नेता यह साहस नहीं दिखा पाया जबकि दिल्ली की सातों लोकसभा सीट से कांग्रेस के पार्टी के ही सांसद हैं । यहीं से एक सांसद महिला एवं बालविकास मंत्रालय की मंत्री हैं । आंदोलनकारियों से राजनीतिक तौर पर निबटने की बजाए उन्हें दिल्ली पुलिस के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया ।
सत्तपक्ष से तो अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में चूक हुई ही, विपक्षी दल भी अपनी भूमिका के निर्वहन में नाकाम रहे । देश की मुख्य विपक्षी पार्टी , भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने अपने घरों से चंद मीटर की दूरी पर हो रहे प्रदर्शन में शामिल होने की बात तो दूर आंदोलनकारियों से बात तक करने की जहमत नहीं उठाई । लोकसभा में विपक्ष की नेता और भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले सुषमा स्वराज सिर्फ ट्विटर पर बयानबाजी करती नजर आई । सुषमा जी ने अपनी पोजिशनिंग एक ऐसी भारतीय नारी की बनाई है जो तमाम भारतीय परंपराओं का पालन करती हुई भी राजनीति के शीर्ष पर ना केवल पहुंची है बल्कि वहां लंबे समय से जमी हुई हैं । जब भी जनता के बीच जाने की बात आती है तो सुषमा जी कहीं नजर नहीं आती है । गैंग रेप के मामले में लगातार ट्विटर पर अपनी बात कहने वाली सुषमा स्वराज का ज्यादा जोर संसद का विशेष सत्र बुलाने को लेकर था । क्या हमारे देश के आज के नेताओं को लगता है कि जनता के बीच जाने का सबसे बेहतरीन जरिया संसद है । संसद जनता की समस्याओं को उठाने का मंच हो सकता है लेकिन संसद जनता से संवाद कायम करने का माध्यम नहीं हो सकता है । आज बीजेपी के नेताओं को लगने लगा है कि संसद में साल में दो बार लच्छेदार भाषण देकर, जिसे देशभऱ के तमाम न्यूज चैनल एक साथ चलाते हैं, जनता पर चमत्कारिक प्रभाव पैदा किया जा सकता है । बीजेपी के दूसरे कद्दावर नेता और प्रधानमंत्री पद के एक और सुयोग्य उम्मीदवार अरुण जेटली भी इस पूरे आंदोलन के दौरान कहीं नजर नहीं आए । जेटली साहब भी शानदार वक्ता हैं लेकिन जनता से सीधे संवाद कायम करने में उनकी कोई रुचि दिखाई नहीं देती है । मुझे उस वक्त का एक वाकया याद आ रहा है जब भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने कोलकाता से जम्मू तक की भारत एकता यात्रा की थी तब जम्मू  में उसमें शरीक होने पर अरुण जेटली को हिरासत में लिया गया था । उस वक्त बीजेपी की तरफ से जो खबरें आ रही थी उसमें इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि जेटली साहब को हिरासत में लेकर जिस कार में बैठाया गया है उसमें एयरकंडीशनर नहीं लगा है । यह हमारे देश के विपक्ष के नेताओं की एयरकंडीशनर राजनीति की मानसिकता का उत्स था । भारतीय जनता महिला मोर्चा की अध्यक्षा स्मृति ईरानी न्यूज चैनलों पर संघर्ष करती नजर आई लेकिन लोगों के बीच जाने का साहस उनमें भी नहीं था ।
हमारे देश में आजादी के बाद से ही वामपंथी पार्टियों ने अपने आपको जन और वाद का रहनुमा बताया और कई मौकों पर वाम दलों ने आंदोलनों की रहनुमाई की लेकिन दिल्ली गैंगरेप के मुद्दे पर उनके नेता भी जनता के साथ खड़े नहीं दिखे । लोक और जन की भलाई और उनके बीच समानता के सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ी ये पार्टियां भी जन और लोक की भावनाओं को समझने में बुरी तरह से नाकाम रही । गैंगरेप के खिलाफ आक्रोशित जनता को नेतृत्व देनेवाला कोई सामने नहीं आ सका । बैगर नेतृत्व के किसी आंदोलन का जो हश्र हो सकता है वही इस आंदोलन का भी हुआ । आंदोलन के बीच कुछ गुंडे और मवाली किस्म के लोग घुस आए और उन्होंने कुछ ऐसी हरकतें की जिसकी वजह से पुलिस को कार्रवाई का मौका मिल गया । कई जानकारों का कहना है कि पुलिस ने ही इन लोगों को आंदोलनकारियों के बीच में घुसाया । यह जांच का विषय हो सकता है ।
भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाकर जंग छेड़नेवाले अरविंद केजरीवाल पर राजनीति का रंग चढ़ गया है । गैंगरेप के खिलाफ आंदोलन जब अपने चरम पर पहुंचा तो उन्हें लगा कि मौका हाथ से निकल ना जाए लिहाजा तीन चार दिन बाद वो अपने सहयोगियों के साथ आंदोलनकारियों के बीच जाकर बैठ गए । टेलीविजन चैनलों के लिए बातें की, विजुअल बनवाए और फिर वहां से चलते बने । अरविंद केजरीवाल एंड आम आदमी कंपनी भी आंदोलन के दौरान चंद घंटों के लिए वहां नजर आई । अब उनके लोग तर्क दे रहे हैं कि रेप जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे का वो राजनीतिकरण नहीं करना चाहते थे लिहाजा केजरीवाल एंड कंपनी वहां से लौट आई । उनका यह तर्क बेहद ही हास्यास्पद है , अगर उनको इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर राजनीति नहीं करनी थी तो दो दिन भी वहां जाने का कोई औचित्य नहीं था । लेकिन केजरीवाल चर्चा में बने रहने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते हैं लिहाजा उन्होंने ये मौका भी नहीं छोड़ा ।
गैंगरेप के दौरान लोगों के गुस्से और दिल्ली के इंडिया गेट और विजय चौक पर लगातार हफ्ते भर चले आंदोलन ने भारत के राजनीतिक वर्ग के दिवालिएपन को उजागर कर रख दिया है । आज देश में राजनीतिक समस्याओं का प्रशासनिक हल निकालने की लगातार बढ़ती प्रवृत्ति से लोकतंत्र की स्थापित मान्यताओं के बिखर जाने का खतरा भी पैदा हो गया है । आज देश को एक ऐसे नेता की जरूरत है जो जनता के बीच जा सके और उनकी समस्याओं को उनके बीच बैठकर बात करे । देश की जनता तैयार है वैसे नेताओं को अपने सर आंखों पर बैठाने के लिए जो जनता की भावनाओं को वाणी दे सके । विपक्ष में होने की वजह से भारतीय जनता पार्टी की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि उनके नेता वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर बयानबाजी करने के बजाए जनता के बीच जाएं और उनके दुख दर्द में भागीदार बने और उसको वाणी दें । कांग्रेस के लिए तो बस वही कहा जा सकता है जो इंदिरा गांधी ने पहली बार अध्यक्ष चुने के सालभर बाद पद छोड़ने पर कहा था- आजादी के आंदोलन के दौरान जो कांग्रेस एजेंट ऑफ चेंज थी वही कांग्रेस अब चुनावी मशीन बन कर रह गई है । वक्त बेवक्त राहुल गांधी चेंज की बात करते हैं लेकिन बातें हैं , बातों का क्या

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