मुझे ध्यान नहीं आ रहा है लेकिन नामवर सिंह ने कहीं आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हवाले
से लिखा है कि कहानी सुनने वाला आगे की घटना के लिए आकुल रहता है । कविता सुनने वाला
कहता है जरा फिर तो कहिए । नामवर जी ने हलांकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस मत का निषेध
किया है और कहा कि – निसंदेह ‘घटना वैचित्र्यपूर्ण कहानियों’ को ध्यान में रखकर
यह बात कही गई है लेकिन ध्वनि स्पष्ट है कि कहानी विषयक ये कुतूहल निम्न कोटि का है
। नामवर जी अपनी इस धारणा के समर्थन में ई एम फोस्टर को भी उद्धृडत करते हैं जहां वो
कहते हैं कि ‘कहानी संबंधी कुतूहल अवर कोटि का है क्योंकि इसके मूल
में गुहावासी आदिम मानव मनोवृत्ति है ।‘ नामवर जी का मानना
है कि चूंकि यह कुतूहल ‘आदिम’ है, इसलिए इसके मूल में एक प्रकार का ‘अविवेक’ है । इस पर काफी लंबा विवाद हो सकता है लेकिन एक स्कूल ऑफ थॉट है जो यह मानता
है कि कविता पाठकों के लिए पीछे की ओर जाती है वहीं कहानी पाठकों को आगे की ओर ले जाती
है । कहानी और कविता दोनों अलग विधा है और उपरोक्त व्याख्या के मुताबिक दोनों विधाएं
विपरीत दिशा में जाती हैं । अब अगर कोई लेखक इन दोनों विधाओं में लेखन करता है और उसको
साधकर रखता है तो एक बड़ी चुनौती को साधने जैसा है । दो विपरीत दिशा में जा रहे घोड़े
की रास को थामना और उसको काबू में करते हुए उसको मुकाम तक पहुंचाने जैसा होता है ।
हाल ही में ऐसे ही एक रचनाकार संजय कुंदन की कहानियों का संग्रह ‘श्याम लाल का अकेलापन’ प्रकाशित हुआ है । संजय कुंदन ऐसे
ही रचनाकार हैं जो कविता की दुनिया से कहानी में आए और फिर उन्होंने उपन्यास भी लिखा
। संजय की कविताओं को खासी प्रसिद्धि मिली थी और मिल रही है, पाठकों का प्यार भी । मुझे याद आता है कि संजय कुंदन ने अपनी पहली कहानी
दो हजार एक या दो में लिखी थी । कहानी का नाम था केएनटी की कार । इस कहानी के तद्भव
में प्रकाशित होने के पहले उसका पाठ राजेन्द्र यादव के घर पर हुआ था । उस कहानी पाठ
में मैं, यादव जी और मैत्रेयी पुष्पा थीं । केएनटी की कार की यादव जी ने खूब तारीफ
की थी । दरअसल संजय कुंदन की पहली कहानी केएनटी की कार और अब समीक्ष्य संग्रह की शीर्ष
कहानी श्याम लाल का अकेलापन को अगर पढें तो पाठकों को एक कहानीकार के तौर पर संजय कुंदन
की विकास यात्रा समझ में आती है । संजय कुंदन की कहानियों में रात, स्वप्न और संघर्ष
लगातार उपस्थित रहते हैं । ये सिर्फ उनकी कहानियों में नहीं बल्कि उनकी कविता में भी
मौजूद है । जैसे उनके पहले कविता संग्रह कागज के प्रदेश में छपी एक कविता है टैक्सी
स्टैंड । उसकी चंद पक्तियां हैं – रात के आखिरी पहर में/ एक चिड़िया सड़क पर पैदल चलती हुई/ दिखाई पड़ रही
है/ हवा में उड़ती है नींद/ सरदार जी चुटकी बजाकर
भगाते हैं नींद/ चुटकियों से ही भगाते हैं वो हर दुख । अब उनकी पहली
कहानी केएनटी की कार की चंद पक्तियां देखते हैं – रात में उन्होंने एक डरावना सपना देखा । देखा कि उनकी सोसाइटी में एक नकाबपोश
आ रहा है । धीरे धीरे चलता वो उनकी कार तक आया और उसे एक हाथ में उठा लिया । केएनटी
चीखे- ऐ क्या कर रहे हो तुम । नकाबपोश ने ठहाका लगाया और बोला साले कार चलाओगे। औकात
है चलाने की । बड़े आए कारवाले । अचानक कार छोटी होते-होते खिलौने की तरह हो गई । नकाबपोश
ने उसे अपनी जेब में रख लिया और आकाश की ओर उठने लगा । केएनटी उसके पीछे लपके और चिल्लाने
लगे चोर चोर । तभी उनकी नींद खुल गई । उनकी पत्नी भी हड़बड़ाकर उठ गई । केएनटी ने खिड़की
से झांका । उनका मकान पहली मंजिल पर था । वे अपनी कार ठीक सामने खड़ी करते थे । उन्होंने
देखा उनकी कार से अड़कर चौकीदार खड़ा है । उन्हें पता नहीं क्या सूझा, वे नीचे आये
। उन्होंने चौकीदार से डपटकर कहा- ये गाड़ी से अलग हटो, टूट जाएगी । क्या कहते हो साब
। मेरे सट जाने से गाड़ी टूट जाएगी । चौकीदार ने हंसते हुए कहा ।
अब जरा संजय कुंदन के नए संग्रह की कहानी ‘श्यामलाल का अकेलापन’ की कुछ पंक्तियों पर गौर फर्मा लेते हैं – ओह जल्दी से सुबह
क्यों नहीं हो जाती है । उन्होंने घड़ी देखी तो रात के दो बज रहे थे । इतना समय कैसे
काटा जाए, नींद तो आ नहीं रही है । श्यामलाल चुपचाप उठे । उन्होंने दरवाजा इस तरह खोला
कि कोई आवाज ना हो । वे उसे सटाकर बाहर आ गए ।‘ रात के घर से निकलकर श्यामलाल अपार्टमेंट के गार्ड
रूम में जा पहुंचते हैं और वहां बातचीत के क्रम में गाने बजाने का कार्यक्रम शुरू हो
जाता है । फिर देखिए- श्यामलाल को किसी ने झकझोरा तो वो हड़बड़ाकर उठे । चारों ओर उजाला
फैल चुका था । सामने सुपरवाइजर खड़ा था – सर आप गाना गाते
हुए सो गए थे, हम लोगों ने आपको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा..सर आप बहुत अच्छा गाते
हैं । ये तीनों प्रसंग बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि पाठकों को पता चल सके कि संजय
कुंदन की कहानियों का जो नायक होता है वो मध्यवर्गीय चरित्र किस-किस तरह की मनोदशा
में जीते हैं । समाज के बीच अपनी पहचान और हनक बनाने के लिए उनके मन में कैसे कैसे
विचार आते हैं । रात को जब संजय कुंदन का नायक अकेला होता है तो अपनी अपेक्षाओं के
सपने देखता है और जब वो अपेक्षाएं पूरी हो जाती हैं तो उसके खत्म होने के खतरे से आशंकित
रहता है । संजय की पहली कहानी का नायक केएनटी एक कार खरीदने के सपने को जीना चाहता
है । इस चक्कर में वो तमाम सघर्षों के बावजूद एक सेकेंडहैंड कार खरीद लेता है । उसके
पीछे का मनोविज्ञान सिर्फ समाज से अपने आसपास के लोगों से कंपीट करने का है । इसी तरह
से श्यामलाल अपने आसपास के लोगों को देखकर कुढ़ता रहता है कि उसके पास अमुक चीज नहीं
है । फिर उसकी चाहत में परेशान रहता है । संजय कुंदन ने अपने समाज के लोगों के इसी
मनोविज्ञान को पकड़कर कहानी में धर देते हैं किस्सागोई के छौंक के साथ ।
संजय कुंदन के इस संग्रह-श्यामलाल
का अकेलापन में ग्यारह कहानियां संकलित हैं । संजय की कहानियां का मूल स्वर या कह सकते
हैं कि उनकी कहानियों में एक जो अंतर्धारा बहती है वो है महानगरीय जीवन । महानगर के
जीवन में बौने होते लोग और सुरसा के बदन की तरह बढ़ती उनकी महात्वाकांक्षाएं । ऐसा
नहीं है कि सभी कहानियां इसी विषय पर लिखी गई है । इस संग्रह में एक कहानी है – हीरो । इसका नायक चंदर ऑटो चलाता है और उसकी फिल्मों में काम करने की ख्वाहिश
है । लेकिन यह कहानी चंदर से शुरू होती है और मीडिया के वर्तमान हालात पर खत्म होती
है । चंदर की वजह से एक मशहूर शख्सियत की बहू की दहेज हत्या होने से बच जाती है । सास
ससुर के चंगुल से उसको छुड़ा लिया जाता है । चंदर को एसपी के दफ्तर में पत्रकारों के
बीच हीरो की तरह से पेश किया जाता है । सभी चैनल और अखबार वाले उसके साथ बात करते हैं
। चंदर को लगता है कि मशहूर होने का उसका सपना पूरा होनावाला है । दोस्तों के साथ पार्टी
करता है । लेकिन अगले दिन के सारे अखबारों और चैनलों पर उसकी बहादुरी के किस्से का
एक लाइन ना तो छपता है ना ही दिखता है । फिर दो पत्रकारों की बातचीत के हवाले से कहानीकार
यह बताता है कि आजकल खबरें कैसे और किन दबावों में तय होती हैं । चंदर के अंदर बहुत
कुछ दरक जाता है । दरअसल चंदन तो एक पात्र मात्र है लेकिन खबरों को लेकर समाज के अंदर
इन दिनों कुठ इसी तरह के विचार पनपने लगे हैं । यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए बेहतर
नहीं है । यह कहानी चंदर के बहाने से मीडिया को भी कठघरे में खड़ा करती है उसपर बड़े
सवाल भी उठाती है । संजय कुंदन की कहानियों को पढ़ते हुए पाठकों को यथार्थ के पठार
से गुजरना होता है । नामवर जी बहुधा कहते हैं कि – समझने के लिए ना कहानी को दोबारा पढ़ने की जरूरत और ना अपने ही दिमाग पर ज्यादा
जोर डालने की तकलीफ । ऐसे ही लोगों की धारणा है कि कहानी में समझने के लिए कुछ नहीं
होता । और जाहिर है जहां समझने के लिए कुछ नहीं होगा, वहां समझाने के लिए भी गुंजाइश
नहीं होगी । ऐसे समझदार लोगों के सामने यदि कहानी के बारे में समझने की बात की जाए
तो ये गुस्ताखी होगी ।‘ नामवर जी ये बातें तंज में कहते हैं । पर संजय कुंदन की कहानियों को पढ़ते हुए
पाठकों को उसकी अंतर्धारा और फिर उसके परिणाम को जोड़कर देखने की जरूरत है । पाठकों
को पठनीयता भी मिलती है लेकिन उनकी कहानियां समाजिक मनोविज्ञान को उघाड़ने के साथ साथ
कुछ ऐेस बिंदुओं पर चोट भी करती है जो जरूरी है । संजय कुंदन अपनी पीढ़ी के उन चंद
रचनाकारों में से हैं जिन्होंने विवादों और प्रचारप्रियता से दूर रहकर साहित्य सृजन
का फैसला लिया है । उनके दो कविता संग्रह कागज के प्रदेश में और योजनाओं का शहर और
दो कहानी संग्रह – बॉस की पार्टी और श्यामलाल का अकेलापन
के अलावा एक उपन्यास इसकी तस्दीक भी करते हैं । समीक्ष्य कृति श्यामलाल का अकेलापन
में संजय अपनी कहानियों के माध्यम से खुद को कहानी की जमीन पर और मजबूत करते हैं ।
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