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Sunday, October 11, 2015

सवाल पैदा करते जवाब

पहले उदय प्रकाश, फिर नयनतारा सहगल और अब असोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर साहिकत्य जगत को झकझोरने की कोशिश की । तीनों लेखकों के विरोध का आधार कमोबेश एक ही है । इन तीनों को लगता है कि इस वक्त देश का वातावरण बहुत खराब हो गया है और साहित्यकारों को प्रतिरोध में उठ खड़ा होना चाहिए । गोविंद पानसरे, प्रोफेसर कालबुर्गी आदि की हत्या और दादरी कांड में गोमांस की अपवाह की हत्या के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुप्पी पर भी नयनतारा सहगल और इशोक वाजपेयी ने सवाल खड़े किए हैं । नयनतारा सहलग ने तो यहां तक कह दिया कि इस वक्त देश में आतंक का राज है । इन तीनों को लगता है कि साहित्य अकादमी को इस आतंक के माहौल में लेखकों के साथ खड़ा होना चाहिए । यह ठीक है हर किसी की अपनी अपेक्षा और अपनी चाहत होती है लेकिन जब आपकी चाहत सार्वजनिक हो या जब आप अपनी चाहत से एक बड़े समुदाय को प्रभावित करने की आकांक्षा रखते हों तो उसकी परख आवश्यक है । अब जरा अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों के तर्क को देखिए । उनका कहना है कि साहित्य अकादमी स्वायत्त संस्था है लिहाजा उसको इस वक्त के कथित खराब माहौल के खिलाफ प्रस्ताव आदि पास कर विरोध जताना चाहिए । चूंकि साहित्य अकादमी ऐसा नहीं कर रही है लिहाजा वो पुरस्कार वापस कर रहे हैं । दूसरी तरफ ये भी कहा जा रहा है कि विरोध की वजह प्रधानमंत्री का मौन हैं । एक तरफ तो आप अकादमी को स्वायत्त मानते हैं और दूसरी तरफ सरकार के कृत्यों के लिए भी उसको जिम्मेदार मानते हैं । साहित्य अकादमी का पुरस्कार सरकार नहीं देती है । पुरस्कार के लिए लेखकों का चुनाव लेखकों की ही एक कमेटी करती है । पुरस्कार लौटाना एक तरह से उन लेखकों का भी अपमान है जिन्होंने आपको उस वक्त पात्र माना था । जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी को राजनीतिक दखलअंदाजी से मुक्त रखा था । उनका साफ कहना था कि प्रधानमंत्री भी इस मसले में दखल नहीं दे सकता है । जवाहरलाल नेहरू जब अकादमी से जुड़े थे तब भी उन्होंने इसके कामकाज में कोई दखल आदि नहीं दिया था ।
दूसरी बात ये कि पुरस्कार लौटानेवाले लेखक और उनके समर्थकों ने इस तरह का माहौल बना दिया है कि जो लेखक पुरस्कार नहीं लौटाएंगे या फिर पुरस्कार लौटानेवालों का समर्थन नहीं करेंगे वो संघी या भाजपाई हैं । उन्हें यह कहकर लांछित आदि करने का प्रयास किया जा रहा है कि वो कट्टरपंथी हिंदूवादी ताकतों का समक्थन कर रहे हैं । इस तरह का माहौल बनाना उचित नहीं है । एक तरफ तो आप असहमति के अधिकार की लड़ाई लड़ने का दावा कर रहे हैं लेकिन परोक्ष रूप से आपसे असहमत होनेवालों को कठघरे में भी खड़ा कर रहे हैं । लेखकों को पुरस्कार आदि लौटाने का एलान कर सनसनी फैलाने से ज्यादा जरूरी है कि वो अपनी लेखनी से इस तरह का माहौल का मुकाबला करे । दरअसल अगर हम देखें तो पिछले चार पांच दशकों में लेखकों ने अपनी साख को कम किया है । सार्वजनिक मसलों पर राय प्रकट नहीं कर या फिर चुनिंदा मसलों पर लिख या बोलकर लेखकों ने अपनी क्रेडिबिलिटी कम कर ली है । राजेन्द्र यादव के बाद हिंदी में कोई सार्वजनिक बुद्धिजीवी बचा नहीं । अशोक वाजपेयी कभी कभार बोलते लिखते रहे हैं । इसके अलावा अगर हम देखें तो लेखकों ने देश और समाज के मसलों पर लिखना बोलना कम कर दिया है । अपनी विचारधारा वाली पार्टी के पिछलग्गू बनकर लेखकों ने अपनी साख को दांव पर लगा दिया । उसका हीनतीजा हुआ है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि लौटाने के फैसलों पर सवाल खड़े हो रहे हैं । साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने के बाद अशोक वाजपेयी ने कहा कि वो काफी दिनों से अपने स्तंभ में सरकार की नीतियों के खिलाफ लिख रहे थे लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं हो रही थी इस वजह से उन्होंने कुछ नाटकीय करने की सोची और पुरस्कार लौटा दिया । वाजपेयी जी बेहद सम्मानित लेखक हैं, बहुपठित भी, लेकिन अगर उनका साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का कदम नाटकीय है तो फिर इसका उतना ही असर होगा जितना कि किसी भी नाटकीय कदम का हो सकता है ।
साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने के तीन लेखकों के फैसलों के बाद एक बार फिर से अकादमी पुरस्कार के चयन को लेकर बातें शुरू हो गई हैं । कहते हैं ना कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी । उदय प्रकाश से लेकर कई लेखकों को साहिय् अरादमी पुरस्कार दिए जाने पर सवाल खड़े होते रहे हैं । विवाद भी हुए हैं । कई लेखकों को पुरस्कार मिलने के पहले से ही उनके नाम सार्वजनिक होते रहे हैं । बात तो यहां तक सामने आती रही है कि अमुक लेखक को इस साल पुरस्कार देने का आश्वासन अध्यक्ष या संबंधित भाषा के संयोजक ने दे दिया है । दरअसल ये पूरा विवाद विचारधारा की लड़ाई है । हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक से जब मैंने बातों बातों में कहा कि ये विचारधारा की लड़ाई है तो उन्होंने कहा कि विचारधारा के साथ साथ स्वार्थ की भी लड़ाई है । हर कोई अपनी गोटी सेट करना चाहता है और फिट नहीं होने की स्थिति में बागी हो जाता है । हम ये तो नहीं कह सकते क्योंकि इस बात के प्रमाण हमारे पास नहीं हैं लेकिन अकादमी पुरस्कार लौटाने के फैसले पर लेखक समाज में ही मतभेद हैं । लेखकीय स्वंतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरे, अगर कोई खतरा है तो, को लेकर लेखकों को एक जुट किया जाना चाहिए था । इसका असर भी व्यापक होता ।  

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