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Friday, October 16, 2015

बात निकलेगी तो दूर तलक...

जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में लेनिन ने कहा था रि वहां के लेफ्टिस्ट खुद को वामपंथी नहीं मानते हैं और अपने आप को सैद्धांतिक आधार पर प्रतिपक्ष करार देते हैं । लेनिन ने उस वक्त जर्मनी के वामपंथियों की उस प्रवृत्ति को इंफैन्टाइल डिसऑर्डर ऑफ लेफ्टिज्म कहा था । हाल ही में अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बताते हुए जिस तरह से करीब दो दर्जन लेखकों ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाया है उसको देखकर लेनिन के शब्द उधार लेकर कहा जा सकता है कि प्रतिपक्ष के लेखक भी इंफैन्टाइल डिसऑर्डर के शिकार हैं । यहां भी कमोबेश सभी लेखकों ने खुद को सिद्धांत का विरोध पक्ष करार दिया है । अब अगर हम प्रतिपक्ष के सैद्धांतिक पक्ष को परखते हैं तो यह साफ तौर पर उभरता है कि वो देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से अपना पक्ष बदलते रहे हैं । आज जिन लोगों को अभिवय्क्ति की आजादी पर खतरा नजर आ रहा है उनमें से ज्यादातर लोग इमरजेंसी के दौर में लिख रहे थे । यह बात बहस से परे है कि भारत में अगर अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न हुआ था तो वो इमरजेंसी का दौर था । उस वक्त तो हमारे मौलिक अधिकारों पर भी पहरा लगा दिया गया था । अब जरा उस दौर में लेफ्टिस्टों को याद करिए कि उनका रुख क्या था । दिल्ली में उपन्यासकार भीष्म साहनी की अध्यक्षता में हुई प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में इमरजेंसी का समर्थन किया गया था और उसको अनुशासन पर्व करार दिया था । उस वक्त किसी भी लेखक की अंतरात्मा की आवाज नहीं जागी थी और किसी ने पुरस्कार वापसी का कदम नहीं उठाया था । क्योंकि उस वक्त इन संस्थाओं पर वामपंथियों का कब्जा था । यह वही दौर था जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समर्थन के एवज में वामपंथियों को साहित्यक संस्थाओं की जागीरदारी सौंप दी थी । अब अगर हम चौरासी के सिख विरोधी दंगों के बाद की बात ना भी उठाएं, हम दो हजार दो के गुजरात दंगों के दौरान लेखकों की पुरस्कार वापसी के बाबत सवाल ना भी पूछें लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों की बात तो उठानी चाहिए । दादरी के पास इखलाक की हत्या को भी पुरस्कार वापस करनेवालों ने मुद्दा बनाया है । दादरी से चंद किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर के दंगों में बासठ लोगों की हत्या की गई । उसके बाद अखिलेश सरकार ने अपने सालाना साहित्यक पुरस्कार का एलान किया । गाजे बाजे के साथ हिंदी के लेखकों ने जाकर यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कर कमलों से चार लाख से लेकर चालीस हजार तक के दर्जनों पुरस्कार लिए । तब किसी को कुछ भी याद नहीं आया । याद तो तब भी नहीं आया था जब कॉमरेड पानसरे की हत्या की गई थी या सही मायनों में बुद्धिवादी दाभोलकर साहब का कत्ल किया गया । ना तब किसी ने साहित्य अकादमी पर सवाल उठाए और ना ही साहित्य अकादमी से स्टैंड लेने का दुराग्रह किया । क्योंकि उस वक्त की सरकारों से प्रत्यक्ष रूप से विचारधारा को और परोक्ष रूप से स्वार्थ को कोई खतरा नहीं था । 

अब एक नजर डालते हैं पुरस्कार वापस करनेवाले लेखकों पर । उदय प्रकाश तो योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेकर इस योग्य नहीं रह गए हैं कि उनपर चर्चा की जाए या उनको गंभीरता से लिया जाए । बात करेंगे अशोक वाजपेयी और कृष्णा सोबती की । हलांकि आपको याद दिलाते चलें कि उदय प्रकाश अशोक वाजपेयी को पॉवर ब्रोकर मानते रहे हैं और दावा करते हैं कि उनको हिंदी में कोई गंभीरता से नहीं लेता लेकिन यह भी दिलचस्प है कि उदय प्रकाश को जिस जूरी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया उसके अशोक वाजपेयी सदस्य थे । दरअसल इन साहित्यक पुरस्कारों की साख खत्म हो चुकी है । एक उदाहरण देखिए कि जब सीताकांत महापात्र संस्कृति मंत्रालय के सचिव थे तो उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलता है और उसी मंत्रालय में संयुक्त सचिव अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलता है । क्या इसके पीछे मेधा या प्रतिभा है या कुछ और । इसके अलावा अशोक वाजपेयी को दयावती मोदी पुरस्कार मिला था तब उसको लेकर उठे विवाद को दोहराने की आवश्यकता नहीं है । अशोक वाजपेयी कितने संवेदनशील हैं इसको समझने के लिए भोपाल गैस त्रासदी के बाद आयोजित कवि सम्मेलन के दौर के उनके बयान को याद करना चाहिए । तब अशोक वाजपेयी ने कहा था कि मरने वाले के साथ मरा नहीं जाता है । इस तरह के बयानों के बाद अब जब वही शख्स संवदेनशीलता की उम्मीद करता है तो उसका अपेक्षित असर नहीं होता है । कहना ना होगा कि अशोक वाजपेयी के बयानों और पुरस्कार लौटाने का भी उतना असर नहीं पड़ा । दरअसल साहित्यक पुरस्कारों की साख पिछले कई सालों में छीजती चली गई । इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं उसपर लेखक समुदाय को विचार करना चाहिेए । देश की बहुलतावादी संस्कृति पर खतरे के बाद कृष्णा सोबती ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान किया । एक जमाने में कृष्णा जी ने पुरस्कारों को लेकर कहा था कि चंद साहित्यक लोगों को ही दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में जाने की सहूलियत है जहां पर साहित्य के कई मसले तय होते हैं । अब अगर साहित्यक पुरस्कार आईआईसी की बार में तय होते हैं तो उसको लौटा ही दिया जाना चाहिए । दरअसल इस विरोध के पीछे की मंशा को भी समझने की जरूरत है । केंद्र सरकार ने फोर्ड फाउंडेशन समेत कई गैर सरकारी संगठनों के विदेशी चंदों पर रोक लगा दी है । इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि सरकार के इस कदम के बाद साहित्यकारों के विरोध ने जोर क्यों पकड़ा । क्योंकि बात निकलेगी को दूर तलक जाएगी । 

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