Translate

Sunday, October 18, 2015

यादव जी जिंदा होते तो…

इस वक्त समकालीन हिंदी साहित्य में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की होड़ लगी हुई है । होड़ शब्द का इस्तेमाल इस वजह से कि नियमित अंतराल पर कुछ साहित्यकारों की संवेदनाएं जागृत हो रही हैं । सरकार की नीतियों के खिलाफ साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाया जा रहा है । यह ठीक है कि लेखकों को पुरस्कार या सम्मान लौटाने की उतनी ही आजादी है जितनी कि उसको स्वीकार करने की । पुरस्कार वापसी के इस माहौल में एक लेखक मित्र ने पूछा कि अगर राजेन्द्र यादव आज के माहौल में जिंदा होते तो क्या करते । यह सवाल काल्पनिक है लेकिन मौजूं भी है । राजेन्द्र यादव ने अपने लेखकीय जीवन में हंस के नाम पर दो एक पुरस्कार लिए । उसको लेकर भी खासा बखेड़ा हुआ था । बिहार सरकार से लालू यादव के शासन के दौरे में राजेन्द्र यादव के पुरस्कार लेने पर कई लेखकों ने वितंडा खड़ा करने की कोशिश की थी । यादव जी पर जमकर साहित्यक हमले भी हुए थे लेकिन अपने स्वभाव के अनुकूल राजेन्द्र यादव अपने फैसले पर अडिग रहे थे । इसी तरह से जब हिंदी में विभूति नारायण राय का छिनाल विवाद उठा तब भी स्त्री विमर्श के उस पुरोधा राजेन्द्र यादव ने विभूति का समर्थन किया था । तब तमाम महिला संगठनों और लेखिकाओं ने उनकी लानत मलामत की थी लेकिन वो टस से मस नहीं हुए थे । इस वक्त यह जानना दिलचस्प होता कि राजेन्द्र यादवव का क्या स्टैंड होता । इसलिए जब मेरे मित्र ने ये सवाल पूछा तो मैं यादव जी के व्यक्तित्व और उनको जितना जाना उतने के आधार पर इसका जवाब तलाश करने लगा ।

इस वक्त के माहौल में अगर राजेन्द्र यादव जीवित होते तो उनका विरोध दादरी कांड के बाद शुरू नहीं होता । वो अपने संपादकीयों और वक्तव्यों से वो दो हजार तेरह से ही सत्ता के खिलाफ माहौल बना रहे होते । अगस्त दो हजार तेरह में जब दाभोलकर की हत्या की गई थी तब वो बेहद उद्वेलित थे लेकिन काल के क्रूर हाथों ने उसी साल अक्तूबर में यादव जी को हमसे छीन लिया । अपने संपादकीयों के माध्यम से यादव जी ने पूर्व में भी सांप्रदायकिता और कट्टरता पर हमला बोला था । मेरी कई बार उनसे उनके संपादकीयों को लेकर लंबी लंबी बहसें हुआ करती थी । वो इस बात को लेकर कन्विंस थे कि सांप्रदायिकता से देश को बड़ा खतरा है लेकिन छद्मधर्मनिरपेक्षता को लेकर भी उनकी चिंता गाहे बगाहे सामने आ जाती थी । यादव जी हिंदी धर्म की बुराइयों पर तगड़ा हमला करते थे लेकिन इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को लेकर उनके अपने तर्क थे । वो कहा करते थे कि पहले अपने घर को ठीक करो फिर दूसरे के घर की चिंता करना, हलांकि वो इस्लाम में बढ़ती कट्टरता को लेकर चिंता जाहिर करते थे । जब मुस्लिम कट्टरपंथी तस्लीमा नसरीन के खिलाफ थे उस वक्त राजेन्द्र यादव ने तस्लीमा का स्तंभ अपनी पत्रिका हंस में शुरू किया था । उस स्तंभ में तस्लीमा कट्टर पंथियों पर हमले करती थी । यादव जी कहा करते थे कि उनका यही प्रतिरोध है । आज के माहौल में अगर यादव जी जीवित होते तो अपनी पत्रिका हंस में इस मुद्दे पर व्यापक और गंभीर बहस चलाते । दोनों विचारधारा के लेखकों से लिखवाते क्योंकि राजेन्द्र यादव के रहते हंस में अस्पृश्यता नहीं थी और ना ही वो स्नॉब थे । जो करते थे डंके की चोट पर करते थे । वहां धुर वामपंथी भी छपते थे तो रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएं भी छपती थी । इस वजह से उनकी साख थी और आज के माहौल में साहित्यक जगत को इसी लेखकीय साख की जरूरत है । पुरस्कार वापसी से प्याले में तूफान में खड़ो हो सकता है लेकिन साख के अभाव में उसके व्यापक असर में संदेह है । 

No comments: