जितने लोगों ने साहित्य
अकादमी पुरस्कार लौटाए हैं उनमें से ज्यादातर वामपंथी हैं और ये पूरा मामला कहीं ना
कहीं राजनीति से प्रेरित है । यह कहना है साहित्य अकादमी से सम्मानित बुजुर्ग लेखक
गोविंद मिश्र का । इसके बाद हम गौर करें अरुण कमल के वक्तव्य पर जहां वो कहते हैं – साहित्य सभी तरह के
पुरस्कारों, सम्मानों और सुविधाओं का प्रतिकार करता है । इसलिए पुरस्कार आदि वापस करना
हमारा मुख्य मुद्दा है ही नहीं । मैंने अपने जीवन में अपने सिद्धांतों को त्याग कर
कभी भी पुरस्कार, सम्मान और लाभ अर्जित नहीं किया । अशोक वाजपेयी जैसे लेखक जो लगातार
सत्ता विरोधी लेखकों को कमतक करके आंकते रहे हैं उनकी दृष्टि अभी भी साफ नहीं हो पाई
है । साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित एक और लेखक वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी मानते
हैं कि कुछ लेखकों के साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाने को लेकर वो कोई दबाव महसूस
नहीं करते हैं । उनका कहना है कि साहित्यकार को सामाजिक और आर्थिक विषमताओं के मुद्दों
पर आंदोलन करना चाहिए । वो जोर देकर कहते हैं कि इस बात को सामने आना चाहिए कि लेखक
के सरोकार क्या हैं । लीलाधर जगूड़ी कहते हैं कि साहित्य अकादमी का काम कानून व्यवस्था
को ठीक करना नहीं है । ये तीन वरिष्ठ लेखकों के वक्तव्य हैं जो कि कमोबेश अलग अलग धारा
के हैं । अब इन वक्तव्यों के आलोक में हम साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने के पीछे की
राजनीति की पड़ताल करते हैं तो वहां सिसायत की एक अलग तरह की रेखा दिखाई देती है ।
सिसायत केंद्र सरकार के खिलाफ और सियासत साहित्य अकादमी की स्वायत्ता के खिलाफ । साहित्य
अकादमी पुरस्कार लौटाने की शुरुआत उदय प्रकाश ने की उस वक्त मुद्दा था कालबुर्गी की
हत्या के बाद साहित्य अकादमी की संवेदनहीनता । तब यह भी प्रचारित किया गया था कि साहित्य
अकादमी से सम्मानित लेखक कालबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी ने ना तो विरोध
जताया और ना ही उन्होंने कोई शोक सभा की । कालांतर में यह बात भी झूठ साबित हुई जब
यह बात सामने आई कि साहित्य अकादमी ने बैंगलोर में कालबुर्गी की हत्या के बाद एक शोक
सभा की थी जिसमें अकादमी के उपाध्यक्ष कंबार समेत कई स्थानीय लेखक मौजूद थे । अब इस
बात पर विचार होना चाहिए कि पुरस्कार वापसी अभियान की शुरुआत की जो बुनियाद थी उसमें
झूठ की भी एक ईंट थी । उदय प्रकाश के बाद दो धवलकेशी साहित्यकारों- अशोक वाजपेयी और
नयनतारा सहगल ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान किया । अबतक साहित्यकारों
पर हो रहे हमलों का प्रतिरोध हो रहा था लेकिन इन दो लेखकों ने इसमें बहुलतावादी संस्कृति
पर खतरे को भी अपने प्रतिरोध से जोड़ दिया । इन्होंने दादरी हत्याकांड और गोमांस विवाद
पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल खड़े कर दिए । अशोक वाजपेयी और नयनतारा सहगल के
बाद तो करीब दो दर्जन साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया
। साहित्य अकादमी पर भी दबाव बना और उसके अध्यक्ष ने तेइस अक्तूबर को कार्यकारिणी की
बैठक बुलाने का एलान कर दिया। लेकिन अशोक वाजपेयी और नयनतारा सहगल के केंद्र सरकार
को इसमें घसीटने के बाद धीरे-धीरे विरोध करनेवालों की मंशा साफ होने लगी । आज तक वामपंथियों
के निशाने पर रहे अशोक वाजपेयी अचानक से उनको अच्छे लगने लगे । लेकिन खेल इतना सीदा
नहीं था । इस खेल के पीछे हैं केंद्र सरकार पर हमले की आड़ में साहित्य अकादमी में
अराजकता पैदा करना । साहित्य अकादमी की इस अराजकता की आड़ में उसके अध्यक्ष को अस्थिर
करना । अब इस बात का खतरा पैदा हो गया है कि इस स्वायत्त संस्था पर इस अराजकता की आड़
में संस्कृति मंत्रालय दखल दे और इसका हाल भी ललित कला अकादमी जैसा हो । हमारा साहित्य
अकादमी पुरस्कार लौटा कर प्रतिरोध जता रहे लेखकों से इस बात को लेकर ही विरोध है कि
वो परोक्ष रूप से सरकार की मदद कर रहे हैं । वो एक ऐसी जमीन तैयार करके सरकार को दे
रहे हैं जो भविष्य में साहित्य अकादमी की स्वायत्ता के लिए खतरा हो सकती है । यह बात
इस वजह से कह रहा हूं कि इन लेखकों ने पूर्व में साहित्य अकादमी की गड़बड़ियों पर कभी
भी रोष नहीं जताया । पुरस्कारों के लिए लेखकों के चयन में होनेवाली धांधली पर इन्होंने
कभी भी एतराज नहीं जताया क्योंकि साहित्य अकादमी में मिल बांट कर खाने की परंपरा चली
आ रही है । क्या इन लेखकों के कभी साहित्य अकादमी के संविधान में लंबे समय से चली आ
रही खामियों पर कोई सवाल उठाया । क्या पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों ने कभी भी साहित्य
अकादमी की सामान्य सभा के सदस्यों के चुनाव में होनेवाली धांधली पर सवाल खडडे किए ।
क्या कभी इन लेखकों ने साहित्य अकादमी की गतिविधियों में पारदर्शिता लाने की मांग करते
हुए कोई आवाज उठाई । क्या इन लेखकों ने साहित्य अकादमी के लेखकों में हित में काम करने
के लिए दबाव बनाने के लिए कुछ किया । हर सवाल का जवाब मिलेगा नहीं । लिहाजा अब जब वो
साहित्य अकादमी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं तो अपेक्षित माहौल नहीं बन पा रहा है
।
साहित्य अकादमी के गठन
के बाद से ही उसके संविधान में कई गड़बड़ियां हैं । भारत के संविधान में काल और परिस्थिति
के हिसाब से करीब सौ संशोधन हो चुके हैं लेकिन अकादमी के संविधान में कितने संशोधन
हुए हैं ये ज्ञात नहीं है । 1954 में जब साहित्य अकादमी की स्थापना की गई थी तो कौशल
विकास और शोध प्रमुख उद्देश्य थे । तकरीबन छह दशक के बाद भी साहित्य अकादमी देश की
सभी भाषाओं में शोध और कौशल विकास को अपेक्षित स्तर पर नहीं ले जा पाई ।
सत्रह दिसंबर दो हजार तेरह को संसद के दोनों सदनों में सीताराम येचुरी की अध्यक्षता
वाली एक संसदीय कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी । इस रिपोर्ट में साहित्य अकादमी,
संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी के अलावा इंदिरा गांधी कला केंद्र और राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय के कामकाज पर टिप्पणियां की गई थी । येचुरी की अगुवाई वाली इस समिति
ने माना था कि साहित्य अकादमी के पुरस्कारों में पारर्दर्शिता का अभाव है । अकादमियों
की इन बदइंतजामियों के बारे में संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट के पैरा 56 में लिखा-
समिति यह दृढता से महसूस करती है कि ऐसी स्थिति को बनाए नहीं रखा जा सकता है और इन
अकादमियों को व्यवस्थित करने के लिए कुछ करने का यह सही समय है । सांस्कृतिक संस्थानों
के कार्यक्रमों की नियमित समीक्षा की जानी चाहिए । ये समीक्षाएं बाहरी व्यक्तियों और
समितियों द्वारा की जानी चाहिए और उन्हें उन वार्षिक प्रतिवेदनों में शामिल किया जाना
चाहिए । संसदीय समिति की इस रिपोर्ट के बाद जनवरी 2014 में यूपीए सरकार के दौरान अभिजीत
सेन की अध्यक्षता में एक हाई पॉवर कमेटी का गठन किया गया । अकादमियों के कामकाज की
समीक्षा के बारे में 1988 में हक्सर कमेटी बनी थी और तकरीबन पच्चीस साल बाद अब सेन
कमेटी का गठन हुआ था । इस कमेटी में नामवर
सिंह, रतन थियम, सुषमा यादव, ओ पी जैन आदि सदस्य थे । इस कमेटी का गठन इन अकादमियों
के संविधान और उसके कामकाज में बदलाव को लेकर सुझाव देना था । इस कमेटी ने मई 2014
में अपनी रिपोर्ट पेश की । लगभग सवा सौ पृष्ठों की रिपोर्ट में इस कमेटी ने भी माना
कि इन अकादमियों में जमकर गड़बड़झाले को अंजाम दिया जा रहा है । इस कमेटी ने अपनी सिफारिश
में कहा है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की उम्र सीमा भी 70 साल हो । उपाध्यक्ष के
पद को बेकार मानते हुए उसे खत्म करने और सचिव का कार्यकाल तीन साल करने की सिफारिश
की गई है ।
इसके अलावा अगर हम साहित्य अकादमी के संविधान पर गौर करें तो सामान्य सभा के चुनाव
में जिस तरह से सदस्यों का चुनाव होता है वह माफियागीरी को बढ़ावा देता है । हर भाषा
के नुमाइंदे बंटवारा कर लेते हैं और चुनाव हो जाता है । इसी तरह से अगर किसी भाषा का
प्रतिनिधि अपने कार्यकाल के बीच में सदस्यता छोड़ता है या उसका निधन हो जाता है तो
उसकी जगह खाली रहेगी । ये विसंगति दूर होनी चाहिए और सामान्य सभा के सदस्यों का चुनाव
मतपत्र के आधार पर होना चाहिए । इस तरह की पारदर्शिता के बगैर अकादमी ना तेवल अपनी
साख खोती जा रही है बल्कि स्वायत्ता खत्म करने के लिए सरकार के हाथ में हथियार भी दे
रही है । आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान अध्यक्ष और सचिव साहित्य अकादमी को उसके
मूल उद्देश्यों की ओर ले जाएं और वहां प्रतिभा का सम्नान हो । सेटिंग गेटिंग का खेल
साहित्य अकादमी में बंद होना चाहिए ।
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