एक लंबे अर्से से हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी का रोना रोया जाता रहा है ।
इस बात को हर सभा गोष्ठी में बहुत जोर शोर से रेखांकित किया जाता रहा है कि हिंदी साहित्य
के पाठक घट रहे हैं, लिहाजा साहित्य पर बड़ा संकट आन पड़ा है । यह बहुत हद तक सही भी
हो सकता है क्योंकि बहुत सारे मित्रों का अनुभव है कि जब भी रचनाएं छपती हैं तो उसपर
ज्यादातर प्रतिक्रियाएं साठ पार के पाठकों की आती हैं । ऐसे लोगों का कहना है कि युवा
पाठकों को जोड़ने का काम हिंदी साहित्य में नहीं किया जा रहा है । हो सकता है इसमें
सचाई हो लेकिन इसका एक और पक्ष भी है । वह है साहित्यकारों का युवा मन को पकड़ पाने
में नाकामी । आज भी हमारे देश के हिंदी साहित्य में रुचि रखनेवाले युवा धर्मवीर भारती
का उपन्यास – ‘गुनाहों का देवता’ और मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कसप’ पढ़ते हैं । ये दोनों उपन्यास जब लिखे गए थे तब
भारती और जोशी दोनों पाठकों को समझ रहे थे । हिंदी साहित्य के पाठकों की कमी का रोना
रोनेवाले लेखकों को समझना होगा कि वो पाठकों की ना तो रुचि को समझ पा रहे हैं और ना
ही देश काल और परिस्थिति के मुताबिक लेखन कर रहे हैं । पाठकों की रुचि का उत्तरोत्तर
विकास होता जा रहा है और हमारी कहानियां अब भी ‘यथार्थ की नई जमीन’ तोड़ रही हैं । करीब साल
भर पहले पटना पुस्तक मेले के एक सेमिनार में मैंने कह दिया था कि हिंदी का लेखक लगभग
तानाशाह होता है । मेरे इस कथन पर उस वक्त बहुत लानत मलामत हुई थी लेकिन अब तो कमोबेश
इसी तरह के स्वर अशोक वाजपेयी जैसे लेखकों की लेखनी से भी उठने लगे हैं । लेखकों के
तानाशाह होने का अर्थ है कि उनको पाठकों की रुचि आदि का ध्यान नहीं है वो बस अपने मन
मुताबिक लेखन करते चलते हैं । यह तर्क ठीक हो सकता है कि लेखन पाठकों की रुचि को ध्यान
में रखकर नहीं किया जा सकता है , वो तो लेखक की संवेदना और जीवन जगत के अनुभवों के
आधार पर ही होता है । लेकिन यह भी उतना ही वाजिब है कि लेखक को जमाने के साथ कदमताल
करना चाहिए । अगर जमाना आगे बढ़ता चला जा रहा है और आप अपने अनुभवों और संवेदनाओं के
साथ उसी जगह पर स्थापित होकर अपनी बात कह रहे हैं तो बहुत संभव है कि आप पिछड़ जाएं
। कमोबेश हिंदी साहित्य लेखन के साथ यही हो रहा है । पाठकों की रुचियां पंख लगाकर उड़
रही हैं और लेखक अपने यथार्थ को थामे बैठे हैं । दूसरी बात जो पाठकों को साहित्य से
दूर कर रही हैं वो है भाषा को लेकर प्रयोग करने की झिझक । अब अगर आप इन दिनों भी भारतेंदु
युग की या फिर किशोरी दास वाजपेयी के वक्त की भाषा का इस्तेमाल करेंगे तो पाठको को
दिक्कत होगी क्योंकि वो उस भाषा में संस्कारित नहीं हो रहा है । अब सरिता, नदी और जल,
पानी बन चुका है । ये तो सिर्फ उदाहरण हैं । भाषा के साथ खिलवाड़ का पक्षधर मैं भी
नहीं हूं, लेकिन भाषा के साथ खिलंदड़ी को होनी चाहिए । समय की नब्ज पर हाथ रखनेवाले
लेखक अपनी भाषा को इस तरह से इस्तेमाल करते हैं कि वो आधुनिक हो जाती है और अब तो उत्तर
आधुनिक काल भी पीछे छूटता नजर आ रहा है । दूसरे हिंदी के लेखकों, जब मैं लेखकों कहता
हूं तो उसमें कहानीकार, उपन्यासकार के अलावा कवि भी शामिल होते हैं, को एक खास किस्म
के फॉर्मूलाबद्ध विचारधारा के बोझ तले लेखन की गुलामी से भी खुद को मुक्त करना होगा
। कविताओं में नारेबाजी और कहानियों में वर्ग संघर्ष के चित्रण से बचना होगा । कहना
ना होगा कि इन दो चीजों का लंबे समय तक ओवरडोज पाठकों को साहित्य से दूर लेकर गया ।
इसका मतलब यह नहीं है कि रचना विचारशून्य हो लेकिन विचार-प्रधान रचनाओं की बहुलता साहित्य
के लिए घातक साबित हुई है और अब भी हो रही है । नतीजा यह है कि अब साहित्य के प्रकाशकों
ने कविता संग्रह छापने से लगभग तौबा कर ली है । कहानी संग्रह को छापने को लेकर भी उनके
अंदर खासा उत्साह नहीं देखने को मिलता है । हां साहित्य से इतर विषयों को लेकर प्रकाशक
अब भी उत्साहित रहते हैं । इसकी वजह की पड़ताल की आवश्यकता नहीं है । प्रकाशक तो कारोबारी
है उसको जहां लाभ दिखाई देगा वो उसको छापेगा ।
दूसरे पिछले कई दशकों में प्रकाशकों और लेखकों ने मिलकर पाठकों को जबरदस्त तरीके
से ठगा है । इस शब्द के इस्तेमाल पर दोनों समुदाय के लोगों को आपत्ति हो सकती है लेकिन
यह हुआ है । उदाहरण के तौर पर अगर हम हिंदी कहानी को लें तो पहले किसी कहानीकार का
संग्रह छपता है, थोड़े दिनों बाद किसी अन्य प्रकाशक से मेरी प्रिय कहानियां नाम से
संग्रह छपकर आता है, फिर थोड़े वक्त के बाद मेरी चुनिंदा कहानियां छपकर आता है, फिर
प्रतिनिधि कहानियां, चर्चित कहानियां आदि के नाम से संग्रह छपकर आते हैं । इन सभी संग्रहों
में कहानियां लगभग वही रहती हैं । मतलब यह कि अगर आपने दस कहानियां लिखी है तो इस बात
की संभावना आपके सामने है कि आपके बारह संग्रह छप सकते हैं । इतना सब होने के बाद संपूर्ण
कहानियों के साथ सभी कहानियां एक जिल्द में छपकर आ जाती हैं । अब अगर पाठक किसी लेखक की प्रिय कहानियां खरीद लेता
है और साल भर उसी लेखक की चर्चित कहानियां खरीदता है तो अपने को ठगा महसूस करता है
क्योंकि उसकी ज्यादातर कहानियां उसकी पढ़ी होती हैं । यह गड़बड़ी क्यों होती है ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? इस पर अगर विचार करते हैं
तो लेखक और प्रकाशक दोनों कठघरे में नजर आते हैं । प्रकाशक इस तरह की जुगत इस वजह से
करते हैं ताकि पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट करते हुए मुनाफा कमा सकें । प्रकाशक कारोबारी
है लिहाजा उनका दोष कम है, लेकिन उनको भी समझना होगा कि इस तरह के शॉर्ट कट कालांतर
में उनको नुकसान पहुंचा सकते हैं । परंतु लेखकों का यह कृत्य समझ से परे हैं । सतह
पर जो दिखता है वो है लेखक की लालच । लेखक की भी आकांक्षा पैसे कमाने की होती है, लिहाजा
वो इस तरह की ठगी को ना तेवल प्रोत्साहित करता है बल्कि उसके साथ भी हो जाता है । लेखक
पैसे कमाने की अपनी चाहत को भले ही वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचने के तर्क के आवरण
में ढकें, लेकिन वो हास्यास्पद होता है । अब तो एक और नया ट्रेंड शुरू हो गया है कि
कोई बड़ा लेखक अपनी पसंद की कहानियां छांट कर किताबें बना दे रहा है जिनमें कई कहानीकारों
की कहानियां होती हैं ।
अंग्रेजी के सलेक्टेड वर्क्स की तर्ज पर हिंदी में भी संचयन छपने लगे हैं । संचयन हिंदी में अंग्रेजी के रास्ते आया है जहां सलेक्टेड
वर्क्स की लंबी और समृद्धशाली परंपरा रही है । हिंदी में संचयन को बहुत कैजुअली लिया
जाता है और किताब बनाने की गरज से संचयन छाप दिया जाता है । संचयन के संपादनकर्ता लेखक को समग्रता में देख-पढ़कर उसमें से उनकी रचनाएं छांटने
में अबतक लगभग असफल रहे हैं या उसको करना नहीं चाहते हैं ये शोध का विषय है। हिंदी में संचयन के प्रकाशन की परंपरा का पूर्णत विकास होना
शेष है । इसके अलावा संचयन के साथ जो एक बड़ी दिक्कत है वो है उसकी कीमत की । किसी
लेखक के संचयन और उसके समग्र में ज्यादा का फर्क नहीं है । उदाहरण के तौर पर अगर हम
मुक्तिबोध संचयन और मुक्तिबोध रचनावली को देखें तो संचयन सात सौ रुपए में मिल रहा है
और छह खंडो में प्रकाशित पेपरबैक रचनावली की कीमत बारह सौ रुपए है । अब मुक्तिबोध के
पाठकों के सामने द्वंद की स्थिति होती है । प्रिय, चर्चित, पसंदीदा, दस, ग्यारह आदि
के नाम प्रकाशित होने के बाद संचयन और सबकुछ चुक जाए तो समग्र या संपूर्ण कहानियां
प्रकाशित होती हैं और उसके बाद रचनावली । यह क्या है । क्या
कभी लेखकों ने इसपर विचार करने की जहमत उठाई । क्या कभी जनपक्षधरता के पैरोकारों ने
आम पाठकों के लिए इस तरह की आवाज बुलंद की । क्या कभी किसी लेखक संगठन के वार्षिक सम्मेलन
आदि में पाठकों के साथ इस छल के खिलाफ प्रस्ताव पारित हुआ । साहित्य के किसी फोरम पर
इसपर बात हुई । रॉयल्टी के नाम पर छाती कूटनेवाले भी इस ठगी पर खामोश रहे । लंबे समय
तक ठगा जानेवाला पाठक अगर अब साहित्य से दूर जा रहा है तो इसकी जिम्मेदारी किस पर है
। अब वक्त आ गया है कि हिंदी साहित्य से जुड़े तमाम लोग इस साहित्यक गड़बड़झाले पर
विमर्श करें और इसको रोकने की पहल भी शुरू की जानी चाहिए ।
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